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चित्रलेखा

भगवती चरण वर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 19
आईएसबीएन :978812671766

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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक


7
सांस्कृतिक विरासत
(Cultural Heritage)

प्रश्न- संस्कृति से आप क्या समझते हैं? संस्कृति की आवश्यकता एवं महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
उत्तर-
संस्कृति का अर्थ
(Meaning of Culture)
"संस्कृति" शब्द का जन्म "संस्कार" शब्द से हुआ है। जो संस्कार व्यक्ति को संस्कृत बनाते हैं उसे "संस्कृति" नाम से सम्बोधित किया जाता है। भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत संस्कारों का बहुत महत्व है। गर्भाधान से लेकर मानव के पुनर्जन्म तक विविध संस्कार किये जाते हैं जिनसे मानव सुसंस्कृत बनता है। जन्म होने पर नामकरण संस्कार, वेदारम्भ (शिक्षारम्भ) संस्कार, (उपनयन) (यज्ञोपवीत) संस्कार, विवाह-संस्कार तथा अन्त्येष्टि (मृत्यु) संस्कार इत्यादि विविध संस्कार होते हैं जो विकासशील बालक को उसके सदाचारपूर्ण कर्त्तव्यों का स्मरण दिलाते रहते हैं और एक आदर्श मानव बनने के लिए प्रेरित करते हैं।
सही अर्थ में संस्कारों द्वारा सुसंस्कृत होकर जीवन के सभी दृष्टिकोणों का व्यावहारिक प्रदर्शन ही संस्कृति है जिसके आधार व्यवहार की भाषा, कौटुम्बिक जीवन, सर्वशक्तिमान सत्ता में विश्वास, आर्थिक व्यवस्था, नियन्त्रण-साधन, ऐश्वर्य, मान्यताएँ, परम्पराएँ, प्रथाएँ और मनोवृत्तियाँ होती हैं। जीवन के आदर्श और लक्ष्य भी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं की दिशा निर्धारित किया करते हैं।
संस्कृति की आवश्यकता एवं महत्व
(Need and Importance of Culture)
संस्कृति की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है
1. संस्कृति समाजीकरण में सहायक होती है- शिक्षा का एक प्रमुख कार्य बालक का समाजीकरण करना भी है। एक समाज की संस्कृति उसकी मान्यताओं, परम्पराओं तथा विश्वासों में होती है ये सामाजीकरण के आधार भी होते हैं। जब बालक संस्कृति का अध्ययन करता है तो उसे समाजीकरण के आधार प्राप्त हो जाते हैं। उन सामाजिक आधारों को ग्रहण करके वह सामाजिक व्यवहार करना सीख जाता है।
2. संस्कृति व्यक्तित्व निर्माण में सहायक है- जैसे-जैसे बालक की आयु बढ़ती है वैसे ही उसके -अनुभवों में भी वृद्धि होती है। पहले वह कुटुम्ब के सम्पर्क में आता है, फिर कई कुटुम्बों के सम्पर्क में आता है और इस प्रकार वह अपने नगर, जिले, प्रदेश, देश और विश्व के सम्पर्क में आता है। उसे सम्पर्क बढने के साथ ही विशिष्ट स्वानुभाव प्राप्त होते हैं, जिन्हें वह अपने जीवन का अंग बना लेता है। उसके जीवन में आये अनुभवका उसके व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार उसके व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
3. संस्कृति के माध्यम से बालक जीवन-यापन करना सीखता है - शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को इस योग्य बनाना है कि वह सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। व्यक्ति ऐसा जीवन तभी व्यतीत करता है जब उसके जीवन में संघर्ष कम आयें और उसमें अनुकूल शक्ति विद्यमान हो। संस्कृति व्यक्ति के जीवन में संघर्षो को कम करती है और उसे वातावरण के प्रति अनुकूलित होने की क्षमता प्रदान करती है।
4. संस्कृति सामाजिक व्यवहार की दिशा निर्धारित करती है- जब बालक अपनी संस्कृति से परिचित होता है। तो वह उसके अनुकूल सामाजिक आदर्शों, मान्यताओं, विश्वासों तथा परम्पराओं के अनुकूल कार्य करना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार बालक संस्कृति के माध्यम से सामाजिक व्यवहार की दिशा प्राप्त करता है।
5. संस्कृति पारस्परिक प्रेम और एकता में बाँधती है- सभी देशों की अपनी संस्कृति होती है जो व्यक्ति अपने देश और समाज की संस्कृति से प्रेम करता है। वह सभी सम्बन्धित संस्कृतियों में विश्वास रखने वाले व्यक्तियों के प्रति प्रेम का भाव रखने लगता है। इसमें एकता की भावना का विकास होता है।
6. संस्कृति राष्ट्रीय भाषा का स्वरूप निर्धारित करती है- संस्कृति का आधार प्रचलित भाषा होती है। आज भारत में हिन्दी भाषा को प्रायः सभी क्षेत्रों के लोग समझते हैं। इसीलिए हिन्दी भाषा को भारतीय संस्कृति का वाहक मानकर राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया गया है।
7. संस्कृति के द्वारा व्यक्ति प्रकृति को अपने अनुकूल करना सीखता है एक विकसित संस्कृति का पोषक व्यक्ति प्रकृति को अपने अनुकूल ढालने का प्रयास करता है। वह दुर्गम स्थलों पर अपने आवागमन के मार्ग प्रशस्त करता है, रहने के लिए समुचित आवास बनाता है, सिंचाई के साधन न होने पर उसकी व्यवस्था करता है और समुद्र पर विजय पाने के लिए जलयान बनाता है। इस प्रकार व्यक्ति प्राकृतिक वातावरण से संघर्ष करके उसे अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है।
हमारी परम्पराएँ (Our Traditons) -
भारतीय संस्कृति की यह एक प्रमुख विशेषता है कि उसमें विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक परम्पराओं का प्राचीन काल से ही निर्वाह देखने को मिलता है। उसमें प्रत्येक भिन्नता को आत्मसात् करने की अद्वितीय क्षमता है। इस सन्दर्भ में श्री घनश्याम बिड़ला ने एक स्थान पर लिखा है हम बदलते हैं। नई चीजों को हमने अपनाया है पर जो रस तीन या चार हजार वर्ष पहले प्रवाहित था, वहीं आज भी हमारे वातावरण में ज्यों का त्यों है। हमारी एक परम्परा है जो इसी जमीन की मिट्टी के कण-कण में ऐसी बिखर गई है कि वह लगातार जीवित रही है। "
भारत की पवित्र नदी गंगा के स्वरूप और महत्व को लोगों ने विभिन्न कोणों से देखा और सराहा हैं। एक ओर वैज्ञानिकों और अभियन्ताओं ने बाँध बाँधकर सिंचाई के लिए नहरें निकाली हैं और भारतीय उर्वरा भूमि को शस्य श्यामला बनाने का प्रयत्न किया है। दूसरी ओर हमारे ऋषियों-मुनियों और तपस्वियों ने इसके किनारे पर बैठकर परमात्मा की प्राप्ति के लिए साधना-प्रार्थना और तपस्या की है और स्वर्ग के दर्शन किये हैं। इस प्रकार भारतीय संस्कृति के स्वरूप को विद्वानों ने, विचारकों ने और विभिन्न र्मावलम्बियों ने अनेक रूपों में देखा और व्यक्त किया है। भारतीय संस्कृति का स्वरूप भी गंगा की तरह विस्तृत होता चला गया है। एक ओर इसमें बौद्ध धर्म के स्तूप और अवशेष, जैनियों के मन्दिर, एलोरा-अजन्ता, राजाओं-महाराजाओं के महल और कोट द्वार सम्मिलित हैं तो दूसरी ओर लालकिला, कुतुबमीनार, ताजमहल, सेण्ट जेवियर का गिरजाघर तथा अन्य शिल्प और कला की प्राचीन और अर्वाचीन निधियाँ नको समृद्ध बना रही हैं। हमारे अचार-विचार, रहन-सहन, भोजन-वस्त्र, भाषा, तीज-त्यौहार, पूजा-पाठ समें समा गए हैं।
भारतीय संस्कृति के इस विस्तृत दृष्टिकोण के कारण हमारी विचारधाराओं में सहिष्णुता और लीनता आ गई है। सेवा, शान्ति, सत्य और अहिंसा को लेकर देश-प्रेम, राष्ट्र-प्रेम, मानव-प्रेम तथा क्तिगत और सामूहिक बलिदान-भावना; बुराई, अन्याय, अशिष्टता और अभारतीयता के प्रति घृणा री संस्कृति के अंग बन गये हैं। यह भारतीय संस्कृति जिसकी जड़ें ऋग्वेद के आदि मंत्रों में निहित है और जिसका सुदृढ़ तना असंख्य परम्परागत शाखाओं और फूल-पत्तियों से आच्छादित हो गया है- भारतीय संस्कृति के ऐसे वृक्ष की कल्पना करके ही हम अपनी शिक्षा के स्वरूप के विषय में विचार कर सकते हैं।

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