बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण वाणिज्य शिक्षणप्रो. रामपाल सिंहप्रो. पृथ्वी सिंह
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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक
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वाणिज्य-शिक्षण की आधुनिक शिक्षण पद्धतियाँ
(MODERN METHODS OF TEACHING COMMERCE)
गत अध्याय में हमने दो परम्परागत पद्धतियों, भाषण पद्धति एवं
पाठ्य-पुस्तकपद्धति का विस्तृत अध्ययन किया। प्रस्तुत अध्याय में आधुनिक
पद्धतियों का विवेचन किया जायेगा। इस प्रकार से दोनों ही अध्याय कोई
पृथक-पृथक दो अध्याय न होकर एक ही अध्याय के दो खण्ड हैं। प्रस्तुत अध्याय
में निम्नांकित पद्धतियों का अध्ययन करेंगे
{1. प्रयोगशाला पद्धति (Laboratory Method);
2 योजना पद्धति (Project Method);
3. समस्या पद्धति (Problem Method);
4. विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक पद्धति (Analytic and SyntheticMethod);
5. समाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति (Socialised Recitation Method);
6. निरीक्षित अध्ययन पद्धति (Supervised Study Method);
7. वादविवाद पद्धति (Discussion Method);
8. इकाई पद्धति (Unit Method)|
1. प्रयोगशाला पद्धति
(LABORATORY METHOD)
शिक्षाशास्त्रियों ने समय-समय पर शिक्षा को अधिक से अधिक रोचक बनाने
कीचेष्टायें की हैं। शिक्षा में सीखना-प्रक्रिया का बड़ा महत्व है। एक तहर से
देखा जाये तोहम पाते हैं कि सभी शैक्षिक प्रयत्न सीखना-प्रक्रिया के चारों ओर
घूमते हैं, किन्तु यहसीखना-प्रक्रिया अत्यन्त जटिल तथा क्लिष्ट है।
शिक्षाशास्त्रियों ने इसको यथासम्भवसरल तथा सुगम बनाने की समय-समय पर
चेष्टायें की हैं। इन चेष्टाओं नेसहायक-सामग्री के प्रयोग के माध्यम से सीखने
की विषय-वस्तु को अधिकतम रोचकबनाने की चेष्टायें अपना उल्लेखनीय स्थान रखती
हैं। वर्तमान युग में पाठ्य-पुस्तक हीसीखने की एकमात्र साधन नहीं समझी जाती
है। सीखने हेतु पाठ्य-पुस्तक जितनीमहत्वपूर्ण है. उतनी ही महत्वपूर्ण शिक्षा
की अन्य सहायक सामग्रियाँ हैं।
सहायक-सामग्रियों के बढ़ते हुए प्रयोग ने वाणिज्य शिक्षण हेतु
'वाणिज्यप्रयोगशाला' के विचार को जन्म दिया। वाणिज्य के शिक्षकों ने वाणिज्य
विषयकोप्रयोगशाला पद्धति से पढ़ाने का विचार वैज्ञानिक विषयों को प्रयोगशाला
पद्धति से पढ़ानेसे लिया। इन शिक्षकों का विचार था कि जिस प्रकार वैज्ञानिक
विषयों को पढ़ाने हेतु उपकरणों तथा साज-सज्जा की आवश्यकता होती है, उसी
प्रकार वाणिज्य को रोचकबनाने हेतु विभिन्न उपकरणों एवं साज-सज्जा की आवश्यकता
है और इस सबको रखनेके लिए एक प्रयोगशाला की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रयोगशाला
में क्या-क्याउपकरण होने चाहिए, उन्हें किस प्रकार व्यवस्थित करना चाहिए आदि
की विवेचनाप्रस्तुत पुस्तक के एक अन्य अध्याय में की गयी है। वैज्ञानिक
विषयों का ज्ञान, जिसप्रकार छात्र विभिन्न उपकरणों तथा साज-सज्जा के द्वारा
विभिन्न कार्य करके सीखता है,उसी प्रकार वाणिज्य का ज्ञान भी 'करके सीखा जा
सकता है। वाणिज्य शिक्षण कीप्रयोगशाला पद्धति करके सीखने के महान् सिद्धान्त
पर आधारित है। इस प्रकारवर्तमान युग में प्रयोगशाला के माध्यम से
शिक्षण-कार्य करना केवल वैज्ञानिक विषयों तकही सीमित नहीं रहा है।
प्रयोगशाला-पद्धति के अनुसार शिक्षण-कार्य करते समय कक्षा के समस्त छात्रों
कोया तो कार्य दे दिया जाता है या वे स्वयं ही कुछ कार्य ले लेते हैं।
विभिन्न छात्रों काकार्य निर्धारित हो जाने के उपरान्त छात्र अपने-अपने कार्य
को करने लगते हैं। अपने कार्यकाल के अन्तर्गत विभिन्न छात्र विभिन्न
क्रियायें तथा परस्पर वाद-विवाद तथाआलोचना-समालोचना करते हैं। वाणिज्य की इस
प्रयोगशाला में छात्र एक ही समय मेंविभिन्न कार्य सम्पादित करते हुए दिखलायी
पड़ते हैं। कोई नक्शा बनाता है, कोईएटलस का अध्ययन करता है. कोई निष्कर्ष
निकालता है. कोई पुस्तकें देखता है. कोई ,अपने कलम में स्याही ही भरता है,
कोई अध्यापक के साथ वाद-विवाद कर अपनीविभिन्न शंकाओं का समाधान ही करता है।
इस प्रकार वाणिज्यशास्त्र की प्रयोगशाला मेंएक ही समय में विभिन्न छात्र अनेक
कार्य करते हैं। इस प्रयोगशाला का कार्य अध्यापककिन्हीं जटिल बिन्दुओं को
स्पष्ट करने के लिए कुछ समय हेतु बन्द भी कर सकता है।वाणिज्य की एक सक्रिय
प्रयोगशाला का अत्यन्त सजीव चित्रण एच० सी० हिल (H.C.Hill) ने किया है। उनके
चित्रण का सार है कि कक्षा के अधिकांश छात्र पढ़ने या लिखनेमें व्यस्त होंगे,
दो-तीन जटिल प्रश्नों पर वाद-विवाद कर रहे होंगे. कुछ तुलना कर रहेहोंगे. कुछ
एटलस देख रहे होंगे, कुछ मानचित्र बना रहे होंगे, पुस्तके ढूँढ रहे होंगे.
तथाकुछ.अध्यापक के साथ मिलकर शंका-समाधान कर रहे होंगे ।The greater part of
the student will be studying and writing at theirwork-tables. Two or three
may be having a quite conference on somemootpoint. Other may be comparing
notes or outlines of some phase ofthe work. One student may be busy at the
dictionary, hunting forexplanation of some phrases or terms; another may
be consulting an atlas;a third may be sharpening a pencil or filling his
fountain-pen; a fourth maybe making a map or preparing a graph ; a fifth
may be conferring with theteacher about some difficulty or asking for a
criticism on his notes oroutlines. Usually one or two students will be
browsing among the volumesin the book-cases or going through tables or
contents or indexes to find a clue to some obscure item. Now and then an
idle or a dawdler will beobserved. In general, however, the room is a
place of quite disordely, inwhich students are busily engaged in
profitable activities of one kind oranother.-H. C. Hill, Laboratory Work
in Civics. Quoted form the Teachingthe Social Studies in Secondary Schools
by Bining & Bining. p. 151.
विनिंग तथा विनिंग (Bining and Bining) ने अपनी पुस्तक में प्रयोगशाला
पद्धतिसे शिक्षण-कार्य करने की एक दूसरी प्रणाली का उल्लेख किया है। इस
प्रणाली के अन्तर्गत प्रयोगशाला के भीतर छात्रों की विभिन्न क्रियाओं को उचित
रूप से व्यवस्थितकरने पर विशेष बल दिया जाता है। इन क्रियाओं के उतने अधिक
निरीक्षण कीआवश्यकता नहीं पड़ती। इस प्रणाली के अन्तर्गत एक ही विषय-वस्तु
पढ़ने वालीदो-तीन कक्षाओं का एक समूह बना दिया जाता है और प्रयोगशाला कालांश
(Period)के एक अध्यापक को निरीक्षक बना दिया जाता है। छात्र प्रयोगशाला में
विभिन्न कार्यकरते हैं। कार्य करते समय में वे सभी दिये गये आदेशों का पालन
करते हैं। वेअध्यापक का परामर्श लेते हैं और अन्त में अपना प्रतिवेदन
(Report) लिखकरसम्बन्धित अध्यापक को देते हैं। इस प्रकार अध्यापक को किसी भी
प्रकार कानिरीक्षण-कार्य नहीं करना पड़ता है।
laboratory procedure is one in which classroom-work andlaboratory tasks
are so arranged that the activity during the laboratory tasksare so
arranged that the activity during the laboratory peroid requires butlittle
actual supervision. The group in the laboratory consists of two ofmore
classes taking the same course. One teacher has charge of this period.The
pupils here are engaged principally in securing materials for themesand
reports and in the writing of them. The pupils work from
mineographessheets or follow the instructions given to them earlier in
their class-rooms.They secure the books and other materials necessary for
their work at thebeginning of the laboratory peroid. The teacher may be
called upon, ofcourse, for aid and advice, but the work is not carried out
in the manner ofsupervised study. The completed themes and reports may be
handed in tothe teacher in charge of the laboratory period.प्रयोगशालाओं के
माध्यम से पढ़ाने की तीसरी प्रणाली को मिस हेलेन पार्क हरर्ट-Bining &
Bining. pp. 151-152.(Miss Helen Parkhurst) ने प्रस्तुत किया। इनकी प्रणाली
को हम डाल्टन योजना (Dalton Plan) कहते हैं। इस प्रणाली के अनुसार सबसे पहले
विषय की कई मासिकइकाइयों में विभक्त कर दिया जाता है। इस इकाई को निर्धारित
समय में पूरा करने कीआशा की जाती है, किन्तु प्रति माह का निर्धारित कार्य
छात्र उसी माह में पूरा कर दें,ऐसा कोई आवश्यक बन्धन नहीं होता है। छात्र
अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार एकमाह के कार्य को आधे माह में या दो माह
में पूरा कर सकता है। छात्र निर्धारित कार्यप्राप्त होने के उपरान्त विषय की
प्रयोगाशाला में जाकर पुस्तकों, उपकरणों,सहायक-सामग्रियों तथा साज-सज्जा आदि
के द्वारा निर्धारित कार्य को पूरा करते हैं।इस प्रकार की प्रयोगशालाओं में
छात्र इच्छानुसार समय तक ठहर सकता है। यदि छात्र वाणिज्यशास्त्र की
प्रयोगशाला में प्रवेश करता है तो वह वहाँ चाहे जितने समय तक रहकर चाहे जो
कुछ पढ़ सकता है या अन्य क्रियायें कर सकता है। इस प्रकार कीप्रणाली में कोई
समय-चक्र (Time-table) भी नहीं होता है। आधुनिक काल मेंडाल्टन-योजना में कुछ
सुधार हुए हैं। एक सबसे उल्लेखनीय सुधार है प्रत्येक छात्र कोकुछ सामूहिक
कार्यों में, आवश्यक रूप से भाग लेना पड़ता है जिससे उसकासमाजीकरण भी हो सके।
।/डाल्टन-योजना के अतिरिक्त जहाँ तक प्रयास दो प्रणालियों का सम्बन्ध है.
इनमेंप्रयोगशाला में एक समय कार्य करने का कालांश सामान्यतया साठ मिनट का
होता हैऔर प्रति सप्ताह प्रायः पाँच कालांशं होते हैं तथा आवश्यकता पड़ने पर
इस पद्धति केअन्तर्गत वादविवाद पद्धति, समस्या पद्धति तथा भाषण पद्धति का भी
प्रयोग कर लियाजाता है।
प्रयोगशाला पद्धति के गुण
प्रयोगशाला पद्धति में निम्नलिखित गुण पाये जाते हैं.
(१) प्रयोगशाला में छात्र अनेक क्रियायें करते हैं। कोई पुस्तक तलाश करता
है,कोई एटलस का अध्ययन करता है. कोई पढ़ता है तो कोई कुछ करता है, तो कोईकुछ।
सभी छात्र सक्रिय रहते हैं। इस प्रयोगशाला पद्धति का सबसे बड़ा गुण है किइसके
अन्तर्गत छात्र अत्यन्त सक्रिय होकर कार्य करते हैं।
(2) इस पद्धति में छात्रों की रुचि तथा सुविधा का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता
है।छात्र अपनी रुचि तथा सुविधानुसार पाठ्य-सामग्री का प्रयोग करते हैं। वे
अपने निर्धारितकार्य करने के लिए अपनी स्वयं की योजना बनाते हैं।
(3) प्रयोगशाला पद्धति छात्रों में दायित्व वहन करने की क्षमता का विकास
करतीहै। पद्धति के अनुसार छात्रों को कार्य दे दिया जाता है। उसे वे स्वयं
पूरा करने काप्रयत्न करते हैं।
(4) प्रयोगशाला पद्धति सामूहिक शिक्षण के दोषों को दूर कर शिक्षा को सरल,सुगम
तथा बोधगम्य बनाती है।
(5) प्रयोगशाला पद्धति के अन्तर्गत छात्र पुस्तक. पुस्तकालय तथा
अन्यशिक्षा-उपकरणों का प्रयोग करना सीख जाते हैं।
The pupils take the laboratory as a work-room, a class-room andlibrary to
enter or leave as and when they please. There is no time-tableand no
periods etc. because here is no limit to the time a pupil may spendin any
particular laboratory.-Smt.S.K.Kochhar, p. 336.
प्रयोगशाला पद्धति के दोष
प्रयोगशाला पति में निम्नांकित दोष हैं-
(1) प्रयोगशाला पद्धति से प्रत्येक अध्यापक नहीं पढ़ा सकता है। इसका
प्रयोगकेवल अत्यन्त कुशल तथा दक्ष अध्यापक ही सफलतापूर्वक कर सकते हैं।
(2) यह पद्धति काफी यन्त्रवत् है। छात्र प्रयोगशाला में रहकर यन्त्रवत् कार्य
करते हैं।
(3) पद्धति की सफलता अध्यापक के निर्देशन पर निर्भर है। यदि निर्देशन सफलन
रहा तो सम्पूर्ण पद्धति ही अपने उद्देश्य को खो देगी।
(4) यह पद्धति अत्यधिक खर्चीली है। भारत के अधिकांश विद्यालयों में
जहाँपुस्तकालय हेतु भी एक कमरा उपलब्ध नहीं होता है, यह आशा करना कि
विद्यालयप्रत्येक विषय हेतु एक प्रयोगशाला बनवा सकेंगे. असम्भव मालूम पड़ता
है।
(5) इस पद्धति के माध्यम से अध्ययन करने हेतु अधिक समय की आवश्यकतापड़ती है।
(6) इस पद्धति में ज्ञान के अव्यवस्थित हो जाने का भय रहता है।
2.योजना पद्धति
(PROJECT METHOD)
विभित्र शिक्षण पद्धतियों में योजना पद्धति सबसे अधिक विवादग्रस्त तथ
प्रचलितपद्धति है। योजना पद्धति का जन्म दार्शनिक विचारधाराओं के प्रयोजनवादी
सम्प्रदाय केप्रयासों के फलस्वरूप हुआ। दर्शन से योजना की शिक्षाजगत में लाने
का वास्तविककार्य प्रमुख प्रयोजनवादी तथा शिक्षाशास्त्री जॉन ड्यूवी ने किया।
वैसे ड्यूवी से पहले भीशिक्षा के कुछ क्षेत्रों में इसी प्रकार के नाम
प्रचलित थे, परन्तु शिक्षा में विशेष रूप सेसामाजिक विषयों की शिक्षा में
इसका रूप स्पष्ट न था।
सन् 1918 तक इसका रूप स्पष्ट हुआ। इसी वर्ष कोलम्बिया विश्वविद्यालय केडॉक्टर
W.H.किलपैट्रिक ने अपनी अत्यधिक प्रचलित एवं स्पष्ट परिभाषा की योजनाकी
परिभाषा देते हुए उन्होंने लिखा है। योजना एक ऐसी-सोउद्देश्य क्रिया है
जोसामाजिक वातावरण में पूर्व दिलचस्पी से सम्पन्न की जाती है।इस परिभाषा को
और भी अधिक स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करते हुए जे० ए० जे०स्टीवेन्सन ने लिखा
है. योजना एक ऐसा समस्यात्मक कार्य है जो प्राकृतिक अवस्थाओंमें पूरा किया
जाता है।
योजना का रूप स्पष्ट हो जाने के उपरान्त शिक्षा क्षेत्र में योजना पद्धति
कापर्याप्त प्रयोग होने लगा। कुछ दिन पूर्व योजना पद्धति किये गये कार्यों तक
ही सीमितथीपरन्तु वर्तमान में कक्षा के बाहर तथा अन्दर सभी कार्य इस पद्धति
से होने लगे हैं।अब योजना का प्रयोग अत्यन्त व्यापक रूप से किया जाने लगा है।
इस पद्धति सेसम्पूर्ण शिक्षण-कार्य वास्तविक तथा प्रयोगात्मक अवस्था में होता
है क्योंकि समस्याअत्यन्त व्यावहारिक तथा वास्तविक बना दी जाती है। इससे अनेक
प्रकार कीसमस्याओं का समावेश हो सकता है यथा साईकिल-स्टैण्ड बनाना, पार्सल से
मालमँगाना, यात्रा करना, आदि-आदि। समस्यायें चार प्रकार की हो सकती हैं-
(1) उत्पादक योजनाएँ-वे योजनायें जिनमें छात्र कुछ उत्पादक कार्य करेंउत्पादक
योजनायें कहलाती हैं। इस प्रकार की योजनाओं में हम मकान बनाना साईकिल-स्टैण्ड
बनाना, बाग लगाना आदि जैसी योजनाओं को सम्मिलित करते हैं।
(2) उपभोक्ता योजनाएँ-कुछ योजनायें ऐसी होती हैं जिनसे छात्र कुछ प्राप्तकरता
है..कुछ अनुभव लेता है. कुछ ज्ञान प्राप्त करता है या सीखता है या मनोरंजन
हीकरता है। इस प्रकार की योजनायें उपभोक्ता योजनायें कहलाती हैं। इस प्रकार
कीयोजनाओं में हम यात्रा करने की योजना, दावत की योजना. नाटक की योजना,
जैसीयोजनायें रखते हैं।
3) समस्यात्मक योजनायें-कुछ योजनायें छात्रों के सम्मुख कुछ समस्यायें
प्रस्तुतकरती हैं। इनके अन्तर्गत छात्रों को किन्हीं समस्याओं का समाधान करना
पड़ता है। इसप्रकार की योजनायें समस्यात्मक योजनायें कहलाती हैं।
(4) अनुशासनात्मक योजनायें-इस प्रकार की योजनाओं में कोई ऐसी योजनानहीं ली
जाती जो नयी हो, वरन ऐसी योजनायें ली जाती हैं जो हमें ऐसा ज्ञान प्रदानकरें
जिसे हम पहले भी अन्य किसी योजना के माध्यम से सीख चुके हैं। इस प्रकार
कीयोजनाओं का उद्देश्य पहले सीखे हुए ज्ञान को दुहराना होता है।
वाणिज्य-शिक्षण एवं योजना पद्धतिउपरोक्त विवेचन से योजना पद्धति का रूप
पर्याप्त मात्रा में स्पष्ट हो जाता है।अब हम अध्ययन करेंगे कि योजना पद्धति
से वाणिज्य शास्त्र का शिक्षण किस प्रकारकिया जाता है। इस पद्धति के अनुसार
वाणिज्य का शिक्षण करते समय सबसे पहलेछात्रों के सहयोग से एक समस्या पैदा की
जाती है। समस्या का निर्माण अत्यन्तसावधानी से किया जाता है। निर्माण इस ढंग
से किया जाता है कि वह कृत्रिम तथाकाल्पनिक मालूम न देकर वास्तविक एवं सजीव
मालूम पड़े। कभी-कभी एक साथ हीकई एक समस्या का निर्माण कर लिया जाता है और
उनमें से कोई एक समस्या चुन लीजाती है। समस्या चुनाव करे लेने के पश्चात् यह
निर्धारित किया जाता है कि योजनाका कार्य किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये। दूसरे
शब्दों में, यहाँ हम योजनाओं को पूराकरने की योजना बनाते हैं। इसी योजना के
अन्तर्गत हम अपनी कार्य-विधि निर्धारितकरते हैं। तत्पश्चात् योजना को
कार्यान्वित किया जाता है। योजना का यह प्रमुख अंगहोता है। कार्य की समाप्ति
पर कार्य का मूल्यांकन किया जाता है और अन्त में कार्य का लेखा प्रस्तुत किया
जाता है। इस प्रकार वाणिज्य की योजनाओं में निम्नांकित छ{चरणउठाने पड़ते हैं-
(1) परिस्थिति-निर्माण
(2) योजना-चुनाव
(3) समस्या की योजना (Planning of the Situation)
(4) योजना को कार्यान्वित करना (Execution of the Plan)
(5) कार्य का मूल्यांकन (Judging the Work)
(6) लेखा का प्रस्तुतीकरण (Presentation of the Work)
अच्छी योजना की विशेषताएँ (Characteristics ofaGood Project)
एक अच्छी योजना में निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-
(1) योजना के अन्तर्गत चुनी गयी समस्या ऐसी हो, जिस पर सफलता से प्रयोगकिये
जा सकें। समस्या पूर्णरूपेण सैद्धान्तिक नहीं होनी चाहिए।'
(2) योजना की परिभाषा में. जैसा कहा गया है. योजना में कुछ उपयोगिता होनी में
चाहिए। यदि योजना उपयोगी (Purposeful) नहीं है तो वह अपने उद्देश्यों की
प्राप्ति नकर पायेगी।
(3) आर्थिक रूप से दुर्बल भारत देश में यदि हम योजना-पद्धति अपनायें तोसदैव
ध्यान रखना चाहिए कि योजना मितव्ययी हो। अच्छी योजना मितव्ययी होनी
चाहिए।
(4) योजना नये-नये अनुभव प्रदान करने वाली हो तथा पूर्व-अनुभवों पर आधारित
हो।
(5) अच्छी योजना में छात्र सक्रिय रहते हैं।
(6) अच्छी योजना छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल होती है।योजना पद्धति के
गुण (Merits of the Project Method)
योजना पद्धति में निम्नांकित गुण पाये जाते हैं {
(1) योजना पद्धति क्रियाशीलता, उपयोगिता, वास्तविकता तथा स्वतन्त्रता
केसिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण अधिक मनोवैज्ञानिक है।
(2) योजना पद्धति की सभी क्रियायें सोद्देश्य होती हैं। फलतः छात्र इनमें
अधिकसंलग्नता से कार्य करते हैं।
(3) योजना पद्धति छात्रों को व्यावहारिकता तथा प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त
कराती
(4) योजना पद्धति करके सीखने के सिद्धान्त पर आधारित है।
(5) योजना पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित है। फलतः इसके अन्तर्गतसभी
छात्रों को अपना-अपना विकास करने के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
(6) पद्धति में शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का सुन्दर समन्वय होने के कारणयह
पद्धति अधिक रोचक तथा आकर्षक है।
(7) यह सिद्धान्त थॉर्नडाइक के सीखने के तीन महान सिद्धान्तों पर आधारित
है।थॉर्नडाइक का पहला सिद्धान्त प्रभाव का सिद्धान्त (Law of Effect) है।
सीखने के प्रभावोंका होना आवश्यक है। सीखने से सन्तोष एवं सफलता प्राप्त होनी
चाहिए। योजनापद्धति में शारीरिक कार्य के फलस्वरूप छात्रों को सफलता एवं
सन्तोष दोनों ही प्राप्तहोते हैं। इस प्रकार योजना पद्धति प्रभाव के
सिद्धान्त पर आधारित है। दूसरा सिद्धान्ततत्परता का सिद्धान्त (Law
ofReadiness) है। इसके अनुसार सीखने से पूर्व छात्रों को है सीखने के लिए
तैयार होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, छात्रों को पहले से ही यह ज्ञात
होना चाहिए कि वे क्या सीखनेजा रहे हैं। योजना में पहले से ही छात्रों को यह
ज्ञान होता है कि वे क्या सीखने जा रहेहैं इसके लिए वे तैयार होकर आते हैं।
यही तत्परता का सीखने का नियम है। सीखनेका तीसरा नियम अभ्यास का नियम है।
सीखना तभी स्थायी तथा प्रभावपूर्ण रहता हैजब सीखे हुए ज्ञान का पर्याप्त
अभ्यास किया जाये। योजना पद्धति छात्रों को अभ्यासकरने के पर्याप्त अवसर
प्रदान करती है।
(8) योजना पद्धति से छात्रों में सहयोग. सहानुभूति, सहिष्णुता तथा
पारस्परिकप्रेम की भावना जाग्रत होती है। इस प्रकार के सदगुण प्रजातान्त्रिक
शासन व्यवस्था के केलिए परमावश्यक हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि योजना
पद्धति हमेंप्रजातन्त्रात्मक जीवन व्यतीत करना सिखलाती है।
(७) योजना पद्धति शारीरिक श्रम के महत्व का ज्ञान छात्रों को कराती है।
(10) योजना पद्धति छात्रों को पर्याप्त स्वतन्त्रता प्रदान करती है।
योजना पद्धति के दोष
उपरोक्त गुणों के साथ ही साथ योजना पद्धति में निम्नांकित दोष तथा कमियाँ
भीदेखने को मिलती हैं-
(1) योजना पद्धति अधिक क्लिष्ट एवं जटिल है। फलतः कष्टसाध्य है।
प्रत्येकछात्र इन्हें सफलतापूर्वक नहीं कर सकता है।
(2) अधिकतर ज्ञान अव्यवस्थित. शृंखलाविहीन तथा अक्रमबद्ध रूप में प्राप्त
होताहै। अन्त में, ज्ञान को व्यवस्थित या क्रमबद्ध करने की आवश्यकता पड़ती
है।
(3) योजना पद्धति अधिक व्यय चाहती है। साथ ही साथ वाणिज्य की सम्पूर्णविषय
वस्तु का ज्ञान भी इस पद्धति से प्रदान नहीं किया जा सकता है।
(4) योजना पद्धति अध्यापक के महत्व तथा स्थान को आवश्यकता से अधिकगिरा देती
है।
(5) योजना पूरी करने में श्रम व समय अधिक लगता है।
(6) योजनाओं के संचालन हेतु कुशल तथा अनुभवी अध्यापकों की आवश्यकताहोती है।
(7) योजनाओं के निर्माण के समय छात्रों की क्षमताओं एवं पहुँचों का गलतअन्दाज
लग सकता है।
(8) निर्धारित समय में ही योजना पूरी करने की शर्त कभी-कभी योजना को अपनेमूल
उद्देश्य से विचलित कर देती है।
(9) शिक्षा के उच्च स्तर पर योजनाओं द्वारा शिक्षण-कार्य सुविधाजनक नहीं
होताहैकुछ सुझाव
वाणिज्य-अध्यापक को इस पद्धति के अनुसार शिक्षण कार्य करते समय
निम्नांकितसुझावों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) योजना का चुनाव छात्रों के उपयुक्त होना चाहिए। उनमें कुछ शैक्षणिक
मूल्यभी होने चाहिए।
(2) योजना का प्रस्तुतीकरण व्यावहारिक तथा वास्तविक होना चाहिए।
(3) अनुभवी एवं योग्य अध्यापकों की व्यवस्था की जाये।
(4) योजना ऐसी हो जिसे सभी छात्र संलग्नता से कर सकें।
(5) योजनायें उपयोगी एवं उद्देश्यपूर्ण हों।
(6) योजना प्रारम्भ करने से पहले अच्छी प्रकार तैयारी करनी चाहिए।
(7) अध्यापक की योजना काल में छात्रों का भली प्रकार निरीक्षण करना चाहिए।
(8) योजनायें अन्त तक चालू रखनी चाहिए।
(9) जहाँ तक सम्भव हो. सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण का निर्माण करनाचाहिए।
(10) कम से कम भारत में तो योजना-व्यय को अधिक से अधिक मितव्ययी बनानेकी
चेष्टा करनी चाहिए।
3. समस्या-समाधान पद्धति
(PROBLEM SOLVING METHOD)
समस्या पद्धति वर्तमान युग की एक विवादग्रस्त पद्धति है। कुछ लोग इसे पद्धति
न मानकर केवल एक विधि मानते हैं, परन्तु वास्तव में जो लोग इसे विधि मानते
हैं वेभूलकरते हैं। समस्या समाधान को हमें शिक्षण-विधि नहीं कहना चाहिए।
वास्तव में,समस्या समाधान एक पद्धति है, जिसमें अब विभिन्न तरीकों से किसी
समस्या पर विचारकरने हेतु ज्ञान का वैज्ञानिक विधि से प्रयोग किया जाता है।
अब प्रश्न उठता है किसमस्या क्या है तथा कब पैदा होती है? 'उस परिस्थिति में
समस्या पैदा हो जाती है,जिसमें कार्य करने सम्बन्धी कठिनाई अनुभव होती है।
विचारक स्पष्टतया इनकठिनाइयों को प्रस्तुत तथा अनुभव करता है। विचारक के लिए
वे सभी परिस्थितियाँसमस्या हैं, जिनमें उसे मानसिक कठिनाइयाँ अनुभव हों
परन्तु इसके साथ ही साथ शर्तयह है कि वे कठिनाइयाँ तभी समस्या हो पायेंगी जब
विचारक उन कठिनाइयों को एकचुनौती के रूप में ग्रहण करता है जब विचारक कठिनाई
को चुनौती के रूप में स्वीकारकरता है तो यह स्वाभाविक है, वह कठिनाई में अपनी
रुचि प्रदर्शित करे तथा समाधानहेतु तुरन्त तैयार हो जाये।
ऊपरी तौर से यहाँ पर एक अन्य समस्या पैदा हो जाती है कि योजना भी जैसा.हम देख
चुके हैं, समस्यात्मक क्रिया होती है। फिर समस्या पद्धति और योजना पद्धति
मेंक्या भेद तथा अन्तर है। दोनों में यह अन्तर बाहरी रूप से मालूम नहीं पड़ता
है यदिहम गइराई में प्रवेश करें तो अन्तर स्पष्ट हो जाता है। योजना पद्धति
समस्याओं कीवास्तविक अवस्थाओं में कार्य की पूर्णता पर बल देती है, जबकि
समस्या पद्धतिमानसिक निष्कर्षों को अधिक महत्त्व देती है। योजना पद्धति में
शारीरिक तथा मानसिकदोनों ही प्रकार की समस्यायें सम्मिलित होती हैं जबकि
समस्या पद्धति का क्षेत्र केवलमानसिक समस्याओं तक ही सीमित रहता है। विल्सन
तथा विल्सन ने इन दोनों केअन्तर को बड़े स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया है।
विनिंग ने भी इसी अन्तर को स्पष्टकिया है।
योजना पद्धति जैसा कहा गया है, प्रयोजनवादी दार्शनिक विचारधाराओं का
परिणामहै, जबकि समस्या पद्धति मनोविज्ञान की आधुनिक विचारधाराओं का परिणाम
है।
समस्या पद्धति के अन्तर्गत छात्रों के सम्मुख एक समस्या का निर्माण छात्रों
केसहयोग से किया जाता है। यह समस्या छात्रों के लिए एक चुनौती होती है।
किशोरछात्र अपनी अवस्था के स्वभाव के कारण इस चुनौती का सामना करने के लिए
तुरन्ततैयार हो जाता है। किशोर छात्र की इस तुरन्त तैयारी के कारण समस्या के
प्रति उसमें शीघ्र ही रुचि तथा कौतूहल पैदा हो जाता है। फलतः वह समस्या को
सुलझाने तथासमस्या के कारणों को ज्ञात करने हेतु भरसक प्रयत्न करता है।
समस्या के समाधानहेतु किये गये प्रयत्न सोद्देश्य होते हैं। इस सोद्देश्यता
का परिणाम ज्ञानार्जन होता है औरज्ञानार्जन अत्यन्त सरल तथा सुगम होता है।
समस्या के प्रकार
समस्या पद्धति के द्वारा अध्ययन कराते समय अध्यापक को दो प्रकार कीसमस्याओं
का सामना करना पड़ता है। प्रथम, अध्यापक ऐसी समस्याओं को देखेगा
जिनके समाधान हेतु छात्रों की किसी भी प्रकार की तर्क-शक्ति से काम नहीं लेना
पड़ताहै। इस प्रकार की समस्यायें अत्यन्त सीधी-सादी तथा सरल होती है तथा
छात्रों को प्रायःउनकी पाठ्य-पुस्तकों में ही इनके समाधान प्राप्त हो जाते
हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसीसमस्यायें होती हैं जिनके समाधान हेतु छात्रों को
गहन चिन्तन तथा मनन करना पड़ताहै। उनका समाधान छात्रों को अपनी पाठ्य पुस्तक
में प्राप्त नहीं होता है. वरन् इनकासमाधान छात्रों को स्वयं अपने मस्तिष्क
से निकालना पड़ता है। छोटी कक्षाओं मेंअध्यापक को प्रथम प्रकार की समस्याओं
को छात्रों के सम्मुख प्रस्तुत करना चाहिए.क्योंकि छोटे-छोटे छात्रों का
मानसिक विकास इतना नहीं होता है कि वे गहन-चिन्तनतथा मनन कर सकें।
समस्या पद्धति के सोपानऊपर दो प्रकार की समस्याओं का उल्लेख किया गया है।
इनमें से जहाँ तकप्रथम प्रकार की समस्याओं का सम्बन्ध है, उनके लिए कोई विशेष
चरणों कीआवश्यकता नहीं पड़ती है। छात्रों को समस्या का निर्माण करा दिया जाता
है। फिरउनका महत्व बताकर आवश्यक तथ्य संग्रहीत करने को कह दिया जाता है। अन्त
मेंउनका मूल्यांकन हो जाता है. इस प्रकार प्रथम प्रकार की समस्याओं के समाधान
छात्रोंको निम्नांकित चार चरणों में गुजरना पड़ता है-
(i) समस्या का निर्माण करना।।
(ii) समस्या का महत्व बताना।
(iii) आवश्यक तथ्यों का संकलन, संगठन तथा व्यवस्थित करना।
(iv) व्यवस्थित तथ्यों का मूल्यांकन करना।
दूसरी प्रकार की समस्यायें जटिल समस्यायें होती हैं। उनके समाधान में छात्रों
कोचिन्तन एवं मनन करना पड़ता है। चिन्तन एवं मनन करके समस्या का समाधान
करनेके लिए विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न सोपानों का स्पष्ट.रूप से निर्धारण
कर दिया है। जॉनड्यूवी ने अपनी पुस्तक 'हाउ वी थिंक' में निम्नांकित
पाँच सोपानों का उल्लेख किया
(1) सम्भावित समाधान का पता लगाना।
(2) समस्या की जटिलता का बौद्धीकरण।
(3) उपकल्पना का निर्माण करना।(
4) उपकल्पना पर विस्तृत रूप से विचार करना ।
(5) उप-कल्पनाओं की जाँच करना।
'बिनिंग तथा बिनिंग ने इस सम्बन्ध में निम्नांकित चार सोपानों का उल्लेखकिया
है-
(1) समस्या को परिभाषित करना।
(2) उप-कल्पना का निर्माण करना।
(3) उप-कल्पना की परीक्षा एवं जाँच करना।
(4) निष्कर्ष निकालना।
.उदीयमान शिक्षाशास्त्री श्री कामताप्रसाद पाण्डेय ने अपनी पुस्तक शिक्षा
मेंक्रियात्मक अनुसंधान में निम्नांकित सोपानों का उल्लेख किया है-
(1) समस्या को पहचानना।
(2) समस्या का परिभाषीकरण एवं सीमांकन।
(3) समस्या के कार्यों का विश्लेषण।
(4) उप-कल्पना का निर्माण।
(5) उप-कल्पना की जाँच हेतु रूपरेखा तैयार करना।
(6) उप-कल्पना के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय लेना और उसका आधार बनाना।
उपरोक्त सभी सोपान उच्च कक्षाओं के लिए निर्मित किये गये हैं। माध्यमिक
स्तरपर हम ऊपर के सोपानों के आधार पर कुछ अन्य सरल सोपानों का
सरलतापूर्वकनिर्माण कर सकते हैं। माध्यमिक स्तर पर निम्नांकित सोपानों से काम
चल सकता है {
(1) समस्या का निर्माण करना।
(2) समस्या का महत्व ज्ञात करना।
(3) आवश्यक तथ्यों का संकलन, संगठन तथा व्यवस्था करना।
(4) तथ्यों की आलोचना, समालोचना तथा विचार-विमर्श करना।
(5) निष्कर्ष निकालना।
(6) निष्कर्षों का मूल्यांकन तथा उनकी सत्यता की जाँच करना।
अच्छी समस्या के आवश्यक तत्व (Essential Elements ofaGood Problem)
समस्या का निर्माण एवं चुनाव करते समय अध्यापक को ध्यान रखना चाहिए किसमस्या
अच्छी हो। एक अच्छी समस्या में निम्नांकित तत्व पाये जाते हैं
(1) समस्या छात्रों की आवश्यकता, रुचि तथा योग्यता के अनुसार हो।
(2) समस्या ऐसी हो जिसे छात्र अपने जीवन से सम्बन्धित समझें।
(3) समस्या उपयोगी हो।
(4) समस्या स्पष्टं होनी चाहिए।
(5) समस्या के समाधान से छात्रों का ज्ञानार्जन होना चाहिए।
(6) समस्या के समाधान एवं निष्कर्ष सीधे. स्पष्ट तथा निश्चित होने चाहिए।
पद्धति के गुण (Merits of the Method)
(1) समस्या-पद्धति से प्रस्तुत की गयी समस्या छात्रों के लिए एक चुनौती
होतीहै। अपनी शारीरिक एवं मानसिक अवस्था के कारण किशोर छात्र शीघ्र ही इस
चुनौतीका सामना करने को तैयार हो जाते हैं। इससे छात्र समस्या का समाधान बड़ी
तत्परताएवं संलग्नता से करते हैं।
(2) यह पद्धति हमें समस्या को समाधान करना सिखलाती है। प्रत्येक जीवनसमस्याओं
से पूर्ण होता है। यह पद्धति छात्रों का जीवन-समस्याओं को हल करने योग्यबनाती
है।
(3) छात्र समस्या को अपने जीवन से सम्बन्धित समझकर इसमें अपनत्व काबोध पाता
है। फलतः समस्या एवं उसके समाधान में छात्र की अधिक रुचि हो जाती है।
.।(4) यह पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर आधारित होने से मनोवैज्ञानिक है
(5) यह पद्धति छात्रों की चिन्तन, मनन एवं विश्लेषण-शक्ति का पर्याप्त
विकासकरती है।
(6) इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र उप-कल्पनायें बनाना. उनकी जाँच करना
एवंनिष्कर्ष निकालना सीखते हैं।
(7) इस पद्धति से व्यक्तिगत शिक्षण तथा कक्षा-शिक्षण दोनों ही सम्भव हैं।
(8) इस पद्धति में छात्र अत्यधिक सक्रिय रहते हैं। फलतः अनुशासनहीनता
कीसमस्या का प्रश्न नहीं उठता है।
(9) यह पद्धति दृष्टिकोण की व्यापकता. सहनशीलता. उत्तरदायित्वशीलता जैसेमहान
नागरिक गुणों का विकास करती है।
(10) यह पद्धति छात्रों को विभिन्न नागरिक समस्याओं को समझने तथा उनकासमाधान
करने योग्य बनाती है।
पद्धति के दोष (Demerits of the Method)-उपरोक्त गुणों के साथ ही अन्य
पद्धतियों के समान समस्या पद्धति में कुछ दोष भीव्याप्त हैं। इन व्याप्त
दोषों का नामांकन नीचे किया जाता है-
(1) बार-बार के प्रयोग से समस्या पद्धति की सरसता तथा आकर्षण समाप्त होजाने
का भय रहता है और समस्या अत्यन्त नीरस हो जाती है।
(2) कभी-कभी समस्या का निर्माण अत्यन्त कठिन हो जाता है।
(3) इस पद्धति के द्वारा वाणिज्यशास्त्र की सम्पूर्ण विषय-वस्तु समान रक्षता
सेनहीं पढ़ायी जा सकती है।
(4) कक्षा में निर्मित समस्यायें वास्तविक जीवन की समस्याओं से कहीं सरल
तथासुगम होती हैं। इन सरल तथा सुगम समस्याओं को सुलझाते-सुलझाते छात्र में
अपनेप्रति एक सरल धारणा का जन्म हो जाता है कि वह सभी प्रकार की समस्याओं
कानिराकरण कर सकता है।
(5) छात्र इस पद्धति में पाठ्य-पुस्तक का अध्ययन इस दृष्टिकोण से नहीं करतेकि
वे पाठ्य-पुस्तक पढ़ रहे हैं. वरन् वे पाठ्य-पुस्तक के केवल उन्हीं हिस्से से
अपना सेसम्बन्ध स्थापित करते हैं जो उनकी समस्या से सम्बन्धित होता है।
(6) समस्याओं का छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप न होने का भय इसमेंसदैव
बना रहता है।
(7) इस पद्धति में छात्र सदैव अपने निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति कर
लेगा, ऐसासौचना निराधार है।
(8) सभी अध्यापक इस पद्धति का सफलतापूर्वक प्रयोग नहीं कर सकते हैं। इसपद्धति
की सफलता अध्यापकों की दक्षता, योग्यता एवं निर्देशन क्षमता पर निर्भर
करतीहै।
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
समस्या पद्धति से पढ़ाते समय अध्यापक को अग्रांकित सुझावों को सदैव ध्यान
मेंरखना चाहिए{
(1) समाज का निर्माण एवं चुनाव छात्रों के मानसिक स्तर के अनुरूप होनाचाहिए।
(2) समस्या के चुनाव में छात्रों का पूर्ण सहयोग प्राप्त करना चाहिए। यदि
सम्भवहो तो समस्या का निर्माण स्वयं छात्रों को ही करना चाहिए।
(3) समस्या का निर्माण एवं चुनाव करते समय अध्यापक को अपनी स्वयं कायोग्यता,
छात्रों की आर्थिक व सामाजिक अवस्थायें तथा स्कूल की आर्थिक अवस्था तथाआवश्यक
साधनों की उपलब्धि को ध्यान में रखना चाहिए।
(4) समस्या छात्रों के जीवन से सम्बन्धित तथा व्यावहारिक होनी चाहिए।
(5) समस्या पद्धति के साथ यदि विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक पद्धति
कासुन्दर मिश्रण कर दिया जाये तो अच्छे परिणामों की आशा की जा सकती है।
(6) अध्यापक को बड़ी सावधानी से निर्देशन-कार्य करना चाहिए।
4. विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक पद्धति
(ANALYTIC AND SYNTHETIC METHOD)
वास्तविक रूप में इस पद्धति का निर्माण शिक्षण की दो विधियों-विश्लेषण
एवंसंश्लेषण से मिलकर हुआ है। इसमें विश्लेषण वह क्रिया है जिसमें सम्बन्धित
विषय-वस्तुका विचारात्मक प्रश्नों के माध्यम से सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचन
किया जाता है और संश्लेषणवह क्रिया है जिससे अव्यवस्थित विषय-वस्तु को
संक्षिप्त में व्यवस्थित किया जाता हैतथा व्यवस्था के पश्चात् ज्ञात का
सम्बन्ध अज्ञात से स्थापित किया जाता है।
It is a process of putting together known bits of information to reachthe
poirt where unknown information becomes obvoius and clear.-Smt. Kochhar,
Ibid, p. 351.
विश्लेषणात्मक पद्धति के अनुसार प्रस्तुत समस्या की विस्तृत व्याख्या की जाती
हैऔर समस्या के छिपे हुए पहलुओं का पता लगाया जाता है। इस प्रकार
विश्लेषणात्मकपद्धति में हम उस तथ्य को ज्ञात करना चाहते हैं. जो अज्ञात है।
इस प्रकारविश्लेषणात्मक पद्धति में हम अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ते हैं।
विश्लेषण के ठीक विपरीत संश्लेषण में हम ज्ञात से अज्ञात को चलते
हैं।संश्लेषण-पद्धति में हमें जो कुछ ज्ञात है. उसके आधार पर अज्ञात की ओर
बढ़ते हैं। हमजो कुछ अव्यवस्थित रूप से जानते हैं, उसे व्यवस्थित कर अनेक
अज्ञात समस्याओं कासमाधान कर लेते हैं।
विश्लेषणात्मक पद्धति एवं संश्लेषणात्मक पद्धति में अपने-अपने गुण और दोष
हैं।इस पद्धति को और भी अधिक गुणकारी एवं उपयोगी बनाने हेतु दो ही पद्धतियों
कामिला-जुला रूप प्रयोग करना अत्यन्त सुविधाजनक होता है। दूसरे, विश्लेषण
कोसंश्लेषण से पृथक नहीं किया जा सकता है। विश्लेषण में हम विषय की व्याख्या
करतेहैं और यह पता लगाते हैं कि इन खण्डों को किस प्रकार पुनः सम्बन्धित किया
जासकता है। इस प्रकार विश्लेषण - संश्लेषण → विश्लेषण। विश्लेषण विषय-वस्तु
कोसमझने में सहायता करता है तो संश्लेषण विषय-वस्तु को याद करने में सहायता
देताहै। इसलिए वाणिज्यशास्त्र के शिक्षण में किसी एक विशेष पद्धति-विश्लेषण
या संश्लेषणको न अपना कर हम दोनों ही पद्धतियों के मिले-जुले रूप का प्रयोग
करते हैं और दोनों
पद्धतिणें के मिले-जुले रूप को ही हम एक पद्धति मानकर चलते हैं क्योंकि दोनों
हीपद्धतियाँ एक ही पहलू के अंग हैं।
पद्धति के गुण (Merits ofthe Method)
(विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक पद्धति में निम्नलिखित गुणहैं
(1) इस पद्धति में प्रश्नों का बाहुल्य होता है। छात्र अध्यापक द्वारा पूछे
गये प्रश्नोंका उत्तर देते हैं। उत्तर देने से पूर्व उत्तर सोचना पड़ता है।
सोचने में मानसिक क्रियानिहित रहती है। इस प्रकार इस पद्धति में छात्रों के
मस्तिष्क सक्रिय रहते हैं, अतःउनका मानसिक विकास अच्छा होता है।
(2) यह पद्धति छात्रों के सभी संकेतों का निवारण कर उन्हें पूर्णरूप से
सन्तुष्टकरती है।
(3) इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र अध्यापक द्वारा पूछे गये प्रश्नों के प्रति
अत्यधिकसजग रहते हैं, अतः अनुशासनहीनता की समस्या स्वतः ही हल हो जाती है।
(4) यदि प्रश्न समुचित ढंग से पूछे जायें तो यह पद्धति कक्षा-शिक्षण को
अधिकरोचक तथा आकर्षण बना देती है।
पद्धति के दोष (Demerits of the Method)
उपरोक्त गुणों के साथ ही साथ इस पद्धति में निम्नांकित दोष भी पाये जाते हैं
{(1) यह पद्धति काफी समय चाहती है।
(2) यह पद्धति व्यक्तिगत विभिन्नताओं के सिद्धान्तों पर आधारित नहीं है।
(3) छात्रों से पूछे गये प्रश्नों को देने की ही आशा की जाती है। उन्हें
अपनीसमस्याओं से सम्बन्धित प्रश्न पूछने के अवसर प्रदान नहीं किये जाते हैं।
(4) इस पद्धति से वाणिज्यशास्त्र की सम्पूर्ण विषय-वस्तु की शिक्षा प्रदान
नहीं कीजा सकती है।
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
पद्धति को अधिक प्रभावशाली बनाने हेतु अध्यापक को निम्नांकित सुझावों कोध्यान
में रखना चाहिए-
(1) विश्लेषण तथा संश्लेषण का आदर्श रूप में शिक्षण किया जाये। दोनों कीजहाँ
आवश्यकता पड़े, प्रयोग करना चाहिए और इस प्रयोग में दोनों के
पृथक्-पृथककार्यों को पूरी तरह से ध्यान रखना चाहिए।
(2) प्रश्नों को यथाविधि रूप से पूछा जाये। प्रश्नों के सम्बन्ध में आगामी
अध्याय मेंविस्तृत रूप से व्याख्या की गयी है। अध्यापक के लिए केवल प्रश्न
पूछना ही काफीनहीं है। अध्यापक को अच्छी तरह प्रश्न पूछना जितना आवश्यक है.
प्रश्नों के उत्तरनिकलवाना एवं उनके उत्तरों को समझना भी उतना ही आवश्यक है।
(3) श्यामपट-कार्य बड़ी सावधानी से करना चाहिए।
(4) प्रश्न पूरी कक्षा में फैले हुए होने चाहिए। किसी एक विशेष छात्र या
छात्रों केएक विशेष समूह से ही प्रश्न पूछना ठीक नहीं। प्रत्येक छात्र से
प्रश्न पूछे जायें या कमसे कम प्रत्येक छात्र पूछने की सम्भावना रखी जाये,
जिससे प्रत्येक छात्र प्रश्न का उत्तरसोचने को मजबूर हो।
सामाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति
(SOCIALIZED RECITATION METHOD)
विभिन्न मनोवैज्ञानिक खोजों (Findings) के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया
हैकि वे समस्त शिक्षण पद्धतियाँ, जिनमें छात्र निष्क्रिय श्रोतामात्र रहता है
एवं शिक्षकसक्रिय रहता है, शिक्षा के दृष्टिकोण से उपयोगी नहीं है। फलतः इस
प्रकार कीपद्धतियों का आविष्कार किया गया, जिनमें छात्र सक्रिय भाग ले सकें
तथा अध्यापक काकार्य केवल पथ-प्रदर्शन करना भर ही रह जाय। इन्हीं पद्धतियों
में से सामाजिकअभिव्यक्ति पद्धति भी एक है। इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र
सहयोग तथा सदभाव केआधार पर कार्य करके ज्ञानार्जन करते हैं।
सामाजीकृत अभिव्यक्ति की परिभाषा
(Definition of the Socialized Recitation)
बिनिंग तथा विनिंग ने समाजीकृत अभिव्यक्त-पद्धति के दो रूपों, संकुचित
तथाविस्तृत का वर्णन किया है। संकुचित अर्थ में सामाजीकृत अभिव्यक्ति की
परिभाषा देतेहुए लेखकद्वय कहते हैं {यह एक ऐसी क्रिया है जिसमें अध्यापक
कालांश को कक्षा याछात्रों द्वारा चुनी गयी समिति को सौंप देता है तथा
कक्षा-कार्य से अपने को पूर्णतयापृथक कर लेता है।
**The procedure is one in which the teacher tums the periods over tothe
class or to a committee chosen by the pupils and then withdraws
entirelyfrom any participation in the activities of the class.-Bining
& Bining, op. cit., 130.
इसका दूसरा रूप विस्तृत रूप है। इस रूप में कोई कक्षा कार्यकाल, जोसामूहिक
चेतना तथा व्यक्तिगत दायित्व की भावना का प्रदर्शन करे, सामाजीकृतअभिव्यक्ति
है।
Any class-session that exhibits group consciousness and the feel-ing of
individual responsibility towards the group is a socialized rectitation.
लेखकद्वय इस पद्धति के द्वितीय रूप को उत्तम बतलाते हैं। पद्धति के
द्वितीयरूप में विद्यालय के वातावरण को पूर्णरूपेण सामाजिक बनाने हेतु
विद्यालय को समाजका ही एक लघु रूप (Miniature) बना दिया जाता है। इस पद्धति
का मूल उद्देश्यछात्रों को सामाजीकरण करना है। इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र
को अधिक से अधिकदायित्व दिये जाते हैं, उसे शिक्षा के किसी खण्ड का नेता बना
दिया जाता है यासामाजिक सुविधायें प्रदान की जाती हैं। प्रत्येक खण्ड समस्त
कक्षा के कल्याणर्थसामूहिक रूप से कार्य करता है तथा प्रत्येक व्यक्तिगत
छात्र के व्यक्तित्व का आदरकरता है। इसके लिए कक्षा का संचालन विशेष रूप से
करना पड़ता है। कक्षा-संचालनमें अध्यापक को सामाजिक तत्वों का विशेष ध्यान
रखना पड़ता है। यदि अध्यापक छात्रोंके सामाजिक जीवन से परिचित नहीं होता है
तो वह कक्षा का संचालन सफलतापूर्वकनहीं कर सकता है। अध्यापक छात्रों को उन
सभी क्रियाओं तथा कार्यों के सम्बन्ध में पूर्णस्वतन्त्रता प्रदान करता है जो
समूह के कल्याण से सम्बन्धित हैं। इस प्रकारसामाजीकृत अभिव्यक्ति का मूल
उद्देश्य छात्रों को मित्रतापूर्ण सामूहिक जीवन व्यतीतकरने योग्य बनाना है।
The one important aim of the socialized class-room is to increaseactivity
on the part of the pupils and to teach them to live, to work and toplay
together in a friendly co-operative way.--Yoakam & Simpson, p.218.
सामाजीकृत अभिव्यक्ति का संगठन (Organization of Socialized Recitation)
सामाजीकृत अभिव्यक्ति-पद्धति के अन्तर्गत शिक्षण-प्रणाली (Teaching
Proce-dure) कई प्रकार से प्रयोग की जा सकती है। इस प्रणाली के अनुसार कक्षा
के सभी केछात्र एक वक्राकार घेरे में बैठते हैं। शिक्षक भी छात्रों के साथ
स्थान ग्रहण करता है।कक्षा-कार्य का संचालन किसी एक छात्र को सौंप दिया जाता
है। कक्षाकार्य के कार्यक्रममें छात्र प्रश्नोत्तर तथा अन्य विधियों से ज्ञान
प्राप्त करते हैं। इस संचालन के अन्त मेंअध्यापक, यदि कक्षा-कार्य में कोई
त्रुटि पाता है. तो कक्षा के समाप्ति के भाषण केपश्चात् अपने भाषण के द्वारा
उन त्रुटियों को दूर कर सकता है। जिस छात्र कोकक्षा-कार्य संचालित करने का
भार सौंपा जाता है, वह सभापति कहलाता है।
दूसरी प्रणाली के अनुसार प्रत्येक दिन के लिए पाठ को कई उप-खण्डों में
विभक्तकर दिया जाता है और प्रत्येक उप-खण्ड के लिए एक छात्र-नेता का चुनाव कर
दियाजाता है। पाठ के जितने उप-खण्ड होंगे, उतने ही छात्र नेताओं की आवश्यकता
पड़ेगी।प्रत्येक छात्र-नेता अपने उप-खण्ड के अध्यापन एवं अध्ययन हेतु अपनी
सूझ-बूझ के केअनुसार योजनायें बनाता है तथा कार्य-विधि निर्धारित करता है।
कक्षाध्यापकछात्र-नेताओं की विभिन्न योजनाओं तथा कार्य-विधियों की जाँच करके
अपनी स्वीकृतिप्रदान करता है। कार्यकाल में छात्र-नेता अपने उपखण्ड से
सम्बन्धित प्रश्न पूछेगा.वाद-विवाद करेगा. आलोचना-समालोचना हेतु छात्रों को
कहेगा तथा छात्रों से उप-खण्डकी किसी समस्या पर अपने विचार व्यक्त करने को
कहेगा। इस प्रकार छात्र-नेता अपनेउप-खण्ड के सम्बन्ध में अपनी योजना के
अनुसार कुछ भी कार्य करा सकता है। अन्तमें छात्र-नेता यदि कुछ अतिरिक्त ज्ञान
प्रदान करना चाहता है तो वह कर सकता है।सबसे अन्त में अध्यापक भी अपने विचार
व्यक्त कर सकता है।
एक अन्य प्रणाली के अनुसार कक्षा में ही एक सभापति, सचिव तथा कुछसमितियाँ बना
ली जाती हैं। प्रत्येक समिति को एक-एक पाठ या पाठ का एक-एकखण्ड दे दिया जाता
है। प्रत्येक समिति अपने-अपने पाठ या खण्ड के सम्बन्ध में विस्तृतयोजनायें
बनाती है और अपने पाठ या खण्ड के सम्बन्ध में विभिन्न साधनों से
सूचनायेंएकत्रित कर अन्य समितियों तक वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर तथा ऐसी ही अन्य
विधियों सेपहुँचाती है।
इस दृष्टि से शिष्ट प्रतियोगिता की भावना जाग्रत करने के दृष्टिकोण से
कक्षाको कई समूहों में विभक्त करने के स्थान पर कभी-कभी केवल दो ही समूहों
में विभक्तकर दिया जाता है। प्रत्येक समूह को पृथक-पृथक पाठ या पाठों के खण्ड
दे दिये जाते हैं। प्रत्येक खण्ड अपने-अपने निर्धारित पाठ या उप-खण्डों के
सम्बन्ध में विभिन्न साधनोंसे अधिकाधिक ज्ञान प्राप्त करके कक्षा में आते
हैं। कक्षा में एक समूह दूसरे समूहउसको दिये गये पाठ या उप-खण्ड से सम्बन्धित
प्रश्न पूछता है। उत्तर दे पाने या देनेमें असफल हो जाने पर समूह को विभिन्न
प्रकार से अंक प्रदान किये जाते हैं। अन्त में,जोसमूहअधिक अंक प्राप्त करता
है. वह विजयी माना जाता है।
सेयदि हम सरसरी नजर से देखें तो पाते हैं कि सामाजीकृत अभिव्यक्ति के
विभिन्नसंगठनों के अन्तर्गत छात्र ही प्रमुख रहते हैं। वे ही समस्त क्रियायें
सम्पादित करते हैं,तथा छात्र ही अपनी कक्षा का संचालन करते हैं, किन्तु इसका
अर्थ यह नहीं लगा लेनाचाहिए कि अध्यापक के कुछ कर्त्तव्य नहीं रह जाते।
वास्तव में, देखा जाये तो इसपद्धति के अन्तर्गत अध्यापक के कर्तव्य ही कहीं
अधिक बढ़ जाते हैं। कक्षा-कार्य प्रारम्भहोने से बहुत पहले ही शिक्षक के
कर्तव्य प्रारम्भ हो जाते हैं। शिक्षक ही कक्षा का प्रमुखहोने के नाते, कक्षा
की उन्नति, छात्रों में उचित सामाजिकता तथा आदर्श जाग्रत करने केलिए
उत्तरदायी होता है। इसलिए उसे अत्यन्त दूरदर्शिता के साथ योजनायें बनानीपड़ती
हैं। उसे छात्रों तथा छात्रों की सामाजिक परिस्थितियों को समझना पड़ता
है,क्योंकि इस प्रकार से ज्ञान के बिना सोद्देश्य योजना बना पाना बड़ा कठिन
होता है।योजना बनाने के उपरान्त जब वास्तव में सामाजीकृत अभिव्यक्ति की कक्षा
प्रारम्भ होतीहै तो शिक्षक को और भी अधिक कार्य करना पड़ता है। इस समय वह एक
पथ-प्रदर्शक,सहायक, परामर्शदाता, योगक, संचालक तथा मापनकर्ता के रूप में
कार्य करता है। यहछात्रों की त्रुटियों को सुधारता है तथा गलत रास्ते पर जाने
पर सही रास्ते पर लाता है।इस प्रकार समाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति शिक्षक के
महत्व को कम न करके अधिक बढ़ाती है।
समाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति की सफलता अध्यापक की योग्यता, दक्षता
औरनेतृत्व-गुणों पर निर्भर करती है। अध्यापक किस प्रकार छात्रों के समूह
बनाता है, किसप्रकार कार्य का निर्धारण करता है, किस प्रकार पाठों को विभिन्न
उप-खण्डों में विभक्तकरता है, किस प्रकार छात्रों का निर्देशन करता है आदि
बातों पर इस पद्धति कीसफलता निर्भर करती है। इस पद्धति की उपरोक्त वर्णित
प्रणालियों का रूप उतनामहत्वपूर्ण नहीं है जितना प्रणालियों का नियन्त्रित
तथा योजित करना। योजना बनातेसमय अध्यापक को अनेक बातों का ध्यान रखना पड़ता
है. यथा शिक्षा के सामान्य एवंविशिष्ट उद्देश्य, उपलब्ध साधन, व्यक्तिगत
विभिन्नतायें, छात्रों का मानसिक स्तर, छात्रोंके बैठने की व्यवस्था,
विद्यालय तथा छात्रों की आर्थिक एवं सामाजिक दशायें आदि।अतः इस पद्धति का
अनुसरण करते समय अध्यापक को इस प्रणाली की अपेक्षा कक्षातथा पाठ-योजना पर
अधिक ध्यान देना चाहिए।
पद्धति के गुण
(Merits of the Method)
सामाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति के समर्थक इस पद्धति में निम्नांकित गुण बतलाते
(1) इस पद्धति के अनुसार शिक्षण-कार्य करते समय शिक्षण-कार्य में छात्र
अधिकसक्रिय रूप से भाग लेते हैं। वे दिये गये कार्य के सम्बन्ध में अधिक से
अधिक जानने की चेष्टा करते हैं, जिससे वे अन्य छात्रों द्वारा पूछे गये
प्रश्नों का उत्तर दे सकें।
(2) सामाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति उन सभी सामग्रियों, विधियों, समस्याओं
तथायोजनाओं का सफलतापूर्वक प्रयोग कर सकती है, जिन्हें शिक्षण की अन्य
पद्धतियों मेंप्रयोग किया जाता है।
**The socialized procedure can make use of all the devices,
projects,problems and activities that are available under other
methods.—Wesly &Wronski, Teaching Social Studies in High Schools, p.
419.
(3) इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र योजनायें बनाना सीख जाते हैं। नेता यासभापति
अपने समूह को दिये गये कार्य के सम्बन्ध में स्वयं ही विस्तृत योजना बनाताहै।
इस प्रकार छात्रयोजित अध्ययन (Planned Study) करना सीख जाते हैं।
(4) कक्षा का एक समूह प्रश्न पूछता है तथा समस्यायें खड़ी करता है तो
दूसरासमूह प्रश्नों का उत्तर देता है और समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता
है। इस प्रकारछात्रों में तर्क-शक्ति का विकास होता है।
(5) यह पद्धति आत्म-प्रदर्शन. आत्म-विश्वास तथा चिन्तन-शक्ति का विकास
करतीहै। आत्म-प्रदर्शन इस पद्धति का महान गुण है। इस पद्धति द्वारा छात्र
अपने विचारों को है स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त कर सकता है।
One of the greatest value in the method lies in the opportunity thatit
gives to the pupil express his thoughts.-Bining & Bining, op. cit., p.
139.
(6) यह पद्धति छात्रों में नेतृत्व-गुणों का विकास करती है।
कक्षा-कार्य-संचालनका भार छात्रों में से ही किसी एक छात्र को सौंप दिया जाता
है। इस प्रकार उसमें दियेगये कार्य को संचालित करने की योग्यता का विकास होता
है।
(7) सामाजीकृत अभिव्यक्ति पद्धति कार्य-निर्धारण को सुगम बताती है. छात्रों
कोसक्रिय करती है तथा विद्यालय-नियन्त्रण का उदासीकरण करती है।
The socialized procedure has brought about more significant assign-ment,
more student activities and in some instances, liberalization of
schoolcontrol.-Wesley & Wronski, Ibid, p.
P.419.
(8) इस पद्धति के अन्तर्गत छात्र तथा शिक्षक के सम्बन्ध मधुर होते हैं।
(9) यह पद्धति छात्रों में सहकारिता तथा सहयोग की भावना का विकास करतीहै। एक
समूह द्वारा पूछे गये प्रश्न का उत्तर दूसरा समूह मिल-जुल कर देता है तथादिये
गये कार्य को पूरा समूह करता है।
(10) यह पद्धति छात्रों को पढ़ने तथा सीखने के लिए भली प्रकार से प्रेरित
करतीहै।छात्र अध्यापक को बताने हेतु नहीं पढ़ता. वरन अपने ही साथियों को
बताने हेतुपढ़कर आता है। अतः अपने समूह में अपना प्रभुत्व जमाने हेतु वह अधिक
से अधिकपढ़कर आता है, जिससे वह विरोधी समूह द्वारा पूछे गये प्रश्नों का
उत्तर अच्छा से अच्छा दे सके। पढ़ने में उसकी रुचि जाग्रत हो जाती है। जहाँ
रुचि हो, वहाँ प्रेरणा स्वतः ही जाग्रत हो जाती है इस प्रकार यह पद्धति अन्य
पद्धतियों से अच्छी है।
पद्धति के दोष (Demerits oftheMethod)
इस पद्धति में उपरोक्त गुणों के होने के साथ ही साथ निम्नांकित दोष भी
पायेजाते हैं-
(1) यह पद्धति शिक्षक के महत्व को बिलकुल ही घटा देती है। फलतः कक्षा
मेंअनुशासनहीनता की समस्यायें पैदा हो जाती हैं।
(2) इस पद्धति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान अध्यापक द्वारा बनायी गयीयोजना
पाठ को खण्डों में विभाजित करना. छात्रों का उचित निर्देशन तथा अपने अन्तिम
समापन-भाषण को प्राप्त है। यदि अध्यापक इन कार्यों को सफलतापूर्वक नहीं कर
पाताहै तो यह सम्भव है कि छात्र पथभ्रष्ट हो जायें और इस विषय की शिक्षा के
उद्देश्यों कोही प्राप्त न कर सकें।
(3) कभी-कभी कक्षा में व्यर्थ के वाद-विवाद होने का भय रहता है। छात्र
मूलविषय को छोड़ इधर-उधर का वाद-विवाद कर समय नष्ट कर सकते हैं।
(4) सभी छात्र कार्य संचालन में समान रूप से भाग लेंगे, ऐसा नहीं भी हो सकता
है।प्रायः यह देखा जाता है कि कक्षा कार्य संचालन में कुछ गिने चुने छात्र ही
भाग लेते हैं।
(5) इस पद्धति द्वारा वाणिज्य विषय की सम्पूर्ण विषय वस्तु नहीं पढ़ाई जासकती
है।
कुछ सुझाव (Some Suggestions)
इस पद्धति को दोष रहित तथा अधिक उपयोगी बनाने हेतु वाणिज्य अध्यापक
कोनिम्नांकित सुझावों को ध्यान में रखना चाहिए-
(1) अध्यापक को चाहिए कि वह समूह-निर्माण तथा कार्य-निर्धारण अत्यन्तसावधानी
से करे। ऐसा करते समय अध्यापक को छात्रों के मानसिक स्तर, उनकीआर्थिक व
सामाजिक अवस्थायें तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं को पूरा-पूरा ध्यान में
रखनाचाहिए।
(2) अध्यापक को चाहिए कि वह छात्रों को कक्षा कार्य में समान रूप से भाग
लेनेके अवसर प्रदान करे। इससे सभी छात्र समान रूप से सक्रिय रहेंगे।
(3) वाणिज्य अध्यापक के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह एक समय में एकही पद्धति
को अपनाये। अच्छे परिणाम प्राप्त करने हेतु, उसे इस पद्धति के साथ हीसाथ अन्य
पद्धतियों का सहारा भी लेना चाहिए।
(4) कमजोर छात्रों को विशेष सुविधायें प्रदान करनी चाहिये। जो बालक
झिझकतेहैं, शंकालु तथा लजीले होते हैं, उनको मुख्य भूमिका अदा करने के अवसर
देकरअध्यापक उनकी झिझक तथा शंका को दूर सकते हैं।
(5) व्यर्थ तथा असम्बन्धित वाद-विवाद को प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। यदि
ऐसाहो तो अध्यापक को अपने कुशल निर्देशन के द्वारा उसे 'विषय' से सम्बन्धित
कर देनाचाहिए।
(6) इस पद्धति का प्रयोग केवल कुशल एवं दक्ष अध्यापकों को ही करना चाहिए।
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