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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2017
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष हिन्दी भाषा प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


हिन्दी की उपभाषाओं का सामान्य परिचय

आलोचनात्मक (दीघ उत्तरीय) प्रश्न

प्रश्न १ - हिन्दी की उपभाषाओं का वर्गीकरण करते हुए राजस्थानी हिन्दी की बोलियों का विश्लेषण कीजिए।

अथवा हिन्दी की प्रमुख बोलियों का नाम बताते हुये उसकी विशेषताओं को स्पष्ट कीजिये।

उत्तर : हिन्दी का भौगोलिक विस्तार

 हिन्दी एक विशाल जनसमूह की भाषा है, जिसका क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। हिन्दी प्रदेश के अन्तर्गत पजाब का पूर्वी भू-भाग, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश एवं बिहार को सम्मिलित किया जाता है । भौगोलिक दृष्टि से हिन्दी मध्य प्रदेश की भाषा मानी जाती है। इसकी सीमायें विविध आर्य और अनार्य भाषाओं से जुड़ी हैं। ऐसी स्थिति में विभिन्न क्षेत्रीय विशेषताओं का होना आवश्यक है। हिन्दी शब्द किसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व न करके सम्पूर्ण हिन्दुस्तान का प्रतिनिधि बनकर उभरा है। हिन्दी का वर्गीकरण बोलियों में नहीं उपभाषाओं में किया गया है, जिससे हिन्दी का भौगोलिक सीमांकन होता है।

हिन्दी की उपभाषाएँ और उनकी बोलियाँ

 हिन्दी का प्रदेश पर्याप्त विस्तृत है। आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं के वर्गीकरण में हिन्दी की पाँच उपभाषाएँ निर्धारित की गयी है -

(१) राजस्थानी
(२) पश्चिमी हिन्दी
(३) पूर्वी हिन्दी
(४) बिहारी
(५) पहाड़ी।
 
इन भाषाओं की अपनी खास साहित्यिक परम्परा है। हिन्दी की इन उपभाषाओं की बोलियों की संख्या भारत की ही नहीं विश्व की सभी भाषाओं से अधिक है। इसलिए बोलियों की दृष्टि से हिन्दी भाषा का विशेष महत्व है। इन भाषाओं का विस्तार समय-समय पर मध्यदेश के बाहर सम्पूर्ण भारत में भी होता रहा है, किन्तु ये स्वतंत्र भाषाएँ न होकर हिन्दी भाषा की उपभाषाएँ ही है। इनकी बोलियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि संख्या की दृष्टि से अधिक होने के बावजूद भी उनमें परस्पर बहुत साम्य है। विश्व की शायद ही ऐसी कोई भाषा हो जिसमें इतनी अधिक बोलियाँ होते हुए भी उनमें नैकट्य बना हो जितना हिन्दी में है।

हिन्दी (उपभाषाएँ और उनकी बोलियाँ)

राजस्थानी पश्चिमी हिन्दी पूर्वी हिन्दी बिहारी

पहाड़ी (१) मारवाड़ी (१) खड़ी बोली (१) अवधी (१) भोजपुरी (१) गढवाली (२) जयपुरी (२) ब्रज (२) बघेली (२) मगही (२) कुमायुंनी (३) मेवाती
(३) बुदेली (३) छत्तीसगढी (३) मैथिली (३) नेपाली (४) मालवी
(४) कनौजी (५) हरियाणवी
(६) दक्खिनी हिन्दी

सभी बोलियाँ प्राचीन भारतीय आर्यभाषा संस्कृत से विकसित हुई है तथा आधुनिक काल में उनके व्याकरण शब्द भण्डार, स्वर, व्यंजन अदभुत समानता रखते हैं, फिर भी उनकी अपनी भाषा की वैज्ञानिक एवं साहित्यिक विशेषताएँ है।

राजस्थानी हिन्दी : राजस्थानी उपभाषा का क्षेत्र राजस्थान है। यह सिध और मध्य प्रदेश के भी कुछ भागों में बोली जाती है। राजस्थानी का प्राचीन रूप डिंगल व्यापक रूप से साहित्यिक व्यवहार की भाषा थी। अनेक ग्रन्थों ढोला, मारु-रा-दुहा, किसन रुक्मिणी री बोलि' आदि में इसी भाषा का प्रयोग किया जाता है। इसकी चार बोलियों है :

(१) मारवाड़ी : राजस्थानी हिन्दी की प्रमुख बोली मारवाड़ी है। मरुभूमि, मरुधर अथवा मारवाड़ को ही मारवाड़ कहा जाता है। यहाँ की बोली होने के कारण इसे मारवाड़ी कहते हैं। मारवाड़ी का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसकी १२ उपबोलियाँ हैं, जिनमें बीकानेर, शेखावारी, मेवाड़ी और बागड़ी प्रमुख हैं। मारवाड़ी का प्रचलन पूर्व में अजमेर, किशनगढ और मेवाड में, दक्षिण में सिरोही और पालनपुर तक पश्चिम में जैसलमेर और सिन्ध के अमरकोट तक तथा उत्तर में बीकानेर, जयपुर के उत्तरी भाग तथा हिसार और भिवानी के पूर्व तक है। क्षेत्र एवं बोलने वालों की संख्या की दृष्टि से मारवाड़ी राजस्थान की सबसे बड़ी बोली है।

साहित्यिक दृष्टि से मारवाड़ी का प्रचलन आधुनिक काल में बहुत अधिक नहीं मिलता। हिन्दी के आदिकाल में राजस्थानी का प्राचीन रूप प्रयुक्त होता रहा है। राजस्थानी (डिंगल) मे जो साहित्य लिखा गया वह मूलतः मारवाड़ी है। राजस्थानी की सभी बोलियों में साहित्यिक दृष्टि से मारवाड़ी ही सम्पन्न भाषा है। मारवाड़ी की एक विशेषता यह रही है कि इसमें प्राचीन काल से ही गद्य का प्रयोग होता रहा है। मारवाड़ी का अपना समृद्ध लोक साहित्य है।

विशेषताएँ : मारवाड़ी की विशेषतायें हिन्दी के समान है। इसमें केवल कुछ नए रूप ही मिलते हैं, जैसे - स और ध का एक नया रूप स और ध मिलता है जिसमें 'स' कुछ श जैसा और 'ध' 'ह' जैसा उच्चरित होता है।

कारक परसर्गों में कर्ता और कर्म-सम्प्रदान का रूप समान है, परन्तु करण अपादीन का परसर्ग सूँ/अूँ अतिरिक्त मिलता है।
अधिकरण में मैं, माई माहै, माय और सम्बन्ध में गुजराती के नो-ना, नी भी प्रयुक्त होते हैं अन्य परसर्ग हिन्दी की भांति है।

(२) मालवी : 'मालवी माल्द या मालवा की बोली है। वर्तमान उज्जैन के आस-पास का क्षेत्र प्राचीन काल में मालव कहलाता था। मालवा की राजधानी उज्जयिनी रही है। प्राचीन काल में इसका नाम माहिष्मतीपुरी था, जिसे उज्जैन कहा जाता है इस बोली का क्षेत्र पश्चिम में रतलाम, दक्षिण पश्चिम में इन्दौर, दक्षिण में भोपाल और होशंगाबाद के पश्चिम, उत्तर पूर्व में गुना और उत्तर-पश्चिम में नीमच, उत्तर में ग्वालियर, झाडवाल, टोक तथा चित्तोड़ के कुछ भाग तक विस्तृत है। मालवी का शुद्ध रूप देवास, इन्दौर और उज्जैन में मिलता है। इस पर बुन्देली का भी व्यापक प्रभाव रहा है।

मालवी का मानक साहित्य अधिक नहीं रहा है। कुछ संतों महात्माओं की बानियों में ही इसका रूप मिलता है। मालवी का लोक साहित्य मिलता है।

विशेषताएँ : मालवी में मारवाड़ी की भाँति 'ण' नहीं बोला जाता 'ड' के स्थान पर ड ही प्रयुक्त होता है। ऐ, ओ की अपेक्षा ए, ओ बोलने की प्रवृत्ति मालवी में अधिक है। कारक-परसर्ग-कर्म सम्प्रदान नै, नई, रे, करण अपादान सू है, सम्बन्ध में रा, रो, री कम है जो मारवाड़ी में प्रमुख है। पर, को, का, की अधिक मिलते हैं। संज्ञा, बहुवचन में होरा, होरो, टोनो जोड़ा जाता है। क्रिया में भूतकाल सहायक क्रिया के रूप में थो, था, थी तथा भविष्यत् काल में गो, गा, गी जोड़ा जाता है।

(३) जयपुरी : जयपुरी को दूढादी भी कहा जाता है जयपुरी का मूल नाम ढाढी इस क्षेत्र के आधार पर पड़ा। १७वीं शती में जयपुर में बसने के बाद इसे जयपुरी कहा जाने लगा। इसकी उपबोली हडौती है। जयपुरी जयपुर तथा हडौती कोटा और बूंदी में बोली जाती है।

विशेषताएँ : जयपुरी का साहित्यिक रूप नहीं मिलता। प्राचीन डिंगल रचनाओं में ही इसके रूप मिलते है। यह मारवाड़ी और ब्रजभाषा दोनों के निकट है इसका व्याकरण राजस्थानी की सामान्य विशेषताओं के अनुरूप है। क्रिया रूप भी मारवाड़ी के समान है। केवल भूतकालिक कृदन्त में दियो, लियो के अतिरिक्त दीन, लीन नये प्रयोग हैं।

(४) मेवाती : मेवाती का नामकरण मेवो जाति के कारण हुआ है और मेवात की बोली होने के कारण इसे मेवाती कहा जाता है। इस बोली का क्षेत्र व्यापक है। अलवर, भरतपुर, गुडगाँव के दक्षिण-पूर्व तक यह बोली प्रयुक्त होती है। मेवाती का मानक साहित्य नहीं मिलता है। इसका कुछ लोग साहित्य ही मिलता है। इस पर हरियाणवी का प्रभाव है। धीरे-धीरे यह जयपुरी से प्रभावित होती जा रही है।

विशेषताएँ : मेवाती की अधिकांश विशेषतायें राजस्थानी की अन्य बोलियों के समान है। केवल कुछ नये रूप ही अवलोकनीय हैं, जिनमे कारक परसर्गों में कर्ता कर्म - नै, कर्म - सम्प्रदान के सम्बन्ध, को, का, की और कारक अपादान सै, तै प्रमुख हैं। सर्वनाम हम, तम की भाँति हरियाणवी की भाँति मिलते हैं। लेकिन मेवाती में इनका प्रयोग हमा - तमा के रूप में मिलता है। इसको, उसको के स्थान पर ए को प्राप्त होते हैं।

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