बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरणसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 संस्कृत नाटक एवं व्याकरण
द्वितीय भाग
अध्याय - 5
रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण
(लघुसिद्धान्तकौमुदी)
अजन्तप्रकरण
पुल्लिंग - (राम, सर्व, हरि, साधु)
प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
1. अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्॥ (धातुं प्रत्ययं प्रत्ययान्तं च वर्जयित्वा अर्थवच्छब्द रूपं प्रातिपदिकसंज्ञं स्यात्।)
अर्थ - धातु, प्रत्यय और प्रत्ययान्त को छोड़कर सार्थक शब्द स्वरूप की प्रतिपादिक संज्ञा होती है।
व्याख्या - यह सूत्र विद्वानों के समुदाय में वाद-विवाद का विषय रहा है। विद्वानों ने इसकी व्याख्या बड़े विस्तार के साथ की है। स्नातक क्रमानुसार संक्षेप में इसकी व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। सूत्र का मूलभाव यह है कि सार्थक किसी शब्द की प्रतिपादिक संज्ञा होती है। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि निरर्थक किसी भी शब्द की प्रतिपादिक संज्ञा नहीं होगी। किन्तु इस सार्थक शब्द के लिए भी तीन बातें आवश्यक हैं-
1. वह सार्थक शब्द धातु नहीं होना चाहिए। इसका फल यह होता है कि अरादि "हन" धातु लङ्लकार के प्रथम पुरुष में "अहन्" रूप बनता है। यदि इसकी प्रातिपदिक संज्ञा हो जाती तो "नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' सूत्र से "न्" लोप होकर अनिष्ट रूप बन जाता। अतः उपर्युक्त सूत्र में "अधातुः कह देने से प्रातिपदिक संज्ञा के अभाव में 'न' लोप नहीं होता है। और इस प्रकार दोष परिहार हो जाता है।
2. वह सार्थक शब्द प्रत्यय नहीं होना चाहिए। अतः "रामेषु" "हरिषु" "कारोषि" इत्यादि स्थलों में क्रमशः 'सुप्' और 'सिप' प्रत्यय हुए हैं। इनकी प्रातिपदिक संज्ञा नहीं होगी। यदि इनकी प्रातिपदिक संज्ञा हो जाती तो ‘एकवचनमुत्सर्गतः करिष्यते' के अनुसार पद संज्ञा होने से "सात्पदाधो' सूत्र से षत्व का निषेध हो जाता जोकि अभीष्ट नहीं है। अतः सूत्र में 'अप्रत्ययः' कह देने से प्रातिपदिक संज्ञा न होने से कोई दोष नहीं आता है।
3. वह सार्थक शब्द "प्रत्ययान्त" भी नहीं होना चाहिए। यथा हरिषु करोषि आदि समुदाय सार्थक है किन्तु इसकी प्रातिपदिक संज्ञा नहीं होती है अन्यथा प्रातिपदिक संज्ञा होने से 'सुपों धातु प्रातिपदिकयोः ' सूत्र से 'सु' लोप होकर अनिष्ट रूप बनता। यद्यपि सूत्र में प्रत्ययान्त नहीं कहा गया है किन्तु प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणम्' के नियमानुसार प्रत्यय ग्रहण करने में प्रत्ययान्त का भी ग्रहण होता है। इस प्रकार 'राम' शब्द सार्थक है। न वह धातु है न प्रत्यय है न प्रत्ययान्त है। इसलिए 'राम' की प्रातिपदिक संज्ञा होती है। यहाँ पर विद्वानों में कुछ मतभेद है। शब्दों के सम्बन्ध में दो मत प्रचलित हैं -
1. व्युत्पत्ति पक्ष,
2. अव्युत्पत्ति पक्ष।
व्युत्पत्ति - पक्षानुसार सभी शब्द किसी न किसी धातु से प्रत्ययों का योग होने पर ही बनते हैं। तब 'राम' शब्द 'रमु क्रीडायाम्' धातु से "करणाधिकरणयोश्च' सूत्र से 'घञ्' प्रत्यय होकर "रमन्ते योगिनः यस्मिन्” अर्थात् जिसमें योगी लोग खेलते हैं, वह राम है। इस पक्ष में राम शब्द प्रत्ययान्त होने से उपयुक्त सूत्र का उदाहरण नहीं बन सकता है। अतः अग्रिम सूत्र "कृत्तद्धित समासाश्च" से प्रातिपदिक संज्ञा होगी।
अव्युत्पत्ति पक्ष के अनुसार शब्द अपने मूल रूप में होता है। वह किसी प्रत्यय के योग से नहीं बनता। उसमें अवयव की कल्पना नहीं करनी चाहिए। वह संज्ञा अपने संज्ञी को समुदाय शक्ति से बोध कराती है। अतः इस पक्ष में 'राम' शब्द 'संज्ञा' दशरथ पुत्र को प्रकट करता है और तब उपर्युक्त सूत्र से प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
2. कृत्तद्धित समासाश्च
अर्थ - 'कृत्' प्रत्ययान्त अर्थात् कृदन्त और तद्धित अर्थात् तद्धितान्त और समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
व्याख्या - उपर्युक्त सूत्र में कृत् से कृत् प्रत्ययान्त तथा तद्धित से तद्धित प्रत्ययान्त अर्थ लिया जाता है। किन्तु इसमें विशेषता यह है कि कृत् प्रत्यय तो अन्त में ही होते हैं पर सभी तद्धित प्रत्यय अन्त में नहीं होते। अतः तद्धितान्त अर्थ न करके तद्धितयुक्त अर्थ करना अधिक संगत है। यथा-
"सर्वक" और "बहुपट" आदि शब्दों में क्रमशः 'अकच्' प्रत्यय 'हि' को तथा "बहुच्" प्रत्यय पूर्व में होता है। अतः यहाँ पर तद्धितान्त अर्थ करने से प्रादिपदिक संज्ञा संभव नहीं होती। अतः तद्धितयुक्त अर्थ कर लेने से किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं पड़ता है। यथा कृदन्तवाचक कारक आदि शब्दों की तद्धितयुक्त औपगव पाणिनीय, मालीय और समास राजपुरुष, चित्रग्रीव इत्यादि की प्रातिपदिक संज्ञा होती है।
स्वौजसमौट्छष्टाभ्यांभिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्यांभ्यस्ङसोसाम्ङ्योस्युप्,
अर्थ - सु, औ, जस्, अम्, औट्, शस्, टा, भ्याम्, भिस्, डे, म्याम्, भ्यस् ङसि, भ्याम्, म्यस्, ङास्, ओस्, आम्, डि, ओस्, सुप् ये प्रत्यय प्रातिपदिक राम आदि पदों से होते हैं।
व्याख्या - प्रथमा आदि सात विभक्तियाँ मानी जाती हैं तथा प्रत्येक विभक्ति के एक वचन, द्विवचन, बहुवचन भेद से तीन-तीन वचन होते हैं। इसे प्रथम त्रिक भी कहा जाता है एवं विभक्ति के तीनों वचनों में तीन-तीन प्रत्यय होते हैं। अतः सातों विभक्तियों के 21 प्रत्ययों को उपर्युक्त सूत्र में दिखाया गया है। इसे हम निम्न चक्र से भी समझ सकते हैं -
विभक्ति | एकवचन | द्विवचन | बहुवचन | त्रिक संख्या |
प्रथमा | सु (स्) | औ | जस् (अस्) | पहला त्रिक |
द्वितीया | अम् | औट (औ) | शस् (अस्) | दूसरा त्रिक |
तृतीया | टा (आ) | भ्याम् | भिस् | तीसरा त्रिक |
चतुर्थी | ङे (ए) | भ्याम् | भ्यस् | चौथा त्रिक |
पञ्चमी | ङसि (अस्) | भ्याम् | भ्यस् | पांचवाँ त्रिक |
षष्ठी | डस (अस्) | ओस् | आम् | छठा त्रिक |
सप्तमी | ङि (इ) | ओस् | सुप् (सु) | सातवाँ त्रिक |
इस सूत्र में प्रथमा विभक्ति के 'सु' से लेकर सप्तमी विभक्ति के बहुवचन के 'सुप्' प्रत्यय का 'प्' लेकर सुप् प्रत्याहार बनता है। 'सुप' प्रत्याहार से इन्हीं 21 प्रत्ययों का बोध होता है। ये प्रत्यय किन शब्दों से तथा कहाँ हों? इसके ज्ञानार्थ अग्रिम अधिकार सूत्रों का समझना आवश्यक है। अतः इन तीनों अधिकार सूत्रों को एक साथ प्रदर्शित किया जाता है तथा उनकी व्याख्या क्रमशः की जा रही है। जिससे पूर्वोक्त सूत्र का भाव ग्रहण हो सके।
3. ङयापुप्रातिपदिकात्
अर्थ - ङयन्त, आबान्त और प्रातिपदिक से परे पूर्वोक्त सु आदि प्रत्यय होते हैं।
व्याख्या - ङयन्त कहने का भाव स्त्री प्रत्यय में बताये गये ङीष् और ङीप् ङीन् प्रत्ययों का बोध होता है। आन्त कहने से टाप् चाप और डाप् स्त्रीबोधक प्रत्ययों का बोध होता है क्योंकि सभी में अनुबन्ध रहित 'आ' ही शेष रहता है। अर्थात् उपर्युक्त ङीप् ओर टाप आदि प्रत्यय जिन शब्दों के अन्त में हो. ऐसे शब्दों से तथा प्रातिपादिक से सु आदि 21 प्रत्ययों का विधान होता है। ङीप्, ङीष् ङीन्, टाप्, डाप्, और चाप ये प्रत्यय स्त्री प्रकरण में बताये गये हैं। इनसे गौरी गोपी, मन्दा, विलाता आदि शब्दों की सिद्धि होती है। ङयन्त और आबन्त की प्रत्ययान्त होने से पूर्वोक्त प्रथम सूत्र से प्रातिपादिक संज्ञा संभव नहीं और न तो ये प्रत्यय कृत् और तद्धित हैं इसलिए "कृत्तद्धित समासाश्च' सूत्र से भी प्रातिपदिक संज्ञा सम्भव नहीं। अतः केवल प्रातिपदिक कहने से इनका संग्रह सम्भव नहीं था। इसलिए पृथक् रूप से सूत्र में इन्हें ग्रहण किया गया है।
यथार्थ रूप से "प्रत्ययग्रहणे लिङ्ग - विशिष्टस्यापि ग्रहणम्" अर्थात् जहाँ प्रत्यय का ग्रहण होता है।
इस परिभाषा के बल से सभी स्त्री प्रत्ययों का ग्रहण हो जायेगा। अतः ङयाप कहने की भी आवश्यकता नहीं। इसीलिए श्वश्रु आदि ऊङन्त शब्दों से भी 'सु' आदि की सिद्धि होती है नहीं तो मात्र 'सु' आदि की सिद्धि होती है नहीं तो मात्र 'ङया' कहने से उक्त 6 स्त्री प्रत्ययों का ही ग्रहण होगा। जबकि 'ऊड़ और 'ति' प्रत्ययों का भी ग्रहण आवश्यक है तभी 'युवतिः' आदि शब्दों की सिद्धि संभव है।
4. प्रत्ययः
अर्थ - यह अधिकार सूत्र है। इसका अधिकार 5 वें अध्याय की समाप्ति तक जाता है। अर्थात् तीसरे चौथे और पाँचवें अध्याय में आने वाले सूत्रों से जिनका विधान किया जाता है, उन्हें "प्रत्यय" कहते हैं और जिससे प्रत्यय का विधान किया जाता है, उसे "प्रकृति" कहते हैं। और जहाँ-जहाँ प्रकृति से प्रत्यय का विधान होता है वहाँ-वहाँ प्रकृति में पञ्चमी विभक्ति का प्रयोग होता है। यथा "अचोयत्" स्वपोनन्" यहाँ पर 'अय्' और 'स्वप्' में पञ्चमी विभक्ति का 'दिग् योग में हुयी है। अतः यह शंका उत्पन्न होती है कि वे प्रत्यय प्रकृति के पहले किए जाये या पश्चात्। इस शङ्का के समाधानार्थ अग्रिम सूत्र अपेक्षित है।
5. परश्च
अर्थ - यह भी अधिकार सूत्र है। प्रत्यय सदैव प्रकृति के पश्चात् आता है। वह प्रकृति से पूर्व नहीं होता। यथा पूर्वोक्त "स्वपोनन्" सूत्र में 'स्वप्' धातु से 'नन्' प्रत्यय हुआ है। इसी प्रकार तृतीया एकवचन राम + टा यहाँ पर "टा" प्रत्यय टित् होने से "आद्यन्तौ टकितौ" सूत्र से "राम" के आदि में न होकर "राम" के परे होगा। अतः पूर्वोक्त क्रमांक 'ङयाप् प्रातिपदिकात् 'सूत्र का स्पष्ट अर्थ निम्न होगा। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्याय में जिन प्रत्ययों का विधान किया गया है, वे ङीप्, ङीष् और ङीन् आदि प्रत्यय तथा आप् प्रत्ययान्त टाप्, चाप और डाप् आदि प्रत्यय तथा प्रातिपदिक अर्थात् अर्थवान् शब्द, कृदन्त और तद्धित युक्त शब्द तथा समास से बाद में होते हैं। अतः उपर्युक्त 21 प्रत्यय शब्दों के अन्त में ही होंगे।
6. सुपः
अर्थ - 'सुप्' प्रत्याहार के प्रत्येक त्रिक के तीनों वचन क्रमशः एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन संज्ञा वाले होते हैं।
व्याख्या - सुप् प्रत्याहार के अन्तर्गत 2 प्रत्यय आते हैं जिनके 7 त्रिक बनते हैं तथा प्रत्येक त्रिक में क्रमश: एकवचन, द्विवचन एवं बहुवचन होते हैं। यथा प्रथम त्रिक में सु, औ, जस्, ये तीन वचन होते हैं। प्रकृत सूत्र से 'सु' की बहुवचन संज्ञा होती है। इसी प्रकार अन्य त्रिकों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।
7. द्वयेकयोर्द्विवचनैकवचने
अर्थ - एक की विवक्षा में एकवचन और दो की विवक्षा में द्विवचन होता है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र में "द्वौ च एकश्च तेषु द्वयेकेषु" ऐसा समास करने से बहुवचन होना चाहिए था, किन्तु सूत्रकार ने ऐसा न करके 'द्वि' शब्द से दो पदार्थ तथा एक शब्द से एक पदार्थ ऐसा अर्थ ग्रहण नहीं किया जायेगा अपितु द्वि शब्द से दो की संख्या अर्थात् एकत्व ग्रहण किया जायेगा। लोक में द्वि और एक शब्द संख्येय वाची प्रसिद्ध होने से द्वि शब्द से दो पदार्थ तथा एक शब्द से एक पदार्थ किया जाता है, न कि दो और एक की संख्या। अतः पाणिनि ने "द्वयेकयो: " कहकर द्वि और एक शब्द को संख्यावाची बना दिया है। अर्थात् दो और एक की संख्या होने पर क्रमशः द्विवचन और एकवचन होगा। तत्वबोधिनी टीका में भी द्वि और एक शब्दों को प्रकृत सूत्र में संख्यावाची स्वीकार किया गया है। लोक में एक से लेकर नवदशन् तक सभी शब्द संख्येय वाची माने जाते हैं। इसीलिए व्यवहार में शब्दों के साथ इनका समानाधिकरणं सम्बन्ध होता है। यथा एकः छात्रः द्वौ बालकौ विंशतिः आदि संख्या और संख्येय दोनों के वाचक होते हैं। यथागवाम् विंशतिः विंशतिः गावः में क्रमशः संख्या एवं संख्येयवाची है।
8. विरामोऽवसानम्
अर्थ - वर्णों के अभाव की अवसान संज्ञा होती है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र में "विराम" शब्द की सिद्धि अधिकरण तथा भाव में "घञ् " प्रत्यय करके स्वीकार की जाती है। अधिकरण के अनुसार "विरम्यतेऽस्मिन्" इति विरामः अर्थात् उच्चारण का ठहराव जहाँ पर होता है उसे विराम कहते हैं और उच्चारण का ठहराव अन्तिम वर्ण के पास होता है। अतः इस पक्ष के अनुसार अन्तिम वर्ण की " अवसान" संज्ञा होती है। भावमूलक व्युत्पत्ति के अनुसार "विरमणम्" विरामः अर्थात् उच्चारण का न होना विराम कहलाता है। इस पक्ष के अनुसार अन्तिम वर्ण के आगे अभाव की अवसान संज्ञा होगी। प्रथम पक्ष के अनुसार "रामर्" में 'र' की अवसान संज्ञा होगी। द्वितीय पक्ष के अनुसार रेफ के आगे उच्चारण का अभाव है अतः उस अभाव की अवसान संज्ञा होगी।
9. सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ
अर्थ - एक अर्थात् समान विभक्ति के परे रहने पर जितने शब्द समान रूप वाले होते हैं उनमें एक ही रूप शेष रहता है (अन्य का लोप हो जाता है)।
व्याख्या - "प्रत्यर्थं शब्दः " अर्थात प्रत्येक अर्थ के लिए पृथक शब्द के उच्चारण की आवश्यकता होती है। अतः जब दो या तीन या उससे अधिक अर्थों का बोध कराना होता है तो तद्वाचक शब्द का दो या तीन या उससे अधिक बार उच्चारण करना पड़ता है। जब दो या तीन राम कहने होते हैं तो राम शब्द का उच्चारण दो बार या तीन बार करना होता है। यथा “दो राम" के लिए "राम राम" कहना पड़ेगा। ऐसी अवस्था में इस सूत्र के नियम से केवल एक राम शेष रहता है और शेष का लोप हो जाता है और वह शेष शब्द लोप हुए अर्थ का भी बोध कराता है। जैसाकि कहा गया है "यः शिष्यते स लुप्यमानार्थाभिधायी' अर्थात् जो शेष रहता है वह लुप्त होने वालों का भी बोध कराता है। प्रस्तुत सूत्र में एक शब्द का अर्थ सम्पूर्ण या सभी के अर्थ में है। इसीलिए माता का वाचक मातृ शब्द तथा परिमाण वाचक 'मातृ' शब्द में एकशेष द्वन्द्व नहीं होता। क्योंकि दोनों के रूप सभी विभक्तियों में समान नहीं होते। यथा जननी वाचक 'मातृ' शब्द के माता, मातारौ मातारः रूप बनते हैं।
इस प्रकार "राम" शब्द का प्रथमा विभक्ति द्विवचन में दो बार राम शब्द का उच्चारण प्राप्त था। किन्तु प्रस्तुत सूत्र से एक ही 'राम' शब्द रह गया। पूर्वोक्त सूत्र "द्वयेकयो........" इत्यादि सूत्र से द्विवचन में 'औ' प्रत्यय आने पर राम + और रूप बनता है। इस स्थिति में "वृद्धिरेचि" सूत्र से मकार के आकार तथा औ के स्थान पर वृद्धि एकादेश प्राप्त होता है। वृद्धि प्राप्त होने पर अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है।
10. प्रथमयोः पूर्व सवर्णः
अर्थ- 'अक' प्रत्याहार से प्रथमा या द्वितीया विभक्ति का कोई 'अच्' प्रत्याहार का वर्ण परे हो, तो पूर्व पर के स्थान पर पूर्वसवर्ण दीर्घ एकादेश होता है।
व्याख्या प्रस्तुत सूत्र में 'प्रथमयोः पद में द्विवचन का प्रयोग हुआ है तथा इसमें एक शेष द्वन्द्व 'प्रथमा च प्रथमा च प्रथमे तयोः प्रथमयोः यह सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। अतः पहले 'प्रथमा' शब्द से 7 विभक्तियों में प्रथम सु, और जस् प्रथमा विभक्ति का ग्रहण होता है तथा दूसरे 'प्रथमा' शब्द से अवशिष्ट छः विभक्तियों में प्रथम अर्थात् अम्, औट, शस् का बोध होता है। इस प्रकार 'प्रथमयोः शब्द से प्रथमा और द्वितीया विभक्ति का ग्रहण होता है। अतः राम + औ इस अवस्था में मकार के अन्तर्गत अकार के पश्चात् प्रथमा विभक्ति के औ अच् परे रहने पर पूर्वोक्त वृद्धि को बाँधकर प्रस्तुत सूत्र से पूर्व सवर्ण एकादेश प्राप्त होता है किन्तु इस सूत्र का भी बाध अग्रिम सूत्र से होता है।
11. नादिचि
अर्थ - अवर्ण के पश्चात् यदि 'इच्' प्रत्याहार का वर्ण परे हो, तो पूर्व सर्वण दीर्घ एकादेश नहीं होता है।
व्याख्या - राम + औ यहाँ इस सूत्र से पूर्व सवर्ण दीर्घ एकादेश नहीं होता है।
12. बहुषु बहुवचनम्
अर्थ - बहुत्व अर्थात् दो संख्या से अधिक की विवक्षा में बहुवचन का प्रत्यय होता है। यथा राम शब्द का बहुवचन में "राम राम राम" इन तीन शब्दों का या इनसे अधिक राम शब्दों की हमें विवक्षा करनी है तो "सरूपाणां" सूत्र से केवल एक ही राम शेष बचेगा। एवं बहुत की विवक्षा में प्रस्तुत सूत्र से बहुवचन होने पर पूर्वोक्त "स्वौजस ............ इत्यादि सूत्र से जस् प्रत्यय आने पर राम + जस् रूप बनता है। इस अवस्था में अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है।
13. चुटू
अर्थ - प्रत्यय के प्रारम्भ में चवर्ग का अर्थात् च छ ज झ ञ और टवर्ग अर्थात् ट ठ ड ढ ण इनमें से कोई वर्ण हो तो उसकी इत् संज्ञा हो जाती है।
व्याख्या - राम + जस्। यहाँ 'जस्' प्रत्यय के आदि में चवर्ग का जकार है। अतः प्रस्तुत सूत्र से 'इत्' संज्ञा होकर 'तस्य लोपः' सूत्र से उसका लोप होकर राम + अस् यह स्थिति बनती है। इस अवस्था में सकार अन्त्य हल है उसकी 'हलन्त्यम्' सूत्र से इत् संज्ञा प्राप्त होती है। उसके निवारण के लिए अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है।
14. विभक्तिश्च
अर्थ- सुप और तिङ् की विभक्ति संज्ञा होती है।
व्याख्या - सुप एक प्रत्याहार हैं इसके अन्तर्गत प्रथम विभक्ति के 'सु' प्रत्यय से लेकर सप्तमी विभक्ति के 'सुप' के पकार तक 'सुप्' प्रत्याहार कहा जाता है। इसमें कुल 21 प्रत्यय आते हैं जिन्हें पिछले 'स्वौजस्' (3) इत्यादि सूत्र में स्पष्ट किया जा चुका है। 'तिङ्' भी एक प्रत्याहार है। तिप् से लेकर महि के ङकार तक 'तिङ' प्रत्यय समझे जाते हैं। इसके अन्तर्गत 18 प्रत्यय आते हैं। जिन्हें निम्न चक्र से समझा जा सकता है।
एकवचन |
द्विवचन | बहुवचन | |
प्रथम पुरुष | तिप | तस् | झि |
मध्यम पुरुष | सिप् | थस् | थ |
उत्तम पुरुष | मिप् | वस् | मस् |
प्रथम पुरुष | त | आताम् | झ |
मध्यम पुरुष | थास | आथाम् | ध्वम् |
उत्तम पुरुष | इट् | वहि महिङ | वहि महिङ |
इस विभक्ति संज्ञा का फल अग्रिम सूत्र में कहा गया है।
15. न विभक्तौ तुस्माः
अर्थ - विभक्ति में स्थित तवर्ग सकार और मकार "इत्" सँज्ञक नहीं होते हैं।
व्याख्या - जैसे राम + अस् यहाँ हलन्त्यम् से सकार की इत्संज्ञा प्राप्त होती है। परन्तु सूत्र निषेध कर देता है।
16. एकवचनं संबुद्धि
अर्थ - सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति का एकवचन संबुद्धि संज्ञक होता है।
व्याख्या - इस सूत्र से सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति एक व 'सु' की संबुद्धि संज्ञा होती है। इस संज्ञा का फल 'सु' आदि का लोप होना होता है।
17. यस्मात्प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेङ्गम्
अर्थ - जो प्रत्यय जिस शब्द से विधान किया जाता है, वह है आदि में जिस समुदाय के उस शब्द स्वरूप की उस प्रत्यय के परे रहते "अङ्ग" संज्ञा होती है।
व्याख्या - इसे उदाहरण के रूप में यों समझा जा सकता है। यथा "भू" धातु से "लट्" के स्थान पर उत्तम पुरुष एकवचन में भू + मिप् बना। पुनश्च " शप्" तथा अनुबन्ध लोप होकर भू + अ + "मिप्" बना। यहाँ पर "मिप् प्रत्यय "भू" धातु से किया गया है। अतः "भू" प्रकृति तथा "मिप्' प्रत्यय है और वह "भू" प्रकृति "ऊ" इस शब्द स्वरूप के आदि में है। अतः प्रकृति सहित वह शब्द स्वरूप भू + अ है। अतः “मिप्” प्रत्यय परे रहते उस "भू" अ की अङ्ग संज्ञा हुई है तथा अङ्ग संज्ञा का फल अदन्त अङ्ग को "अतोदीर्धोयञि" सूत्र से दीर्घ होकर "भवामि रूप बनता है जहाँ पर केवल प्रकृति ही होगी, उसके आगे तथा प्रत्यय से पूर्व अन्य कोई शब्द स्वरूप नहीं होगा, वहाँ केवल प्रकृति की ही अङ्ग संज्ञा हो जायेगी, अर्थात् व्यपदेश्विद् भाव से तदादि केवल प्रकृति की ही बोधक होगी। यथा "राम + सु' में प्रकृति राम और प्रत्यय "सु" के मध्य में अन्य कोई प्रत्यय नहीं है। अतः राम की ही अङ्ग संज्ञा होगी और इसका फल अग्रिम सूत्र से स्पष्ट होगा।
18. एङह्रस्वात्संबुद्धेः
अर्थ - एडन्त अर्थात् जिसके अन्त में 'ए' या 'ओ' हो और ह्रस्वान्त अङह से परे सम्बोधन प्रथमा एकवचन के हल का लोप होता है।
व्याख्या - जैसे- हे राम + स् यहाँ इस सूत्र से सकार का लोप हो जाता है।
19. अमि पूर्वः
अर्थ - 'यदि' 'अक्' अर्थात् अ, इ, उ, ऋ, ऌ से परे अम् का कोई अच् अर्थात् स्वर परे हो तो पूर्व पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होता है।
20. लशक्वतद्धिते
अर्थ - तद्धित भिन्न प्रत्यय के आदि में लकार शकार अथवा कवंर्ग का कोई वर्ण हो, तो उसकी इत्संज्ञा होती है। सूत्र में तद्धित भिन्न कहने का अर्थ है कि यदि तद्धित प्रत्यय 'कप्' और 'लच्' होगें तो उनकी इत्संज्ञा न होगी। यथा राम शब्द से द्वितीया बहुवचन में शस् प्रत्यय आने पर राम + शस् इस अवस्था में प्रत्यय के आदि शस् के शकार की प्रस्तुत सूत्र से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप होकर प्रथमयोः पूर्वसवर्णः सूत्र से पूर्वसवर्ण दीर्घ होकर रामास् रूप बनता है। इस अवस्था में अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है -
21. तस्माच्छसो नः पुंसि
अर्थ - पूर्व सवर्ण दीर्घ से परे शस् के सकार को नकार आदेश होता है।
व्याख्या - पुल्लिंग के होने पर। अतः रामास इस अवस्था में मकारोत्तरवर्ती आकार पूर्वसवर्ण दीर्घ का है और उससे परे शस् का सकार है तो उसे नकार होकर रामान् रूप बनता है। इस अवस्था में अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है।
22. अट्कुप्वाङ्नम्व्यवायेऽपि
अर्थ - अट् प्रत्याहार का कोई वर्ण, कवर्ग, पवर्ग आङ् और नुम् इनका पृथक्-पृथक् अथवा दो या तीन या चारों मिलकर व्यवधान होने पर भी समान पद में रेफ व षकार से परे नकार को णकार हो जाता है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में समान पद आया है। उसका समझना आवश्यक है। समान पद से तात्पर्य अखण्ड पद से है। अर्थात् जिस पद के टुकड़े करके उनका स्वतंत्र रूप से पृथक पृथक् प्रयोग न किया जा सके, उसे समान या अखण्ड पद कहते हैं। रामान् अखण्ड पद है क्योंकि इसके टुकड़े नहीं किये जा सकते।
इसीलिए यहाँ णकार प्राप्त है और इस णकार की प्राप्ति में रामान् में सभी विशेषताएं प्राप्त होती हैं। यथा र् + आ + म् + आ + न् में रेफ से परे 'अकार' 'अट्' 'म्' पवर्ग और आ अट् इन तीन वर्णों से व्यवहित नकार है। अतः णत्व प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त रघुनाथ, रामनाथ इन शब्दों में णकार नहीं हो सकता। क्योंकि यहाँ अखण्ड पद नहीं है। यहाँ पर रघु तथा नाथ इन दोनों पदों का स्वतन्त्ररूपेण प्रयोग किया जा सकता है। वैसे इस सूत्र पर विद्वानों ने गंभीरता पूर्वक विचार करते हुए विभिन्न पक्ष प्रस्तुत किये हैं। क्या रेफ के पश्चात् अट् कवर्ग आदि सभी का व्यवधान होना चाहिए अथवा किसी एक का व्यवधान होना चाहिए। विद्वानों का विचार है कि प्रथम पक्ष असंभव है क्योंकि साहित्य में कोई ऐसा शब्द नहीं है जिसमें रेफ या षकार के परे अट्, कवर्ग आदि सभी से व्यवहित णकार हो। ऐसा कोई लक्ष्य उदाहरण नहीं मिलता। अतः यह पक्ष असंगत प्रतीत होता है। द्वितीय पक्ष उचित है। इससे नराणाम्, कराणाम् प्रयोगों की सिद्धि होती है। चरणेयजः स्तोकान्तिकदूरार्थकृच्छाणिक्तेन सूत्रों से इसी पक्ष की पुष्टि होती है। इसके अतिरिक्त उदाहरण के रूप में कुछ सूत्र मिलते हैं जिनसे यह पुष्ट होता है कि अट्-कवर्ग- आदि में चाहे जितने वर्णों का व्यवधान हो णत्व हो जाता है। यथा कर्माणि द्वितीया सरूपाणां एकशेष एकविभक्तौ इत्यादि सूत्रों में परिलक्षित होता है। ग्रन्थकार ने इसी बात का संकेत एतैर्व्यस्र्तर्यथासंभवमिलितैश्च के द्वारा दिया है। अट् कवर्ग, पवर्ग, आङ नुम् इनके उदाहरण क्रमशः 'करिणा'- 'हरिणा' 'अर्केण' अर्घेण 'मूर्खाणां', 'दर्पेण' 'कर्मणा' 'चर्मणा', 'रेफेण', 'पर्याणद्धम' बृहणम्, इत्यादि हैं।
23. पदान्तस्य
अर्थ - रेफ और षकार से परे पदान्त नकार को णकार न हो। यथा रामान् में नकारु पद के अन्त में होने से इसका णकार नहीं हुआ।
व्याख्या - जैसे - रामान् के नकार को णत्व प्राप्त होता है। परन्तु इस सूत्र से निषेध होता है।
24. टाङ सिङसामिनात्स्याः
अर्थ - अदन्त अङ्ग से परे 'टा' को इन् ङसि को आत् और डस् को 'स्य' आदेश होता है।
25. सुपि च
अर्थ - यआदि सुप् के पड़े होने पर अदन्त अंग को दीर्घ होता है।
व्याख्या - 'यञ्' से 'तात्पर्य', 'यञ्' प्रत्याहार से है और यह पद 'सुप' का विशेषण है। यथार्थ रूप से यआदि सुप् में भ्याम्, भ्यस् भिस्, आदि हैं चतुर्थी ङे के स्थान पर होने वाला य आदेश भी यआदि सुप् में लिया जायेगा। अलोऽन्त्स्य सूत्र के नियम से 'राम' के अन्त्य अय् को दीर्घ होगा।
26. अतो मिस ऐस्
अर्थ - अदन्त अंग से परे 'भिस्' के स्थान पर ऐस् आदेश होता है।
व्याख्या - यह 'ऐस्' आदेश सम्पूर्ण 'भिस्' के स्थान पर होता है। अनेकाल् शित्सर्वस्य इस नियम के अनुसार अनेक 'अल्' वाला आदेश सम्पूर्ण के स्थान पर होता है। यहाँ पर अनेक अल् 'ऐ' और 'स' हैं। अतः सम्पूर्ण भिस् के स्थान पर ऐ स् आदेश होकर 'राम + ऐस्' रूप व 1
27. डेयः
अर्थ - अदन्त अङ्ग से परे 'डे' के स्थान पर य आदेश होता है। यथा राम शब्द से चतुर्थी एकवचन में 'डे' प्रत्यय होकर राम + ङे इस दशा में प्रस्तुत सूत्र से 'य' आदेश होकर राम + 'य' इस दशा में 'य' यञादि तो है किन्तु सुप् नहीं है अतः सुपि च से दीर्घ नहीं होगा। इसलिये अग्रिम सूत्र प्रवृत्त होता है।.
28. स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ
अर्थ - आदेश स्थानी के समान होता है। परन्तु यदि स्थानी अल् हो तोदायश्रयविधि में न हो।
व्याख्या - सू के पारिभाषिक शब्दों को समझना आवश्यक है।
स्थानी - जिसके स्थान पर कुछ किया जाता है उसे स्थानी कहते हैं। जैसे राम शब्द से चतुर्थी एकवचन में डे के स्थान पर य प्रत्यय होता है। अतः 'डे' स्थानी है।
आदेश - जो स्थानी के स्थान पर किया जाता है जैसे- डे के स्थान पर होने वाला 'य' प्रत्यय आदेश है।
स्थानिवत् - जो धर्म स्थानी में हों वही आदेश में भी समझे जायें जैसे राम + ङे इस दशा में ङे के स्थान पर य में वही धर्म समझे जायेंगे जो ङे में है। अर्थात् जो कार्य ङे को मान करके होता या वही कार्य य को मान करके हो जायेगा। यहाँ पर ङे में सुप्त्व धर्म है। अतः य में भी मान करके सुपि च से दीर्घ होगा।
अनविधि - अलाश्रय विधि में आदेश स्थानी धर्म वाले नहीं होते हैं। 'अल्' प्रत्याहार में सभी वर्ण आते है। अतः जहाँ पर एक वर्ण का आश्रयण होगा वहाँ पर उस विधि के करने में आदेश स्थानिवत् नहीं होगा इस स्थानिवत् भाव के न होने के चार रूप हो सकते हैं क्योंकि 'अनल्विधौ' में चार प्रकार से समास विग्रह होने से ऐसा सम्भव होता है।
1. अलाविधिः अल् विधिः (तृ तत्पुरुष) अर्थात् स्थानी अल् के द्वारा कोई विधि करनी हो तो आदेश स्थानिवत् नहीं होता है। यथाव्यूढम् उरो यस्य सः इस बहुब्रीहि समास में 'सोऽपदादौ' सूत्र से विसर्ग के स्थान पर सकार हुआ है। विसर्ग को अट् प्रत्याहार के अन्तर्गत माना गया है। अब इस प्रकार को स्थानिवत् भाव से विसर्ग मान लेवें तो अट् के अन्दर होने से 'अटकुप्वाङ' सू से णत्व होगा।
'व्यूढोरस्केण' ऐसा अनिष्ट प्रयोग बनेगा। यहाँ पर स्थानी विसर्ग अल् के द्वारा णत्व विधि करनी है। अतः आदेश स स्थानिवत् नहीं होगा।
2. अलः (परस्य) विधिः (ष-तत्पुरुष) अर्थात् स्थानी अल् से परे कोई विधि करनी हो तो आदेश स्थानिवत् नहीं होता है। यथा-धौः इस प्रयोग में दिव् शब्द से सु प्रत्यय करने पर 'दिव औत' सू से 'व' को 'औ' होकर दि + और + स् इस अवस्था में औ इस आदेश से स्थानिवत् वकारवत् हल् मानने से 'हल्डयाम्य' सू से सकार का लोप प्राप्त होता है जो अनिष्ट है।
यहाँ पर स्थानी अल् वकार से परे लोप विधि करनी है। अतः आदेश और स्थानिवत् वकारवत् नहीं होगा।
3. अलि (परे) विधि सः तत्पुरुष। यदि स्थानी अल् के परे होने पर उससे पूर्व कोई विधि करनी है तो आदेश स्थानिवत् नहीं होता है। यथा- कस् + इष्ट में यज् धातु के यकार से इकार किया गया है तथा रुत्व होकर कर् + इष्ट इस दशा में इकार को स्थानिवत् यकार मान करके 'हश्' प्रत्याहार के अन्तर्गत होने से 'हशि' च सूत्र से उत्व प्राप्त होता है जो अनिष्ट है। यहाँ पर स्थानी अल् यकार है उससे पूर्व रकार को उत्व विधि करनी है। अतः आदेश स्थानिवत् नहीं हुआ।
4. अलः (स्थाने विधिः स तत्पुरुष) अर्थात् स्थानी अल् के स्थान पर कोई विधि करनी हो तो आदेश स्थानिवत् नहीं होगा। यथा 'धुकाम:। यहाँ पर दिव + काम इस दशा में 'दिवउत सू से व को उ आदेश होता है। यदि इस उकार आदेश को वकारवत् मान लेवें तो 'वल्' प्रत्याहार के अन्दर होने से 'लोपों व्योर्वलि' सू से वकार लोप प्राप्त होता है, जो अभिप्रेत नहीं है। यहाँ पर स्थानी अल् वकार के स्थान पर लोप विधि करनी है। अतः आदेश उकारः स्थानी वकार के समान नहीं होगा। अतः न अल्विधिः इति अनल्विधिः तस्मिन् अनल्विधौ इस नञ् तत्पुरुष से माना जाता है। अतः अल् विधि को छोड़कर अन्य स्थानों पर आदेश स्थानिवत् होगा।
29. बहुवचने झल्येत्
अर्थ - झलादि बहुवचन सुप् पड़े होने पर अदन्त अंग के स्थान पर एकार आदेश होता है।
व्याख्या - यह आदेश आलेऽन्त्यस्य परिभाषा के अनुसार उदान्त अंग के अन्तिम वर्ण से ही होगा तथा सुप् पड़े होने पर ही होगा इसीलिए पचध्वम् में झलादि बहुवचन तो है किन्तु सुप् नहीं है अपितु 'ध्वम्' प्रत्यय तिङ् है। इसीलिए एत्व नहीं हुआ है। अतः 'राम + भ्यस्' इस दशा में 'झल्' प्रत्याहार बहुवचन में 'भ' प्राप्त होने से राम के मकारोत्तरवर्ती अकार को एत्व हो जाता है।
30. वाऽवसाने
अर्थ - अवसान में झल् प्रत्याहार में आने वाले वर्णों का चर प्रत्याहार का वर्ण हो जाता |
31. ओसिच
अर्थ - ओस् प्रत्यय के पड़े रहने पर अदन्त अंग के स्थान पर एकार आदेश होता है। यहाँ पर यह स्मरणीय है कि यह एकार अलोऽन्त्य के अनुसार अन्त्य वर्ण अकार को होगा।
व्याख्या - जैसे राम + ओस् इस स्थिति में इस सूत्र से राम के अन्त्य अ को एकार आदेश होता है।
32. हस्वनद्यापो नुट्
अर्थ - ह्रस्वान्त, नद्यन्त और आबन्त अंग से परे आम् को नुट् का आगम होता है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र में नदी एक पारिभाषिक शब्द है। दीर्घ ईकारान्त तथा ऊकारान्त नित्य स्त्रीलिंग शब्द नदी संज्ञक होते हैं। आबन्त से तात्पर्य स्त्रीलिंक के टाप् चाप् डाप् प्रत्ययों से है। नुट् का टकार इत्संज्ञक है उकार उच्चारण के लिए है। नुट् होने से आद्यन्तौ टकितौ परिभाषा से 'आम्' का आद्यवयव होगा।
नद्यन्त तथा आन्त के उदाहरण 'बहुश्रेयसीनाम्' तथा 'रमाणाम्' जानने चाहिए। 'यू स्त्र्याख्यौ नदी 'सू' से बहुश्रेयसी शब्द की नदी संज्ञा तथ रमा शब्द में अजाद्यतष्टाप् सू टापे होकर आबन्त होता है।
33. नामि
अर्थ - अजन्त अंग अर्थात जिसके अन्त में कोई स्वर हो, ऐसे अंग को दीर्घ होता है यदि नाम् प्रत्यय पड़े है। अलोऽन्त्य नियम के अनुसार दीर्घ अन्तिम वर्ण से होगा।
व्याख्या - जैसे- राम + नाम यहाँ इस सूत्र से राम में स्थित अन्त्य 'अ' का दीर्घ होता है।
34. आदेशप्रत्यययोः
अर्थ - इण् प्रत्याहार तथा कवर्ग से परे आदेश रूप या प्रत्ययं के अवयव अपदान्त सकार का मूर्धन्य (षकार) हो जाता है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र में 'आदेशप्रत्यययो': इस अंश में आदेशश्च प्रत्ययश्च आदेश प्रत्ययौ तयोः आदेश प्रत्ययों इतरेतर द्वन्द्व माना गया है। यहाँ पर आदेश के साथ अभेदात्मिका षष्ठी और प्रत्यय के साथ अवयव षष्ठी मानी जाती है। इसका फल यह होता है कि आदेश रूप सकार को ही (न कि आदेश के अवयव सकार को) षत्व होता है इसीलिए 'तिसृणाम्' आदि प्रयोगों में सकार को षकार नहीं होता है क्योंकि यहाँ पर सकार आदेश का अवयव है। आदेश रूप तो तिसृ सम्पूर्ण हैं। नहीं तो यहाँ पर अवयव षष्ठी मानने पर षत्व होकर अनिष्ट रूप बनता। प्रत्यय में अवयव षष्ठी मानी है न कि अभेद षष्ठी। अभेद षष्ठी मानने से रामेषु, हरिषु आदि प्रयोग तथा 'हलि सर्वेषाम् "बहुषु बहुवचनम्" आदि निर्देश सम्भव न होते।
अतः आदेश रूप सकार के उदाहरण 'सिषेवे 'सुष्वाप' हैं। इण् कवर्ग से परे षत्व करने का फल रामस्य देवस्य इत्यादि में सकार का षकार नहीं होता है तथा अपदान्त रहने से मुनिस्तिष्ठति 'कविस्तत्र' इत्यादि में पदान्त सकार को नहीं होता है। प्रस्तुत सूत्र में 'इण्' प्रत्याहार 'लण्' सूत्र के णकार तक लिया जायेगा। मूर्धन्य वर्ण ऋ ट् ठ, ड् ढ्, र्, ष, माने जाते हैं।
यहाँ पर स्थानी सकार के साथ इन वर्णों में किसी का स्थान तुल्य नहीं है। अतः यत्न के साम्य मिलाने से सकार का ईषदविवृत आभ्यन्तर प्रयत्न तथा विवाद, श्वास अद्योष बाह्य यत्न है। मूर्धन्य वर्णों में इस प्रकार की समता रखने वाला षकार ही है। अतः सकार के स्थान पर केवल मूर्धन्य षकार ही होता है।
35. जसि च
अर्थ - जस् प्रत्यय के परे होने पर ह्रस्वान्त अंग को गुण होता है।
व्याख्या - हरि + अस् दशा में "जसि च" सूत्र से गुण होकर हरे + इस स्थिति में इस सूत्र से गुण हो जाता है।
36.रस्वस्य गुणः
अर्थ- सम्बोधन में ह्रस्व इ, और उ को गुण हो जाता है।
व्याख्या - जैसे हरि + सु यहाँ इस सूत्र के द्वारा हरि में स्थित इ को गुण ए हो जाता है।
37. शेषो ध्यसखि
अर्थ - नदी संज्ञा से भिन्न ह्रस्व इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों की विधि संज्ञा होती है किन्तु इकारान्त सखि शब्द को छोड़कर होगी।
व्याख्या - जैसे हरि + टा इस स्थिति में इकारान्त हरि शब्द की ही संज्ञा हो जाती है। स्त्रीलिंग में ङित् विभक्तियों के परे होने पर जिस पक्ष में "डिति ह्रस्वश्च" सू से नदी संज्ञा नहीं होती है। अतः इन दो स्थानों पर धि संज्ञा होगी तथा इनसे अतिरिक्त अन्य सभी स्थानों पर ह्रस्व इकारान्त तथा उकारान्त शब्दों की नदी संज्ञा हो जायेगी। सूत्र में शेषः ग्रहण करने की प्रयोजन है नदी संज्ञा करने से जो शेष ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त शब्द हैं, उनकी ही संज्ञा हो अन्यों की नहीं। किन्तु यह प्रयोजन शेष ग्रहण के बिना भी सिद्ध हो सकता था, क्योंकि धि संज्ञा सामान्य होने से उत्सर्ग तथा नदी संज्ञा विशेष होने से अपवाद है। अपवाद को छोड़कर उत्सर्ग प्रवृत्त होते हैं। अतः नदी संज्ञा होकर शेष की संज्ञा स्वतः हो जायेगी।
38. द्येर्डिति
अर्थ - चि संज्ञक अंग को ङित् अर्थात् ङे ङसि ङस् और ङि सुप् प्रत्ययों के पड़े होने के अनुसार गुण अन्त्य अंग को होगा।
व्याख्या - यहाँ हरि + ए इस स्थिति में घेर्डिंति से गुण हो जाता है।
39. ङसिङसोश्च
अर्थ - एङ (ए. ओ) से ङसि या ङस् का अकार परे हो तो पूर्व + पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश होता है।
व्याख्या - हरे + अस् इस स्थिति में ङसिङसोश्च सूत्र से पूर्वरूप एकादेश हो जाता है।
40. अच्च धेः
अर्थ - ह्रस्व इकार तथा ह्रस्व उकार से पड़े ङि को "औत्" और धि को "अत्' आदेश होते हैं।
व्याख्या - हरि + इ इस स्थिति "अच्च धेः " इस सूत्र के द्वारा धि के स्थान पर औत् आदेश हो जाता है।
41. सर्वादीनि सर्वनामानि'
अर्थ - सर्वादिगण में पढ़े हुए शब्दों की सर्वनाम संज्ञा होती है।
व्याख्या - सर्वनाम शब्द अन्वर्थक हैं। सर्वस्य नाम अर्थात् जो सभी को प्रयुक्त हो सके। इस गुण में पढ़े हुए शब्द यदि "सभी" के अर्थ में प्रयुक्त हों तो उनकी सर्वनाम संज्ञा होगी, अन्यथा नहीं। यदि "सर्व" किसी का नाम है तो सर्वनाम संज्ञा नहीं होगी। इसी तरह समास में "सर्वम अतिक्रान्तः " इस विग्र से बने 'अतिसर्व' शब्द में भी सर्वनाम संज्ञा नहीं होगी क्योंकि 'सर्व' शब्द गौण हो गया है। अतः 'संज्ञोपसर्जनीभूतास्ति न सर्वादयः' अर्थात् संज्ञार्थक या गौण अर्थ वाले सर्व आदि शब्द सर्वनाम संज्ञक नहीं होते हैं। इसका फल जस्, डे ङसि आस् तथा ङि विभक्तियों के आदेश सर्वनाम संज्ञा के अभाव में नहीं होंगे। सर्वादिगण के निम्न 14 शब्द हैं।
सर्व-सब, विश्व=सब, उभ = दो, उभय = दो का समुदाय, अन्य = दूसरा, अन्यतर = दो में से एक, इतर = अन्य, त्व= अन्य, नेम= आधा, सम= सब, सम= सब इतर और इतम प्रत्यान्त शब्द भी इसी गण में आते हैं।
42. 'जश: शी'
अर्थ - अदन्त सर्वनाम से परे 'जस्' के स्थान पर 'शी' आदेश होता है।
व्याख्या - 'शी' में श् और ई दो वर्ण होने से अनेकाल होने से सम्पूर्ण 'जस्' के स्थान पर होगा। 'सर्व' शब्द के केवल प्रथमा बहुव, चतुर्थी एकव पञ्चमी एकव, षष्ठी बहुव, सप्तमी एकव में भिन्न रूप बनेंगे। शेष विभक्तियों के रूप राम शब्द के समान समझना चाहिये। अतः भिन्न रूप ही सिद्ध किये जायेंगे।
43. 'सर्वनाम्नः स्मै'
अर्थ - अदन्त सर्वनाम से परे 'डे' के स्थान पर 'स्मै' आदेश होता है। व्याख्या - यह भी अनेकाल होने से सम्पूर्ण 'डे' के स्थान पर होगा।
44. 'ङसिङ्योः स्मात्स्मिनौ'
अर्थ - अदन्त सर्वनाम से परे ङसि और ङि के स्थान पर क्रमशः स्मात् और स्मिन् आदेश होते हैं।
45. 'आमि सर्वनाम्नः सुट् '
अर्थ - अवर्णान्त से परे तथा सर्वनाम से विहित "आम्" को "सुट्" आगम होता है।
व्याख्या - प्रस्तुत सूत्र में अवर्णान्त कहने का भाव यह है कि जो शब्द पहले अवर्णान्त नहीं है यथा - इदम् यत्, तत् आदि। यदि बाद में अवर्णान्त हो तो भी सुट् होगा।
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- प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
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- प्रश्न- 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' इस कथन का क्या तात्पर्य है?
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- प्रश्न- 'उत्तरेरामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- महाकवि भवभूति के प्रकृति-चित्रण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वेणीसंहार नाटक के रचयिता कौन हैं?
- प्रश्न- भट्टनारायण कृत वेणीसंहार नाटक का प्रमुख रस कौन-सा है?
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- प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का रचयिता कौन है?
- प्रश्न- विखाखदत्त के नाटक का नाम 'मुद्राराक्षस' क्यों पड़ा?
- प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटक का नायक कौन है?
- प्रश्न- 'मुद्राराक्षस' नाटकीय विधान की दृष्टि से सफल है या नहीं?
- प्रश्न- मुद्राराक्षस में कुल कितने अंक हैं?
- प्रश्न- निम्नलिखित पद्यों का सप्रसंग हिन्दी अनुवाद कीजिए तथा टिप्पणी लिखिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- "वैदर्भी कालिदास की रसपेशलता का प्राण है।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के नाम का स्पष्टीकरण करते हुए उसकी सार्थकता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- 'उपमा कालिदासस्य की सर्थकता सिद्ध कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् को लक्ष्यकर महाकवि कालिदास की शैली का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास के स्थितिकाल पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के नाम की व्युत्पत्ति बतलाइये।
- प्रश्न- 'वैदर्भी रीति सन्दर्भे कालिदासो विशिष्यते। इस कथन की दृष्टि से कालिदास के रचना वैशिष्टय पर प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 3 अभिज्ञानशाकुन्तलम (अंक 3 से 4) अनुवाद तथा टिप्पणी
- प्रश्न- निम्नलिखित श्लोकों की सप्रसंग - संस्कृत व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित सूक्तियों की व्याख्या कीजिए -
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नाटक के प्रधान नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
- प्रश्न- शकुन्तला के चरित्र-चित्रण में महाकवि ने अपनी कल्पना शक्ति का सदुपयोग किया है
- प्रश्न- प्रियम्वदा और अनसूया के चरित्र की तुलनात्मक समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् में चित्रित विदूषक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा वस्तु के स्रोत पर प्रकाश डालते हुए उसमें कवि के द्वारा किये गये परिवर्तनों की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रधान रस की सोदाहरण मीमांसा कीजिए।
- प्रश्न- महाकवि कालिदास के प्रकृति चित्रण की समीक्षा शाकुन्तलम् के आलोक में कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- शकुन्तला के सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
- प्रश्न- अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार लिखिए।
- प्रश्न- 'काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला' इस उक्ति के अनुसार 'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' की रम्यता पर सोदाहरण प्रकाश डालिए।
- अध्याय - 4 स्वप्नवासवदत्तम् (प्रथम अंक) अनुवाद एवं व्याख्या भाग
- प्रश्न- भाषा का काल निर्धारण कीजिये।
- प्रश्न- नाटक किसे कहते हैं? विस्तारपूर्वक बताइये।
- प्रश्न- नाटकों की उत्पत्ति एवं विकास क्रम पर टिप्पणी लिखिये।
- प्रश्न- भास की नाट्य कला पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- 'स्वप्नवासवदत्तम्' नाटक की साहित्यिक समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर भास की भाषा शैली का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के अनुसार प्रकृति का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- महाराज उद्यन का चरित्र चित्रण कीजिए।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् नाटक की नायिका कौन है?
- प्रश्न- राजा उदयन किस कोटि के नायक हैं?
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के आधार पर पद्मावती की चारित्रिक विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- भास की नाट्य कृतियों का उल्लेख कीजिये।
- प्रश्न- स्वप्नवासवदत्तम् के प्रथम अंक का सार संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- यौगन्धरायण का वासवदत्ता को उदयन से छिपाने का क्या कारण था? स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- 'काले-काले छिद्यन्ते रुह्यते च' उक्ति की समीक्षा कीजिए।
- प्रश्न- "दुःख न्यासस्य रक्षणम्" का क्या तात्पर्य है?
- प्रश्न- निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए : -
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिये (रूपसिद्धि सामान्य परिचय अजन्तप्रकरण) -
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिये।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (अजन्तप्रकरण - स्त्रीलिङ्ग - रमा, सर्वा, मति। नपुंसकलिङ्ग - ज्ञान, वारि।)
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्त प्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - I - पुल्लिंग इदम् राजन्, तद्, अस्मद्, युष्मद्, किम् )।
- प्रश्न- निम्नलिखित रूपों की सिद्धि कीजिए -
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूपसिद्धि कीजिए।
- प्रश्न- निम्नलिखित सूत्रों की व्याख्या कीजिए (हलन्तप्रकरण (लघुसिद्धान्तकौमुदी) - II - स्त्रीलिंग - किम्, अप्, इदम्) ।
- प्रश्न- निम्नलिखित पदों की रूप सिद्धि कीजिए - (पहले किम् की रूपमाला रखें)