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बी एड - एम एड >> वाणिज्य शिक्षण

वाणिज्य शिक्षण

प्रो. रामपाल सिंह

प्रो. पृथ्वी सिंह

प्रकाशक : अग्रवाल पब्लिकेशन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2532
आईएसबीएन :9788189994303

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बी.एड.-1 वाणिज्य शिक्षण हेतु पाठ्य पुस्तक

1

वाणिज्य एवं वाणिज्य-शिक्षा(

COMMERCE AND COMMERCE-EDUCATION)


मानव-सभ्यता के उदय से भी बहुत पहले मनुष्य के जीवन में वाणिज्य का प्रवेशहो चुका था। मनुष्य की सभ्यता ज्यों-ज्यों बढ़ती गई, वाणिज्य का सम्बन्ध मानव जीवनसे त्यों-त्यों प्रगाढ़ होता चला गया और आज स्थिति यह है कि विश्व का प्रत्येक व्यक्तिवर्तमान में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में वाणिज्य से जुड़ा हुआ है। मुद्रा केप्रचलन व्यापारके बढ़ते हुये क्षेत्र तथा मनुष्य की विविध आवश्यकताओं ने मनुष्य को वाणिज्य के औरनिकट ला खड़ा किया है। हमारी बढ़ती हुई आवश्यकतायें, रहन-सहन का स्तर. फैशनजीवन-यापन की शैली, यातायात के साधन, मनोरंजन के साधन, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार,संचार के साधन तथा ऐसी ही अन्य हजारों सुविधाओं ने मानव का सम्बन्ध वाणिज्य सेऔर भी अधिक घनिष्ठ कर दिया है। मुद्रा के आविष्कार तथा प्रसार ने भी मनुष्य तथावाणिज्य की सम्बन्धबद्धता को और अधिक दृढ़ किया है क्योंकि वाणिज्य का वर्तमान मेंमुख्य सम्बन्ध व्यापार, धन तथा आर्थिक क्रिया-कलापों से होता है और आज के इसभौतिक युग में धन तथा आर्थिक क्रिया-कलाप ही वाणिज्य के मूलाधार है। मनुष्य अपनी मेंभौतिक उन्नति के लिए किसी न किसी प्रकार की आर्थिक क्रियायें सम्पन्न करता ही हैअतः वह इन आर्थिक क्रियाओं के माध्यम से वाणिज्य के निकट आ जाता है। आज केइस युग में, यदि कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कोई भी मानव बिना वाणिज्यके जीवित नहीं रह सकता है।

वाणिज्य का अर्थ

(MEANING OF COMMERCE)वाणिज्य शब्द का निर्माण व्यस्त' शब्द से हुआ माना जाता है। अंग्रेजी भाषा मेंवाणिज्य के लिये 'बिजनेस' (Business) शब्द का प्रयोग होता है। अंग्रेजी भाषा'बिजनेस' शब्द भी अंग्रेजी भाषा के 'बिजी (Busy) शब्द से बना है जिसका अर्थ भी'व्यस्त' से होता है। यह वाणिज्य का अत्यन्त ही संकीर्ण अर्थ है। अपने व्यापक अर्थ मेंवाणिज्य के अन्तर्गत हम उन सभी क्रियाओं को सम्मिलित करते हैं जो व्यक्ति कीआर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित हैं। वाणिज्य का वह अत्यन्त ही व्यापकअर्थ है। यह इतना व्यापक अर्थ है कि वाणिज्य के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्नकरता है। इस अर्थ में एक चिकित्सक, अध्यापक, वकील आदि जो आर्थिक क्रियायें करते हैं वे सभी वाणिज्य के क्षेत्र में आती हैं जबकि एक वेतनभोगी अध्यापक केशिक्षण-कार्य को हम वाणिज्य के क्षेत्र में कदापि नहीं रख सकते। इसी प्रकार एकचिकित्सक तथा वकील आदि के कार्य आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति तो करते हैंकिन्तु उन्हें हम वाणिज्य में नहीं लाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये हमें वाणिज्यके अर्थ की उक्त व्यापकता को कम करके इसे वास्तविकता के निकट लाना होगा।वास्तविक अर्थ में वाणिज्य उन क्रियाओं का पुंज है जो किसी वस्तु या सेवाओं केनिर्माण, वितरण, विपणन तथा उपभोक्ताओं के हाथों में पहुँचाने से सम्बन्धित है। जेम्सस्टीफेन्सन (James Stephenson) ने वाणिज्य की परिभाषा देते हुये लिखा है- 'वाणिज्यसे तात्पर्य उन समस्त साधनों के योग से है जो वस्तुओं के विनिमय में व्यक्तियों(व्यापार), स्थान (यातायात एवं बीमा) तथा समय (भण्डारण) से सम्बन्धित बाधाओं कोदूर करने में संलग्न हैं।[Commerce means the sum total of the processes which are engaged inthe removal of hindraces of persons (trade), place (transport and insurance)and time (ware housing), in the exchange (banking), of commodities.]

वाणिज्य, वास्तव में व्यवसाय तथा औद्योगिक उत्पादन के प्रबन्धन, विपणन तथावितरण से सम्बन्धित क्रियाकलापों का क्षेत्र है। इसमें उत्पादन, वितरण, यातायात,विपणन (Marketing), बैंकिंग, क्रय-विक्रय. सन्देशवाहन, भण्डारण, वित्तीय व्यवस्था.आर्थिक लाभ, कर्मचारी-नियुक्ति, आर्थिक नियोजन, आर्थिक संगठन, विज्ञापन, विनिमय,राजस्व आदि का अध्ययन किया जाता है। वाणिज्य किसी समाज तथा राष्ट्र के आर्थिक ढाँचे का आधार होता है तथा उसके आर्थिक ढाँचे को समन्वय प्रदान करता है। तभी तो हाबर्ट ने कहा है-“Business is that phase of economic systems which is devoted to the management and destribution of products of industry and profession, as such it is essential integrating element in the whole economic structure.

वाणिज्य-शिक्षा का अर्थ(MEANING OF COMMERCE-EDUCATION)

वाणिज्य का अर्थ जान लेने के बाद वाणिज्य शिक्षा का अर्थ जान लेना सरल होजाता है। बड़े सरल शब्दों में शिक्षा की वह शाखा जो व्यक्ति या बालक में वाणिज्य के लिये आवश्यक क्षमताओं, दक्षताओं तथा कार्यों का विकास करे, वाणिज्य शिक्षा कहलाती है। यह व्यावसायिक तैयारी की शिक्षा है। हैरिक (Harrick) ने वाणिज्य-शिक्षा को इसीअर्थ में परिभाषित किया है-That form of education that both directly or indirectly prepares the businessman for his calling is commerce education.वाणिज्य शिक्षा की यह अत्यन्त ही संकीर्ण परिभाषा है। ऐसी ही एक और संकीर्ण परिभाषा वाणिज्य शिक्षा के सम्बन्ध में दी जाती है कि वाणिज्य शिक्षा कुछ नहीं केवल मात्र लिपिकों का उत्पादन करने वाली शिक्षा है।

Commerce-education is nothing but the production of clerks.किन्तु ऐसा नहीं है। वाणिज्य-शिक्षा केवल लिपिकों के निर्माण तक ही सीमित नहीं है. यह किसी भी व्यवसाय तथा औद्योगिक प्रतिष्ठान से जुड़े. छोटे तथा बड़े कर्मचारी तथा प्रबन्धक के लिये अत्यन्त ही उपयोगी है। संयुक्त राज्य अमेरिका (U.SA.) केवाणिज्य-शिक्षा से सम्बन्धित राष्ट्रीय समिति ने वाणिज्य-शिक्षा की व्यापक तथा सटीक परिभाषा देते हुये लिखा है- सम्पूर्ण शिक्षा-प्रक्रिया का वह पक्ष जो एक ओर तोव्यापारिक संस्थाओं, संघों व व्यक्तियों की व्यावसायिक तैयारी से सम्बन्धित है या उन्हेंवाणिज्य तथा उद्योग-धन्धों के लिये तैयार करता है, वाणिज्य से सम्बन्धित विविध प्रकारकी सूचनायें उपलब्ध कराता है तथा उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं को वाणिज्यिक वातावरणका बोध कराने में सहायक होता है, वाणिज्य-शिक्षा कहलाता है।

Business-education refers to the area of educational process whichconcems itself with vocational preparation for a business carrier orvocational or professional preparation for a carrier teaching business and also with business information-important for very citizen and consumer in order that he may better understand and use his business and economic surroundings.

वाणिज्य शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति में आर्थिक नागरिकता का विकास करना हैजिससे वह एक अच्छा उपभोक्ता, उत्पादक, व्यापारी या उद्योगकर्ता बन सके। इसकासीधा सम्बन्ध आर्थिक क्रियाओं तथा आर्थिक कल्याण से है। यह उन समस्त व्यवस्थाओंसे सम्बन्धित है जो धनोपार्जन तथा धन के व्यय करने से सम्बन्धित हैं। इसी दृष्टिकोणको ध्यान में रखते हुये सन् 1928 ई० में लामेक्स (Lamex) ने कहा था किवाणिज्य-शिक्षा मुख्य रूप से आर्थिक शिक्षा का वह कार्यक्रम है जो धन की प्राप्तिसंचयन तथा व्यय से सम्बन्धित होता है।

Commercial education is fundamentally a programme of cconomic cd-ucation that has to do with the acquirement, conservation and spendingof wealth.वाणिज्य-शिक्षा की प्रकृति (NATURE OF COMMERCE EDUCATION)ऊपर वाणिज्य-शिक्षा के अर्थ के सम्बन्ध में जो विवेचना की गई है तथा जोपरिभाषायें दी गई हैं. उन्हीं से वाणिज्य-शिक्षा की प्रकृति बहुत कुछ स्पष्ट हो जाती है।फिर भी वाणिज्य-शिक्षा की प्रकृति को और अधिक स्पष्ट करने के लिये इसकी प्रकृतिकी कुछ प्रमुख विशेषताओं का बिन्दुवार नीचे उल्लेख किया गया है-

1. वाणिज्य-शिक्षा कला तथा विज्ञान दोनों ही है।
2. वाणिज्य शिक्षा का कार्य व्यक्ति, समाज व राष्ट्र का आर्थिक उन्नयन व कल्याणकरना है।
3. वाणिज्य-शिक्षा व्यक्ति को विभिन्न व्यावसायिक तथा आर्थिक क्रियाकलापों काज्ञान तथा बोध कराकर उसमें आवश्यक दक्षताओं का विकास करती है।
4. वाणिज्य-शिक्षा में उन मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन होता है जो आर्थिक तत्त्वोंसे सम्बन्धित होते हैं।
5. वाणिज्य शिक्षा मनुष्य को व्यावसायिक तथा आर्थिक रूप से समायोजनस्थापित करने में सहायता करती है।
6. वाणिज्य-शिक्षा व्यक्तियों में आर्थिक नागरिकता के गुणों का विकास करती है।
7. वाणिज्य-शिक्षा व्यावसायिक तथा आर्थिक क्रियाकलापों तक ही सीमित रहती है।
8. वाणिज्य-शिक्षा धनोपार्जन तथा संचयन करने के साथ ही साथ उसे समुचितरूप से व्यय करने से सम्बन्ध रखती है
9. वाणिज्य-शिक्षा अच्छा उत्पादन तथा उपभोक्ता बनने में सहायता करती है।
10. यह राष्ट्रीयता तथा अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास भी करती है।
11. वाणिज्य-शिक्षा में हम पुस्तपालन, टंकण. कम्प्यूटर, बैंकिंग, बीमा. यातायात,संदेशवाहन, विज्ञापन, लेखाशास्त्र, प्रबन्धन, आर्थिक क्रियाओं, उत्पादन, विपणन, वितरण आदि का क्रमबद्ध अध्ययन करते हैं।

वाणिज्य-शिक्षा का क्षेत्र(SCOPE OF COMMERCE EDUCATION)वाणिज्य-शिक्षा के क्षेत्र में हम उन सभी तत्त्वों को सम्मिलित करते हैं जो व्यक्ति,समाज तथा राष्ट्र के आर्थिक तथा व्यावसायिक जगत से सम्बन्धित हैं। आर्थिक तथाव्यातसायिक जगत से सम्बन्धित क्रियाओं को हम सामान्यतः नीचे लिखे चार वर्षों मेंविभक्त कर सकते हैं-(1) व्यापार, (2) उद्योग. (3) वाणिज्य तथा (4) इन तीनों से सम्बन्धित क्रियायें।

(1) व्यापार (Trade)-वाणिज्य-शिक्षा के क्षेत्र में हम सभी प्रकार के तथा स्तरो केव्यापार, उसके नियमों, सिद्धान्तों तथा व्यवहारों का अध्ययन करते हैं। व्यापार में हमस्थानीय, राज्य-स्तरीय, राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के उस सभी प्रकार के व्यापारको शामिल करते हैं जो सामाजिक मान्यता प्राप्त है तथा जो व्यक्ति, समाज व राष्ट्र केआर्थिक कल्याण व उन्नयन से सम्बन्धित है। इतना ही नहीं, वाणिज्य-शिक्षा में हमव्यापार से सम्बन्धित विविध सहायक क्रियाओं का भी अध्ययन करते हैं।

(2) उद्योग (Industry)-वाणिज्य-शिक्षा के अन्तर्गत हम उद्योग तथा उससेसम्बन्धित विभिन्न तत्त्वों का भी अध्ययन करते हैं। इस प्रकार हम वाणिज्य-शिक्षा मेंउत्पादन तथा उससे सम्बन्धित क्रियाओं, विपणन, वितरण, विनिमय आदि का अध्ययनकरते हैं। भूमि. श्रम. पूँजी. संगठन तथा साहस का भी हम इसमें अध्ययन करते हैं।उद्योग छोटा हो, कुटीर तथा गृह-उद्योग हो या वृहत् उद्योग हो. सभी का हमवाणिज्य-शिक्षा में अध्ययन करते हैं।

(3) वाणिज्य (Commerce)--वाणिज्य-शिक्षा में ही हम वाणिज्य से सम्बन्धितक्रियाकलापों का अध्ययन करते हैं।

(4) सम्बन्धित क्रियायें (Related Activities)-वाणिज्य-शिक्षा के अन्तर्गत हमव्यापार, उद्योग तथा वाणिज्य से सम्बन्धित विविध क्रियाओं का भी अध्ययन करते हैं। इन सम्बन्धित क्रियाओं में हम क्रय-विक्रय, विज्ञापन, पुस्तकालय, बीमा. बैंकिंग, यातायात,संदेशवाहन के साधन, विपणन, नियोजन, नियुक्तियाँ श्रम-विभाजन, वित्तीय व्यवस्थापन, श्रम-कल्याण, श्रम-सुरक्षा, खनिज, प्राकृतिक सम्प्रदाओं आदि का अध्ययन करते हैं।

उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वाणिज्य-शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त ही व्यापक तथा उपयोगी है!

1 वाणिज्य का महत्व
(IMPORTANCE OF COMMERCE)

आज के उन्नत एवं सभ्य समाज में वाणिज्य का विभिन्न दृष्टिकोणों से बहुत ही अधिकमहत्त्व है। यह महत्व संक्षेप में क्रमानुसार नीचे स्पष्ट करने की चेष्टा की गई है-

(1) आर्थिक क्रिया-कलापों के लिए-आज के युग में सम्पूर्ण मानव सभ्यता समाजकी आर्थिक उन्नति पर निर्भर करती है। वाणिज्य हमें अपनी आर्थिक क्रियाओं के संचालननियोजन तथा नियन्त्रण के उपायों से अवगत करती है इससे मानव की आर्थिक उन्नतिएवं समृद्धि को गति एवं दिशा प्राप्त होती है। वाणिज्य से ही मनुष्य की आर्थिक क्रियाओंमें वृद्धि होती है, इस वृद्धि से ही आर्थिक सम्पन्नता आती है। हम यह भी कह सकते हैंकि समाज की आर्थिक सम्पन्नता के लिए वाणिज्य आवश्यक है।

(2) उत्पादों के लिए उपयोगी-वाणिज्य किसी भी राज्य के उत्पादकों के लिएही बड़ा महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है। वास्तव में वाणिज्य के अभाव में कोई भी उत्पादकअतिरिक्त उत्पादन कर ही नहीं सकता है और आज व्यापार के लिए अतिरिक्त उत्पादनअनिवार्य है। वाणिज्य उत्पादकों को उत्पादन हेतु प्रेरणा प्रदान करता है. उत्पादन केउपाय, साधन तथा क्षेत्र बताता है। वाणिज्य ही उत्पादकों को अपने अतिरिक्त उत्पाद(Product) को बाजार में लाने की सुविधा तथा तरीके प्रदान करता है। वास्तव मेंआधुनिक युग में बिना वाणिज्य के कोई भी उत्पादक उत्पादन नहीं कर सकता है।

3) उपभोक्ताओं के लिए उपयोगी-वाणिज्य उपभोक्ताओं के लिए भी बड़ामहत्वपूर्ण तथा उपयोगी है। उपभोक्ताओं को अपने दैनिक जीवन की हजारों उपयोगीतथा अनिवार्य वस्तुयें केवल वाणिज्य के सहारे ही प्राप्त होती हैं। वाणिज्य सेउपभोक्ताओं को दैनिक जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के अलावा विशिष्टआवश्यकताओं की वस्तुयें भी प्राप्त होती हैं। वाणिज्य उपभोक्ताओं को उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुयें प्रदान कर उनके जीवन को सरल तथा सुविधाजनक बनाता है। वाणिज्य ही उन्हें उपभोग को विभिन्न वस्तुओं से अवगत कराता है।

(4) व्यापारी वर्ग के लिए महत्व-व्यापारियों का समस्त कारोबार भी वाणिज्य परही निर्भर करता है। वस्तुओं तथा विभिन्न उत्पादों को उत्पादक से क्रय करके खुदरा विक्रेताओं तथा उपभोक्ताओं तक पहुँचाने का कार्य व्यापारी वर्ग करता है। यदि वाणिज्यन हो तो. न तो किसी प्रकार का व्यापार ही हो और न उपभोक्ताओं तथा आवश्यकवस्तुयें ही पहुँच पायें। व्यापारी-वर्ग की क्रियाओं के लिए वाणिज्य आवश्यक एवंमहत्वपूर्ण है।

(5) श्रमिक वर्ग के लिए-श्रमिक वर्ग के लिए भी वाणिज्य बड़ा ही महत्वपूर्ण है।वाणिज्य से ही उद्योगों तथा कारखानों की स्थापना होती है जहाँ श्रमिकों को रोजगार प्राप्तहोता है। वाणिज्य ही श्रमिकों की कार्य-कुशलता तथा कल्याण की बात सोचता है।गम-विभाजन के द्वारा श्रमिकों की कार्य-कुशलता तथा कल्याण की बात सोचता है।-विभाजन के द्वारा श्रमिकों की दक्षता बढ़ती है. उनकी उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है उत्पादन बढ़ता है। श्रम विभाजन वाणिज्य का ही एक महत्त्वपूर्ण आयाम है ! संघोप में,वाणिज्य ही श्रमिकों को रोजगार देता है तथा वही इनकी कार्य-दक्षता बढ़ाता है।

(6) राष्ट्र व समाज की समृद्धि के लिए प्रत्येक राष्ट्र तथा समाज की आर्थिकप्रगति तथा समृद्धि उस राष्ट्र तथा समाज में चलने वाली वाणिज्यिक क्रियाकलापों परनिर्भर करती है। किसी राज्य तथा समाज की वाणिज्यिक स्थिति जितनी अच्छी होगी.उस समाज तथा राष्ट्र के लोग उतने ही अधिक सम्पन्न तथा खुशहाल होंगे। समाज की आर्थिक उन्नति पर ही समाज के अन्य पक्षों का विकास निर्भर करता है।

(7) आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु-प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य की आवश्यकतायेंबड़ी ही सीमित थीं। जिनकी पूर्ति वह स्वयं ही स्थानीय साधनों की सहायता से करलिया करता था किन्तु मनुष्य ज्यों-ज्यों उन्नति करता गया उसकी आवश्यकताओं कीसंख्या, मात्रा तथा गम्भीरता, विविधता एवं जटिलता बढ़ती गई। आज कोई भी व्यक्तिअपनी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अपने ही साधनों से जुटाए साधनों से नहीं करसकता है। आवश्यकताओं की बढ़ती हुई संख्या, जटिलता तथा विविधता के कारणइनकी पूर्ति केवल वाणिज्य से ही सम्भव है।

(8) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के विकास के लिए-आज सम्पूर्ण विश्व प्रलयंकारीविश्वयुद्ध के कगार पर खड़ा है। इतना सुनिश्चित है इस युद्ध के बाद सम्पूर्ण मानवसभ्यता लुप्त हो जायेगी। युद्ध की विभीषिका से बचने के लिए यह आवश्यक है किअन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों को मधुर बनाये रखने के लिए अन्य कार्यक्रमों के अलावाअन्तर्राष्ट्रीय व्यापार भी बड़ा सहायक है। वाणिज्य तथा व्यापार से हमें न केवल विदेशोंसे निर्मित उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण वस्तुयें ही प्राप्त होती हैं वरन् अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों मेंभी मधुरता आती है।

(9) समुचित वितरण के लिए-वस्तुओं के समुचित वितरण के लिए भी वाणिज्यआवश्यक है। जिन राष्ट्रों अथवा प्रदेशों में जो वस्तु अधिक मात्रा में उत्पन्न या निर्मितहोती है वे अपने अतिरिक्त उत्पादन को उस वस्तु की कमी वाले क्षेत्रों में भेजकर अपनीआवश्यकता की अन्य वस्तु मँगा लेते हैं जैसे उत्तर-प्रदेश, हरियाणा तथा पंजाब गेहूँअन्य राज्यों को भेजकर अपनी आवश्यकता के अनुसार अन्य राज्यों से कोयला, कपड़ाआदि मँग्रा लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वस्तुओं के समुचित वितरण केलिए भी वाणिज्य आवश्यक है।

भारत में वाणिज्य शिक्षा का विकास

भारतवर्ष में वाणिज्य शिक्षा का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है। भारत मेंआधुनिक शिक्षा का सूत्रपात कोलकाता, चेन्नई तथा मुम्बई के तीन विश्वविद्यालयस्थापित करके सन् 1857 ई० में अंग्रेज शासकों द्वारा किया गया। इस समय अंग्रेजों कोभारत में शिक्षा के प्रसार का मुख्य उद्देश्य ऐसे भारतीय लिपिकों का निर्माण करना था जोअंग्रेजी शासन को चला सकें। अतः इन तीनों ही विश्वविद्यालयों में किसी भी प्रकार कीव्यावहारिक तथा उपयोगी शिक्षा की व्यवस्था नहीं की गई। अतः उस समय तत्कालीनशिक्षा की कटु आलोचनायें हुईं, परिणामस्वरूप अंग्रेजी सरकार को कृषि तथा वाणिज्य जैसे उपयोगी तथा व्यावहारिक विषयों को शिक्षण की भी व्यवस्था करनी पड़ी। इसी व्यवस्था के अन्तर्गत सबसे पहले सन् 1903 ई० कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज मेंवाणिज्य-शिक्षा की व्यवस्था प्रयोगात्मक रूप में प्रारम्भ की गई। यहाँ वाणिज्य-शिक्षा की सफलता को देखकर कलकत्ता में ही राजकीय वाणिज्य संस्थान की संस्थापना हुई जिनमें वाणिज्य शिक्षा के लिए व्यापक तथा उच्च स्तरीय पाठ्यक्रम किये गये।

कलकत्ता में वाणिज्य शिक्षा की सफलता से प्रेरित होकर बम्बई में भी वाणिज्य शिक्षा की व्यवस्था की गई और यहाँ सर्वप्रथम सर सैयदन कॉलेज में वाणिज्य की शिक्षा दी जाने लगी। सर सैयदन कॉलेज की स्थापना सन् 1914 में हुई थी। इसके बाद मद्रास विश्वविद्यालय में भी वाणिज्य विषयों से सम्बन्धित कार्यक्रम प्रारम्भ हुये। कालान्तर में वाणिज्य विषय के प्रति भारतीयों में रुचि उत्पन्न हुई और वाणिज्य शिक्षा की माँग बढ़नेलगी। इसी समय भारत में नये-नये विश्वविद्यालय स्थापित हुये। इनमें प्रारम्भिक स्थापना से ही वाणिज्य विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई। धीरे-धीरे वाणिज्य विषयों की शिक्षा के प्रसार में गति और स्कूली शिक्षा-स्तर पर भी वाणिज्य विषयों के शिक्षण की व्यवस्थाकी गई।

कालान्तर में कोलकाता, मुम्बई तथा दिल्ली विश्वविद्यालयों में वाणिज्य विषयों मेंउच्च स्तरीय पाठ्यक्रमों की भी व्यवस्था की गई और इस प्रकार की शिक्षा के लिए यहाँराष्ट्रीय स्तर की संस्थायें स्थापित की गई। स्वतन्त्रतोपरांत अमरीका सरकार कीआर्थिक सहायता से इसी प्रकार की एक राष्ट्रीय स्तर की संस्था अहमदाबाद में स्थापित की गई। उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारत में वाणिज्य शिक्षा का प्रारम्भ 1903 ई.से हुआ किन्तु अपने जीवन के प्रारम्भिक दिनों में आरम्भ में अंग्रेजी शासन होने के कारण भारतमें वाणिज्य शिक्षा का यथेष्ठ प्रसार न हो सका । स्वतन्त्रता के बाद इस दिशा में काफीअच्छी प्रगति हुई है किन्तु भारत की जनसंख्या तथा आवश्यकताओं को देखते हुये यह कहा जा सकता है कि आज भी भारत में वाणिज्य शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है और जब हम उच्च स्तरीय शिक्षा की बात करते हैं तो पाते हैं कि इतने विशाल क्षेत्र तथा जनसंख्या वाले राष्ट्र में वाणिज्य शिक्षा की व्यवस्था करने वाली संस्थाओं की संख्या बहुत ही कम है। आज आवश्यकता इस बात की है कि राष्ट्र में ऐसी उच्च एवं राष्ट्रीयस्तर की संस्थायें स्थापित की जायें जो देश को योग्य एवं कुशल वाणिज्य प्रशासक एवंसंगठनकर्ता प्रदान कर सकें।

वाणिज्य शिक्षा की आवश्यकता

आधुनिक युग में सभी विकसित, विकासशील तथा अविकसित राष्ट्रों में वाणिज्य शिक्षा की नितान्त आवश्यकता है। वाणिज्य शिक्षा के द्वारा ही विकसित राष्ट्र अपने विकास को और अधिक सुदृढ़ बनाकर आगे बढ़ा सकते हैं, इसी की सहायता से विकासशील राष्ट्र अपने विकास को आगे बढ़ा सकते हैं तथा वाणिज्य शिक्षा की सहायता से ही अविकसित राष्ट्र विकासोन्मुखी दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।

वाणिज्य-शिक्षा की सहायता से समाज तथा व्यक्ति भी अपनी आर्थिक तथा भौतिक उन्नति कर सकते हैं। संक्षेप में यदि हम क्रमानुसार उल्लेख करें तो कह सकते हैं कि वाणिज्य शिक्षा की नीचे लिखे कारणों से आवश्यकता है-

(1) आर्थिक एवं भौतिक उन्नति हेतु-राष्ट्र. समाज तथा व्यक्ति स्वयं की आर्थिक एवं भौतिक उन्नति के लिए वाणिज्य शिक्षा अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी है।वाणिज्य की शिक्षा, वाणिज्य की स्थापना, संचालन, संगठन तथा ऐसे ही अन्य अनेक महत्त्वपूर्ण पहलुओं का ज्ञान प्रदान करती है। इस ज्ञान की सहायता से व्यापार तथा उद्योग की स्थापना, संचालन आदि में सफलता प्राप्त होती है। इससे नये-नये उद्योग स्थापित होते हैं, उन्नत होते हैं तथा भौतिक और आर्थिक उन्नति में सहायक होते हैं।इसकी सहायता से मनुष्य व्यापार करके धन कमाना सीखता है। वह इस प्रकार के ज्ञान से आर्थिक उन्नति के नये-नये क्षेत्रों की खोज करता है, उनमें प्रविष्ट करता है तथा उन्नति करता है। इससे राष्ट्र तथा समाज की आर्थिक उन्नति होती है।

(2) प्राकृतिक सम्पदाओं का शोषण-प्रकृति ने हमें विविध तथा प्रचुर सम्पदायेंप्रदान की हैं। इन प्रकृति-प्रदत्त विविध सम्पदाओं की खोज कर उनका उपयोगी दोहनएवं शोषण करने पर ही आर्थिक एवं नैतिक उन्नति निर्भर करती है। इसी से नये-नयेउद्योगों की स्थापना को बल मिलता है तथा राष्ट्र विकास की ओर अग्रसर होता है।वाणिज्य शिक्षा हमें बताती है कि प्रकृति ने हमें कौन-कौन प्राकृतिक सम्पदायें दी हैं तथाउनका किस प्रकार दोहन तथा शोषण किया जा सकता है। जिस व्यक्ति या समाज केपास इन सम्पदाओं के दोहन के साधन प्राप्त हैं तथा जो दोहन कर भी रहे हैं वे हीआर्थिक उन्नति कर सके हैं। वाणिज्य शिक्षा के ज्ञान से प्राकृतिक सम्पदाओं का पतालगाकर नये-नये उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं। इससे आर्थिक विकास सम्भवहोता है।

(3) सुनियोजित विकास-वाणिज्य-शिक्षा वास्तव में किसी वाणिज्य के विभिन्नपहलुओं की शिक्षा है। इस शिक्षा की सहायता से सुनियोजित विकास सम्भव है। वाणिज्यशिक्षा से हम राष्ट्र तथा समाज की विभिन्न वाणिज्यिक गतिविधियों का सुनियोजित विकास कर सकते हैं। इस प्रकार की शिक्षा से किसी व्यक्ति विशेष के व्यावसायिक क्रियाकलाप तथा किसी एक उद्योग तथा व्यवसाय के कार्यकलापों का सुनियोजितविकास कर सकते हैं। वाणिज्य शिक्षा हमें बताती है कि व्यवसाय के किस पहलू परक्या जोर तथा महत्व देना है। व्यवसाय के विकास पक्ष कर कब तथा कितना विकासकरना है, यह हमें वाणिज्य-शिक्षा ही बताती है और यही सुनियोजित विकास है।

(4) श्रम-व्यवस्था तथा कल्याण-वाणिज्य केवल मात्र आर्थिक तथा भौतिकउन्नति का ही विज्ञान नहीं है. इसके अपने कुछ विशिष्ट मानवीय मूल्य भी हैं। इन मूल्योंला बहुत कुछ मात्रा में वाणिज्य में श्रमिकों पर उपयोग किया जाता है । वाणिज्य शिक्षाहमें सिखाती है कि किस प्रकार श्रमिकों की व्यवस्था की जाये, किस प्रकार उनसेअधिकाधिक मात्रा में काम लिया जाय तथा इसके साथ ही हम किस प्रकार अपने श्रमिकोंका कल्याण कर सकें। जिस उद्योग के श्रमिक अपने उद्योग से जितने अधिक सन्तुष्टहोंगे, अमिक उतना ही अधिक तथा अच्छा एवं लगन से वहाँ कार्य करेंगे। श्रम-सम्बन्धोंको कैसे मधुर बनाया जाय. जिससे श्रम-समस्यायें कम से कम हो, यह हमें वाणिज्यशिक्षा से ही ज्ञात होता है।

(5) आर्थिक एवं अन्य साधन जुटाने में सहायता-प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम केलिए कतिपय आर्थिक तथा दूसरे अन्य प्रकार के संसाधन जुटाने की आवश्यकता पड़तीहै। बिना इन संसाधनों के जुटाये किसी भी प्रकार वाणिज्यिक उपक्रम चालू नहीं कियाजा सकता है। वाणिज्य शिक्षा हमें बताती है कि किसी भी वाणिज्यिक उपक्रम कीस्थापना के लिए आवश्यक संसाधनों को कैसे, कहाँ से तथा किस-किस मात्रा में जुटायाजाय, इन सबका ज्ञान कराती है। किसी भी आर्थिक तथा व्यावसायिक उपक्रम कीस्थापना के लिए भूमि. श्रम, पूँजी, साहस तथा संगठन की आवश्यकता होती है। उपक्रम
 की विशालता को ध्यान में रखकर ही इन पाँच तत्त्वों की व्यवस्था करनी पड़ती है।वाणिज्य शिक्षा हमें बताती है कि उत्पादन के किस तत्त्व की कितनी मात्रा में व्यवस्थाकी जाय। यदि इन तत्त्वों की मात्रा में समन्वय नहीं होगा तो अधिकतम प्रतिफल भी नहींमिलेगा।

(6) कार्यालय-व्यवस्था का ज्ञान-प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का कार्यालयउसका हृदय होता है। शरीर में जो स्थान हृदय का है, व्यवसाय में वही स्थान कार्यालयका है। यदि कार्यालय की व्यवस्था ठीक है तो सम्पूर्ण व्यवसाय भी ठीक चलेगा।वाणिज्य शिक्षा हमें ज्ञान देती है कि किसी कार्यालय की व्यवस्था तथा संगठन वसचालन किस प्रकार से करना चाहिए। कार्यालय-व्यवस्था के लिए भी वाणिज्य-शिक्षाआवश्यक है। वाणिज्य-शिक्षा कार्यालय में दिन-प्रतिदिन कार्य आने वाले श्रम एवं समयबचाने वाले विविध यन्त्रों का भी ज्ञान देती है। इन यन्त्रों का क्या उपयोग है. इनकाकैसे प्रयोग किया जाय तथा इनका रख-रखाव कैसे किया जाय आदि सभी बातों कीजानकारी हमें वाणिज्य-शिक्षा से प्राप्त हाती है।

(7) देशी एवं विदेशी व्यापार का ज्ञान-वाणिज्य-शिक्षा हमें देशी तथा विदेशी(अन्तर्राष्ट्रीय) व्यापार का ज्ञान प्रदान करती है। वाणिज्य में हम देशी तथा तटीयव्यापार का अध्ययन करते हैं कि देश की व्यापारिक स्थिति क्या है? देश किन-किनवस्तुओं का निर्माण करता है. किनका निर्यात तथा आयात करता है। इस प्रकार केज्ञान से व्यक्ति को अपना व्यापार तथा वाणिज्यिक उपक्रम करने में सुविधा होती है।

(8) व्यापारिक कुशलता का विकास-किसी भी व्यापार की सफलता बहुत कुछव्यापारी की कुशलता पर निर्भर करती है। वाणिज्य शिक्षा एक व्यक्ति में उन मानवीयतथा व्यावसायिक गुणों का सहजता के साथ विकास करती है जो एक सफल व्यापारीमें होने चाहिए। वाणिज्य-शिक्षा व्यक्ति में व्यावसायिक दक्षता का विकास करती है। किसीव्यापार का किस प्रकार संचालन किया जाए. किस प्रकार निर्णय लिये जायें, किस. प्रकार तथ्यों का संगठन किया जाए. श्रम से किस प्रकार कार्य लिया जाए, किस प्रकारउत्पाद को बाजार में भेजा जाए आदि सभी बातें वाणिज्य शिक्षा से ही विकसित हो पातीहैं। वाणिज्य-शिक्षा से ही कोई व्यक्ति कुशल व्यापारी बन पाता है।

(9) अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सुधार-वाणिज्य द्वारा विशेषतौर से अन्तर्राष्ट्रीयव्यापार से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सुधार होता है। वाणिज्य-शिक्षा हमें यह ज्ञान कराती हैकिस प्रकार किन वस्तुओं में तथा किन देशों के साथ व्यापार किया जा सकता है।अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में कुशलता के लिए वाणिज्य-शिक्षा परमावश्यक है।

(10) आर्थिक समस्याओं का समाधान-प्रत्येक व्यक्ति तथा समाज के सामनेसमय-समय पर आर्थिक समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं। वाणिज्य शिक्षा हमें इतनीकुशलता प्रदान करती है जिससे व्यक्ति इस प्रकार की विविध आर्थिक समस्याओं तथाकठिनाइयों का सरलता से समाधान कर लेता है। वाणिज्य शिक्षा व्यक्ति में समस्या-समाधान की योग्यता का विकास करने के लिए बड़ी उपयोगी है।

(11) व्यवसाय के चयन में सहायक--वाणिज्य-शिक्षा व्यवसाय के चयन में भी हमारी सहायता करती है। वाणिज्य के क्षेत्र में अनेक प्रकार के व्यवसाय उपलब्ध हैं।वाणिज्य-शिक्षा इन उपलब्ध व्यवसायों का ज्ञान हमें देती है और इनमें कोई उपयुक्तव्यवसाय का चयन करने में हमारी सहायता करती है। उक्त विवरण से स्पष्ट है कि आज के युग में वाणिज्य-शिक्षा बड़ी ही उपयोगी तथा महत्त्वपूर्ण है। इसका महत्त्व न केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही है, वरन् यह राष्ट्र तथासमाज की समृद्धि के लिए बड़ी महत्वपूर्ण है।

अभ्यास-प्रश्न

निबन्धात्मक-प्रश्न

1. वाणिज्य का अर्थ स्पष्ट करते हुये वाणिज्य के महत्व पर प्रकाश डालिये।
2. वाणिज्य-शिक्षा से आप क्या समझते हैं ? वाणिज्य-शिक्षा के क्षेत्र की विवेचना कीजिये।
3. वाणिज्य-शिक्षा के कार्य को स्पष्ट कीजिये तथा इसकी प्रकृति पर अपने विचार लिखिये।
4. वाणिज्य तथा वाणिज्य-शिक्षा में क्या सम्बन्ध है ? वाणिज्य के महत्व पर प्रकाश डालिये।

लघु उत्तरात्मक प्रश्न

1. वाणिज्य शिक्षा के क्षेत्र का परिचय दीजिये।
2. वाणिज्य शिक्षा की प्रकृति बताइये।
3. उद्योग तथा व्यापार में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
4. समाज के लिए वाणिज्य का क्या महत्व है ?
5. कार्यालय व्यवस्था के ज्ञान से आप क्या समझते हैं ?
6. वाणिज्य शिक्षा की कोई परिभाषा दीजिये तथा संक्षेप में उसकी व्याख्या कीजिये।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

1. वाणिज्य-शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति में आर्थिक नागरिकता का करना है।

2. सर सैयदन कॉलेज की स्थापना कब हुई ?
(अ) सन् 1914
(ब) सन् 1924
(स) सन् 1941
(द) सन् 1944

3. वाणिज्य द्वारा विशेषतौर से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में सुधार होता है।

(अ) सत्य
(ब) असत्य

उत्तर-1.विकास, 2. (अ) सन् 1914,3. (अ) सत्य।

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