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व्रण  : पुं० [सं०√ब्रण (अंग चूर्ण करना)+अच्] १. किसी प्रकार के प्राकृतिक विकार से होनेवाला घाव। २. क्षत। घाव। ३. छिद्र। छेद। ४. दोष।
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व्रण-ग्रंथि  : स्त्री० [सं० ष० त०] वह गाँठ जो फोड़ें के ऊपर पड़ती है।
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व्रण-रोपिणी  : स्त्री० [सं०] एक प्रकार की छोटी पीली लंबी हर्रे। रोहिणी।
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व्रण-शोथ  : पुं० [सं० ष० त०] फोड़े, घाव आदि में होनेवाली सूजन।
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व्रणन  : पुं० [सं०√व्रण्+ल्युट-अन] [भू० कृ० व्रणित] छेद करना। छेदना।
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व्रणारि  : पुं० [सं० ष० त०] १. बोल नामक गंधद्रव्य। २. अगस्त वृक्ष।
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व्रणित  : भू० कृ० [सं० व्रण+इतच्] १. जिसे घाव लगा हो। आहत। २. जिसे व्रण हुआ हो। ३. जो छेदा या बेधा गया हो।
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व्रणिल  : वि० [सं० व्रण+इलच्] व्रणी।
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व्रणी (णिन्)  : पुं० [सं० व्रण+इनि] १. जिसे व्रण हुआ हो। २. जिसके हृदय पर गहरी चोट लगी हो।
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व्रणीय  : वि० [सं० व्रण+छ-ईय] १. व्रण-संबंधी। २. व्रण के फलस्वरूप होनेवाला।
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व्रण्य  : वि० [सं०√व्रण् (अंगचूर्ण करना)+क्यप्] जो व्रण अच्छा करने के लिए गुणकारी हो।
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