बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन
अध्याय - 5
नई समीक्षा एवं आधुनिक समीक्षा पद्धति
प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
उत्तर -
नयी समीक्षा - पाश्चात्य समीक्षाशास्त्र में जिस आलोचनात्मक प्रवृत्ति का नाम नई समीक्षा पड़ा है, उसका प्रयोग अमरीका में सबसे पहले 'नैशविल' से प्रकाशित द फ्यूजिटिव (1922-25) के लेखकों की रचनाओं में हुआ था, और उसके नेता जॉन क्रो रैसम को नई समीक्षा के नेतृत्व का श्रेय मिला। नयी समीक्षा (न्यू क्रिटिसिज्म) शब्द भी रैंसम की पुस्तक 'द न्यू क्रिटिसिज्म (1941 ) में आया है और आज भी यह शब्द आलोचनात्मक विचार श्रृंखला की महत्वपूर्ण कड़ी बन गया है।
नयी समीक्षा ऐतिहासिक आलोचना के प्रति प्रतिक्रिया के फलस्वरूप अस्तित्व में आई। इसमें इलिएट एवं रिचर्ड्स का योगदान प्रमुख रहा है, क्योंकि उन्होंने एक ऐसी आधारभूमि विकसित की जिस पर नये समीक्षकों ने मूलपाठ के सूक्ष्म भाषिक अध्ययन की विधि का निर्माण किया है। इलियट और रिचर्डस को प्रेरणा श्रोत के रूप में ग्रहण कर आलोचना की पाठकीय समीक्षा पद्धति को उसके चरम पर पहुँचा दिया। बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक में इस नई समीक्षा को इसके प्रमुख आलोचकों रैंसम, एलन टेट, ब्लैकमूर, रावर्ट पेन वारेन, क्लींथ ब्रुक्स तथा एम्वसन के कार्य विशेष महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
नयी समीक्षा के समय प्रचलित आलोचनात्मक प्रणालियों में मानवतावादी और मार्क्सवादी विचारकों के विचारों में यद्यपि मतभेद था, पर उनके दृष्टिकोण में समानता थी। मानवतावादी विचारकों ने साहित्य में रुचि ली, तो उसके नैतिक, धार्मिक, सामाजिक उपयोग पक्ष की ओर आकृष्ट होने के कारण। उधर मार्क्सवादी विचारकों ने उसे प्रचार साधन अथवा समाजशास्त्रीय दृष्टि से मात्र देखने का प्रयास किया। परम्परागत शास्त्रीय आलोचना में कृति के बजाय कृतिकार पर अधिक जोर देकर इस स्थिति को और भी जटिल बनाया गया। ऐसे में, इस तरह के आलोचनात्मक आन्दोलन की आवश्यकता थी, जो मार्क्सवाद, मानववाद और शास्त्रीय समीक्षा प्रणाली के बंधन को स्वतन्त्रता दिला सके। क्लींथ ब्रुक्स ने 'द वेल रॉटअर्न' में इसी भावना के अनुरूप साहित्य के सामान्य सिद्धांतों में ढूँढ़ने का प्रयत्न किया, जिसको उसने संक्षेप में इस प्रकार रखा है-
(1) कविता अपनी रचना के युग की भावना ( अथवा संवेदनशीलता) के आधर की अभिव्यक्ति करती है।
(2) अतीत के आलोचक काव्य को आत्मनिष्ठता की कसौटी पर कसने के लिए उतने ही योगय थे, जितने हम।
(3) काव्य वही है, जिसे किसी भी समय, किसी भी स्थान पर प्रतिष्ठित निर्णायकों ने काव्य की संज्ञा दी हो।
(4) किसी भी युग की कविता कभी गलत रास्ते पर नहीं जाती। हो सकता है कि संस्कृति गलत राह पर चल दे, सभ्यता का विपथन हो जाय, आलोचना दिशा भ्रष्ट हो जाय, परन्तु समष्टिगत अर्थ में कविता कभी गलत राह पर नहीं जा सकती।
(5) अतः हर कविता को उसकी वैयक्तिक संवेदनशीलता के आलोक में परखा जाना चाहिए, जो उसकी उत्कृष्टा एवं विकृष्टता की कसौटी भी होती है।
नयी समीक्षा के विचारकों का मानना था कि जब हम किसी कलाकृति की समीक्षा करके उस पर कोई निर्णय लेते हैं, तो उस निर्णय में हमारी समस्त ऐतिहासिकता की भावना और मानव की नियति समाहित रहती है। संवेदना पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती रहती है, किन्तु अभिव्यक्ति को कोई प्रभावशाली ही बदल सकता है। इनका मानना था कि किसी भी राष्ट्र में भाषिक क्रान्ति से अधिक महत्वपूर्ण और कुछ नहीं होता है। रैंसम ने कलाकृति में शब्द-विधान और उसके अर्थ- विधान की चर्चा करते हुए लिखा है कि: अर्थ विधान शास्त्र की भाषा की चीज है और शब्द विधान काव्य के भाषा की। एलेन टेट ने काव्य में वाच्यार्थ और लक्षार्थ के बीच सामंजस्यपूर्ण प्रतिमानों की चर्चा की।
इलियट ने नयी समीक्षा की नीति रखते हुए 1921 में ही लिखा कि आलोचना की ईमानदारी इसी में है, कि वह कवि की ओर नहीं, कविता की ओर उन्मुख हो और तभी संवेदनापूर्ण रसास्वादन संभव है। नये समीक्षक भी कहते हैं कि कवि हमें कविता ही देता है, कुछ और नहीं और कविता से बाहर की किसी भी वस्तु पर विचार करना गलत है, जो उस कविता को आलोकित करने में सहायक न हो, अर्थात् इसका अर्थ यह है कि हम किसी कलाकृति की ओर सौन्दर्यानुभूति के नाते आकृष्ट होते हैं जैसे हम नाटक देखने अथवा संगीत सुनने के लिए रंगशाला में जाते हैं, कलाकारों की जीवनी के लिए सामग्री एकत्र करने अथवा किसी समाज अथवा किसी सभ्यता के उत्थान - पतन के इतिहास का अध्ययन करने नहीं जाते, हालांकि यह सच हैं कि ये सब प्रसंगतः उसमें से उभरकर सामने आती है। स्वीगार्न ने भी बाद में नयी समीक्षा (1970) लीविस की बात का समर्थन किया कि समाजशास्त्री को भी किसी कलाकृति में से तभी कुछ अधिक मिल सकता है जब कि वह काव्य में से आँकड़े न छाँटे बल्कि उसे एक साहित्यिक आलोचक की नजर से देखे।
नयी समीक्षा के आलोचकों ने काव्य की अद्वितीयता को उभारने का अपना निजी तरीका निकाला है। रिचर्ड्स ने भावात्मक और निर्देशात्मक अर्थ का एम्पसन ने अनेकार्थता का, रैंसम ने शब्द विधान और अर्थ विधान का, क्लींथ ब्रुक्स ने विरोधाभास का, वारेन ने वक्रोक्ति का, इलिएट ने मूर्त विधान का, और ब्लैकमर ने भंगिमा का। इस प्रकार प्रत्येक आलोचक का अपना एक मूलमंत्र है, जिसके अनुसार वह समीक्षा कार्य को करता है।
रैंसम कविता के मूल्यांकन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आलोचक को चाहिए कि वह कविता को किसी दुःसाध्य प्रमेयवादी या तत्वमीमांसीय कौशल से किसी प्रकार कम न समझें। आलोचक को एक ऐसे प्रमेयवाद का एक ऐसी सत्ता का विश्लेषण करना पड़ता है, जिसका विश्लेषण विज्ञान द्वारा सर्वथा असंभव है। कवि अपनी कविता में उस सत्ता को हमारे सम्मुख वस्तुगत परिपूर्णता को प्रस्तुत करता है। ताकि हमें वास्तविक मूल्यों का बोध हो सके। एकमात्र कला को ही ऐसी शक्ति से संकलित माना गया है, जो हमारे समक्ष गुणात्मक घनत्व या मूल्यगत घनत्व प्रस्तुत करती है। वह आगे कहता है कि यह विश्व परस्पर विरोधी सम्बन्धों और अन्तर्व्याप्ति से पूर्णतः आपूरित है। कविता काव्यभाषा की सघनता या व्यंजकता के द्वारा उसका चित्रण करती है। सघनता और वैशिष्ट्य का संबंध कविता के शब्द-विधान से है। अतः नयी समीक्षा काव्यभाषा और प्रतीकवाद का व्यापक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। नयी समीक्षा की मूल समस्या यह देखना है कि किसी साहित्यिक रचना में भाषा किस प्रकार क्रियाशील होती है। उपर्युक्त विश्लेषण के साथ नयी समीक्षा की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार रखी जा सकती हैं-
(1) नये समीक्षकों के लिए कृति या रचना सबसे महत्वपूर्ण है। उनके अनुसार रचनाकार का जीवन और परिवेश, रचना के प्रेरणास्रोत रचना प्रक्रिया, रचनाकार की मानसिकता, उसका ऐतिहासिक पक्ष, उसमें निहत दर्शन, समाज, संस्कृति, नीति तथा उपयोगिता आदि सभी बातें 'नयी समीक्षा' के विचार क्षेत्र के बाहर की वस्तुएँ हैं। उसका रचना की समीक्ष या मूल्यांकन से कोई संबंध नहीं होता है। अतः नयी समीक्षा के समीक्षकों के लिए विचारणीय तथ्य केवल कृति है।
(2) किसी भी कृति के साक्षात्कार के समय सबसे पहले उसका भाषायी स्वरूप सामने आता है। इसीलिए नयी समीक्षा भाषा को केन्द्र में रखकर कृति को देखने का प्रयास करती है। उनकी दृष्टि में कविता वस्तुतः भाषा की संरचना होती है, जिसका अभिप्राय प्रकारान्तर से वस्तु की अन्विति से होता है। अतः कृति के विश्लेषण के लिए कृति की भाषा का विश्लेषण आवश्यक है। अतः नये समीक्षकों के अधिकांश समीक्षामान भाषा पर ही केन्द्रित है। यथा टेक्श्चर, स्ट्रक्चर, अनेकार्थता, पैराडाक्स आदि।
(3) नयी समीक्षा कलाकृति को अखण्डता में देखने पर बल देती है, अर्थात् उसके विचार से कविता के रूप में तत्व और वस्तु तत्व को अलग-अलग करके समीक्षकों को नहीं देखना चाहिए अपितु उसका विश्लेषण एक समन्वित इकाई के रूप में होना चाहिए।
(4) नयी समीक्षा ने सिखाया कि कविता कैसे पढ़ी जानी चाहिए, यह अनुभव कराया कि साहित्य का अपना एक औचित्व है जो भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त होता है और कविता को कविता के रूप में पढ़ा जाना चाहिए, किसी और रूप में नहीं।
(5) शुद्ध साहित्य के अतिरिक्त दूसरे विषयों के ज्ञान की आवश्यकता को सिद्ध करके आलोचना के आयामों को विस्तार दिया है।
(6) छंद, कल्पना और अलंकार ग्रहणशीलता या संवेदना के घनत्व की अभिवृद्धि करते हैं। पहले दो तत्व इस उद्देश्य की प्राप्ति काव्यवस्तु को एक प्रकार का संयम देकर करते हैं और अंतिम (अलंकार) ज्ञानात्मक अवधान को आकृष्ट करके और संवेदनाओं पर विज्ञान के प्रभाव को क्षीण बनाकर करते हैं।
(7) प्रतीक, बिम्ब काव्य के निर्माण में ये जितने सहायक हैं, उतने उनके विश्लेषण में भी।
इस प्रकार नयी समीक्षा रचना या कविता को शुद्ध रूप में देखने की पक्षपाती है। यह इसके स्वतन्त्र अस्तित्व की स्थापना करती है तथा निरपेक्ष एवं रचनात्मक अध्ययन पर बल देती है। इस समीक्षा प्रणाली में काव्य-भाषा को अत्यधिक महत्व दिया गया है। भाषागत तथा कृति की गहराई से शब्द, गति, लय और उसकी भंगिमा एवं उनकी स्थिति के सौन्दर्य का अनुशीलन ही उसका लक्ष्य है। वास्तविक रचना सौष्ठव इसी पद्धति के द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। वस्तुतः नयी समीक्षा एक दृष्टिकोण ही है, कोई नवीन पद्धति या सिद्धांत नहीं।
पाश्चात्य समीक्षक प्रीचर्ड ने 'क्रिटिसिज्म इन अमेरिका में नयी समीक्षा के योगदान को इस प्रकार रखा है। नयी समीक्षकों के अधिकांश योगदान का निश्चयात्मक मूल्यांकन तो कुछ समय बाद ही हो सकेगा। परंतु यह स्पष्ट है कि भाषिक अभिव्यंजना पर जोर देने से कविता के अध्ययन को लाभ पहुँचा है। काव्याध्ययन को नयी दिशा देकर काव्य समस्याओं के प्रचार द्वारा उन्होंने काव्य पाठकों की संख्या में अभिवृद्धि की है। विगत वर्षों में नये समीक्षकों के आत्मपर्यालोचन से और इस प्रकार के संकेतों से कि वे अपने अध्ययन को व्यापक बनाने के लिए अधिकाधिक तैयार हैं। इस प्रकार का अर्थ उनका और विकास है, या एक विचारधारा के रूप में उनका तिरोभाव यह बात अभी कोई नहीं कह सकता, किन्तु यह सत्य है कि आलोचना की ऐसी महत्वपूर्ण विचारधारा इस शती में अभी कोई और नहीं जन्मी है।
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- प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।