बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
प्रश्न- विश्वविद्यालयों सम्प्रभुता पर राधा कृष्णनन के विचार लिखिए।
उत्तर-
राधाकृष्णन कमीशन के विचार
विश्वविद्यालय आयोग ने विश्वविद्यालयों की व्यवस्था में अनेक कमियों को देखा व उन पर विचार किया तो पाया कि उनका कारण तो विश्वविद्यालयों में प्रभुसत्ता का अभाव था।
आयोग ने सम्प्रभुता के निर्माण के लिये ये सुझाव दिये-
1. विश्वविद्यालयों को समवर्ती सूची में रखा जाये।
2. केन्द्र सरकार इन बातों हेतु विश्वविद्यालयों से सम्बन्ध स्थापित करे- (i) धन, (ii) विशेष अध्ययन की सुविधाओं में समन्वय, (iii) राष्ट्रीय नीतियाँ, (iv) कुशल प्रशासन, (v) विश्वविद्यालयों और राष्ट्रीय अनुसन्धान प्रयोगशालायें, वैज्ञानिक सर्वेक्षणों आदि को जोड़ने वाली कड़ी।
3. विश्वविद्यालयों को अनुदान देने वाली केन्द्रीय अनुदान आयोग की स्थापना हो।
4. सरकारी कॉलेजों को विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि कॉलेज में परिवर्तित किया जाये।
5. प्रत्येक विश्वविद्यालय में विजिटर, कुलपति, उप-कुलपति, सीनेटर्स (120), कार्यकारी परिषद् हो। शैक्षणिक परिषद् तथा संकाय भी हों।
सम्प्रभुता पर कुछ विचार-
(1) एस. एन. मुकर्जी के शब्दों में-"हाल ही के कार्यों में विश्वविद्यालयों में सम्प्रभुता पर काफी चर्चा रही है। सरकार ने शैक्षणिक मामलों में हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति विकसित कर ली है, ऐसा अनुभव किया जाने लगा है। इस प्रकार के भी प्रमाण हैं कि राजनीतिक प्रभाव का प्रयोग किया जाता है। "
(2) एस. पी. अय्यर के अनुसार-" भारतीय विश्वविद्यालय राज्यों की देन है, पर राज्य विधान सभा या संघीय सभा द्वारा अस्तित्व में आता है। इसकी रचना एवं कार्यों को विस्तार के साथ स्वरूप प्रदान करती है। यद्यपि वह स्वक्षेत्र संस्था के रूप में गठित की जाती है। राज्य सरकार यद्यपि आश्वासन के वर्षों में अनेक उदाहरण ऐसे आये हैं कि सरकार विश्वविद्यालय की प्रभुसत्ता का हनन करने में एक्ट में संशोधन करने में भी नहीं चुकी है।"
(3) डॉ. लक्ष्मण स्वामी मुदालियर - "मैं सम्प्रभुता नहीं चाहता कि जैसा वह कही जाती है। यदि सत्य कहा जाये, जूते पहनने वाला भी जानता है कि वह कहाँ काट रहा है। यह किसी भी रूप में सम्प्रभुता नहीं है।
अनेक अवसरों पर शिक्षा मन्त्रालय से निर्देश प्राप्त होते हैं सेकेट्री हमें यह बताते हैं कि हमें यह लागू करना चाहिये, वह लागू करना चाहिये। ऐसे सन्देश हमें प्राप्त होते हैं। यदि हम पालन करें तो हम अपने मूलभूत विचारों को सही आकार न दे पायेंगे तथा एक सरकारी कर्मचारी के समान केवल आदेशों का पालन ही करते रहेंगे।
सम्प्रभुता एक मिथक है- वर्तमान समय में जब सम्प्रभुता की चर्चा होती है तो उसका व्यावहारिक रूप विकृत हो उठता है। विश्वविद्यालयों पर राज्य का अंकुश है। महाविद्यालयों पर राज्य, विश्वविद्यालय एवं प्रबन्ध तन्त्र का नियन्त्रण है। आज सम्प्रभुता केवल दिखाने की वस्तु रह गई है। महाविद्यालयों के प्रबन्ध तन्त्र में केवल भवन साधन व्यवस्था का दायित्व रह गया है। प्रबन्ध तन्त्र न तो नियुक्ति कर सकता है और न भ्रष्ट कर्मचारी के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है। इसी प्रकार प्रवेश, नवीन पाठ्यक्रमों के आरम्भ करने में सरकार की आज्ञा का इन्तजार करना पड़ता है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, जहाँ ज्ञान का विस्तार द्रुत गति से होना चाहिये, शासकीय नियन्त्रण के कारण सम्प्रभुता शासकीय प्रभुसत्ता में परिवर्तित हो रही है।
आज आवश्यक है कि विश्वविद्यालय की सम्प्रभुता बनाने के लिये समुदाय का सहयोग लिया जाये। विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान की जाने वाली डिग्री मनुष्य को बौद्धिक नेतृत्व एवं रचनात्मक कार्यों के लिये तैयार करे। विश्वविद्यालयों को परिवर्तनशील समाज की आवश्यकता पूर्ति के लिये समय की चुनौती को स्वीकार करना चाहिये तभी इसकी प्रभुसत्ता अक्षुण्ण रह सकती है।
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