प्रश्न 4. अशोक के शासन व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
अथवा
मौर्य शासन प्रणाली में अशोक द्वारा किये गये सुधारों की व्याख्या कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. अशोक का राजस्व सिद्धान्त बताइए।
2. अशोक का आदर्श बताइए।
3. अशोक के स्वशासन पर टिप्पणी कीजिए।
4. अशोक के पदाधिकारी कौन-कौन थे ?
5. अशोक के निर्माण कार्य बताइए।
उत्तर -
अशोक का राजस्व सिद्धान्त
(Revenue Principle of Ashoka)
अशोक को उत्तराधिकारी के रूप में केवल एक विस्तृत साम्राज्य ही नहीं प्राप्त
हुआ था अपितु सुव्यवस्थित शासन व्यवस्था भी प्राप्त हुई थी, जो कुशल शासक
चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। अशोक को अपने पितामह
चंद्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध में जो कुछ भी थोड़ा बहुत परिवर्तन करना
पड़ा उसका मूल कारण उसकी नैतिकता एवं धार्मिकता थी।
अशोक का शासन निरंकुश परन्तु सदय (दयायुक्त) राजतंत्र था, और अशाक ने अपने
शासन प्रयोग में प्रजा के पितृत्व की विशेष पुट दी। राजा को उसने प्रजा का
पिता कहा और तद्वत ही उसने स्वयं आचरण किया। अपने द्वितीय कलिंग लेख में वह
कहता है कि "सारे मनुष्य मेरी सन्तान हैं और जिस प्रकार मैं अपनी सन्तति को
चाहता हूँ कि वह सब प्रकार की समृद्धि और सुख इस लोक और परलोक में भोगे ठीक
उसी प्रकार मैं अपनी प्रजा के सुख-समृद्धि की भी कामना करता हूँ | पहले की ही
भाँति अब भी राजा को सम्मति प्रदान करने और शासन कार्य में उसका हाथ बँटाने
के लिए एक मंत्रिपरिषद का सलाहकार प्राप्त था। प्रान्तीय शासक का रूप भी अशोक
ने पूर्ववत् रखा।"
अशोक का आदर्श - अशोक एक आदर्श मानव था उसकी नैतिकता उसके जीवन की अनुशासिका
थी। कलिंग विजय के पूर्व अशोक साम्राज्यवादी था, किन्तु रक्त प्लावित घटना के
पश्चात् का अशोक पहले मानव और तब सम्राट था। कलिंग शिलालेख अशोक तथा धरती के
संपूर्ण मनुष्यों के निकटतम संबंध का निर्देश इस प्रकार कहता है। "सब मनुष्य
मेरे पुत्र हैं"। अशोक ने अपने चौथे स्तम्भ लेख में प्रजा के प्रति गद्गद्
होकर अपने उद्गार इस प्रकार प्रकट किये, "जिस प्रकार मनुष्य अपनी सन्तान को
निपुण धाय को सौंपकर निश्चित हो जाता है और सोचता है कि वह धाय मेरे बालक को
सुख पहुंचाने की भरपूर चेष्टा करेगी उसी प्रकार प्रजा के हित और सुख के
अभिप्राय से रज्जुक नामक कर्मचारी नियुक्त किये हैं। अशोक ने प्रजा के हित के
लिए निम्न लेख उत्कीर्ण किया था, "यह धर्म लेख चिरस्थायी हो और मेरी पत्नी,
पुत्र तथा प्रपौत्र लोकहित के लिए प्रयत्न करें। अत्यधिक प्रयत्न के बिना यह
कार्य बहुत कठिन है।''
स्वायत्त शासन (Local Self Government) - अशोक के 13वें शिलालेख के आधार पर
कुछ इतिहासकारों ने ऐसा अनुमान लगाया है कि अशोक के अधीन कुछ ऐसे भी प्रदेश
थे जो अप्रत्यक्ष रूप में तो अशोक की अधीनता स्वीकार करते थे किन्तु उन्हें
स्वशासन का अधिकार प्राप्त था, जैसे - यवन, कम्बोज, नाभपति, आन्ध्र भोज तथा
पारिद आदि।
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि अशोक के शासनकाल में तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसली
(धोली) और सुवर्णगिरि (सोनागिरि) इस प्रकार के प्रान्तीय शासकों को नियुक्त
किये जाते थे जैसे सौराष्ट्र की राजधानी गिरनार के लिए नियुक्त राजा तुषास्य
यवन के प्रमाण से सिद्ध होता है। अनुमानतः यह कहा जा सकता है कि इन राजवर्गीय
प्रान्तीय शासकों के भी अपने-अपने अमात्य थे, बिन्दुसार के समय में तक्षशिला
का विद्रोह इन्हीं अमात्यों के विरुद्ध हुआ था। साधारण छोटे प्रान्तों के
शासक संभवतः रज्जुक कहलाते थे, जिनका उल्लेख अभिलेखों में हुआ है। इसी प्रकार
प्रादेशिक आधुनिक कमिश्नरों की भांति विस्तृत भूखंडों के शासक थे। विविध
विभागों के प्रधान साधारण रूप से 'मुख' अथवा महामात्र कहलाते थे, विभाग का
नाम प्रधान पद के साथ जोड़ दिया जाता था। उदाहरण के रूप में अन्तपुर, नगर और
सीमा प्रान्त के महामात्र कहलाते थे। शासन के अन्य अधिकारी साधारणतः पुरुष
संज्ञा से सम्बोधित होते थे और उनके निम्न तथा मध्य तीन वर्ग थे। इनसे भी
निचले वर्ग के अधिकारियों की साधारण संज्ञा युक्त थी।
मन्त्रिपरिषद (Cabinet) - चंद्रगुप्त के शासन प्रबन्ध के विषय में ज्ञात होता
है कि उसके शासन प्रबन्ध का मुख्य अंग मत्रिपरिषद थी। अशोक ने भी मंत्री
परिषद स्थापित रखा। उसके छठे शिलालेख से ज्ञात होता है कि मंत्रिपरिषद को इस
बात की स्वतंत्रता थी कि सम्राट से किसी गुट के विषय पर वाद-विवाद कर सके तथा
अपना मत सम्राट को दे सके। उसकी (महायात्रा के) दान संबंधी अथवा मेरे द्वारा
की गयी किसी मौखिक घोषणा के सम्बन्ध में अथवा महामात्रों के सुपुर्द कर दिये
गये किसी आवश्यक कार्य के विषय में विवाद या सुधार का प्रस्ताव किया जाये तो
उसकी सूचना मुझे उसी क्षण मिलनी चाहिए | मैं कहीं भी रहूँ और कोई भी समय हो।
प्रान्तीय शासन (Provincial Administration) - शासन के दृष्टिकोण से जैसाकि
अभिलेखों से ज्ञात होता है कि संपूर्ण साम्राज्य चार केन्द्रों में विभाजित
था - तक्षशिला, उज्जैनी, तोसली तथा सुवर्णगिरि। राजा का सहायक उपराजा होता
था, जो राजकुलीन व्यक्ति होता था। अशोक का भाई तिव्य उसका उपराजा था। युवराज
भी राजकाज में सम्राट की सहायता करता था। इसी प्रकार अग्रमात्य भी राजा का
प्रमुख सहायक था, अशोक के समय में राधागुप्त अग्रमात्य थे। राजकुमारों से भी
सम्राट शासन प्रबन्ध सहायता लेता था।
अशोक के पदाधिकारी (Officials of Ashoka) - अशोक के अभिलेखों से हमें विभिन्न
प्रकार के पदाधिकारियों का बोध होता है। उनमें से अधिकांशतया कौटिल्य के
अर्थशास्त्र में उल्लिखित पदाधिकारियों से मिलते-जुलते हैं। केवल धर्म
सम्बन्धी पदाधिकारी नवीन हैं। डॉ. हेमचंद्र राय चौधरी ने निम्नलिखित बारह
प्रकार के पदाधिकारियों का उल्लेख किया है-
1. महामात्र,
2. राजुक,
3. रथिक,
4. प्रादेशिक,
5. युत अथवा युक्त,
6. पुलिस,
7. पतिवेतक,
8. भमिक,
9. लिपिकार,
10. दत,
11. आयुक्त,
12. कारणक।
अशोक के राजस्व सिद्धान्त के विषय में यह ज्ञात होता है कि राजा का प्रमुख
कर्त्तव्य प्रजा की सेवा करना होता था। सर्वप्रथम उसने धर्म महामात्रों की
नियुक्ति की जो प्रजा के भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिए प्रयत्न करते थे।
राज्य के प्रधान कर्मचारी राजुक प्रादेशिक, युक्त आदि पंचवर्षीय अथवा
त्रिवर्षीय अनुसंधान (दौरा) किया करते थे जिससे वे ग्रामीण जनता के निकट
सम्पर्क में आकर उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक समस्याओं का अध्ययन कर
सकें। अशोक ने अपने पड़ोसी जातियों के अभयदान की घोषणा इस प्रकार की -
"सीमान्त जातियाँ मुझसे न भय खायें, मुझ पर विश्वास करें और , मुझसे सुख
प्राप्त करें। वे कभी दुःख न पावें तथा इस बात का सदैव विश्वास रखें कि जहाँ
तक क्षमा करना संभव है राजा उनके साथ करेगा।''
पशुवध निषेध इस क्षेत्र में नवीन तथा महत्वपूर्ण सुधार था। भारतीय इतिहास तो
क्या विश्व इतिहास में भी कोई ऐसा सम्राट नहीं मिलता जिसने पशुवध निषेध की
चेष्टा की हो और इस कार्य में इतना अधिक सफल हुआ हो। प्रजा के हित के लिए
प्राचीन भारत के अधिकांश सम्राटों ने अनेक कार्य किये। किन्तु सम्राट अशोक के
कार्यों के सम्मुख उनके कार्य फीके पड़ते हैं। अशोक के शासन प्रबन्ध में
नैतिकता प्रधान धार्मिकता की छाप थी। जिन नये पदाधिकारियों की नियुक्ति अशोक
द्वारा की गयी वे राजनीतिक क्षेत्र में भले ही महत्वपूर्ण कार्य न कर सके हों
पर सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक क्षेत्र में उन्होंने प्रशंसनीय कार्य किया।
अशोक के निर्माण कार्य (Constructive work of Ashoka) - अशोक केवल धार्मिक
क्षेत्र में ही अद्वितीय प्रगति नहीं कर गया था अपितु वास्तुकला के क्षेत्र
में भी उसने सबसे महान कार्य किया था। उसने नगरों का निर्माण तथा उन्हें
सुसज्जित करने की पूरी कोशिश की थी। अनुश्रुतियों के आधार पर अशोक ने काश्मीर
में श्रीनगर तथा नेपाल में ललिता पाटन नगरों का निर्माण कराया था। फाह्यान के
लेखानुसार उसने राजभवन और राजधानी के संबंध में भी अधिक निर्माण कार्य किये।
अपने सुविस्तृत साम्राज्य में बुद्ध के अस्थि अवशेषों की रक्षा के लिए उसने
अनन्त स्तूप बनवाये। इसके अतिरिक्त उसने भिक्षुओं के आवास के लिए विहार तथा
दरीगृहों का भी निर्माण कराया। दुर्भाग्यवश उसकी इमारतों के भग्नावशेष
अत्यन्त अल्पसंख्यक हैं। उसके निर्माण क्षेत्र में विशिष्ट स्थान उन विशाल
स्तम्भों का है जो चुनार के पत्थर से बने हैं, जो तौल में प्रायः 50 टन हैं
और जिनकी साधारण ऊंचाई 40 से 50 फीट तक की हैं। ये नीचे चौडे तथा ऊपर पतले
हैं और एक ही पत्थर से निर्मित हैं। उनका शीर्ष उस शैली से बना है जिनको
लाक्षणिक रूप से ईरानी घंटा शीर्ष कहते हैं। परन्तु इतिहासकार हैवेल ने इसे
उल्टा कमल कहा है। इन स्तम्भों के अन्य भाग अन्य प्रतीकों से सुशोभित हैं।
शीर्ष का भेरीनुमा सामना विविध आकृतियों से आभूषित है और ऊपर सिंह, वृषभ, गज
तथा अश्व में से कोई सर्वतोभद्रिका आकृति तक्षित है।
इन आकृतियों का निर्माण कार्य इतना स्वाभाविक, अद्भुत और सजीव हुआ है कि
विद्वानों ने तो यहाँ तक कह डाला है कि यह कला विदेशी ग्रीक अथवा पारसी शैली
से प्रभावित हुई थी। इसमें सन्देह नहीं है कि इन स्तम्भों की मूर्तिकला की जब
पारखम यक्ष की मूर्ति से तुलना की जाती है तब सर्वथा एक पहेली खड़ी होती है
और जब तक कि हम उसका मूल विदेशी शैली में स्थापित न करें अथवा यह न मान लें
कि तब भारत में सहसा कला का एक स्रोत फट पड़ा था, दूसरी बात यह है कि इन
स्तम्भों के ऊपर की पालिश इतनी अद्भुत है कि वह दर्शकों को अचरज में डाल देती
है। इसी भ्रम में पड़कर कुछ इतिहासकारों ने इन्हें धातु निर्मित समझ लिया था।
आश्चर्य की बात तो यह है कि इस प्रकार की पालिश पाश्चात्य कला में नहीं मिलती
है। जो हमें इस निष्कर्ष को स्वीकार करने में विवश करती है कि अशोक के बाद
संभवतः इसका लोप हो गया। विन्सेन्ट स्मिथ ने सही कहा है कि इन स्तम्भों का
निर्माण स्थानान्तरण और स्थापना मौर्ययुगीन शिल्प आचार्यों और तक्षकों की
बुद्धि और कुशलता के प्रति अद्भुत प्रमाण प्रतिष्ठित करते हैं।
समाज - अशोक के अभिलेखों से तत्कालीन समाज पर भी कुछ प्रभाव पड़ता है। उनसे
विदित होता है कि धार्मिक सम्प्रदायों में मुख्य रूप से ब्राह्मण, श्रमण और
अन्य पाषण्ड थे और इनमें प्रमुख आजीवक और निग्रन्थ (जैन) थे, ये ज्ञान का
प्रसार उपदेश तथा कथोपकथन द्वारा करते थे। इनके अतिरिक्त ये गृहस्थ तो थे ही।
अभिलेखों में चार वर्णों का उल्लेख हुआ है। ये हैं ब्राह्मण, सैनिक और उनके
सामंत (भटमाय) जो क्षत्रिय थे, इभ्व अथवा वैश्य (पंचम शिलालेख) और दास तथा
सेवक (दासभटक) अर्थात शूद्र । सौभाग्य से ये लोग अनेक अनुष्ठान करते थे और
परलोक अथवा स्वर्ग में भी उनकी आस्था थी। पशु वध के विरुद्ध अशोक के अनेक
नियमों और प्रतिबन्धों से विदित होता है कि तत्कालीन समाज में मांस भक्षण
साधारणतः होता था । यदि स्वयं अशोक के उदाहरण से निष्कर्ष निकाला जाये तो
निःसन्देह कहा जा सकता है कि अभिजात वर्ग बहुपत्नी विवाह का समर्थक था। पंचम
शिलालेख में उल्लिखित अवरोधों से प्रमाणित होता है कि स्त्रियों की
स्वतंत्रता पर प्रतिबन्धों की कमी न थी।
...Prev | Next...