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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।

उत्तर -

आधुनिक काल

(1) भारतेन्दु युग- वस्तुतः भारतेन्दु युग हिन्दी समीक्षा का उद्भव-काल है। रीतिकालीन संस्कृत ग्रन्थों की परिपाटी को छोड़कर हिन्दी आलोचना इस काल सहसा एक नवीन मार्ग पर अग्रसर हो उठी, इसके कई कारण थे - गद्य का आविर्भाव, पत्र-पत्रिकाओं का निकलना, पाठक समुदाय का बदल जाना। गद्य के आविर्भाव और पत्र-पत्रिकाओं के प्रचलन ने आलोचना के विकास-मार्ग को खोल दिया। इस समय पाठकवर्ग भी बदल गया था। रीतिकाल के राज दरबारी सहृदय रसिक के स्थान पर जन सामान्य पाठक बन गया था। फलस्वरूप आलोचना के क्षेत्र में क्रान्ति आई। भारतेन्दु के 'भारत दुर्दशा' या 'अन्धेर नगरी' जैसे नाटकों की समीक्षा प्राचीन लक्षण ग्रन्थों के आधार पर नहीं की जा सकती थी। इसके लिए एक नई कसौटी नितान्त अपेक्षित थी। यद्यपि परम्परा के प्रति मोह के कारण आलोचना का सैद्धांतिक पक्ष अभी भी विद्यमान था। तथापि उसके सीमित दायरे से मुक्ति की आकांक्षा भी प्रबल हो उठी थी। इसीलिए भारतेन्दु-युगीन समीक्षा में पुरानी और नई दोनों प्रवृतियाँ दिखाई देती हैं, जो इस प्रकार

(1) सैद्धांतिक विवेचन इस काल में भी किया गया। भारतेन्दु ने 'नाटक' लिखा। जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने 'छन्द प्रभाकर' लिखा। नागरी प्रचारिणी पत्रिका में गंगा प्रसाद अग्निहोत्री का 'समालोचना' नामक लेख प्रकाशित हुआ। 'नाटक' में भारतेन्दु जी ने नाटक के प्राचीन भेद-उपभेदों की चर्चा करते हुए उसमें आये नवीन तथ्यों की ओर निर्देश दिया।

(2) नागरी प्रचारिणी पत्रिका में साहित्यकारों के जीवन, रचनाकाल और रचनाओं के बारे में प्रामाणिक लेख प्रकाशित किये गये। इन्हें हम व्यावहारिक समीक्षा का प्रारम्भिक रूप मान सकते हैं।

(3) साहित्य का इतिहास लिखने की प्रवृत्ति परिलक्षित हुई। 'शिव सिंह सरोज' में प्राचीन कवियों का जीवन-परिचय और रचनाएँ लिपिबद्ध की गई।

(4) पुस्तक-समीक्षा की प्रवृत्ति दिखाई दी। 'हिन्दी-प्रदीप' और 'आनन्द- कादम्बिनी' पत्रिकाओं में लाला श्रीनिवास दास के संयोगिता स्वयंवर की समीक्षा प्रकाशित हुई। आनन्द कादम्बिनी' ने रमेशचन्द्र दत्त के 'बंग-विजेता' नामक उपन्यास के हिन्दी अनुवाद की समीक्षा छपी। इसमें मूल तथा अनुवाद दोनों के गुण-दोषों का विवेचन किया गया। कथावस्तु, चरित्र- चित्रण, संवाद, सामाजिक मूल्यवत्ता आदि विविध दृष्टियों से कृति का परीक्षण किया गया। ये समीक्षाएँ हिन्दी की व्यावहारिक समीक्षा का आरम्भिक रूप प्रस्तुत करती हैं।

(2) द्विवेदी युग- सन् 1900 ई. में 'सरस्वती का प्रकाशन आरम्भ होना हिन्दी आलोचना के विकास क्रम में महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' का सम्पादन भार सम्भाला। उन्होंने इसमें 'पुस्तक-परीक्षा' के नाम से एक स्तम्भ रखा और स्वयं उस स्तम्भ में पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखीं। 1900 ई. में बनारस से निकलने वाला 'सुदर्शन' और 1902 ई. में जयपुर से निकलने वाला 'समालोचक' भी पुस्तक समीक्षा के उद्देश्य से प्रकाशित किये गये थे।

द्विवेदी युगीन आलोचना का स्वरूप निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है -

(1) इस काल में पुस्तकों की पुस्तकाकार आलोचनाएँ आरम्भ हुईं।

(2) रचना के परीक्षण का मानदण्ड निर्धारित हो गया। द्विवेदी जी ने नैतिकता और उपयोगितावाद को मानदण्ड माना। जिस रचना में उपयोगी एवं शिक्षाप्रद वर्ण्यविषय तथा पात्र अपनाये गये हैं, वह उत्तम मानी गई। एक ओर विषय की उच्चता पर ध्यान दिया गया, तो दूसरी ओर अभिव्यक्ति की सादगी का समर्थन किया गया। नायिका-भेद, अलंकार-निरूपण आदि परम्परागत रीति-नीति का विरोध किया गया। द्विवेदी जी की धारणा थी "हिन्दी काव्य की हीन दशा को देखकर कवियों को चाहिए कि वे अपनी विद्या और बुद्धि तथा अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग इस प्रकार के ग्रन्थ लिखने में न करें। अच्छे काव्य लिखने का उन्हें प्रयत्न करना चाहिए। अलंकार, रस और नायिका-निरूपण बहुत हो चुका। द्विवेदी जी की समीक्षा-दृष्टि 'रसज्ञ- रंजन' के निबन्धों में भली-भाँति देखी जा सकती है।

(3) आचार्य द्विवेदी की आलोचना पद्धति की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनकी निर्भीकता थी। आलोचना करते समय वे बिना किसी हिचक के लब्धप्रतिष्ठित साहित्यकार में भी दोष बता पाते थे। उनके लिए आलोचना का अर्थ ही 'खण्डन-मण्डन' था और इसमें भी खण्डन का स्वर अधिक प्रखर हो उठता था। यह निर्भीकता, यह खरापन उनके बाद मिलना दुर्लभ हो गया। वे ज्ञान जहाँ से मिले, निःसंकोच ग्रहण करने को तत्पर रहते थे, और दोष जहाँ दिखाई दे, वे बताने के लिए सन्नद्ध रहते थे। यह उनके व्यक्तित्व की विशेषता थी।

(4) द्विवेदी युगीन आलोचना की एक अन्य विशेषता, जो हमारा ध्यान आकर्षित करती है, वह है, तुलनात्मक समीक्षा। देव और बिहारी के बीच श्रेष्ठता का निर्णय करने के लिए आरम्भ होने वाले इस विवाद में द्विवेदी युग के प्रायः सभी महत्वपूर्ण आलोचकों ने भाग लिया। पं. पद्मसिंह शर्मा, पं. कृष्ण बिहारी मिश्र, लाला भगवानदीन आदि सभी ने इस वाद-विवाद में भाग लिया। 'हिन्दी नवरत्न' में मिश्र-बन्धुओं ने देव को बिहारी से ऊँचा स्थान दिया। इस पर पं. पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी को देव से श्रेष्ठ बताया। पं. कृष्ण बिहारी मिश्र ने 'देव और बिहारी' लिखकर पुनः देव की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया। लाला भगवानदीन ने 'बिहारि और देव' लिखकर बिहारी की श्रेष्ठता सिद्ध की। इस तुलनात्मक समीक्षा से एक बात और स्पष्ट हुई कि आचार्य द्विवेदी ने तो परम्परा का विरोध करके अपने नैतिकता और उपयोगितावादी स्वरों को मुखरित किया था, परन्तु इस तुलनात्मक समीक्षा में कलात्मक सूक्ष्मता, चमत्कारगत वक्रता आदि गुणों के आधार पर कवियों का परीक्षण किया गया। इस प्रकार इन आलोचकों की दृष्टि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की दृष्टि से अलग रही। यद्यपि ये आलोचक भी युगीन नैतिकता से प्रभावित. थे, तथापि इनके साहित्यिक संस्कार मूलतः रसवादी दिखाई देते हैं। इन्होंने अपनी समीक्षा में शैलीगत चमत्कार को विशेष महत्व दिया, आलोच्य विषय के गुण-दोषों की परख करने के स्थान पर भाषा सम्बन्धी गुण-दोषों का परीक्षण किया तथा प्रबन्ध की अपेक्षा मुक्तक को महत्व दिया।

(5) द्विवेदी युग में समसामयिक कथा-साहित्य पर विवादों के रूप में एक नई समीक्षा दृष्टि भी सामने आई। 'चन्द्रकान्ता' में 'संभव-असंभव' के प्रश्न को लेकर जो बहस शुरू हुई उसमें 'सुदर्शन', 'श्री वेंकटेश्वर समाचार', 'भारत-मित्र', 'समालोचक', छत्तीसगढ़ मित्र' आदि पत्रों ने भाग लिया। 'छत्तीसगढ मित्र' में श्री निवासदास के 'परीक्षा गुरू' की समीक्षा छपी। 'समालोचक' में किशोरी लाल गोस्वामी के 'तारा' उपन्यास की समीक्षा छपी। इन समीक्षाओं में आमतौर पर पुस्तक के आकार-प्रकार की चर्चा रहती थी, नैतिक-सामाजिक दृष्टि से उनकी विषय-सामग्री को देखा जाता था, कभी-कभी भाषा आदि पर टिप्पणी दे दी जाती थी।

(6) साहित्य का इतिहास लिखने की परम्परा भी विकसित हुई। 'मिश्रबन्धु-विनोद' लिखा गया, जिसमें लेखकों का इतिवृत्त दिया गया था।

(3) शुक्ल युग- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी-समीक्षा को अपनी प्रखर-प्रतिभा तथा क्षमता से गौरव के उच्च शिखर तक पहुँचा दिया। आलोचना क्षेत्र के इस परिवर्तन की ओर संकेत करते हुए वे लिखते हैं-. "तृतीय उत्थान (सन् 1918 ई. में) समालोचना का आदर्श भी बदला। गुण-दोष कथन के आगे बढ़कर कवियों की विशेषताओं और अन्तःप्रवृत्ति की छानबीन की ओर भी ध्यान दिया गया। कहना न होगा, यह प्रयास सर्वप्रथम स्वयं आचार्य शुक्ल ने ही किया था।

शुक्ल जी के हाथों में हिन्दी आलोचना की बागडोर आते ही 'देव और बिहारी' तथा 'बिहारी और देव' जैसे तुलनात्मक अध्ययन से हटकर आलोचना का केन्द्र हिन्दी का भक्तिकालीन साहित्य हो गया। शुक्ल जी ने कविता में अनुभूति को प्रधानता दी। उन्होंने लोक-मानस और लोक-हृदय के साथ रागात्मकता का सम्बन्ध स्थापित होने को प्रमुखता दी। उन्होंने भारतीय रसवाद को जिस लोक-सम्प्रति का भाव दिया, उसका निर्वाह प्रबन्ध काव्य में ही सम्भव था। उन्होंने भारतीय साहित्य की उपलब्धियों को मथकर यह निष्कर्ष निकाला कि भावों की गहराई और औदात्य ही किसी रचना की महत्ता प्रदान करने वाले तत्व हैं।

शुक्ल जी सिद्धांत निरूपण में जितने दक्ष थे, उन सिद्धांतों का परीक्षण करने में उससे भी अधिक निपुण थे। काव्य का परीक्षण करने की उन्हें अन्तर्भेदी दिव्य-दृष्टि प्राप्त थी। इसीलिए उन्होंने सूर, तुलसी और जायसी पर बड़ी प्रभावशली व्यावहारिक समीक्षाएँ लिखीं। उनके आलोचक व्यक्तित्व की एक प्रमुख विशेषता उनकी सजग एवं व्यापक दृष्टि थी। जिस लगन और उत्साह से उन्होंने मध्ययुगीन काव्य का विवेचन किया, उसी रुचि से आधुनिक साहित्य पुर भी दृष्टिपात किया। जिस साहित्य में युगों से कविता साम्राज्ञी की प्रतिष्ठा रही हो, उसमें निबन्ध के विषय में यह मन्तव्य देना कम साहस और सूझ-बूझ की बात नहीं है कि "यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबन्ध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबन्धों से ही सबसे अधिक सम्भव होता है।' प्रेमचन्द के उपन्यासों में यथार्थवादी जीवन-दृष्टि, सामाजिकता आदि को देख उन्होंने उन्हें हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार घोषित किया।

शुक्ल युग की एक महान विभूति बाबू श्यामसुन्दर दास थे। उन्होंने अपने 'साहित्यालोचन' द्वारा पहली बार हिन्दी समालोचना को अध्ययन-अध्यापन के लिए विषय के रूप में प्रतिष्ठित किया। इस ग्रन्थ की रचना एम. ए. के पाठ्यक्रम में उपर्युक्त आलोचनात्मक ग्रन्थ के अभाव की पूर्ति के रूप में की गई थी। पं. नन्ददुलारे बाजपेई के शब्दों में "श्यामसुन्दर दास जी का 'साहित्यालोचन' उतना मौलिक न था, किन्तु वह साहित्य और उनके अंगों की तटस्थ, ऐतिहासिक तथा वास्तविक व्याख्या का प्रयत्न हैं।'

शुक्ल युग के अन्य महत्वपूर्ण समीक्षकों में बाबू गुलाबराय, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, जगन्नाथ शर्मा, लक्ष्मीनारायण 'सुधांशु'. कृष्णशंकर शुक्ल, सत्येन्द्र आदि आते हैं। बाबू गुलाबराय की प्रमुख समीक्षात्मक कृतियाँ 'काव्य के रूप', 'सिद्धांत और अध्ययन' हैं। उन्होंने पूर्व और पश्चिम की समीक्षा प्रणालियों को उदारतापूर्वक ग्रहण किया।

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र सैद्धांतिक समीक्षा के क्षेत्र में विशेष महत्वपूर्ण नहीं हैं, किन्तु व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में उन्होंने विशेष कार्य किया है। रीतिकाल नामकरणः प्रवृत्तियाँ साहित्य आदि विषयों पर विद्वतापूर्ण विवेचन किया है। उसकी मुख्य कृतियाँ हैं- 'भूषण', 'बिहारी, 'घनानन्द', बिहारी की वाग्विभूति तथा वाड्मय विमर्श।

लक्ष्मी नारायण सुधांशु आचार्य शुक्ल की परम्परा के आलोचक हैं। 'जीवन के तत्व और काव्य के सिद्धांत' तथा काव्य में 'अभिव्यंजनावाद' उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं। कृष्णशंकर शुक्ल ने व्यावहारिक समीक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया है। 'महाकवि रत्नाकर' तथा 'केशव' की काव्य कला उसकी महत्वपूर्ण आलोचनात्मक पुस्तकें हैं। डॉ. सत्येन्द्र का मुख्य क्षेत्र भी व्यावहारिक समीक्षा रहा है। उनकी मुख्य पुस्तकें हैं- 'गुप्त जी की कला', 'प्रेमचन्द और उनकी कहानी-कला', 'ब्रजलोक-साहित्य का अध्ययन', 'हिन्दी-एकांकी', 'साहित्य की झाँकी'।

शुक्लोत्तर-युग - शुक्लोत्तर युग में हिन्दी समीक्षा की बहुमुखी प्रगति हुई। उसका. अध्ययन हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं -

स्वछन्दतावादी समीक्षा - इस समीक्षा का मूलाधार छायावादी काव्य है। छायावादी कविता की मुख्य विशेषताएँ थीं- स्वानुभूति की प्रधानता, कल्पना की अतिशयता, नवीन सौन्दर्य दृष्टि। इन्हीं विशेषताओं के आधर पर स्वछन्दतावादी समीक्षा में छायावाद का परीक्षण किया। शुक्ल जी ने नैतिकता और उपयोगितावाद के प्रति अपने अटूट आग्रह के कारण अनुभूति की मार्मिकता पर कम जोर दिया था। जोर तो दिया था पर अनुभूति को सामाजिकता से जोड़ दिया था। केवल अनुभूति की मार्मिकता को समग्रता से ग्रहण करने का प्रयास स्वछन्दतावादी आलोचकों ने किया। इनमें सर्वप्रमुख नाम आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी का है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ. नगेन्द्र भी इसी कोटि में आते हैं। इस समीक्षा पद्धति की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 1

(1) अनुभूति जगत को सर्वोपरि महत्व देना इसकी प्रधान विशेषता है। इसीलिए इस धारा में विषय की अपेक्षा भाव-प्रधान काव्यों को अधिक सराहना मिली। छायावादी गीतों ने इन्हें आकर्षित किया     और प्राचीनकाल के सूर, तुलसी, कबीर, मीरा और विद्यापति जैसे कवियों की गीतिकला भी इन्हें खींचे बिना नहीं रही।
(2) इस समीक्षा पद्धति में नवीन-सौन्दर्य बोध को अपनाया गया। नवीन जीवन-मूल्यों, हृदय की संश्लिष्ट भाव-छवियों और अभिव्यक्ति के नवीन उपकरणों में इन्होंने सौन्दर्य के दर्शन किये।

आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी छायावादी काव्य-जगत के मोहक सौन्दर्य से इतने अभिभूत हो उठे कि उन्होंने इसी आधार पर अपनी समीक्षा पद्धति को विकसित किया। इस परम्परा के दूसरे महत्वपूर्ण समीक्षक डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी रहे। उन्होंने स्वछन्दतावादी समीक्षक होते हुए • भी अनुभूति का संबंध सामाजिक मंगल से जोड़ा। लोक-मंगल की बात शुक्ल जी ने भी की, किन्तु द्विवेदी जी का लोक-मंगल उनसे भिन्न है। इसे मानवतावाद कहना अधिक समीचीन होगा। द्विवेदी जी ने सामंजस्य और संतुलन को भी विशेष प्रश्रय दिया है। समीक्षा के क्षेत्र में वह शास्त्रीय, व्याख्यात्मक तथा प्रभाववादी सभी समीक्षाओं में रस और सौन्दर्य का महत्व स्वीकार करते हैं। कबीर, सूर पर उन्होंने विद्वतापूर्ण व्यावहारिक समीक्षाएँ लिखीं। इस दिशा में तीसरा नाम डॉ. नगेन्द्र का है, जिनकी महत्वपूर्ण समीक्षात्मक कृतियाँ हैं- 'रीतिकाल और देव' और उनकी कविता' 'साकेत एक अध्ययन', कामायनी के अध्ययन की समस्याएँ', 'सुमित्रानन्दन पंत, 'आधुनिक हिन्दी नाटक'। उनके सैद्धांतिक विवेचन और व्यावहारिक परीक्षण में एकसूत्रता विद्यमान है। वे शास्त्रीय आधार पर खड़े हैं और उस पर खड़े होकर ही नई दिशाओं को ढूँढते हैं। यही उनकी समीक्षात्मक दृष्टि की विशेषता है।

प्रभाववादी समीक्षा - इस कोटि की समीक्षा में पं. शांतिप्रिय द्विवेदी अग्रण्य हैं। आचार्य शुक्ल ने इस समीक्षा को महत्वहीन मानते हुए कहा था- "न ज्ञान के क्षेत्र में उसका कोई मूल्य है, न भाव के क्षेत्र में। उसे समीक्षा या आलोचना कहना ही व्यर्थ है।" शांतिप्रिय द्विवेदी को इस कोटि का समीक्षक या आलोचना कहना ही व्यर्थ है। शांतिप्रिय द्विवेदी को इस कोटि का समीक्षक इसीलिए माना गया क्योंकि उन्होंने छायावादी ढंग पर कविता न लिखकर गद्य लिखा। इन समीक्षाओं में काव्यात्मकता का इतना बाहुल्य हो गया कि सारभूत करने पर ही विचारों को देखा जा सकता है। अपनी इस दुर्बलता से परिचित होने के कारण ही उन्हें अपने पक्ष में सफाई देने की जरूरत पड़ी थी। "प्राभाविक आलोचना द्वारा आलोचना में अनुभूति का परिचय मिलता है। अनुभूति के लिए रसज्ञता ही नहीं, रसार्द्रता भी चाहिए।' जो भी हो, इतना मानना पड़ेगा कि शांतिप्रिय द्विवेदी ने भाव-विभोर होकर छायावाद पर जो समीक्षाएँ कीं, उनसे विद्यार्थी-जगत् का - बहुत लाभ हुआ और छायावाद की दुरुहता उनके लिए बोधगम्य बनी।

कवि समीक्षक - शुक्लोत्तर हिन्दी समीक्षा के विकास क्रम को समझते समय हम कवि समीक्षकों के योगदान को अनदेखा नहीं कर सकते। इन कवि समीक्षकों में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पन्त, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' और महादेवी वर्मा का नाम आता है। प्रसाद जी ने 'काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध लिखकर अपने विचारों का प्रवर्तन किया। छायावाद और रहस्यवाद के सम्बन्ध में उन्होंने अपनी स्थापनाएँ सामने रखीं। इन कवि समीक्षकों के सम्बन्ध में ध्यान रखने की बात यह है कि ये लोग मूलतः कवि थे। आलोचना करना इनका मुख्य कर्म नहीं था। प्रायः रचना कर्म के बीच से इनती आलोचनाएँ स्वतः निःसृत हो गई हैं।

सुमित्रानन्दन पंत की मान्यता थी कि पुराने सिद्धांतों के आधार पर नये साहित्य का मूल्यांकन नहीं हो सकता। नये साहित्य के मूल्यांकन के लिए नई कसौटी की आवश्यकता बताते हुए उन्होंने 'पल्लव' के प्रवेश में लिखा था- "हिन्दी में सत्समालोचना का बड़ा अभाव है। गंगाधर, काव्यादर्श आदि की वीणा के तार पुराने हो गये, वे स्थायी संचारी, व्याभिचारी आदि भावों का जो कुछ संचार अथवा व्यभिचार करवाना चाहते थे, करवा चुके। जब तक समालोचना का समयानुकूल रूपान्तर न हो, वह विश्वभारती के आधुनिक विकसित तथा परिष्कृत स्वरों में न अनुवादित हो जाये, तब तक हिन्दी में सत्साहित्य की सृष्टि हो भी नही सकती।' इसीलिए पन्त ने काव्य-भाषा के क्षेत्र में क्रान्ति लाने की बात इस प्रकार कही - "हमें भाषा नहीं, राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है, पुस्तकों की नहीं, मनुष्यों की भाषा, जिसमें हँसते-रोते, खेलते-कूदते, लड़ते, गले मिलते, साँस लेते और रहते हैं।' काव्य भाषा में बिम्बात्मकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा "कविता के लिए चित्र भाषा की आवश्यकता पड़ती है।' इस प्रकार भाषा और शिल्प पर उन्होंने विशेष जोर दिया।

निराला का कार्य पन्त से भिन्न था। पन्त और पल्लव' 'मेरे गीत और कला' 'परिमल' की भूमिका आदि में उनके आलोचनात्मक विचारों की झाँकी मिलती है। इन निबन्धों में उनके सौन्दर्य-बोध, अध्ययन, सूक्ष्म दृष्टि और रसज्ञता के दर्शन होते हैं। मुक्त छंद की आवश्यकता और महत्व पर उन्होंने प्रकाश डाला। इस सम्बन्ध में उन्होंने अपनी मान्यता भी स्थापित की- “हिन्दी में मुक्त छन्द, कवित्त छन्द की बुनियाद पर सफल हो सकता है।' निराला ने 'साहित्य और भाषा', 'रचना-सौष्ठव', 'हमारे साहित्य का ध्येय' जैसे कुछ निबन्धों में सिद्धांतों की बातें भी उठायी हैं।

महादेवी वर्मा के आलोचनात्मक विचार उनकी 'यामा' और 'दीपशिखा' की भूमिकाओं में मिलते हैं। 'साहित्यकार की आस्था और अन्य निबन्ध' में भी उनके इन विचारों का स्वरूप प्राप्त होता है। उनके साहित्य-क्षेत्र में पदार्पण करने के समय तक छायावाद पर लगाये जाने वाले आरोपों की परम्परा समाप्त प्रायः हो चुकी थी। उन्होंने काव्योचित अलंकृत गद्य में छायावाद सम्बन्धी अपनी धारणाओं को स्पष्ट रूप से सामने रखा। छायावाद की सामाजिकता और यथार्थवादिता की भी उन्होंने व्याख्या की।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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