बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
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शिक्षा : अर्थ एवं प्रकृति
(Education : Meaning and Nature)
प्रश्न- शिक्षा से आप क्या समझते हैं? शिक्षा के विभिन्न सम्प्रत्ययों का उल्लेख करते हुए उसके वास्तविक सम्प्रत्यय को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -
शिक्षा का अर्थ एवं परिभाषा
(Meaning and Definition of Education)
शिक्षा मानव विकास का मूल साधन है। इसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास उसके ज्ञान कला-कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है और यह कार्य मनुष्य के जन्म से प्रारम्भ हो जाता है। बच्चे के जन्म के कुछ दिन बाद ही उसके माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य उसे सुनना और बोलना सिखाने लगते हैं। जब बच्चा कुछ बड़ा होता है तो उसे उठने-बैठने, चलने-फिरने, खाने-पीने तथा सामाजिक आचरण की विधियाँ सिखाई जाने लगती हैं तथा जब वह तीन-चार वर्ष का होता है तो उसे पढ़ना-लिखना सिखाने लगते हैं। इसी आयु पर उसे विद्यालय भेजना प्रारम्भ किया जाता है। विद्यालय में उसकी शिक्षा बड़े सुनियोजित ढंग से चलती है। विद्यालय के साथ-साथ उसे परिवार एवं समुदाय में भी कुछ सिखाया जाता रहता है और सीखने-सिखाने का यह क्रम विद्यालय छोड़ने के बाद भी चलता रहता है और जीवन भर चलता है। विस्तृत रूप में देखें तो किसी समाज में शिक्षा की यह प्रक्रिया सदैव चलती रहती है। अपने वास्तविक अर्थ में किसी समाज में सदैव चलने वाली, सीखने-सिखाने की यह सप्रयोजन प्रक्रिया ही शिक्षा है।
शिक्षा का शाब्दिक अर्थ भी यही है। शिक्षा शब्द संस्कृत भाषा की शिक्ष धातु में 'अ' प्रत्यय लगने से बना है। शिक्षा का अर्थ है - सीखना और सिखाना। इसलिए शिक्षा का अर्थ हुआ सीखने-सिखाने की क्रिया। यदि हम शिक्षा के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी शब्द एजूकेशन पर विचार करें तो भी उसका यही अर्थ निकलता है। एजूकेशन शब्द लैटिन भाषा के एजूकेटम (Educatum) शब्द से बना है और एजूकेटम शब्द उसी भाषा के ए (E) तथा ड्यूको (Duco) दो शब्दों से मिलकर बना है। ए का अर्थ है अन्दर से और ड्यूको का अर्थ है आगे बढ़ाना। इसलिये एजूकेशन का अर्थ हुआ-बच्चे की आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करना।
शिक्षा का दार्शनिक सम्प्रत्यय
दार्शनिकों का विचार केन्द्र मनुष्य होते हैं। ये मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को जानने और उसके जीवन का अन्तिम उद्देश्य निश्चित करने का प्रयत्न करते हैं। मानव जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन मार्ग निश्चित करने में भी दार्शनिकों की रुचि होती है और इन सबके ज्ञान एवं प्रशिक्षण के लिए वे शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। इस प्रकार दार्शनिकों की दृष्टि से शिक्षा मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति का साधन होती है और चूँकि मनुष्य जीवन के अन्तिम उद्देश्य के सम्बन्ध में दार्शनिकों के भिन्न-भिन्न मत हैं इसलिए उनके द्वारा निश्चित शिक्षा की परिभाषाओं में भी भिन्नता है। जगतगुरु शंकराचार्य की दृष्टि से -
"शिक्षा वह है जो मुक्ति दिलाये।'
(सः विद्या या विमुक्तये - शंकराचार्य)
भारतीय मनीषी स्वामी विवेकानन्द मनुष्य को जन्म से पूर्ण मानते थे और शिक्षा के द्वारा उसे अपनी इस पूर्णता की अनुभूति करने योग्य बनाने पर बल देते थे। उनके शब्दों में - "मनुष्य की अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है।'
युग पुरुष महात्मा गाँधी ने शरीर, मन और आत्मा इन तीनों के विकास पर समान बल दिया है। उनके शब्दों में 'शिक्षा से मेरा तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है।" से यूनानी दार्शनिक प्लेटो भी शरीर और आत्मा दोनों के महत्व को स्वीकार करते थे। उनके विचार "शिक्षा का कार्य मनुष्य के शरीर और आत्मा को वह पूर्णता प्रदान करना है जिसके वे योग्य हैं।' प्लेटो के शिष्य अरस्तू मनुष्य के शारीरिक और मानसिक विकास पर बल देते थे। उनका विश्वास था कि उचित शारीरिक एवं मानसिक विकास होने पर ही मनुष्य आत्मा की अनुभूति कर सकता है। उन्होंने शिक्षा को अग्रलिखित रूप में परिभाषित किया है -
स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का निर्माण ही शिक्षा है।' - अरस्तू
भौतिकवादी दार्शनिक मनुष्य में केवल लौकिक जीवन को ही सत्य मानते हैं। इनकी दृष्टि से मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है और सुखपूर्वक जीने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य शरीर और मन के स्वस्थ और इन्द्रिय भोग के साधनों से सम्पन्न हो। यह सब कार्य वे शिक्षा द्वारा करना चाहते हैं। भौतिकवादी चार्वाकों की दृष्टि से - "शिक्षा वह है जो मनुष्य को सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने योग्य बनाती है।'
पाश्चात्य जगत के प्रकृतिवादी दार्शनिक भी भौतिक सुखों की प्राप्ति करने के पक्ष में हैं। उनकी दृष्टि से यह तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने अन्तः और बाह्य पर्यावरण में समन्वय स्थापित करें। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार - "शिक्षा का अर्थ अन्त शक्तियों का बाह्य जीवन से समन्वय स्थापित करना है।'
पाश्चात्य दार्शनिकों में अब ऐसे दार्शनिकों का बाहुल्य है जो मनुष्य के जीवन को उसी रूप में देखते हैं जिस रूप में वह है। प्रयोजनवादी मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानते हैं और यह मानते हैं कि शिक्षा के द्वारा मनुष्य में वर्तमान समाज में अनुकूलन करने और भविष्य के समाज का निर्माण करने कई क्षमता का विकास करना चाहिए।
प्रयोजनवादी दार्शनिक जॉन डीवी के शब्दों में - "शिक्षा व्यक्ति की उन सब योग्यताओं का विकास है जो उसमें अपने पर्यावरण पर नियन्त्रण रखने तथा अपनी सम्भावनाओं को पूर्ण करने की सामर्थ्य प्रदान करें।'
शिक्षा का समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय
समाजशास्त्रियों का विचार केन्द्र समाज होता है। ये व्यष्टि को उसके समाज के सन्दर्भ एवं परिप्रेक्ष्य में ही देखते-समझते हैं। शिक्षा को ये व्यष्टि और समाज के विकास का साधन मानते हैं इन्होंने शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति के विषय में निम्नलिखित तथ्य उजागर किये हैं -
1. शिक्षा सामाजिक प्रक्रिया है समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया कि जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच सामाजिक अन्तक्रिया होती है तो वे एक-दूसरे की भाषा, विचार और आचरण से प्रभावित होते हैं। इस प्रभावित होने की प्रक्रिया को सीखना कहते हैं और जब यह कार्य निश्चित कुछ उद्देश्यों को सामने रखकर किया जाता है तो उसे शिक्षा कहते हैं। हम जानते हैं कि मनुष्य कुछ शक्तियाँ लेकर पैदा होता है, प्राकृतिक और सामाजिक पर्यावरण में उसकी इन शक्तियों का विकास होता है और इसके परिणामस्वरूप ही मनुष्य के व्यवहार में परिवर्तन होता है। उदाहरण के लिए ध्वनियों को उच्चारित करने का तन्त्र मनुष्य को जन्म से प्राप्त होता है, परन्तु इस तन्त्र से भाषा को वह (बालक) उन्हीं लोगों से सीखता है जिनके सम्पर्क में आता है और जिनसे विचारों का आदान-प्रदान करता है। मनुष्य की पूरी सभ्यता एवं संस्कृति का विकास सामाजिक प्रक्रिया का ही परिणाम है। हाँ, यह बात अवश्य है कि कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों के विकास और भाषा ज्ञान होने के बाद मनुष्य स्वतन्त्र रूप से भी अवलोकन, परीक्षण, चिन्तन और मनन करता है और इस प्रकार भी सीखता है, परन्तु इसके लिए आवश्यक कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का विकास, भाषा, ज्ञान एवं विचार शक्ति का विकास सामाजिक पर्यावरण में ही होता है। समाज के अभाव में न तो हम भाषा सीख सकते हैं और न विचार करना। बच्चे अपने चारों ओर की वस्तुओं, भाषा और क्रियाओं का ज्ञान समाज में रहकर ही प्राप्त करते हैं।
2. शिक्षा अविरत प्रक्रिया है - शिक्षा के विषय में समाजशास्त्रियों ने दूसरा तथ्य यह उजागर किया कि शिक्षा समाज में सदैव चलती है। मनुष्य के जन्म के कुछ दिन बाद से ही उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है और जीवन के अन्त तक चलती रहती है और अधिक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो समाज के सदस्य (व्यक्ति) तो समाप्त होते रहते हैं परन्तु उनकी शिक्षा प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है, वह कभी विश्राम नहीं लेती। इस प्रकार निरन्तरता उसका दूसरा लक्षण है।
3. शिक्षा द्विध्रुवीय (द्विमुखी) प्रक्रिया है - समाजशास्त्रियों ने स्पष्ट किया है कि शिक्षा की प्रक्रिया में एक पक्ष प्रभावित करता है और दूसरा पक्ष प्रभावित होता है। अतः स्पष्ट है कि शिक्षा द्विध्रुवीय प्रक्रिया है। उनके अनुसार शिक्षा के दो ध्रुव होते हैं- एक वह जो प्रभावित करता है (शिक्षक) और दूसरा वह जो प्रभावित होता है (शिक्षार्थी)। अमरीकी शिक्षाशास्त्री जॉन डीवी ने भी शिक्षा के दो ध्रुव माने हैं - एक मनोवैज्ञानिक और दूसरा सामाजिक। मनोवैज्ञानिक अंग से उनका तात्पर्य सीखने वाले की रुचि, रुझान और शक्ति से है और सामाजिक अंग से उनका तात्पर्य उसके सामाजिक पर्यावरण से है। परन्तु अपना तो यह अनुभव है कि केवल सामाजिक पर्यावरण ही नहीं, अपितु प्राकृतिक पर्यावरण भी सीखने-सिखाने की क्रिया को प्रभावित करता है। नियोजित शिक्षा के सन्दर्भ में शिक्षक, शिक्षण के उद्देश्य, पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ भी प्रभावी तत्व होते हैं। इन सबको हम सीखने-सिखाने की परिस्थितियाँ कहते हैं। तब यह कहना अधिक लययुक्त होगा कि शिक्षा की प्रक्रिया सीखने वाले और सीखने-सिखाने की परिस्थितियों के बीच चलती है।
4. शिक्षा विकास की प्रक्रिया है - मनुष्य का जन्मजात व्यवहार पशुवत् होता है। शिक्षा के द्वारा उसके इस व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन किया जाता है और अधिक विस्तृत दृष्टिकोण से देखें तो मनुष्य अपने अनुभवों को भाषा के माध्यम से सुरक्षित रखता है और उनको आने वाली पीढ़ी के हाथों सौंप देता है। आने वाली पीढ़ी इस ज्ञान के आधार पर और आगे बढ़ती है और इसमें अपने अनुभव और विचार जोड़ देती है। इस तरह वह किसी समाज की सभ्यता एवं संस्कृति का विकास करता है। शिक्षा के अभाव में यह सम्भव नहीं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा विकास की प्रक्रिया है।
5. शिक्षा गतिशील प्रक्रिया है - शिक्षा के द्वारा मनुष्य अपनी सभ्यता एवं संस्कृति में निरन्तर विकास करता है। इस विकास के लिए उसकी एक पीढ़ी अपने ज्ञान एवं कला-कौशल आदि को दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित करती है। इस हस्तान्तरण के लिए प्रत्येक समाज विद्यालयी शिक्षा का नियोजन करता है। इसीलिए समय विशेष की विद्यालयी शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियाँ सब निश्चित प्रायः होते हैं। परन्तु जैसे-जैसे समाज में परिवर्तन होते हैं वैसे-वैसे शिक्षा उन परिवर्तनों को स्वीकार करती हुई आगे बढ़ती है। इस प्रकार उसके उद्देश्य पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों में आवश्यकतानुसार परिवर्तन होता रहता है। यही उसकी गतिशीलता है। यदि शिक्षा गतिशील न होती तो हम विकास पथ पर अग्रसर नहीं रह पाते।
कुछ शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा को उपरोक्त तथ्यों के आधार पर ही परिभाषित किया है। भारतीय कुछ विचारक भैरवनाथ झां के शब्दों में - “शिक्षा एक प्रक्रिया है और एक सामाजिक कार्य है जो कोई समाज अपने हित के लिए करता है।'
पाश्चात्य जगत के प्रसिद्ध शिक्षा समाजशास्त्री ओटावे महोदय ने शिक्षा के स्वरूप और कार्य दोनों को समाहित करते हुए शिक्षा को निम्नलिखित शब्दों में परिभाषित किया है - "शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रिया व्यष्टियों और सामाजिक समूहों के बीच की अन्त क्रिया है जो व्यष्टियों के विकास के लिए कुछ निश्चित उद्देश्यों से की जाती है।'
शिक्षा समाजशास्त्रियों के अनुसार, मनुष्य शिक्षा के द्वारा अपने समाज में अनुकूलन करता है।
शिक्षा का राजनीतिक सम्प्रत्यय
राजनीतिशास्त्रियों का विचार केन्द्र राज्य और उसका शासन तन्त्र होता है। ये व्यष्टि और समाज दोनों को राज्य और उसके शासन तन्त्र के सन्दर्भ एवं परिप्रेक्ष्य में देखते-समझते हैं। शिक्षा को वे राष्ट्र के निर्माण का साधन मानते है। राष्ट्र का निर्माण होता है, श्रेष्ठ नागरिकों से और श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण होता है शिक्षा द्वारा। उनकी दृष्टि से "वास्तविक शिक्षा वह है जो श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण करती है।'
शिक्षा का आर्थिक सम्प्रत्यय
अर्थशास्त्रियों का विचार केन्द्र समाज में आर्थिक स्रोत और आर्थिक तन्त्र होता है। वे व्यक्ति अथवा समाज की समस्त क्रियाओं को आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखते-समझते हैं। शिक्षा को वे एक उत्पादक क्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि से शिक्षा उपभोग की वस्तु के साथ-साथ उत्पादन का कारक भी होता है।
शोधों के परिणाम यह बताते हैं कि शिक्षित मनुष्य की उत्पादन शक्ति और संगठन क्षमता अशिक्षित व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होती है और इतनी अधिक होती है कि उससे होने वाला अतिरिक्त लाभ उसकी शिक्षा पर किये गये व्यय से अधिक होता है। इसीलिए अर्थशास्त्री शिक्षा को आर्थिक निवेश के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि से -
"शिक्षा वह आर्थिक निवेश है जिसके द्वारा व्यक्ति में उत्पादन एवं संगठन के कौशलों का विकास किया जाता है और इस प्रकार व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उत्पादन क्षमता बढ़ाई जाती है और उनका आर्थिक विकास किया जाता है।
शिक्षा का मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्यय
भारतीय योग मनोविज्ञान का विचार केन्द्र मनुष्य का बाह्य स्वरूप और उसका अन्तःकरण दोनों होते हैं। बाह्य स्वरूप में वह उसकी कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का अध्ययन करता है और अन्तःकरण में चित्त (मन, बुद्धि और अहंकार) का अध्ययन करता है। उसकी दृष्टि से - "शिक्षा का अर्थ है मनुष्य की बाह्य इन्द्रियों और अन्तः करण का प्रशिक्षण।"
पाश्चात्य मनोवैज्ञानिकों का विचार केन्द्र मनुष्य का शरीर, मस्तिष्क और व्यवहार होता है, वे अभी उसके अन्तःकरण के मूल तत्त्व, मन, बुद्धि और अहंकार की खोज नहीं कर सके हैं। उनकी दृष्टि से मनुष्य एक मनोशारीरिक प्राणी है जो जन्म से कुछ शक्तियाँ लेकर पैदा होता है और इन शक्तियों पर ही उसका विकास निर्भर करता है। अतः शिक्षा के द्वारा सर्वप्रथम इन शक्तियों का विकास होना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि इन जन्मजात शक्तियों का विकास किस दिशा में और कितना किया जाये। इस विषय के जर्मन शिक्षाशास्त्री पैस्टालॉजी का मत है कि यह विकास स्वाभाविक, सम और प्रगतिशील होना चाहिए। उन्होंने शिक्षा को इसी दृष्टि से परिभाषित किया है। उनके शब्दों में -
"शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का स्वाभाविक समरस और प्रगतिशील विकास है। पैस्टालॉजी के शिष्य फ्रोबेल ने शिक्षा को निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है - 'शिक्षा वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक अपनी आन्तरिक शक्तियों को बाहर की ओर प्रकट करता है।'
शिक्षा का सही सम्प्रत्यय
शिक्षा के विषय में दार्शनिकों, समाजशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों और वैज्ञानिकों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण हैं। यदि हम ध्यानपूर्वक देखें तो वे क्षेत्र विशेष तक सीमित हैं। आज हम शिक्षा की व्याख्या करते समय इन सभी के दृष्टिकोणों से तथ्यों का चयन करते हैं। शिक्षा जगत में इसे संकलक प्रवृत्ति (Electric Tendency) कहते हैं। इनके द्वारा उद्घाटित तथ्य संक्षेप में प्रस्तुत हैं। ये तथ्य ही शिक्षा की प्रकृति (Nature of Education) को स्पष्ट करते हैं।
दार्शनिकों ने शिक्षा के विषय में इस तथ्य को उजागर किया कि यह सोद्देश्य प्रक्रिया हैं, इसके द्वारा मनुष्य के ज्ञान एवं कला-कौशल में वृद्धि और व्यवहार में परिमार्जन किया जाता है।
समाजशास्त्रियों ने शिक्षा के विषय में पाँच तथ्यों को उजागर किया और वे ये हैं कि यह सामाजिक प्रक्रिया है, अविरत प्रक्रिया है, द्विध्रुवीय प्रक्रिया है, विकास की प्रक्रिया है और गतिशील प्रक्रिया है।
राजनीतिशास्त्रियों ने यह तथ्य स्पष्ट किया कि किसी भी राष्ट्र का विकास उसकी शिक्षा पर निर्भर करता है, शिक्षा के द्वारा श्रेष्ठ नागरिकों का निर्माण किया जाता है।
अर्थशास्त्रियों ने यह तथ्य उजागर किया कि शिक्षा एक आर्थिक निवेश है, इसके द्वारा व्यक्ति और समाज का आर्थिक विकास किया जाता है।
मनोवैज्ञानिकों ने यह तथ्य स्पष्ट किया कि शिक्षा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों पर निर्भर करती है और वैज्ञानिकों ने यह तथ्य उजागर किया कि शिक्षा मनुष्य की अन्त शक्तियों और बाह्य जीवन में सामंजस्य स्थापित करती है।
अब यदि हम शिक्षा को परिभाषा में बाँधना चाहें तो ये सभी तथ्य सामने रखने होंगे। अब तक हमने शिक्षा की जो भी परिभाषाएँ देखी हैं उनमें प्रायः दो दोष हैं - एक तो यह कि इनसे शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति का स्पष्ट बोध नहीं होता और दूसरा यह कि ये शिक्षा के किसी उद्देश्य विशेष पर ही बल देती है। यही कारण है कि वे सर्वमान्य परिभाषाएँ नहीं हो सकीं। शिक्षा की उपयुक्ततम परिभाषा तो वह होगी जिससे शिक्षा प्रक्रिया की प्रकृति एवं कार्य, दोनों का स्पष्ट बोध हो। इस दृष्टि से शिक्षा को निम्नलिखित में परिभाषित करना चाहिए -
"शिक्षा किसी समाज में सदैव चलने वाली वह सोद्देश्य सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा मनुष्य की जन्मजात शक्तियों का विकास, उसके ज्ञान एवं कला-कौशल में वृद्धि तथा व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है और इस प्रकार उसे सभ्य, सुसंस्कृत एवं योग्य नागरिक बनाया जाता है। इसके द्वारा व्यष्टि एवं समाज दोनों निरन्तर विकास करते हैं।'
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