बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन
प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
आधुनिक समीक्षा पद्धति : 'आज की समीक्षा' प्राचीन समीक्षा से कई अर्थों में भिन्न है। वह प्राचीन समीक्षा में परिष्कार चाहती है, क्योंकि आज के नवलेखन का वह सही मूल्यांकन नहीं कर पाती है। नयी रचनाओं की संवेदना और उसके सौन्दर्य की परख के लिए नई समीक्षा पद्धति की आवश्यकता है। आज की समीक्षा नवलेखन की उपज है। वह आज भी प्राचीन मानों को अस्वीकार कर नये मानों की खोज में है। नवलेखन से सम्बद्ध लेखकों में ही इस समीक्षा के सूत्र निहित हैं। मात्र सूत्र ही निहित हैं क्योंकि नवलेखन के क्षेत्र में कोई ऐसा समीक्षक नहीं है, जो नवीन मानों को सुनिश्चित कर सका हो, वैसे समीक्षा क्षेत्र में आचार्य द्विवेदी से लेकर वि. ना. साही तक इस क्षेत्र में अनेक समीक्षक कार्य करते रहे हैं। नवलेखन के क्षेत्र में अज्ञेय और मुक्तिबोध ने विभिन्न कृतियों पर समय-समय पर विचार करते समय या सम्पादन करते समय साहित्य के मूल प्रश्नों पर विचार व्यक्त किये हैं।
आज के सर्जक की दृष्टि यथार्थवादी है। अतः उसका चिन्तन, जीवन-मूल्य और भाव पहले से भिन्न है, वह अपने भोगे हुए को वास्तविक मानता है, परिणामतः उसकी संवेदनाएँ पहले से भिन्न हैं, चूँकि जीवन जटिल है, व्यक्ति का व्यक्तित्व दुहरा है। अतः यह संवेदनाएँ भी प्रायः जटिल हैं, किसी एक भाव की सत्ता की खोज उसमें सम्भव नहीं है। "वह देखता है, अनुभव करता है कि प्राचीन जीवन मूल्य टूट रहे हैं, सारे आदर्श खोखले हो रहे हैं, चारों ओर बिखराव है, टूटन है, अकेलापन है, इनके बीच कुछ उगती हुई आस्थाएँ हैं, फिर वे टूट जाती हैं।' यह सत्य सर्जक को एक अजब चक्रव्यूह में डाल देता है। कवि छोटी-छोटी कविता में भी अनेक उलझी संवेदनाओं को व्यक्त करता चलता है, पूरे के पूरे सर्जन में ऐसा लगता है कि हमारे भीतर की अनेक परस्पर लिपटी तहें उभरती चली आ रही हैं, हम भीतर ही भीतर महसूस करने लगते हैं कि एक ही साथ कुछ संवेदनाएँ, कुछ प्रश्न, कुछ टूटती हुई सत्ता का बोध, कुछ बनती हुई जिन्दगी की आवाज है। बिम्बों और विशेषतया खंडित बिम्बों की योजना ऐसे सत्यों की अभिव्यक्ति में बड़ी सहायक होती है। अतः आज की समीक्षक समीक्षा का उद्देश्य जीवन की जटिलताओं को समझना चाहता है, नवीन मानव मूल्यों को वह परखना चाहता है, जीवन चेतना को समझने की यह दृष्टि देना चाहता है।
क्या कोई कलाकार आत्मकेन्द्रित होकर समाज से निस्संग रहकर सर्जन कर सकता है। इस सम्बन्ध में मुक्तिबोध का विचार है कि “कवि, कहानी लेखक, उपन्यासकार का सौन्दर्य प्रतीत में वह सामाजिक दृष्टि सन्निहित है, जिसका उसने उन जीवन-प्रसंगों के मार्मिक आंकलन के समय उपयोग किया था। इस सामाजिक दृष्टि के बिना वह सौन्दर्य प्रतीत ही असम्भव हो सकती थी। भले ही वह दृष्टि या प्रभाव परम्परा, राजनीतिक वातावरण अथवा अपने प्राचीन या नवीन संस्कारों से प्राप्त की हो, किन्तु समाज और अपनी सामाजिक दृष्टि के बिना यह मूल्यांकन सम्भव नहीं है।
आज की समीक्षा का दूसरा सत्य है, सृष्टा और परिवेश का जीवित सम्बन्ध। यह परिवेश रचनाओं में नाना रूपों में व्यक्त होता है। प्राचीन कवि या लेखक कल्पना लोक में, वायवीय संसार में रहता हुआ सृजन करता था, किन्तु आज का सर्जक अपनी रचना में पूर्णतः समाहित रहता है। उसका टूटा हुआ, खण्डित व्यक्तित्व रचना में घुला मिला रहता है अतः रचनाकार के व्यक्तित्व को समझना किसी रचना को समझने का मूल आधार है। अतः आज की समीक्षा का एक भाग है सर्जक का व्यक्तित्व और उसका परिवेश।
इस प्रकार आधुनिक समीक्षा पद्धति समाजशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों की उपलब्धियों से आलोकित है।
आधुनिक समीक्षक रचनाकार के सर्जन के मूलभूत तत्व और उनके रूपों का भी विवेचन करता है। सर्जन की मूल प्रक्रिया से भिन्न दृष्टियों से प्राप्त तत्वों या सत्यों को वह स्वीकार नहीं करती, भले ही वे तत्व अत्यन्त मूल्यवान हों। चाहे रस हो, चाहे प्रेषणीयता का प्रश्न हो, चाहे भाषा का सवाल हो, चाहे बड़े-बड़े सामाजिक मूल्यों की समस्या हो, चाहे आधुनिक बोध हो, चाहे परम्परागत प्रतीतियाँ हो, चाहे शालीनता अश्लीलता का सवाल हो, सभी को आज की समीक्षा सर्जन के मूल - प्रश्नों के साथ सम्बन्ध करके देखने का प्रयत्न कर रही है।"
साहित्य का मूल धर्म क्या है? सौन्दर्य की सृष्टि अथवा जीवन की वास्तविक चेतना की अभिव्यक्ति। आज का समीक्षक सौन्दर्य की सृष्टि को महत्व देता हुआ भी जीवन की चेतना को अधिक महत्व देता है। डॉ. मिश्र ने ठीक लिखा है कि "निश्चय ही यह जीवन-चेतना का रूपांकन सर्जक के व्यक्तित्व के माध्यम से होने के नाते उसकी संवेदना में लगा होता है, साथ ही उसकी जीवन-दृष्टि और बौद्धिक चेतना से लिपटा भी होता है। उनका कहना है कि समकालीन जीवन चेतना अपनी अभिव्यक्ति में रसमयी ही नहीं होती, वह हमारी बौद्धिक चेतना को जगाती भी है और मन को केवल तुष्ट करने के स्थान पर प्रश्नानुकूल भी कहती है।
आज का समीक्षक कविता की प्रेषणीयता के प्रश्न पर भी गम्भीर चिन्तन करता है। यह प्रश्न पुरातन होते हुये भी चिर- नूतन है। हर युग की कविता के सन्दर्भ में यह प्रश्न उठता रहा है, आज भी उठ रहा है। नव लेखन के कवियों ने भी इस पर विचार किया है, किन्तु आज का विचारक मानता है कि सर्जक के समक्ष प्रश्न प्रेषणीयता का नहीं है, उसके समक्ष प्रधान प्रश्न अभिव्यक्ति का है। वह पूरी ईमानदारी से व्यक्त करना चाहता है। अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द है। वह सामूहिक सम्पत्ति है, अतः वह व्यक्त होने के बाद प्रेषित भी होता है। "लेकिन प्रेषित होने में उसकी कला कुशलता और पाठक की जागरूकता दोनों सहायक होते हैं।'
आज की समीक्षा की महत्वपूर्ण उपलब्धि है - शिल्प विधि का चिन्तन। यह भाषा और भाव को अलग-अलग नहीं देखती। प्राचीन साहित्य में भी शब्द और अर्थ की एकता पर विचार हुआ था। "किन्तु सर्जन की प्रक्रिया के स्तर पर भाषा पर विचार करने की प्रवृत्ति का विकास नवलेखन में विशेष रूप से हुआ है। भाषा और भाव की विशेषता अलग-अलग नहीं हो सकती। हर शब्द किसी न किसी अर्थ से, गूढ़ भाव से संपृक्त होता है। कलाकार शब्दों के स्वभाव को, यानी उनके भीतर निहित भाव को पहचानता है और नये संदर्भों में उनका प्रयोग कर नयी अर्थ - छवियों से उन्हें जोड़ता है। भाषा का सर्जन से अपरिहार्य योग है, वह ऊपरी चीज नहीं है। भाषा की शक्ति की कमी को कवि लय से पूरा करता है।
आज के लेखन की भाषा की महत्वपूर्ण उपलब्धि बिम्ब-योजना। "आज की जटिल, खण्डित संवेदनाओं और बोधों को व्यक्त करने के लिए बिम्बों और विशेषतया खण्डित बिम्बों और मुक्तसाहचर्य की योजना हो रही है। बिम्बों की योजना आज सर्जन की अनिवार्य आवश्यकता है।" इसी प्रकार सर्जक प्रतीकों का भी सहारा लेकर अभिव्यक्ति करता रहा है, किन्तु "आज के युग में उसकी अनिवार्यता अधिक बढ़ गयी है। प्रतीक योजना से कविता दुरूह तो बनती है किन्तु वह काव्य के साध्य को व्यक्त करने के लिए कहीं-कहीं अपरिहार्य हो उठती है। अज्ञेय जी ने 'आत्मनेपद' के प्रतीकों का महत्व निबन्ध में प्रतीक योजना को जीवित भारतीय काव्य की मुख्य विशेषता माना है। सर्वाधिक जीवंत जंनसाहित्य सदा से और सबसे अधिक प्रतीकों और अन्योक्तियों के सहारे ही अपना प्रभाव उत्पन्न करता है।
आधुनिक समीक्षा में शिल्प सम्बन्धी अनेक तथ्यों पर विचार हुआ। तुक, मात्रा, लय, छन्द, उपन्यास तथा कहानी आज की भाषा, आंचलिक उपन्यासों की शिल्प प्रक्रिया आदि पर भी आज की समीक्षा में विचार हुआ है और हो रहा है। अन्त में निष्कर्ष यही है कि "आज की समीक्षा भी मूलतः अनुभव को ही प्रधानता देती है। परिवेशगत अनुभव पर बल देकर आज की हिन्दी समीक्षा मूलतः साहित्य में जीवन को महत्व देती है।'
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