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बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण

वाणिज्य शिक्षण

प्रो. रामपाल सिंह

प्रो. पृथ्वी सिंह

प्रकाशक : अग्रवाल पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2532
आईएसबीएन :9788189994303

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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक

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वाणिज्य शिक्षण के उद्देश्य
(AIMS OF TEACHING COMMERCE)

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसकी क्रियायें निरुद्देश्य नहीं होती हैं। मानव कीसमस्त क्रियाओं की पृष्ठभूमि में कोई लक्ष्य या उद्देश्य अवश्य होता है जो व्यक्ति कोक्रिया करने की प्रेरणा देता है तथा उसका मार्गदर्शन भी करता है। इस तथ्य को स्पष्टकरते हुए महान शिक्षाशास्त्री ड्यूवी ने कहा है कि उद्देश्य पूर्व योजित लक्ष्य है जो किसीक्रिया को संचालित करता है या क्रिया करने को प्रेरित करता है। चूंकि मानव औरशिक्षा के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध है तथा शिक्षा व्यक्ति एवं समाज के विकास का एकसाधन भी है अतएव उद्देश्यहीन शिक्षा से न तो व्यक्ति का विकास होता है न-समाज काही कोई भला होता है। रिवलिन ने लिखा है कि शिक्षा अर्थपूर्ण और नैतिक क्रिया है।अतः उद्देश्यहीन शिक्षा के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। मनुष्य चिन्तनशील होता 'है। वह किसी कार्य को करने से पूर्व मस्तिष्क में उसकी पूर्व योजना का निर्माण करताहै तथा कार्य को निश्चित करता है तत्पश्चात् निश्चित उद्देश्यों से प्रेरणा लेकर कार्य की
हैओर अग्रसर होता है। प्रत्येक मानवीय क्रिया सोद्देश्य होती है। अतः जैसे उद्देश्य होंगेवैसी ही क्रियायें होंगी। शिक्षण को सुचारु व व्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए उद्देश्योंको निश्चित करना आवश्यक है। उद्देश्य शिक्षार्थी को अपने उद्देश्य तक पहुँचने के लिएअभिप्रेरित करते हैं तथा लक्ष्य प्राप्ति तक सक्रिय रखते हैं। आज की शिक्षा उद्देश्यनिष्ठ 1शिक्षा है जिसमें शिक्षण से पूर्व उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। वाणिज्य शिक्षा केउद्देश्य आर्थिक स्रोत, आर्थिक स्थिति, भौगोलिक वातावरण व परिस्थितियाँ सामाजिकविचारधाराओं द्वारा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते हैं।

एन० सी० ई० आर० टी० के एक प्रकाशन में उद्देश्यों की परिभाषा देते हुए लिखागया है कि-उद्देश्य वह बिन्दु अथवा साध्य है जिसकी दिशा में कार्य को अग्रसर कियाजाता है तथा जिसके अनुसार किसी क्रिया के माध्यम से कोई पूर्व नियोजित परिवर्तनलाया जाता है।

उद्देश्यों का अर्थ अधिक स्पष्ट करने के लिए उद्देश्य एवं लक्ष्य में अन्तर समझनाभी आवश्यक है। उद्देश्य अपने स्वभाव एवं प्रकृति में सीमित होते हैं और इनकासम्बन्ध केवल शिक्षक से ही होता है जबकि लक्ष्य व्यापक होते हैं और इनका सम्बन्धसम्पूर्ण राष्ट्र तथा समाज से होता है। शिक्षण उद्देश्यों का निर्माण शिक्षक स्वयं शिक्षा उद्देश्यों के आधार पर करता है जबकि लक्ष्यों का निर्धारण सम्पूर्ण समाज, समाज कीपरम्परायें तथा राष्ट्र एवं उसका चिन्तन करता है। शिक्षण उद्देश्यों का निर्माण शिक्षकअपने कार्यक्रमों, उपलब्ध साधनों तथा समय के अनुसार करता है जबकि लक्ष्यों कानिर्माण रीति नीति, आवश्यकता एवं सत्तारूढ़ दल की विचारधारायें करती है। स्वभावएवं प्रकृति की संकीर्णता के कारण उद्देश्य अपेक्षाकृत सुनिश्चित होते हैं। जबकि लक्ष्यअधिक व्यापक तथा उदार होते हैं, इसलिए इनमें निश्चितता कम होती है। उद्देश्यों कामापन व मूल्यांकन करना सुनिश्चितता के कारण सरल होता है जबकि लक्ष्यों का मापनकठिन होता है।शिक्षा के उद्देश्यों की आवश्यकता उद्देश्यों की आवश्यकता निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट की जा सकती है-

(अ) औपचारिक शिक्षा का संगठन-समाज द्वारा औपचारिक शिक्षा का गठन कुछउद्देश्यों को लेकर किया जाता है। समाज के व्यक्तियों को किस प्रकार की शिक्षा दीजाय यह उस समाज के लोगों के जीवन के प्रति दृष्टिकोण द्वारा तय किया जाता है।प्रत्येक समाज मानव जीवन के कुछ उद्देश्य निर्धारित करता है। शिक्षा व्यवस्था उनउद्देश्यों पर निर्भर करती है।(आ) पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियों का चयन-शिक्षा के उद्देश्य ही पाठ्यक्रम के केकलेवर का चयन करने में सहायक होते हैं। उद्देश्य ही पाठ्यवस्तु को छाँटने मेंसहायता करते हैं। इसी प्रकार उद्देश्यों को देखकर अध्यापकगण जब यह निश्चित करतेहैं कि कक्षा में उनको किन शिक्षण विधियों का प्रयोग करना चाहिये।

(इ) शिक्षण प्रक्रिया का संचालन-शिक्षा के उद्देश्य शिक्षण प्रक्रिया को ठीक सेसंचालित करने में सहायक होते हैं। उद्देश्यों का ज्ञान होने पर शिक्षक व छात्रों को यह ज्ञान होता है कि उसे क्या सीखना है। शिक्षक व छात्रों के मध्य चलने वाली प्रक्रिया हीशिक्षण प्रक्रिया कहलाती है। उद्देश्यों के अभाव में यह प्रक्रिया ठीक प्रकार नहीं चलसकती है।

(ई) उत्साह एवं लगन में वृद्धि-उद्देश्य का ज्ञान होने पर शिक्षक एवं छात्र बड़ेलगन से कम करते हैं तथा उनमें उत्साह बढ़ता है।

(उ) समाज का उचित विकास-उद्देश्यविहीन शिक्षा समाज का विकास नहीं करसकती है।

उद्देश्य ही शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करते हैं और समाज को विकास की ओरअग्रसर करते हैं।अच्छे शैक्षिक उद्देश्यों की विशेषता रोबर्ट मैगर ने उद्देश्यों की विशेषताओं में निम्न 3 बातों को बतलाया है-

(अ) परिवर्त्य व्यवहार-अपनी दक्षता को प्रकट करते समय अधिगमकर्ता छात्रकौन सा व्यवहार करेगा। इस बात का स्पष्ट निरूपण उद्देश्य में होना चाहिए इससेछात्रों में होने वाले व्यावहारिक परिवर्तन का स्पष्टीकरण होता है।

(ब) परिवर्त्य व्यवहार की शर्ते-वह शर्ते जिसके आधार पर व्यवहारगत परिवर्तन सम्भव है, इसमें उन परिस्थितियों का उल्लेख हो, जिसमें छात्र अपनी दक्षतादिखायेगा।

(स) परिवर्त्य व्यवहार की अभिव्यक्ति-स्वीकरण स्तर-शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्तिकिस स्तर तक हुई, उसे ज्ञात करने की एक कसौटी है। इसी आधार पर अधिगमकर्ताछात्र के व्यवहार को उचित व अनुचित तय करता है ।उद्देश्यों के निर्धारक शिक्षा के उद्देश्यों को न तो कोई एक व्यक्ति या व्यक्तियों का कोई समूह विशिष्टही निर्धारित करता है। वास्तविक रूप से शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण तो अनेकविद्वानों के सम्मिलित प्रयासों का परिणाम होता है। लेखक, सम्पादक, अध्यापकदार्शनिक, राजनीतिज्ञ, विज्ञापनदाता, जनसम्पर्क अधिकारी, शिक्षा अधिकारी, शिक्षाविभाग, सरकारी, गैर सरकारी संस्थायें, आयोग, समितियाँ आदि सभी के मिले-जुलेप्रयासों के परिणामस्वरूप शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों का निर्माण किया जाता है।उद्देश्यों के प्रकार शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है।

प्रथम प्रकार निम्नसे है-(अ) सामान्य उद्देश्य(ब) विशिष्ट उद्देश्य सामान्य उद्देश्य-शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों से तात्पर्य उन उद्देश्यों से है जो सभी पर लागू होते हैं। ये देश काल से प्रभावित नहीं होते हैं. इनकी उपयोगिता सभी देशों मेंसदैव बनी रहती है। इन उद्देश्यों को ही सामान्य उद्देश्य कहा जाता है।

विशिष्ट उद्देश्य-ये उद्देश्य देश व काल से प्रभावित होते हैं और इनका आधारकिसी देश की सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियाँ होती हैं, इनका क्षेत्र सीमित होता है।उदाहरणार्थ कोई विकासशील देश आर्थिक विकास के लिए प्रौद्योगिक शिक्षा का प्रसारकरना उद्देश्य निर्धारित कर सकता है।

शिक्षा के उद्देश्यों का द्वितीय भेद निम्न प्रकार से है

(अ) व्यक्तिगत उद्देश्य
(ब) सामाजिक उद्देश्यवाणिज्य शिक्षा के उद्देश्य

संयुक्त राज्य अमेरिका के वाणिज्य अध्यापकों की राष्ट्रीय समिति ने वाणिज्य शिक्षाकी परिभाषा बतलाते हुए कहा कि “वाणिज्य शिक्षा, शिक्षा प्रक्रिया का वह पक्ष है जो एक और व्यापारिक धन्धों की व्यावसायिक तैयारी से सम्बन्धित है या वाणिज्य शिक्षण सेसम्बन्धित कार्यों के लिए तैयार करता है तथा दूसरी ओर ऐसी वाणिज्य सम्बन्धीसूचनाओं से सम्बन्धित है जो प्रत्येक व्यक्ति व उपभोक्ता के लिए आर्थिक व वाणिज्यिकवातावरण को ठीक प्रकार से समझने हेतु महत्वपूर्ण है।

उपरोक्त परिभाषा वाणिज्य शिक्षा के दो प्रमुख उद्देश्यों की ओर संकेत करती है।एक तो यह व्यावसायिक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है दूसरी ओर यह वाणिज्यिककुशलता व क्षमता की प्रवृत्ति को बतलाती है।

वाणिज्य शिक्षा को सामान्य लक्ष्यों की दृष्टि से दो भागों में बाँटा जा सकता है जोगग प्रकार हैं-

(1) व्यावसायिक शिक्षा
(2) अव्यावसायिक शिक्षा

अमेरिका के एक व्यावसायिक संगठन ने व्यावसायिक वाणिज्य शिक्षा वअव्यावसायिक वाणिज्य शिक्षा की परिभाषा निम्न प्रकार से प्रस्तुत की है-व्यावसायिक वाणिज्य शिक्षा, शिक्षा का एक ऐसा कार्यक्रम है जो छात्रों को वाणिज्यिक धन्धों के लिए ऐसी आवश्यक कुशलता, ज्ञान व अभिवृत्ति से युक्त कर सके जो कि प्रारम्भिक रोजगार प्राप्त करने और उनमें उन्नति करने हेतु आवश्यक है। दूसरीओर अव्यावसायिक वाणिज्य शिक्षा से तात्पर्य है, वह शिक्षा जो छात्रों को ऐसी सूचनाओंव क्षमताओं से सुसज्जित कर सके जो वाणिज्य के क्षेत्र में व्यक्तिगत कार्यों और सेवाओंसे सम्बन्धित है और जिनकी हर व्यक्ति को आवश्यकता होती है।'

Vocational business education has been defined as a programme of education which equips the student with the marketable skills, knowledges and attitudes needed for initial employment and advancement the business occupations. General business education on the other hand provides the student with information and competencies which are needed by all, in managing personal business affairs and in using the services of the business world. Definitions of terms in Vocational and Practical Arts Education, American Vocational Association. 100 Vermont Avenue,Washington 5 D. C., 1954, Page 7.

(1) व्यावहारिक उपयोगिता का उद्देश्य-विभिन्न शिक्षा स्तरों पर छात्र जो भीक्षमताएँ, कुशलतायें व आवश्यक ज्ञान अर्जित करते हैं उसे व्यावहारिक जीवन मेंउपयोगी बना सके। छात्रों को बैंकों, बीमा कम्पनियों व कार्यालयों, व्यापारिक संगठनों वमिलों, कारखानों आदि में ले जाकर उनके क्रियाकलापों के व्यावहारिक पक्ष कीआवश्यक जानकारियाँ दी जाती हैं। इनके साथ-साथ उन्हें अनेकानेक वाणिज्यिकप्रतिष्ठानों में कच्चे माल के स्रोत क्या-क्या हैं और कहाँ-कहाँ है उनकी प्राप्ति के तरीके.प्रशासनिक तरीके. पूँजी में सन्तुलन पक्ष की उचित जानकारियों दी जाती हैं। इससेछात्रों में उत्तरदायित्व की भावना व सहयोग की प्रवृत्ति भी विकसित होती है। इस प्रकारवाणिज्य शिक्षा द्वारा विभिन्न स्रोतों बीमा कम्पनियों, बैंकों, सहकारी समितियों से छात्र जोप्रशिक्षण प्राप्त करते हैं, बाद में उन्हें जीवन में उनका व्यावहारिक उपयोग व्यावहारिकउपयोगिता को अर्जित करने में सक्षम बनाते हैं।

(2) साधारण चातुर्य का विकास-वाणिज्य शिक्षा छात्रों में साधारण चातुर्य काविकास करती है। कुछ विशेष वर्ग के बालक जीवन के प्रारम्भिक चरणों से ही व्यापारकार्यों में संलग्न हो जाते हैं, ऐसे बालक शीघ्र व्यापारिक कार्यों व वाणिज्यिक सिद्धान्तोंमें आवश्यक कौशल अर्जित कर लेते हैं, आय-व्यय का हिसाब रखना, पूँजी का उचित वअधिकतम उपयोग करना. बाजार की स्थिति, आवाक को सही ढंग से जानना, बैंक'कार्यों, बीमा कार्यों, सहकारी समितियों से परिचय, रेल विभाग व डाक तार विभाग सेसामान भेजने व सामान व पत्र आदि शीघ व उचित ढंग से प्राप्त करने में निपुणताप्राप्त कर लेते हैं। वाणिज्य शिक्षा द्वारा छात्र माँग व पूर्ति के सिद्धान्त को ध्यान में रखबाजार से सम्पर्क जोड़ते हैं। वह धन का उचित सन्तुलन ग्नाने में सफल रहते हैं। इस कार वाणिज्य शिक्षा के द्वारा छात्रों में आवश्यक साधारण चातुर्य का विकास किया जासकता है।

(3) जीविकोपार्जन का उद्देश्य-वाणिज्य शिक्षा भाषी जीवन के लिए सुदृढ आधारप्रस्तुत करती है। वाणिज्य शिक्षा का एक उद्देश्य जीविकोपार्जन है। जीविकोपार्जन केलिए धन की अहम भूमिका होती है। वाणिज्य शिक्षा बतलाती है कि धन किन-किन कार्योंव व्यवसायों से अर्जित किया जा सकता है। वाणिज्य शिक्षा विभिन्न व्यवसायों, उनकेक्रियाकलापों की जानकारी देकर व्यावहारिक व यथार्थवादी दृष्टिकोण विकसित करतीहै जिससे वे जीविकोपार्जन के लिए व आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित होते हैं।फलस्वरूप वे एक निश्चित व्यवसाय का चयन करते हैं तथा लगन व परिश्रम के द्वाराजीविकोपार्जन में अपने को संलग्न करते हैं। जीविकोपार्जन के उद्देश्य को सफल बनानेके लिए वाणिज्य शिक्षा के अन्तर्गत अनेकानेक व्यवसायों से परिचित कराया जाए इससेछात्रों में आवश्यक ज्ञान, कुशलताओं व क्षमताओं का विकास होगा। व्यवसाय बढ़ेंगे तोस्रोत भी बढ़ेंगे. उत्पादन भी बढ़ेगा। फलस्वरूप न केवल नागरिक अपितु राष्ट्र भीआर्थिक दृष्टि से सम्पन्न बनेगा।

(4) व्यवसाय परिवर्तन में अनुकूलता-वाणिज्य शिक्षा एक उद्देश्य छात्रों को इसयोग्य बनाना है कि वे भविष्य में अर्जित ज्ञान का जीवन में उपयोग कर सके तथाआवश्यकता पड़ने पर व्यवसाय परिवर्तन भी आसानी से कर सके। वाणिज्य शिक्षा द्वाराछात्रों को जीवनोपयोगी शिक्षा प्रदान करना मुख्य कार्य है। विज्ञान के इस चमत्कारिक युगने अनेकानेक नवीन मशीनों का आविष्कार किया है। अतः तत्सम्बन्धी व्यक्तियों कोव्यवसाय परिवर्तन के लिए तत्पर रहना चाहिए। आर्थिक स्तर में परिवर्तन तथा सरकारीनीति में बदलाव भी कई पुराने व्यवसायों व उद्योगों को बन्द कर नये व्यवसाय व उद्योगस्रोत प्रस्तुत करते हैं अतः व्यवसाय परिवर्तन के लिए तत्पर रहना चाहिए। वाणिज्य शिक्षाद्वारा छात्रों को यथार्थवादी दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए ताकि वे समय-कुसमयकठिनाइयों से मुकाबला कर सके व साहस व परिश्रम से युक्त भानव बना समय वपरिस्थिति के अनुसार आवश्यकतानुसार व्यवसाय परिवर्तन के लिए सक्षम बना सके।

(5) वाणिज्यिक कुशलताओं का विकास-वाणिज्यिक क्रिया-कलापों व गतिविधियों की सामान्य जानकारी कराना भी वाणिज्य शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य है। किसी भी देश की शक्ति सम्पन्नता व आर्थिक सम्पत्रता में वित्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व होता है। व्यापारव वाणिज्य वित्तीय व्यवस्था के सारे, ताने-बाने निर्धारित करता है। बैंक व्यवस्था से चेक,ड्राफ्ट, चालू खाते, बचत पत्र आदि व डाक विभाग से रजिस्ट्री. पत्र-विनिमय{ सहकारी समितियों की कार्य प्रणालियों द्वारा बाजार से सम्पर्क स्थापित करा माल का उत्पादन किस प्रकार कैसे साधनों से अधिकाधिक उत्पादित हो सकता है यह कुशलताएँ विकसित की जा सकती हैं। वाणिज्य शिक्षा द्वारा वाणिज्य सेवाओं की जानकारी के साथ-साथ राष्ट्र की आर्थिक नीतियों, कार्यक्रमों व समस्याओं की भी जानकारियाँ कराना आवश्यकहै। इस प्रकार वाणिज्य शिक्षा प्रभावपूर्ण ढंग से छात्रों में वाणिज्यिक क्षमताओं वकुशलताओं का विकास कर छात्रों की पैनी व्यापारिक दृष्टि प्रदान करती है। वाणिज्यशिक्षा द्वारा प्रदत्त इस पैनी दृष्टि से आर्थिक कुशलता व आर्थिक जागरूकता विकसित होती है।

(6) लोकतान्त्रिक उद्देश्य-माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार, लोकतंत्र मेंनागरिकता एक चुनौतीपूर्ण दायित्व है जिसके लिए प्रत्येक नागरिक को प्रशिक्षित कियाजाता है। इसमें बहुत से बौद्धिक, सामाजिक तथा नैतिक गुण निहित हैं जिनके अपनेआप विकसित होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। भारत ने अपने को लोकतन्त्रात्मक गणराज्य घोषित किया है। लोकतन्त्र कोशासन के स्वरूप के साथ-साथ जीवन के एक तरीके के रूप में भी स्वीकार किया हैअतः हमारी कार्यप्रणाली भी उसी के अनुरूप तय करनी होगी। इसके लिए प्रत्येकनागरिक में प्रजातान्त्रिक गुणों का विकास करना आवश्यक है। वाणिज्य शिक्षा द्वारा हमइस उद्देश्य की प्राप्ति कर सकते हैं। वाणिज्य शिक्षा द्वारा हम आर्थिक स्वतन्त्रता वआर्थिक लोकतन्त्र के ऊँचे लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। लोकतन्त्र को एक दिशा. गतिव शक्ति प्रदान की जा सकती है। प्रजातांत्रिक नागरिकों के लिए आवश्यक सूझ, दक्षता,अभिवृत्तियों का विकास वाणिज्य शिक्षा के द्वारा आसानी से किया जा सकता है। वाणिज्यशिक्षा आर्थिक सिद्धान्तों को जीवन में उतारने की कला सीखना व्यावहारिक नागरिकोंका निर्माण करती है।

(7) राष्ट्र की आर्थिक स्थिति व समस्याओं की जानकारी कराना-यदि राष्ट्र कालक्ष्य ऊँचा है और वह राजनैतिक स्वतन्त्रता व समानता के साथ-साथ आर्थिकस्वतन्त्रता व समानता तथा आर्थिक लोकतन्त्र को सही अर्थों में प्राप्त करना चाहते हैं तोयह आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक राष्ट्र की वास्तविक आर्थिक स्थितिं व राष्ट्र कीआर्थिक समस्याओं से अवगत हो तभी वे इन समस्याओं के समाधान हेतु तत्पर हो सकतेहैं। वाणिज्य शिक्षा छात्रों को उचित दृष्टि व उचित जागरूकता प्रदान कर सकती है।प्रजातन्त्रात्मक देश में प्रत्येक नागरिक को उसकी सरकार की वाणिज्य नीतियों की सहीजानकारी होनी भी आवश्यक है। उद्योग, उत्पादन. व्यापार आयात-निर्यात, श्रम व पूँजीआदि नीतियों व उनकी समस्याओं से अवगत कराने में वाणिज्य शिक्षा महत्त्वपूर्णयोगदान प्रदान करती है। राष्ट्र के कौन-कौन से स्रोत, साधन व व्यवसाय ऐसे हैंजिनके विकास की सम्भावनाएं हैं। इनका वाणिज्य शिक्षा द्वारा ज्ञान करा कर अनेकउद्योग, व्यापार के विकास की सम्भावनायें विकसित की जा सकती हैं। राष्ट्र कोशक्तिशाली त समृद्धशाली राष्ट्र के रूप में विकसित किया जा सकता है।

(8) तर्क एवं निर्णय शक्ति का विकास-वाणिज्य शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्यछात्रों में उचित तर्क व निर्णय शक्ति का विकास करना है। अनेकानेक समस्याओं केसमाधान के लिए यह जरूरी है कि छात्रों को इन बातों की जानकारी हो कि क्या उचितहै क्या अनुचित, क्या सत्य है और क्या असत्य, उपरोक्त का सही ज्ञान होने पर ही वेसमस्याओं के उचित समाधान निकालने में सफल हो सकते हैं। इस प्रकार कीविभेदीकरण की शक्ति मानसिक शक्तियों के विकास द्वारा ही सम्भव हो सकती है।वाणिज्य शिक्षा छात्रों के सम्मुख अनेकानेक ठोस तथ्य प्रस्तुत करती है। इन तथ्यों सेप्रेरित होकर छात्र उन तथ्यों के सम्बन्ध में चिन्तन तथा मनन करते हैं। इस प्रकारवाणिज्य शिक्षा छात्रों को चिन्तन तथा मनन करने के अनेकानेक अवसर प्रदान करतीहै। आज आलोचनात्मक चिन्तन की महत्ता को सर्वत्र स्वीकारा गया है। वाणिज्य शिक्षाअपने छात्रों की आलोचनात्मक चिन्तन के लिए व्यापक धरातल प्रस्तुत करती है। इस प्रकार वाणिज्य शिक्षा के द्वारा छात्रों में उचित तर्क, चिन्तन व निर्णय शक्ति का विकासकिया जाता है।

(9) अन्तर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण का विकास-विश्व में युद्ध के भय को कम करने केलिए. आर्थिक, परस्पर निर्भरता को उपयोगी व व्यावहारिक बनाने के लिए तथा मानवजाति के उत्थान व कल्याण के लिए विश्व के समस्त देशवासियों के हृदय मेंअन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास करना आवश्यक है। राजनैतिक कारणों केअतिरिक्त आर्थिक कारण भी अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को आवश्यक बना देते हैं।यातायात के तीव्रगामी व मितव्ययी साधनों ने विश्व को अत्यन्त लघु रूप प्रदान करदिया है। आज विश्व के देश विशिष्टीकरण के सिद्धान्त के अनुसार उत्पादन करने लगेहैं। जिस देश में किसी एक उत्पादन विशेष की सुविधायें अधिक होती हैं या जो देशकिसीएक उत्पादक को कम लागत में तैयार कर सकता है वह देश उसी उत्पादन कोअधिक मात्रा में करता है और उसका अन्य देशों को निर्यात कर अपनी आवश्यकता कीअन्य वस्तुयें अन्य देशों से आयात करता है। इस प्रकार विश्व के समस्त देश परस्परअन्तर्निर्भर हो गये हैं। आर्थिक परस्पर अन्तर्निर्भरता ने अन्तर्राष्ट्रीय भावना के महत्व कोऔर अधिक बढ़ा दिया है। आज का युग प्रतिस्पर्धा का युग है अतः विश्व बाजार मेंअपनी साख स्थापित करने का भी हर देश प्रयत्न करता है, यह भावना व दृष्टिकोण भीअन्तर्राष्ट्रीय भावना को विकसित करता है। वाणिज्य शिक्षा द्वारा राष्ट्रीय वाणिज्य के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य का भी ज्ञान कराया जाता है। वाणिज्य शिक्षा द्वारा राष्ट्रों के पारस्परिक सहयोग के लिए आधार प्रस्तुत किया जाता है तथा परस्पर अन्तर्निर्भरताव विश्व कल्याण की भावना वाणिज्य शिक्षा के द्वारा विकसित कर अन्तर्राष्ट्रीयदृष्टिकोण विकसित करने में उचित धरातल प्रदान किया जाता है।

(10) सेवा भाव, धैर्य, नम्रता व ईमानदारी की भावना का विकास-वाणिज्य शिक्षाद्वारा छात्रों में सेवा व नम्रता के गुणों को बड़े मनोवेग से विकसित किये जाते हैं। व्यापारसे सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों में नम्रता व सेवा के गुण प्रथम आवश्यक शर्त होती हैक्योंकि अगर वह सेवा भावी व नम्र नहीं होगा तो अपने व्यापार को आसानी से विकसितनहीं कर पायेगा क्योंकि वह दूसरों को अपने व्यवसाय क्षेत्र में आकर्षित नहीं करपायेगा। नम्रता का गुण व्यापारी को साख जमाने में सर्वाधिक सहयोग प्रदान करता है।उसके साथ-साथ व्यापारी को धैर्यवान भी होना चाहिए। कोई ग्राहक कभी अगरअनावश्यक व अनुचित बात भी करे तो उसे धैर्य से सुनने की क्षमता होनी चाहिए।कुशल व्यापारी कभी धैर्य नहीं खोता है, वह हर बात लाभ-हानि मुस्कराते हुए सह जाताहै। वाणिज्य शिक्षा छात्रों को ईमानदारी की भी शिक्षा प्रदान करती है। वाणिज्य शिक्षाबतलाती है कि जो व्यापारी अपने व्यवसाय या व्यापार में ईमानदारी रखता है वहीअन्ततः लाभ प्राप्त करता है। वास्तव में एक व्यापारी की सफलता का रहस्य उसकीईमानदारी की भावना में निहित होता है। इस प्रकार वाणिज्य शिक्षा छात्रों में सेवाभाव,धैर्य, नम्रता व ईमानदारी के गुणों को उचित रूप से विकसित करने में सहायता प्रदानकरती है।

बहीखाता एवं लेखा विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य (Aims of Teaching Book-Keeping and Accounting)

(1) वाणिज्य के छात्रों को बहीखाता एव लेखा विज्ञान बुनियादी सिद्धान्तों वनियमों को जानने व समझने में सहायता करना।
(2) छात्रों में वित्तीय प्रारूप, रिकार्ड्स व प्रतिवेदन तैयार करने की कुशलताविकसित करना तथा उनका उचित विश्लेषण करने की क्षमता का विकास करना।
(3) छात्रों में स्पष्टवादिता, उत्तरदायित्व, समय की पाबन्दी तथा उचित आदतों काविकास करना व उनमें तार्किक व गणितज्ञ दृष्टिकोण विकसित करना।
(4) नवीन परिस्थितियों में वास्तविक सिद्धान्तों को अपनाने की योग्यता काविकास करना।

1. वाणिज्य के छात्रों को बहीखाता एवं लेखा विज्ञान के बुनियादी सिद्धान्तों वनियमों को जानने व समझने में सहायता करना।

A. छात्रों को बहीखाता एवं लेखा विज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों व नियमों केसामान्य अर्थों व उनकी विशेषताओं से परिचित करना जो कि आज के व्यापार जगत मेंप्रचलित हैं तथा प्रचलित नियमों (Terms) में आवश्यक विभेद करने की क्षमता कोविकसित करना। जैसे-
नामपक्ष    Debit
जमापक्ष    Credit
पूँजी    Capital
राजस्व    Revenue
सकल लाभ    Gross Profit
शुद्ध लाभ    Net Profit
B. छात्रों को नियमों, सिद्धान्तों व प्रणालियों में आवश्यक विभेद करने में सहायताप्रदान करना।
C. छात्रों को उन कारणों व तत्वों की खोज में सहायता प्रदान करना जो किप्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से लाभ व धन में बाधक बनते हैं।
D. छात्रों को विभिन्न प्रकार के रिकार्ड्स रखने की युक्तियाँ व उपयोगी से परिचितकराना जैसे केस बुक, जर्नल, लेजर आदि ।
E पुस्तपालन प्रणालियों के प्रत्येक चरण की उपयोगिता को समझना तथाउनको अग्रिम चरणों से सम्बन्धित करना।

2. छात्रों में वित्तीय प्रारूप, रिकार्ड्स व प्रतिवेदन तैयार करने की कुशलता वउचित विश्लेषण की क्षमता का विकास।
A. विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने हेतु वास्तविक लेखा प्रविष्टियों से पुस्तिकातैयार करना। हिसाब व बकाया विवरण हेतु लेजर बुक तैयार करना।
B. जर्नल तैयार करना।
c. पास बुक व केस बुक में अन्तर ज्ञात करना।
D. ठोस लाभ व वास्तविक लाभ का 1/8 से पता लगाना।
E. एकाउण्ट्स की कमियों का पता लगाने की योग्यता का विकास करना।
F. वर्ष के अन्त में चालू हिसाब खाता बन्द करना व नवीन वित्तीय वर्ष से पुनःप्रारम्भ करना।
G विभिन्न वित्तीय विवरणों के फार्मों व प्रतिवेदनों को भरने की कुशलता विकसितकरना।
H. व्यापारिक पत्रों को व्यवस्थित ढंग से रखना सिखाना।

3. छात्रों में स्पष्टवादिता, उत्तरदायित्व व समय की पाबन्दी आदि उचित आदतोंका विकास करना।
A. छात्रों में स्पष्टवादिता, समय की पाबन्दी, निश्चितता व उत्तरदायित्व आदिगुणों का विकास करना।
B. छात्रों को समझाना कि व्यापार की सफलता का रहस्य सेवाभाव व कार्य केउचित ढंग से सम्पादन करने की दक्षता में निहित है।

4. नवीन परिस्थितियों में वास्तविक सिद्धान्तों को अपनाने की योग्यता का विकासकरना।
A. छात्रों को बुक कीपिंग के क्षेत्र में आने वाली विभिन्न समस्याओं के समाधानहेतु तत्पर करना।
B. छात्रों को व्यक्तिगत व पारिवारिक हिसाब को व्यवस्थित रखने हेतु तैयारकरना।
c. विषयान्तर्गत आने वाले दोषों को जानना व दूर करने में सहायता करना।वाणिज्य-शिक्षण के अनुदेशनात्मक उद्देश्य (Instructional Objective of Com-merce Teaching)

आज का युग शैक्षिक तकनीकी का युग है। शैक्षिक तकनीकी का प्रभाव शिक्षणउद्देश्यों पर भी पड़ा है। इसलिए आज हम शिक्षण उद्देश्यों के स्थान पर अनुदेशक केउद्देश्यों को अधिक महत्व देते हैं। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों पर सबसे पूर्व प्रो० बी० एस०ब्लूम ने व्यवस्थित विचार व्यक्त किये तथा संज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की विशिष्टीकरण(Specification) के साथ विस्तृत व्याख्या की। यह व्याख्या सभी शिक्षण विषयों परसमान रूप से लागू होती है। इस व्याख्या के अनुसार वाणिज्य शिक्षण के नीचे लिखेअनुदेशनात्मक उद्देश्य हो सकते हैं-

(1) ज्ञान (Knowledge) वाणिज्य अनुदेशन का प्रथम उद्देश्य है छात्रों कोवाणिज्य से सम्बन्धित विविध तत्वों, सिद्धान्तों, नियमों तथा प्रत्ययों का ज्ञान प्रदानकरना। शिक्षक अपने शिक्षण के द्वारा छात्रों को पुस्तपालन, बैंकिंग, बीमा, समय, श्रमबचाने के साधनों, यातायात के साधनों, बाजार आदि से सम्बन्धित तथ्यों का ज्ञान प्रदानकराना है। साधारण पुनमरण (Simple Recall), पुनर्पहचान (Recognition) तथापुनउत्पादन (Reproduction) इस उद्देश्य के तीन विशिष्टीकरण हैं।

(2) बोध (Understanding)वाणिज्य अनुदेशन का दूसरा उद्देश्य है छात्रों कोवाणिज्य से सम्बन्धित तथ्यों का जो ज्ञान प्राप्त हुआ है, उस ज्ञान का अवबोध कराना।सरल शब्दों में वाणिज्य के विभिन्न तत्वों का ज्ञान प्राप्त होने पर शिक्षक के लिए आवश्यक है कि प्राप्त ज्ञान में से आवश्यक तत्वों का बोध कराये या उनके सम्बन्ध मेंसमझ का विकास करे। यह सत्य है कि व्यक्ति जितना जानता है इस सभी का उसेबोध नहीं होता है। ज्ञान की अपेक्षा बोध कम ही होता है किन्तु जिसका व्यक्ति कोबोध नहीं होता है उसका ज्ञान उसे अवश्य होता है। बोध होने पर बालक अन्तर करना,तुलना करना, वर्गीकरण करना. श्रेणी विभाजन, सारणीयन व्याख्या करना, अनुवादकरना तथा बोधवेशन (Extrapolation) आदि करना सीख जाता है। बोधात्मक उद्देश्यका यही विशिष्टीकरण है।

(3) ज्ञानोपयोग (Application)-वाणिज्य शिक्षण का आगामी अनुदेशनात्मकउद्देश्य छात्रो में ऐसी योग्यताओं का विकास करना है कि वह प्राप्त ज्ञान का बोध करनेके बाद उसका वास्तविक परिस्थितियों में प्रयोग कर सके। बालक वाणिज्य से सम्बन्धितउन्हीं तथ्यों, नियों, सिद्धान्तों आदि का प्रयोग कर मनाता है। जिनका उसे ज्ञान है तथाजिनका उसे बोध है। ज्ञान तथा बोध के अभाव में अनुप्रयोग सम्भव नहीं है। वहअनुदेशन का व्यावहारिक पक्ष है। बालक जितना जानता है उससे कम का उसे बोधहोता है और जितना बोध होता है उससे कम का वह अनुप्रयोग कर पाता है।

(4) कौशल (Skill) कम समय व श्रम के साथ अधिक तथा सुन्दर व शुद्धउत्पादन कौशल है। वाणिज्य में अनुदेशन का ज्ञान, बोध व अनुप्रयोग के उपरान्तआगामी उद्देश्य है। छात्रों में वाणिज्य सम्बन्धी कौशलों का विकास करना इस उद्देश्य कीप्राप्ति में बालक पुस्तपालन के विभिन्न नियमों का प्रयोग करते हुये कुशलता के साथशुद्ध प्रविष्टियों कर सकता है तथा वह बैंक, बीमा, डाकघर आदि से सम्बन्धित कार्यकुशलतापूर्वक कर सकता है।

(5) अभिवृत्ति (Attitude)-वाणिज्य शिक्षक का एक कार्य यह भी है कि वह छात्रोंमें वाणिज्य के प्रति सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करे। वाणिज्य विषय के प्रतिसकारात्मक अभिवृत्ति का विकास करना भी वाणिज्य शिक्षण का एक प्राप्य याअनुदेशात्मक उद्देश्य है। सकारात्मक अभिवृत्ति का विकास होने से विषय में रुचि उत्पन्नहोती है, लगन व प्रेरणा विकसित होती है, समस्याओं को समझने तथा उनका समाधानकरने की योग्यता का विकास होता है. चिन्तन में वस्तुनिष्ठता आती है, संवेगों परनियन्त्रण रखने की अलग से वृद्धि होती है तथा दूसरों के विचारों को समझने कीयोग्यता बढ़ती है। अभिवृद्धि का विकास होने पर छात्र वाणिज्य को अपना प्रिय तथारोचक विषय मानने लगता है।

(6) सौन्दर्यानुभूति (Application)-प्राप्त ज्ञान को नवीन परिस्थितियों में स्वतन्त्रएवं मौलिक रूप से प्रयुक्त करने की क्षमता ही सौन्दर्यानुभूति का सराहनात्मक प्राप्तउद्देश्य है। वाणिज्य शिक्षण का चरण एवं शीर्ष उद्देश्य है। इस उद्देश्य की प्राप्ति पर छात्र 1वाणिज्य के विभिन्न सिद्धान्तों. नियमों, प्रत्ययों आदि का स्वतन्त्र एवं मौलिक रूप सेनवीन परिस्थितियों में प्रयोग करने लगता है। उसे वाणिज्य के कार्यों में आनन्द कीअनुभूति होती है तथा वह वाणिज्य से सम्बन्धित नियमों, सिद्धान्तों व कार्यों की अच्छाइयोंकी सराहना करने लगता है।

 यहाँ पर उल्लेखनीय है कि वाणिज्य के सम्बन्ध में हम जितना ज्ञान रखते हैं, उससे कम का बोध होता है, उससे कम का ज्ञानोपयोग. उससे कम का कौशल, उससे कम की अभिवृत्तियाँ तथा उससे कम की सौन्दर्यानुभूति होती है किन्तु ज्ञान से श्रेष्ठ है बोध, बोध से उत्तम है ज्ञानोपयोग, उससे अधिक उपयोगी है कौशल, कौशल से अधिकश्रेष्ठ है अभिवृत्तियाँ तथा सर्वोत्तम है सौन्दर्यानुभूति। इसे एक शंकु (Cone) के माध्यम सेप्रदर्शित कर सकते हैं।
 
सौन्दर्यानुभूति
अभिवृद्धि
कौशल
ज्ञानोपयोग
बोधज्ञान

अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का शंकु इसमें ज्ञान आधार है तथा सर्वाधिक है जबकि सौन्दर्यानुभूति शीर्ष पर है, सर्वोत्तम है किन्तु सबसे कम मात्रा में है।

अभ्यास-प्रश्न

निबन्धात्मक प्रश्न
1. शिक्षण उद्देश्यों से आप क्या समझते हैं ? उद्देश्य निर्धारण की आवश्यकता पर अपने विचार स्पष्ट कीजिये।
2. वाणिज्य शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यों का विस्तार से वर्णन कीजिये।
3. स्पष्ट कीजिये कि स्वतन्त्र भारत में वाणिज्य शिक्षण के क्या उद्देश्य होने चाहिये? अपने तर्क के पक्ष में समुचित उदाहरण भी दीजिये।
4. बहीखाता तथा लेखा विज्ञान शिक्षण के उद्देश्य बताइये।
5. अनुदेशनात्मक उद्देश्य किन्हें कहते हैं, वाणिज्य शिक्षण के संज्ञान पक्ष के अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का वर्णन कीजिये।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न
1. अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के शंकु का परिचय दीजिये।
2. ज्ञान उद्देश्य के विशिष्टीकरण कौन-कौन से हैं ? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिये।
3. वाणिज्य शिक्षण के सामान्य व विशिष्ट उद्देश्यों में अन्तर कीजिये।
4. उद्देश्यों के निर्धारण तत्वों का उल्लेख कीजिये।
5. शिक्षण के लिए उद्देश्यों का निर्धारण क्यों आवश्यक है ?

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. उद्देश्य वह बिन्दु अथवा साध्य है, जिसकी दिशा में कार्य को अग्रसर किया जाता है तथा जिसके अनुसार किसी क्रिया के माध्यम से कोई पूर्व नियोजित परिवर्तन लायाजाता है। किसकी परिभाषा है?
(अ) एन० टी०सी०
(ब) एन० सी० ई० आर०टी०
(स) ड्यूवी
(द) राबर्ट मैगर

2. जो उद्देश्य सभी पर लागू हों तथा देशकाल से प्रभावित नहीं होते, कौन से उद्देश्य कहलाते हैं?
(अ) सामान्य उद्देश्य
(ब) विशिष्ट उद्देश्य

3. वाणिज्य शिक्षा का एक उद्देश्य ............ है।

4. दो अनुदेशनात्मक उद्देश्यों के नाम लिखिये।

उत्तर-1.(ब) एन० सी० ई० आर० टी०. 2.(अ) सामान्य उद्देश्य, 3.जीविकोपार्जन, 4.(i) ज्ञान. (ii) बोध।

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