बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन
प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर -
स्वच्छंदतावाद को विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से समझा है और विचार किया है। किसी ने उसे बुद्धि के विरुद्ध भाव का विद्रोह कहा तो किसी ने उसे मध्ययुग का पुनर्जागरण कहा, पेटर इसे अद्भुत और सुन्दर का मिश्रण मानता है। सौन्दर्य में अपूर्णता का योग 'स्वच्छंदतावाद' का वैशिष्ट्य है। प्रत्येक कला-संगठन में सौन्दर्य की इच्छा एक निश्चित तत्त्व है, परन्तु इस सौन्दर्य इच्छा के साथ सौन्दर्य जिज्ञासा का योग स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का निर्माण करता है। इन परिभाषाओं में स्वच्छंदतावाद की दो प्रवृत्तियों का उल्लेख मिलता है -
(1) सौन्दर्य प्रेम
(2) सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा।
ये दोनों प्रवृत्तियाँ परस्पर आश्रय की अपेक्षा रखती है, अतः इन दोनों के समन्वय पर बल दिया गया। इनके पृथक रूप से काव्य के विकृत होने की आशंका व्यक्त की गई। स्वच्छंदतावादी सौन्दर्य से प्रेरित होकर सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के प्रति प्रवृत्त होता है और सौन्दर्य जिज्ञासा से प्रेरित होकर निरन्तर नवोन्मेष अथवा नवीन सौन्दर्य की खोज के प्रति सजग रहता है। सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा के अभाव में रूढ़िवादिता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं और जिज्ञासा की अति होने पर कला के अतिरंजित होने की संभावना बढ़ जाती है। अतः स्वच्छंदतावादी दोनों के सन्तुलन को महत्व देते हैं, क्योंकि वह सौन्दर्य प्रेम से आकृष्ट होकर जिज्ञासा से नये सौन्दर्य की खोज करता है।
एबर क्रोम्बे ने इसे यथार्थवाद के प्रति विद्रोह बताकर बाह्य अनुभव से आंतरिकता की ओर प्रयाण कहा - "Withdrawl from outer experience to concentrate on inner experience."
इसी क्रम में ल्यूक्स ने यथार्थवाद, रोमांटिसिज्म तथा आभिजात्यवाद का आधार स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "हमारे पुराने संस्कार हमें रोमांटिसिज्म की ओर उन्मुख करते हैं, यथार्थ के प्रति रुचि यथार्थवाद की ओर तथा सामाजिक सुस्थिरता का भाव शास्त्रवाद की ओर ले जाता है, जिसके अन्तर्गत हमें नियमों और परम्पराओं का सम्मान रखना पड़ता है।" स्वच्छंदतावादी कवि नियमों और परम्पराओं का उलंलघन करता है, यथार्थ और समाज के प्रति विद्रोह करता है, तथ्यों और कर्त्तव्यों के जगत को स्वप्नों और भावोन्भाद की वेदी पर बलिदान कर देता है।
स्वच्छंदतावाद ने जीवन और प्रकृति को नये दृष्टिकोण से देखा। साहित्य और कला के क्षेत्र में यह पैनी सूक्ष्म संवेदनाओं एवं उत्कृष्ट काल्पनिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की कला है। स्वतंत्रता व सहजता इसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं। साथ ही यह अनियंत्रिक भावावेग का पक्षधर है। एक स्वच्छंदतावादी अपनी सोच स्वयं बनाकर अपनी दृष्टि से ही वस्तुओं व तथ्यों को देखता है, किसी दूसरे की सोच के आधार पर नहीं। अतः वह परम्परानुमोदित समस्त बंधनों को विच्छिन्न कर देता है। स्वच्छंदतावाद अपने स्वभाव में विद्रोही था। पहले से चली आ रही परम्परा एवं पूर्वग्रहों के बंधन को छिन्न-भिन्न करके जीवन और साहित्य दोनों का नया प्रतिमान स्थापित करना चाहता था। विद्रोह की इस प्रवृत्ति का मूल कारण उस युग की परिस्थितियों में ही निहित है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति के फलस्वरूप चारों ओर विद्रोह की जिस भावना ने जन्म लिया, वह स्वच्छंदतावाद का भी आधार बनी। एक ओर साहित्य एवं साहित्य चिन्तन आभिजात्यवादी मान्यताओं से आक्रांत था, तो दूसरी ओर यंत्र के प्रभाव से जीवन के सहज प्राकृतिक रूप व्यापार के विरुद्ध एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण हो रहा था जो तत्कालीन प्रकृति प्रेमियों को असहज लग रही थी। विज्ञान एवं तर्क के बढ़ते हुए प्रभाव से जीवन के भाव तत्त्व की उपेक्षा हो रही थी। इन दोनों तत्त्वों के खिलाफ स्वच्छंदतावाद ने विद्रोह किया परम्परा के नियमों और सिद्धान्तों के प्रति भी और तत्कालीन वैज्ञानिक और बौद्धिक प्रगति के प्रति भी। स्वच्छंदतावाद ने नीति धर्म साहित्य, परम्पराओं भाषा-शैली विषय और शास्त्रीय नियमों सभी के विरुद्ध विद्रोह को प्रश्रय दिया। उसने नये साहित्यिक प्रयोगों को प्रश्रय दिया और उन्हें ही मूलाधार बनाया। उसने अतिशय बुद्धिवाद का भी विरोध किया, साथ ही आभिजात्य के स्थान पर सामान्य को भी वरीयता दी और उसी को वर्णन का विषय बनाया।
स्वच्छंदतावाद के मूल में दो अन्य प्रवृत्ति भी बलवती रही प्रकृति की ओर लौटने की पुकार और सरलता का आग्रह। फलस्वरूप सब प्रकार की कृत्रिमता, बाह्याडंबर तथा यथार्थता का विरोध हुआ। धीरे-धीरे इस प्रवृत्ति ने आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। उसी आन्दोलन के फलस्वरूप जन सामान्य की भाषा पर भी बल दिया गया। स्वच्छंदतावाद काव्य-प्रयोजन के रूप में नैतिकता के विरुद्ध आनन्द का प्रतिष्ठा करता है तथा बंधे बधाएँ छन्दों को नकारकर लय और यति पर आधारित छन्दों की सर्जना पर बल देता है। वह कार्य तथा बौद्धिकता के विरुद्ध मनोवेगों के महत्व की स्थापना करता है, संस्कृतनिष्ठ भाषा के विरोध में जनभाषा के प्रयोग पर बल देता है तथा नाटक के स्थान पर गीत व काव्य को अपनाता है। भाषा और अभिव्यक्ति के बनावटीपन से दूर रहकर सहजभाव तरंगों को स्वाभाविक और हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति देना स्वच्छंदतावादी कवि का प्रमुख उद्देश्य बन गया था। यही कारण था कि उसमें एक सहज आकर्षण और अकृतइरम मनोरमता दिखाई देती है। स्वच्छंदतावाद सौन्दर्य वादी दृष्टिकोण को अपनाकर चला।
सौन्दर्य के प्रति प्रेम प्रत्येक कला का मूलभूत तत्व है। वास्तव में कला और काव्य का आरम्भ ही सौन्दर्य के प्रति आकर्षण के साथ हुआ था। अतः कला का मुख्य गुण है - सौन्दर्य। स्वच्छंदतावाद सौन्दर्य के प्रति विशेष दृष्टि को लेकर अग्रसर हुआ है। प्रायः प्रत्येक स्वच्छंदतावादी कृति में सौन्दर्य की भावना निहित है। इसकी दृष्टि में समस्त सृष्टि सौन्दर्यमयी है। इसके अन्तर्गत समस्त सृष्टि का सौन्दर्य प्रेम प्रकृति की रहस्यात्मक एवं आध्यात्मिक अनुभूति मानवता के प्रति आस्था तथा आदर्श भावना में रूपायित हुआ है। सौन्दर्य को स्वच्छंदतावादियों ने चिरंतन माना है - "beauty is truth, Truth beauty, that is all we know on earth and all we need to know. " स्वच्छंदतावादी दृष्टि में सौन्दर्य अपने मूलभूत और प्राकृतिक अर्थ में ही ग्रहीत हुआ है।
स्वच्छंदतावादियों की सौन्दर्य- जिज्ञासा रहस्यात्मक एवं आदर्श भावना के रूप में व्यक्त है। रहस्य भावना जितनी अधिक सूक्ष्म होगी कवि दृश्य जगत की आदर्शमूलक व्याख्या में उतना ही अधिक प्रवृत्त होगा। रहस्य - भावना युक्त होने से कवि को विश्व की भौतिक व्याख्या से सन्तोष नहीं होता। उसे विश्व के गोचर रूप में किसी अपूर्व छवि का आभास होता है और वह इसी आभास छवि को उद्भासित करने की चेष्टा करता है। सौन्दर्य प्रेम यदि स्वच्छंदतावाद का भाव पक्ष है तो सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा उसका बौद्धिक पक्ष।
सौन्दर्य- जिज्ञासा के कारण कवि प्रकृति को भिन्न दृष्टि से देखता है और उसमें आध्यात्मिक संस्पर्श को युक्त करके अभिव्यक्त करता है। स्वच्छंदतावादी के लिए फूल केवल सामान्य वस्तु नहीं है, वह उसके रहस्य और उद्गम स्रोत तक पहुँचने का प्रयास करता है। वह फूल के साथ एकात्मक हो जाता है। उसमें आध्यात्मिक सौन्दर्य को देखकर कवि उसके साथ अपना अमेद स्थापित कर अभिन्न हो जाता है। इस प्रकार स्वच्छंदतावादी प्रकृति की आध्यात्मिकता के साथ बंध जाता है। प्रकृति ही क्यों, स्वच्छंदतावादी मानव प्रकृति को भी सूक्ष्म दृष्टि से देखते हुए उसके आदर्श रूप की कल्पना को शब्दांकित करता है। उसकी दृष्टि में मानव जीवन आदर्श और पूर्ण है तथा उसमें पवित्रता, महानता जैसे सभी सद्गुण प्राप्य हैं। मानव अपने आध्यात्मिक रूप में वर्ग- विभाजित नहीं है, वह स्वतंत्र है और समानता एवं बन्धुत्व का समान अधिकारी है। आवश्यक कृत्रिमता बाह्याडंबर इसे मान्य नहीं। इसने अपनी भावुकता में मानव के आदर्श रूप की प्रतिष्ठा की है।
सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा के साथ-साथ सौन्दर्य के अप्रत्यक्ष रूप का, जो और जिस प्रकार उद्घाटन स्वच्छंदतावाद के द्वारा होता है, वह कल्पना का कार्य है। सौन्दर्य के प्रति जिज्ञासा के परिणामस्वरूप सौन्दर्य के जो अप्रत्यक्ष रूप और बिम्ब उद्घाटित होते हैं, वे काल्पनिकता के प्रतिफलन होते हैं। वास्तविकता तो यह है कि स्वच्छंदतावाद में अभिव्यंजित जो अनुभूति होती है, वह काल्पनिकता के माध्यम से ही होती है। यही उस अनुभूति की अभिव्यंजना में एक विशिष्ट लालित्य और कला भर देती है।
कठोर, संघर्षशील, यथार्थ की वास्तविकता से हटकर कल्पना लोक में विचरण करने की प्रवृत्ति तो स्वच्छंदतावाद की प्रमुखतम टेक रही है। सभी स्वच्छंदतावादी कवियों में यह प्रवृत्ति सक्रिय रही है। उसका विशेष अग्रदूत कॉलरिज बना। उसने कल्पना को काव्य के काव्यात्मक तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसी कल्पना प्रधानता ने स्वच्छंदतावादी कवियों को प्रकृति प्रेमी तथा रहस्यदर्शी भी बना दिया। वे प्रकृति को जीवन का प्रेरणादायक तत्त्व मानते हैं। उनके लिए इन्द्रधनुष केवल विविध रंगों का मनोरम व हृदयकारी दृश्य नहीं, वह जीवन को नवस्फूर्ति और नव प्रेरणा प्रदान करता है।
यह सब दृष्टिकोण में परिवर्तन का ही प्रभाव माना गया, जिसके लिए कल्पना हृदय की उदारता और रागात्मक उत्तरदायी थी। इसी कल्पना जन्य तत्परता ने प्रकृति को संदेशदात्री और शिक्षिका के रूप में देखा, इसी कल्पना ने उसे रहस्यवादी बना दिया और वह प्रकृति के कण- कण में ईश्वर की सत्ता अनुभव करने लगा। वह प्रत्येक वस्तु को आध्यात्मिक सम्बन्ध में बाँधकर देखता था। वह पुष्प को पुष्पमात्र न मानकर उसमें रहस्य छवि देखता था। एबर क्रोबें ने इस सम्बन्ध में लिखा है -
कल्पना के माध्यम से ही उनकी अभिव्यक्तिनव्यता पा सकी, वह अद्भुत और मनोरम बन गई। छायावादी कवियों द्वारा स्थूल के लिए सूक्ष्म का प्रयोग (उपमान रूप में) भी किया गया। यह बात दूसरी है कि इस कल्पना की अतिशयता के प्रभाव के परिणामस्वरूप इनका काव्य अमूर्त, सूक्ष्म और विरल हो उठा।
अत्यधिक कल्पनाशील ने अद्भुत के प्रति विशेष मोह जाग्रत कर दिया, जिसके फलस्वरूप स्वच्छंदतावादी काव्य में अतिमानवीय तत्त्व अपनी यांत्रिकता तथा भौंड़ापन छोड़कर स्वाभाविक और आकर्षक रूप में व्यक्त हुआ। टी. एस. इलियट की कविता 'दि राईम ऑफ एंसिंट मेरिनर' इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। वाट्स इंटन ने इस प्रवृत्ति को 'अद्भुत का पुनर्जागरण' कहा है। इस तत्त्व के समावेश से काव्य में अनूठी सांकेतिकता आ गई और वह अधिक मार्मिक रूप धारण कर सका।
स्वच्छंदतावाद में बौद्धिक जिज्ञासा की प्रवृत्ति दार्शनिक हीगेल से प्रभावित है। बौद्धिक जिज्ञासा का अर्थ है किसी वस्तु के बाह्य रूप को देखकर उसके मूल तक पहुँचने एवं उसके समग्र स्वरूप को समझने के लिए बौद्धिक धरातल पर विचार करना। इसका अर्थ बौद्धिकता का प्रयोग नहीं है। स्वच्छंदतावाद में विषयाभिव्यक्ति में कल्पना की प्रधानता है परन्तु विषय की सम्यक् नियोजना एवं उसके मूल को जानने के लिए बौद्धिक प्रयत्न भी हुआ है। इस बौद्धिक जिज्ञासा को कतिपय विद्वानों ने बुद्धि - प्रधान्य मानकर स्वच्छंदतावाद पर आक्षेप भी किया है। ऐसा कहा गया है कि स्वच्छंदतावाद में कल्पना की तुलना में बुद्धि की उपेक्षा हुई है। यहाँ तक कि स्वच्छंदतावाद को ही बुद्धि के विरुद्ध कल्पना का विद्रोह भी कहा गया।
फ्रांसीसी राज्य क्रान्ति ने जीवन के समग्र क्षेत्रों में विद्रोह की भावना को पुष्ट आधार प्रदान किया था। साहित्य में भी यह प्रवृत्ति पृथक् नहीं रह पाई। स्वच्छंदतावाद में यह प्रवृत्ति बौद्धिक प्राधान्य एवं तर्क के प्रति विद्रोह के रूप में साकार हुई। परन्तु यह कतई नहीं कहा जा सकता कि स्वच्छंदतावाद में बुद्धि की उपेक्षा की गई है। किसी भी स्वच्छंदतावाद कवि (शैली व कॉलरिज आदि) में इसका अभाव नहीं है। इनकी कृतियों में बुद्धि के प्रति विद्रोह न होकर बुद्धि का समुचित एवं अपेक्षित उपयोग हुआ है। यह अवश्य है कि कोरे बुद्धिवाद का इन कवियों ने विरोध ही किया है। बुद्धि का प्रयोग रहस्य संधान में अथवा काव्य के कला पक्ष में हुआ है। परम्परागत शिल्प विधान का त्याग और नवीन शिल्प विधान का निर्माण करने में इनकी बौद्धिकता ही सक्रिय रही है।
समीक्षा क्षेत्र में स्वच्छंदतावादी बौद्धिक जिज्ञासा अधिक स्पष्ट रूप में दिखाई देती है। कल्पना सिद्धान्त के प्रतिपादन तथा सौन्दर्य प्रतिष्ठा आदि में स्वच्छंदतावादियों ने अपनी बौद्धिक जिज्ञासा का ही परिचय दिया है।
स्वच्छंदतावाद की दृष्टि भावुकतापरक है। प्रकृति दृश्य या वस्तु को किसी भाव से युक्त होकर ही वह देखता है लेकिन एक बात ध्यातव्य है कि उसकी भावुकता अनर्गल एवं असंगत नहीं होती है। उसे देखकर कवि के भीतर एक विशेष प्रेरणा उत्पन्न हो जाती है और उसी से अविष्ट ओकर वह उसका वर्णन करता है। यह वर्णन ऐसा होता कि उसे पढ़ने या सुनने वाला भी उसी भाव में बह जाता है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उसका वर्णन वास्तविकता से दूर है, परन्तु ऐसा तभी होता है जब कवि भाव विभोर नहीं होता, अन्यथा उसके वर्णन की कला के जादू से प्रभावित होकर हम सब भी उसमें भर जाते हैं। इस भावुकता के परिणामस्वरूप स्वच्छंदतावादी कवि का वर्णन वैयक्तिकता से पूर्ण होता है। अतः वैयक्तिकता भी स्वच्छंदतावाद का प्रमुख गुण है।
स्वच्छंदतावाद में प्रबन्ध और मुक्तक - दोनों में ही आत्म तत्व की प्रबलता रहीं। कवियों ने अपनी ही रुचि अरुचि, अनुभूति, भावनाओं तथा दृष्टि को प्रधानता दी। प्रबन्ध-काव्य में नायकों के रूप में जिनकी प्रतिष्ठा की गई वे मुख्यतः आत्मकेन्द्रित रहें। मुक्तकों में तो कवियों ने निजी उदासी, निराशा, विषाद तथा वेदना को ही अधिकांशतः लक्ष्य किया। इस प्रकार समग्र दृष्टि और सृष्टि सामाजिक न होकर वैयक्तिक रही। इस व्यक्तिवादिता की प्रधानता के कारण कवि अपने ही भावोन्माद में लिप्त रहता है। जर्मन कवि गोयठे (गेटे ) यद्यपि रूढ़ि -विरोधी और बौद्धिक स्वच्छंदतावाद का पोषक था, तथापि 19वीं शातब्दी की वेदना और निराशा भरे स्वच्छंदतावादी काव्य को उसने रुग्णता का काव्य तक कह डाला - 'Romanticism was diseased.'
स्वच्छंदतावादी कवियों ने प्रकृति के मुक्त प्रागंण में स्वच्छंद विहार किया, क्योंकि उनका प्रकृति के प्रति अटूट प्रेम था। वह उनके मन पर छायी रहती थी।
स्वच्छंदतावादी कवियों ने प्रकृति के कई रूपों को महत्ता दी है। उसे सचेतन सत्ता मानकर भी इसका भव्य रूप उभारा है। वह उनके लिए आह्वादमयी भी है। रूसों के विचारों में प्रकृति की गोद में पुनः जाने का आह्वान था। प्रकृति की ओर जाने से ही जीवन में आई कृत्रिमता से मुक्ति मिल सकीत है, अतः प्रकृति के प्रति प्रबल आकर्षण स्वच्छंदतावाद की एक प्रमुख विशिष्टता बनकर उभरी। इतना ही नहीं, प्रकृति के कार्यकलाप के भीतर किसी रहस्य का दर्शन भी स्वच्छंदतावाद में देखा जा सकता है। प्रकृति में भी संवेदना की अनुभूति स्वच्छंदतावादी काव्य में बराबर देखी जाती है। उल्लास और विषाद की स्पष्ट छाया देखना और उससे स्वयं प्रभावित होना स्वच्छंदतावाद की व्यापक संवेदनशीलता का परिचायक है।
स्वच्छंदतावाद मानवतावादी है। स्वच्छंदता में पहली बार मनुष्य को मानवीय गरिमा से युक्त देखा गया। रूसों के विचारों ने मानव के गौरव और गरिमा की जोरदार शब्दों में प्रतिष्ठा की। उसकी धारणा थी कि मनुष्य को मनुष्य के रूप में मान्यता मिलनी ही चाहिए। उसने प्रेम की अंतर्त्यापी शक्ति को भी उभारा। उसने नगरीय भीड-भाड़ और दिखावे के व्यवहार के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। इसका स्वच्छंदतावादी विचारधारा पर गहरा प्रभाव पड़ा। व्यापक रूप से पीड़ित व दुःखी के प्रति संवेदना का भाव इस प्रकार के काव्य में देखने को मिलता है। संवेदना के विस्तार से व्यापक प्रेम-भाव जागृत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप मानवतावादी दृष्टिकोण का विकास हुआ।
भले ही स्वच्छंदतावादी कल्पना के प्रति अधिक अनुरक्त थे, परन्तु जीवन के प्रति इनकी सहज प्रवृत्ति थी। जीवन केवायवी रूप को न अपनाकर इन्होंने सामान्य जीवन का आदर्श मूलक चित्रण किया है। वर्ण्य विषय की दृष्टि से इन कवियों ने प्रकृति और जीवन के केवल महान् रूपों में ही रुचि नहीं दिखाई, साधारण रूपों के प्रति भी अपना अनुराग व्यक्त किया। इन्हें साधारण विषयों में आदर्शमूलक स्थापना करना अधिक अभीष्ट था।
स्वच्छंदतावादी काव्य में संगीतात्मकता या गीतिमयता भी एक प्रमुख तत्त्व है क्योंकि इसमें अपने भावोद्गारों की सहज अभिव्यक्ति पर ही बल दिया है, फलतः इसमें अंतःप्रेरणा, भावमयता और निर्बाध प्रवाह और अंतः स्फूर्ति है, जिसके कारण गीतितत्व का समावेश सहज में ही हो गया है।
अपने युग की बौद्धिकता तथा तार्किकता से ऊबकर मध्ययुग की ओर आकृष्ट होने की जो प्रवृत्ति पहले ही जन्म ले चुकी थी, उसने स्वच्छंदतावाद में भी जोर पकड़ा। धीरे-धीरे अतीतोन्मुखता भी स्वच्छंदतावाद की प्रमुख टेक बन गई। कॉलरिज, शैली तथा कीट्स ने उस प्रवृत्ति को अधिकाधिक पुष्ट किया। इस प्रकार मध्ययुग के गीतों, गाथाओं तथा रूमानी कहानियों की ओर आकर्षण स्वच्छंदतावाद की एक अन्य विशेषता है।
अगर स्वच्छंदतावाद की उपलब्धियों पर नजर डाला जाये तो हम कह सकते हैं कि स्वच्छंदतावाद काव्य को अनावश्यक नियमबद्धता एवं पारंपरिकता से मुक्त कराके उसे यांत्रिक एवं कृत्रिम होने से बचाया लेकिन साथ ही साथ यह अपनी सीमाएँ भी खींचता गया। कल्पना का प्रधान्य इसमें इस कदर हुआ कि स्वच्छंदतावाद भी अपनी सार्थकता खो दिया।
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