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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


11
भारत में हिन्द-यवन राज्य
(Indo-Greek Kingdom in India)

दीर्घ एवं लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न

1. हिन्द-यवन शक्ति के उत्थान एवं पतन का निरूपण कीजिए।
अथवा
हिन्द-यूनानी शासकों का संक्षिप्त इतिहास लिखिये।
अथवा
प्राचीन भारतीय सभ्यता पर यूनानी प्रभाव के स्वरूप और उसके विस्तार का वर्णन कीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न

1 पार्थिया व बैक्ट्रिया के विद्रोह पर टिप्पणी कीजिए।
2. ऐन्टीयोकस तृतीय का भारत पर आक्रमण समझाइए।
3. प्राचीन भारतीय संस्कृति पर यूनानी प्रभाव बताइए।
4. प्राचीन भारतीय साहित्य पर यूनानी प्रभाव बताइए।
5. प्राचीन भारतीय धर्म व दर्शन पर यूनानी प्रभाव बताइए।
6. प्राचीन भारतीय व्यापार पर यूनानी प्रभाव बताइए।
7. यूनानी आक्रमण के प्रभाव एवं प्रकृति को लिखिए।
8. प्राचीन भारत में हिन्द-यवन शासकों के क्रियाकलापों का ब्योरा प्रस्तुत कीजिए।
9. हिन्द-यवन शासकों के नाम लिखिए।

उत्तर -

पार्थिया और बैक्ट्रिया के विद्रोह

तृतीय सदी ई. पूर्व के मध्य एशिया में दो ऐसी घटनाएँ घटी जिनका प्रभाव भारतीय इतिहास के विकास पर पड़ना अनिवार्य था। ये घटनाएँ पार्थिया और बैक्ट्रिया का सेल्यूकस के साम्राज्य से पृथक् हो जाना था। पार्थिया, खुरासान और कैस्पियन सागर के दक्षिण पूर्व का तटवर्ती प्रान्त था, जिसने ग्रीक संस्कृति कभी नहीं स्वीकार की थी। पार्थिया का विद्रोह जन-विद्रोह था जिसका नेतृत्व आर्सेकीज नामक एक सामंत ने किया था, जिस राजकुल को 248 ई. पूर्व में उसने आरम्भ किया वह प्रायः 5 शताब्दियों तक बना रहा। इसके विरुद्ध बैक्ट्रिया का विद्रोह सामंती विप्लव था । बैक्ट्रिया का शासक डियोडोटस था जिसकी महत्वाकांक्षा प्रान्तीय शासक की शक्ति सीमा को लांघ गयी थी। उसके ही प्रयत्नों से बैक्ट्रिया सीथिया के साम्राज्य से स्वतन्त्र हो गया। बल्ख (बैक्ट्रिया)) की भूमि हिन्दूकुश और वक्षुनंद के बीच थी जो अत्यन्त उर्वर, समृद्ध और आबाद थी। साथ ही पूर्व में ग्रीक उपनिवेश का यह केन्द्र भी माना जाता था। ज्ञात नहीं कि ऐन्टीयोकस द्वितीय घीयस की 246 ई. पूर्व में मृत्यु के बाद सीथिया के राजकुल की उथलपुथल से डियोडोट्स को अपने अध्यवसाय में कहाँ तक सहायता मिली, पर उसके बाद डियोडोटस द्वितीय, जिसने अपने समकालीन पार्थव राजा से समझौता कर लिया था, सम्भवतः उसने लगभग 245 ई. पूर्व से 230 ई. पूर्व तक राज्य किया। उसका अन्त मैगनेशिया सिथिलस के अधीनस्थ के एक सामरिक पर्यटक यूथिडेमस द्वारा हुआ, यूथिडेमस ने बैक्ट्रिया का सिंहासन स्वायत्त कर लिया। जब ऐन्टीयोकस तृतीय ने 212 ई. पूर्व में अपने विद्रोही प्रान्तों की फिर से विजय करनी चाही तब उसके साथ यूथिडेमस पर दीर्घकालिक संघर्ष छिड़ गया। एन्टीयोकस ने वल्ख पर घेरा डाला, परन्तु उसका प्रयास व्यर्थ हो गया, तदन्तर टेलियस नामक एक व्यक्ति द्वारा दोनों राजाओं में सन्धि हुई। सीथिया के राजा ने बैक्ट्रिया की स्वतन्त्रता स्वीकार की और अपनी मैत्री के प्रमाणस्वरूप अपनी कन्या का विवाह यूथिडेमस के पुत्र डिमिट्रियस के साथ कर दिया।

ऐन्टीयोकस तृतीय का भारत पर आक्रमण - इस सन्धि के प्रसंग में ऐन्टीयोकस के ऊपर डिमिट्रियस के व्यक्तित्व ओर नीति-कुशलता का बड़ा प्रभाव पड़ा था। ऐन्टीयोकस तृतीय ने इसके बाद 207 अथवा 206 ई. पूर्व में हिन्दकुश लांघ भारत पर धावा किया। सोफागसेनस (सभागसेन) ने जो सम्भवतः वीरसेन का उत्तराधिकारी था, उसके प्रति आत्मसमर्पण किया। यह वीरसेन, तारानाथ के अनुसार अशोक की मृत्यु के पश्चात् गन्धार में स्वतन्त्र राज्य बना लिया था, ऐन्टीयोकस भारतीय सीमा के भीतर घुसा और अपने देश की असंयत राजनीतिक परिस्थिति को संभालने शीघ्र लौट पड़ा। उसके लौट जाने के बाद वाख्खी के ग्रीक राजा अपने राज्य विस्तार के प्रयत्न में लगे।

डिमिट्रियस - यूथिडेमस की अधीनता में वाख्खी की राज्य शक्ति शीघ्र बढ़ चली। उसने अफगानिस्तान का भी एक भाग जीत लिया। 190 ई. पूर्व के लगभग जब वह मरा तब उसके पुत्र डिमिट्रियस ने वैदेशिक आक्रमणों की एक सुविस्तार नीति अपनायी। 183 ई. पूर्व के लगभग हिन्दूकुश पार कर उसने पंजाब का एक बड़ा भाग जीत लिया और यदि महाभाष्य तथा गार्गी संहिता के युग पुराण का यवन सेनापति वही है तब उसने निश्चय पंचाल देश को आक्रान्त कर लिया, माध्यमिका (नागरी चित्तौड़) और साकेत (अयोध्या) को घेर लिया और सम्भवतः पुष्यमित्र के समय में पाटलिपुत्र पहुँचकर उस नगर को भी खतरे में डाल दिया। यह महत्व की बात है कि स्टबोग्रीक राज्य के एरियाना और भारत में विस्तार का श्रेय डिमिट्रियस और मिनेण्डर दोनों को देता है, जब डिमिट्रियस अपनी भारतीय विजयों में संलग्न था, यूक्रटाइज नामक विक्रमशील व्यक्ति ने असन्तुष्ट ग्रीक निवासियों की सहायता से वाख्खी में विद्रोह का झण्डा खड़ा किया और लगभग 175 ई. पूर्व में डिमिट्रियस की राजगद्दी पर बैठा। टार्न का कहना है कि यह सम्भवतः ऐन्टीयोकस चतुर्थ का बन्धु और सेनापति था। डिमिट्रियस अपने प्रयत्नों के बावजूद भी उसे स्थानच्युत न कर सका और इस कारण स्वयं उसका अधिकार पंजाब और सिन्ध की विजयों तक ही सीमित रहा। डिमिट्रियस को ग्रीक अनुश्रुतियों में 'भारतीयों का राजा' (रेक्सिनडोरम) कहा गया है। उनसे यह भी पता चलता है कि उसने अपने पिता की स्मृति में 'यथिडेमस' नाम का नगर भी बसाया था। इसके अतिरिक्त जैसाकि पतंजलि की एक टिप्पणी के आधार पर टार्न ने लिखा है कि डिमिट्रियस अथवा दत्तामित्र ने अपने नाम पर भी दत्तमित्री नाम का एक नगर सौवीरों (सिन्ध) में बसाया था। डिमिट्रियस पहला ग्रीक राजा था जिसने दुभाषिये सिक्के चलवाये।

निर्माण कार्य - इसके इन सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि में ग्रीक और भारतीय भाषा में लेख खुदे हैं। कुछ काल बाद (लगभग 165-60 ई. पूर्व) यूक्रेटाइड्ज से, जिसने अपने नाम पर यूक्रेटाइडिया नामक नगर का वाख्खी में निर्माण किया था। जस्टिन के अनुसार भारत को जीता और वह हजार नगरों का स्वामी बन गया। इस प्रकार पूर्व में यथिडेमस और यूक्रेटाइडज के परस्पर प्रतिस्पर्धी राजकुलों द्वारा शासित दो ग्रीक उपनिवेश उठ खड़े हुए, इनमें से पहला राजकुल पूर्वी पंजाब, सिन्ध और आसपास प्रदेशों का स्वामी था और उसकी राजधानी यूथिर्डमिया अथवा शाकल (स्यालकोट) थी।

युथिडेमस का राजकुल - यूक्रेटाइड्ज के राजकुल का अधिकार वाख्खी, काबुल घाटी, गांधार और पश्चिमी पंजाब पर स्थापित हुआ। इन बहुसंरक्षक छोटे-छोटे राजाओं के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान सर्वथा इन सिक्कों पर ही अवलम्बित है और इस सामग्री की न्यूनता के कारण उनके कुल, तिथि तथा शासित राज्य की सीमाओं का ठीक-ठीक पता नहीं चलता। यूथिडेमस के उत्तराधिकारियों में अगाथो क्लीज, पन्टालियन और अन्टीमेकस के नाम मिलते हैं। अपोलोडोट्स और मिनेण्डर भी सम्भवतः इसी कुल के थे।

मिनेण्डर - मिनेण्डर इण्डो-ग्रीक इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण नृपति है। स्ट्रेबो लिखता है कि "उसने. सिकन्दर से भी अधिक जातियां जीतीं। इसमें सन्देह नहीं है कि यह वक्तव्य मिनेण्डर के सिक्कों की प्रचलन सीमाओं से अधिकांश में स्थापित हो जाता है। उसके सिक्के काबुल से मथुरा और बुन्देलखण्ड तक पाये गये हैं। पेरिप्लस मारिस इरिथाई के अज्ञातनामा लेखक के अनुसार अपोलोडोट्स के सिक्कों के साथ मिनेण्डर के सिक्के भी वेरीगाजा (भडोच) में प्रथम शती ईसवी के तीसरे चरण के लगभग चलते थे। कुछ विद्वानों ने मिनेण्डर को वह यवन आक्रमक माना है जिसने पुष्यमित्र शुंग के शासन व माध्यमिका, साकेत और पाटलिपुत्र तक धावा बोला था। मिलिन्द अथवा मिनेण्डर बौद्ध हो गया। भारतीय अनुवृत्तों में उसका उल्लेख हुआ है। मिलिन्दपन्हो में उसके कुछ पेचीदे प्रश्नों का संग्रह है, जिनका उत्तर घेर नागसेन ने दिया है। एक अनुश्रुति के अनुसार तो मिनेण्डर अर्हत तक हो गया था, कुछ सिक्कों पर धर्म चक्र की आकृति और 'ध्रमिकस' विरुद खुदा हुआ है, जिनसे उसका बौद्ध होना सर्वथा प्रमाणित होता है।

मिनेण्डर काल की आर्थिक स्थिति-मिलिन्दपन्हों में उसकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) के उद्यान, तालाब, भवन, दुर्ग, राजमार्गों का विशद वर्णन हुआ है। इस ग्रन्थ से प्रमाणित होता है कि उस नगर में बनारसी, मलमल, रत्न और बहुमूल्य वस्तुओं के विक्रय के लिए बड़ी-बड़ी दुकानें थीं। इस ग्रीक राज्य की समृद्धि का यह विशिष्ट प्रमाण है कि मिनेण्डर अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध था और प्लूटार्क लिखता है कि यात्रा काल में शिविर में उसकी मृत्यु के बाद उसके भस्म के वितरण के विषय में प्रजा में झगड़े उठ खड़े हुए क्योंकि वह इतना जनप्रिय था कि लोग उसकी भस्म पर पृथक-पृथक स्तूप बनाना चाहते थे।

सिक्के - मिनेण्डर के सिक्कों पर उसके उत्तराधिकारियों स्ट्रेटो प्रथम और स्ट्रेटो द्वितीय तथा अन्य राजाओं के नाम भी मिलते हैं, परन्तु उनके सम्बन्ध में हमें कोई ऐतिहासिक ज्ञान नहीं है।

यूक्रेटाइड्ज का राजकुल - जान पड़ता है कि यूक्रेटाइड्ज अपने विजित प्रान्तों को दीर्घकाल तक न भोग सका। जस्टिन लिखता है कि "जब वह अपने भारतीय आक्रमण से घर लौट रहा था तब उसके पुत्र और सहायक हेलिओक्लीज ने उसकी हत्या कर दी। यह घटना 155 ई. पूर्व के लगभग घटी और कहते हैं कि उस स्वाभाविक युवक ने अपने दारुण अपराध को इतना माना कि उसने अपने पिता के शव का अन्तिम संस्कार तक न होने दिया था। टार्न पितृहत्या की अनुश्रुति अर्थात् हेलिओक्लीज द्वारा पिता के शव की अवमानना की कहानी नहीं स्वीकार करता। बख्खी का वह अन्तिम ग्रीक राजा था क्योंकि हेलिओक्लीज के बाद मध्य एशिया के मैदानों से निकली शकों की बाढ़ द्वारा यह वंश विपन्न हो गया।''

ऐन्टीआल्किड्स - जिन्होंने अफगानिस्तान की घाटी तथा भारतीय सीमा प्रान्त पर शासन किया था, इनमें से ऐन्टीआल्किड्स का नाम भी प्राप्त होता है, जो वेसनगर के स्तम्भ-लेख में मिलता है। ऐसा माना जाता है कि उसने दिय के पुत्र हेलिय दोरेण अथवा हेलियोडोरस को अपना दूत बनाकर काशीपुत्र भागभद्र की राजसभा में भेजा था। यह महत्व का विषय है कि अन्तलिखित अथवा ऐन्टीआल्किड्स तक्षशिला का राजा कहा गया है और उसका राजदूत अपने को भागवत अर्थात् विष्णु का उपासक कहता है। ऐन्टीआल्किड के अधिकतर सिक्के भी इन्डो-ग्रीक राजाओं के सिक्कों की तरह ही दुभाषिये हैं। परन्तु आहिक तौल के एक प्रकार के चांदी के सिक्के पर केवल ग्रीक लेख "विजयी राजा ऐन्टीआल्किड्स'' खुदा है जिससे उसकी कतिपय विजयों का प्रमाण मिलता है।

हर्मियस - सीमा प्रान्त और काबुल घाटी का अन्तिम ग्रीक राजा हर्मियस था जिसने प्रथम शती ईसवी के द्वितीय चरण के लगभग राज्य किया। सर्वत्र शत्रुओं से आक्रान्त होकर कजुलफिजल के नेतृत्व में बढ़ते हुए कुषाणों द्वारा वह विनिष्ट हो गया। ग्रीक शक्ति अन्तर संघर्ष के कारण पहले ही दुर्बल हो गयी थी। वह इन बर्वर जातियों की चोटों के सामने क्षण भर न ठहर सकी।

प्राचीन भारतीय संस्कृति पर यूनानी प्रभाव विद्वानों में इस बात पर मतभेद है कि भारत ने यूनानियों से जो कुछ सीखा उससे कहीं अधिक यूनानियों को दिया । राबिन्सन का मत है कि यूनानी और भारत का सम्बन्ध अत्यन्त प्राचीन था और दोनों देशों ने एक-दूसरे से सभ्यता एवं संस्कृति के क्षेत्र में बहुत कुछ सीखा।
साहित्य पर प्रभाव - कुछ विद्वानों का मत है कि यूनानी भाषा एवं साहित्य का प्रभाव भारतीय भाषा और साहित्य पर पड़ा । कुछ विद्वान यूनानी भाषा के सम्बन्ध में यह मत प्रकट करते हैं कि भारतीय यूनानी भाषा से परिचित थे और उन्होंने इस भाषा का प्रयोग किया। भारतीय सिक्कों पर एक ओर प्राकृत भाषा तथा खरोष्ठी लिपि का प्रयोग हुआ है। प्लूटार्क और एरियन आदि का मत है कि भारतीय होमर के काव्य का परायण करते थे, परन्तु यह मत उचित नहीं प्रतीत होता है। भारतीय रामायण, महाभारत अत्यन्त प्राचीन रचनाएं हैं और इन पर यूनानी प्रभाव दिखाई देता है परन्त यह मत उचित नहीं प्रतीत होता है। कुछ विद्वानों का मत है कि भारतीय नाटकों पर यूनानी प्रभाव दिखाई देता है, यह सत्य है कि भरतीय यूनानी नाटकों से प्रभावित हुए हो, परन्तु यूनानियों का भारतीय नाट्यशास्त्र पर व्यापक प्रभाव पड़ा यह कहना भी उचित नहीं प्रतीत होता।

धर्म और दर्शन पर प्रभाव - भारतीय दर्शन एवं धर्म पर कोई भी यूनानी प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि भारतीयों ने भी यूनानी धर्म और दर्शन को प्रभावित किया। शाकल का राजा मिनेण्डर बौद्ध धर्म का अनुयायी था तथा दियोल का पुत्र हेलियोडोरस वैष्णव धर्म का अनुयायी था। श्यात में प्राप्त एक कलश पर लिखे गये एक लेख से ज्ञात होता है कि थियोडोरस नामक एक ग्रीक ने बौद्ध धर्म स्वीकर किया था, कोई भी ऐसा उदाहरण नहीं प्राप्त हो रहा है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि भारतीय धर्म क्षेत्र में यूनानियों से प्रभावित हुए थे। दर्शन के क्षेत्र में भारतीय यूनानियों से प्रभावित हुए यह धारणा भी गलत है बल्कि भारतियों ने अपने दर्शन से यूनानियों को प्रभावित किया। पाइथागोरस तथा सुकरात पर भारतीय दर्शन का प्रभाव झलकता है।

ज्योतिष एवं विज्ञान का प्रभाव - ज्योतिष एवं विज्ञान के क्षेत्र में अवश्य ही यूनानियों ने भारतियों को प्रभावित किया था। भारतीय ज्योतिष के पंच सिद्धान्तों मे से 'रोमन सिद्धान्त' तथा 'पीलिस सिद्धान्त' अवश्य ही यूनानी प्रभाव को स्पष्ट करते हैं। कहा जाता है कि यह प्रभाव वख्खी यवन काल के बहुत बाद का है।

यूनानी भाषा में होरा (होड़ा) का अर्थ है घण्टा अथवा घड़ी इस प्रकार जामित्रलग्न यूनानी दायेमेत्रान का अनुगामी है, भारतीय ज्योतिष का राशिचक्र यूनानियों की देन है। गर्ग संहिता से स्पष्ट ज्ञात होता है कि ''यवन यद्यपि म्लेच्छ हैं, परन्तु ज्योतिषशास्त्र को जन्म देने के कारण वे देवताओं के सदृश पूज्य हैं।

मुद्रा पर प्रभाव - यूनानी सम्पर्क का सबसे अधिक प्रभाव भारतीय मुद्राओं पर पड़ा। यूनानियों के आगमन के पूर्व भारतीय छोटे-छोटे ताँबे और चांदी के सिक्के प्रयोग में लाते थे जिन पर वृषभ, चक्र, चैत्य के चिह्न अंकित रहते थे, कुछ स्वर्ण मुद्राओं का भी प्रसार हुआ था। भारतीय मुद्रा तौल की दृष्टि से अनियमित थी, इस प्रकार के सिक्के पंचमार्क (सिक्के) कहलाते थे। यूनानियों ने मुद्राओं की सुडौलता, सुन्दरता आदि पर विशेष ध्यान दिया था। भारतीयों ने कलापूर्ण सिक्के बनाना यूनानियों से सीखा।

व्यापार पर प्रभाव - भारत में यूनानियों का राज्य स्थापित हो जाने के कारण भारतीय व्यापार को अधिक प्रोत्साहन मिला, नये व्यापारिक मार्ग खुले और भारत से बहुत-सी वस्तुएँ निर्यात होने लगी। टार्न ने लिखा है कि "सन् 166 ई. पूर्व में अन्तियोकस चतुर्थ ने दाप्ते नामक स्थान पर हाथीदांत की बनी हुई वस्तुओं एवं गरम मसालों का विशाल प्रदर्शन किया था, कहा जाता है कि टालमी द्वितीय ने अपने विजयोत्सव प्रदर्शन में भारतीय कुत्तों एवं मवेशियों का प्रदर्शन किया।

कला पर प्रभाव (Impact of Art) - भारतीय कला पर यूनानियों का प्रभाव अधिक पड़ा। स्थापत्य कला के क्षेत्र में यह प्रभाव अधिक नहीं परिलक्षित होता है परन्तु तक्षण कला (मूर्ति कला) अवश्य ही यूनानी कला से प्रभावित रही है। सम्भव है कि आरम्भ में भारतीयों ने यूनानी स्थापत्य को अपनाया हो किन्तु आज हमें यूनानी भवन निर्माण शैली में बना हुआ कोई भी भवन नहीं उपलब्ध होता है। तक्षशिला में पहली शताब्दी ई. पूर्व के आरम्भ में कुछ मकान ऊँचे और यवन स्तम्भों वाला मन्दिर अवश्य यूनानी शैली में बने हुए मिले हैं परन्तु इस शैली का प्रयोग आगे नहीं हुआ है।

मूर्तिकला के क्षेत्र में भारत को यूनानियों की महान देन है। गन्धार में एक नवीन शैली का जन्म हुआ जिसे 'गन्धार शैली' के नाम से पुकारते हैं। महात्मा बुद्ध की अनेक मूर्तियां इस शैली में बनी जिसमें से बुद्ध की कुछ मूर्तियाँ यूनानी देवता अपोलो से मिलती-जुलती हैं।

इस प्रकार देखा जाता है कि यूनानियों और भारतीय लोगों का सम्बन्ध लगभग 150 वर्षों का बेकार नहीं रहा, भारतीय संस्कृति पर यूनानियों का प्रभाव अवश्य पड़ा। प्रो. कश्यप के मतानुसार कालान्तर में यूनानी सभ्यता के जो भी कुछ चिह्न थे वे विशाल भारतीय संस्कृति नाम के बीच में डूब गये तथा आत्मसात कर गये।

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