बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
प्रश्न- "शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरूप एवं प्रगतिशील विकास है।' व्याख्या कीजिए।
अथवा
"शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक, सर्वांगपूर्ण एवं प्रगतिशील विकास है।' पेस्टालॉजी के इस विचार की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
“शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरूप एवं प्रगतिशील विकास है।'
यह विचार जर्मन के प्रमुख शिक्षाशास्त्री पेस्टालॉजी का है। भिन्न-भिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा के किसी एक पक्षीय रूप को ध्यान में रखते हुए उसके अर्थ का निर्धारण किया है। इसी प्रकार इनके द्वारा दी गयी परिभाषा शिक्षा के शाब्दिक अर्थ पर आधारित है। अतः हमें पहले शिक्षा के शाब्दिक अर्थ का अध्ययन करना होगा।
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ -
इस शीर्षक के लिये दीर्घ उत्तरीय प्रश्न सं. 2 का सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न सं. 1 देखें।
'शिक्षा के शाब्दिक अर्थ का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि प्रत्येक व्यक्ति में जन्म से ही कुछ आन्तरिक शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं। इन शक्तियों को हम जन्मजात प्रवृत्तियाँ कहते हैं। शिक्षा के द्वारा उनकी छिपी शक्तियों का विकास होता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य की जन्मजात शक्तियों के स्वाभाविक और सामंजस्यपूर्ण विकास में योगदान देती है. उसे वातावरण में सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग प्रदान करती है, उसकी वैयक्तिकता का पूर्ण विकास करती है, उसे जीवन तथा नागरिकता के कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के लिए तैयार करती है तथा उसके विचारों में इस प्रकार का परिवर्तन करती है, जो समाज, देश तथा विश्व के लिए हितकर है।
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का विचार केन्द्र मनुष्य का शरीर, मस्तिष्क और व्यवहार होता है। ये अभी तक अन्तःकरण के मूल तत्व मन, बुद्धि और अहंकार की खोज करने में सफलता नहीं प्राप्त कर सके हैं। इनका मानना है कि मनुष्य एक ऐसा मनोशारीरिक प्राणी है, जो जन्म से ही कुछ शक्तियों का स्वामी होता है और इन शक्तियों के आधार पर ही उसका विकास होता है। अतः शिक्षा के माध्यम से इन शक्तियों का विकास होना चाहिए। अब इस बात को पता लगाने की आवश्यकता है कि मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास कितना और किस दिशा में होना चाहिए। इस सम्बन्ध में विख्यात शिक्षाशास्त्री का मत है कि "यह विकास स्वाभाविक, समरूप एवं प्रगतिशील होना चाहिए।'
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