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वक  : पुं० [सं०√वंक् (टेढ़ा होना)+अच्, पृषो० नलोप] १. बगला नाम का पक्षी। २. अगस्त का पेड़ या फूल। ३. एक प्रकार का यज्ञ। ४. कुबेर। ५. एक प्राचीन जाति। ६. एक राक्षस जिसे भीम ने मारा था। ७. एक असुर या दैत्य जिसे श्रीकृष्ण जी ने मारा था।
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वक-पंचक  : पुं० [सं०ष०त०] कार्तिक शुक्ल एकादशी से कार्तिक पूर्णिमा तक की पाँचों तिथियाँ।
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वक-यंत्र  : पुं० [सं० मध्य० स०] अरक, आसव आदि खींचने का एक तरह का भबका।
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वक-वृत्ति  : स्त्री० [सं० ष० त०] धोखा देकर काम निकालने की घात में उसी प्रकार लगे रहने की वृत्ति जिस प्रकार बगुला शान्त भाव से खड़ा रहकर मछली पकड़ने की घात में रहता है।
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वक-व्रत  : पुं० [सं० ष० त०] [वि० वकव्रती] १. बगले की तरह चुपचाप और सीधे बनकर किसी का अनिष्ट करने की ताक में रहना। २. [ब० स०] उक्त प्रकार से घात में लगा रहनेवाला व्यक्ति।
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वकच्छ  : पुं० [सं० मध्य० स०] एक प्राचीन जनपद जो नर्मदा नदी के किनारे था।
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वकजित्  : पुं० [सं० वक्र√जि (जीतना)+क्विप्, तुक्] १. श्रीकृष्ण। २. भीमसेन।
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वकर  : पुं०=वकर (नदी का घुमाव या मोड़)।
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वका  : स्त्री० [सं० वृंक+टाप्] पाढ़ा (लता)।
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वक़ार  : पुं० [अ०] १. प्रतिष्ठा। मान-मर्यादा। २. बड़प्पन। महत्व।
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वकालत  : स्त्री० [हिं० वकील] १. वकील होने की अवस्था या भाव। २. वकील का काम या पेशा। ३. अन्य व्यक्ति द्वारा किसी के पक्ष का किया जानेवाला मंडन (व्यंग्य)।
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वकिंग-कमिटी  : स्त्री० [अं०] किसी संस्था, सभा आदि की वह समिति जो उसकी व्यवस्था करती है।
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वकील  : पुं० [अ० वाकिल] १. वह व्यक्ति जो किसी की ओर से उसका कोई काम करने का भार अपने ऊपर ले। प्रतिनिधि। २. किसी का संदेश कहीं पहुँचानेवाला व्यक्ति। संदेश-वाहक। दूत। ३. राजदूत। एलची। ४. वह जो किसी की ओर से उसके पक्ष का युक्तिपूर्वक मंडन या समर्थन करता हो। ५. आज-कल विधिक क्षेत्र में, एक विशिष्ट परीक्षा पारित और विधिक दृष्टि से अधिकार-प्राप्त वह व्यक्ति जो न्यायालय में किसी पक्ष की ओर से खंडन, मंडन आदि का काम करने के लिए नियुक्त होता है।
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वकुल  : पुं० [सं०√वंक् (टेढ़ा)+कुलच्] १. अगस्त का पेड़ या फूल।
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वकुला  : स्त्री० [सं० वकुल+टाप्] कुटकी नामक ओषधि।
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वकुली  : स्त्री० [सं० वकुल+ङीष्] १. काकोली नाम की ओषधि २. मौलसिरी का फूल।
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वकुश  : पुं० [सं०] जैनियों में वह महापुरुष जिसे भक्तों की चिंता रहती है।
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वकूअ  : पुं० [अ० वकूआ] प्रकटीकरण। क्रि० प्र०–में आना।–होना।
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वकूफ  : पुं० [अ० वकूला] १. जानकारी। ज्ञान। २. बुद्धि। समझ। ३. काम करने का अच्छा ढंग। शऊर। सलीका। मुहावरा–वकूफ पकड़ना=अक्ल सीखना।
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वकूफदार  : वि० [अ०+फा०] [भाव० वकूफदारी] १. समझदार २. अनभवी।
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वक्त  : पुं० [अ० वक्त] १. समय। काल। क्रि० प्र०–काटना।–गँवाना।–बिताना। मुहावरा– किसी पर वक्त पड़ना=कष्ट या विपत्ति के दिन आना। २. किसी काम या बात के लिए उपयुक्त समय। अवसर। मौका। जैसे–आप भी ठीक वक्त पर आये। ३. वह निश्चित समय जो किसी विशिष्ट काम के लिए नियत हो। जैसे–उन्हें मैंने यही वक्त दिया था, शायद चले गये हों। ४. पंचांग, घड़ी आदि के अनुसार विवक्षित पल घड़ी, दिन आदि। जैसे–खाने का वक्त, सोने का वक्त, स्कूल का वक्त आदि। ५. उतना समय जितना किसी कार्य के सम्पादन में लगा हो। जैसे–इस काज में २ घंटे का वक्त लगेगा। ६. अवकाश। फुरसत। जैसे– अगर वक्त मिले तो आप भी आ जायँ। ७. मृत्यु का समय। जैसे–जब जिसका वक्त आ जायगा तब उसे जाना ही पडे़गा।
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वक्तव्य  : वि० [सं०√वच् (बोलना)+तव्य] [भाव० वक्तव्यता] १. जो कहा जाने को हो। २. जो कहे जाने के योग्य हो। ३. जिसके संबंध में कुछ कहा जा सकता हो। पुं० १. वक्ता का कथन। २. वह कथित या प्रकाशित विवरण जिसमें किसी ने लोगों की जानकारी के लिए वस्तु-स्थिति स्पष्ट की हो अथवा अपना विचार या मंशा प्रकट की हो। (स्टेटमेंट)।
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वक्तव्यता  : स्त्री० [सं० वक्तव्य+तल्-टाप्] किसी बात के संबंध में वक्तव्य या उत्तर देने का भार।
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वक्ता (क्तृ)  : वि० [सं०√वच्+क्त] १. कहने या बोलनेवाला। २. जो अच्छी तरह कोई बात कह या बोलकर बतला सकता हो। अच्छा बोलनेवाला। पुं० वह जो जन-समाज के सामने कोई बात अच्छी तरह और समझाकर कहता हो। जैसे– कथा कहनेवाला, भाषण या व्याख्यान देनेवाला।
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वक्तृक  : पुं० [सं० वक्व+कन्]=वक्ता।
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वक्तृता  : स्त्री० [सं० वक्तृ+तल्-टाप्] १. वक्ता होने की अवस्था गुण या भाव। २. भाषण। व्याख्यान।
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वक्तृत्व  : पुं० [सं० वक्तृ+त्व] १. वक्तृता। वाग्मिता। २. अच्छे वक्ता होने की अवस्था, गुण या भाव। वाग्मिता। ३. वक्तृता। ४. कथन। वक्तव्य।
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वक्तृत्व-कला  : स्त्री० [सं० ष० त०] १. वक्तृता अर्थात् प्रभावशाली ढंग से भाषण देने की कला या विद्या। (इलोक्यूशन)।
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वक्तृत्व-शास्त्र  : पुं० [सं० ष० त०] वह शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि दूसरों पर प्रभाव डालने के लिए किस प्रकार की बातें कहनी या वक्तृता होनी चाहिए। (रिहटोरिक)।
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वक्त्र  : पुं० [सं०√वच् (बोलना)+त्र] १. मुँह। मुख। २. जानवरों का थूथन। ३. पक्षियों की चोंच। चंचु। ४. तीर, भाले आदि की नोक। ५. अगला भाग। ६. कार्य का आरम्भ। ७. एक तरह का पुराना पहनावा। ८. एक प्रकार का छंद।
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वक्त्र-ताल  : पुं० [सं० ष० त०] संगीत में वह ताल जो मुँह से कुछ कह या बजाकर दिया जाय। (किसी पर आघात करके दिये जानेवाले ताल से भिन्न।
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वक्त्र-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] गणेश।
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वक्त्र-भेदी (दिन्)  : वि० [सं० वक्त्र√भिद् (=भेदन करना)+णिनि, दीर्घ, नलोप] बहुत कड़ुआ चटपटा या तीक्ष्ण (खाद्य पदार्थ)।
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वक्त्र-शोधी (धिन्)  : वि० [सं० वक्त्र√शुध् (शुद्ध करना)+णिच्+णिनि] मुँह साफ करनेवाला। (पदार्थ)। पुं० जँबीरी नीबू।
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वक्त्रज  : पुं० [सं० वक्त्र√जन् (उत्पत्ति)+ड] ब्राह्मण।
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वक्फ  : पुं० [अ० वक्फ] १. किसी देवता की पूजा आदि धार्मिक कार्यों अथवा लोकोपकारी संस्था को कोई चीज (धन या संपत्ति) अर्पित करने का कार्य। २. उक्त रूप में अर्पित किया हुआ धन या संपत्ति। ३. दान।
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वक्फनामा  : पुं० [अ० वक्फ+फा० नामः] १. वह पत्र जिसके अनुसार किसी के नाम कोई चीज वक्फ की जाय। दानपत्र। २. वह लेख जो वक्फ की हुई संपत्ति या धन का प्रमाण हो।
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वक्फा  : पुं० [अ० वक्फा] १. दो घटनाओं के बीच में पड़नेवाला थोड़ा समय। अवकाश। २. काम से मिलनेवाली छु्टटी या फुरसत। क्रि० प्र०–देना।–पाना।–मिलना।
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वक्र  : वि० [सं०√वंक् (टेढ़ा होना)+रन्,पृषो० नलोप] [भाव० वक्रता] १. जो आड़े या बेड़े बल में हो। टेढ़ा या तिरछा। ‘ऋजु’ का विपर्याय। २. झुका हुआ। नत। ३. कुटिल और धूर्त। ४. त्रिपुर नामक असुर। ५. दे० ‘वक्र-गति’। पुं० १. नदी का मोड़। बंकर। २. मंगल ग्रह। ३. शनैश्चर ग्रह। ४. रुद्र।
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वक्र-गति  : वि० [सं० ब० स] १. टेढ़ी-मेढ़ी चालवाला। २. कुटिल। ३. उलटी गतिवाला (ग्रह)। पुं० १. ग्रह लाघव के अनुसार वे ग्रह जो सूर्य से पाँचवें, छठें, सातवें और आठवें हों। इस प्रकार मंगल ३६ दिन,बुध २१ दिन बृहस्पति १॰॰. दिन,शुक्र १२ दिन और शनि १८४ दिन वक्री होता है। २. मंगल ग्रह।
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वक्र-ग्रीव  : पुं० [सं० ब० स०] ऊँट।
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वक्र-चंचु  : पुं० [सं० ब० स०] तोता।
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वक्र-ताल  : पुं० [सं० ब० स०] वक्रनाल (बाजा)।
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वक्र-तुंड  : पुं० [सं० ब० स०] १. गणेश। २. तोता।
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वक्र-दंष्ट्र  : पुं० [सं० ब० स०] सूअर।
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वक्र-दृष्टि  : स्त्री० [सं० ब० स०] १. टेढ़ी दृष्टि। २. क्रोध आदि से युक्त दृष्टि। ३. मन्द दृष्टि। वि० १. (व्यक्ति) जिसकी दृष्टि पड़ने से कुछ अमंगल होता या हो सकता हो० २. क्रोधपूर्ण दृष्टि।
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वक्र-धर  : पुं० [सं० ष० त०] द्वितीया का वक्र चन्द्रमा धारण करनेवाले शिव।
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वक्र-नक्र  : पुं० [सं० उपमति, स०] १. चुगलखोर। २. तोता।
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वक्र-नाल  : पुं० [सं० ब० स०] एक प्रकार का पुराना बाजा जो मुँह से फूँककर बजाया जाता था।
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वक्र-नासिक  : वि० [सं० ब० स०] टेढ़ी नाकवाला। पुं०=उल्लू।
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वक्र-पुच्छ  : पुं० [सं० ब० स०] कुत्ता।
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वक्र-पुष्प  : पुं० [सं० ब० स०] १. अगस्त का पेड़। २. पलास।
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वक्रअत  : स्त्री० [अ०] १. शक्ति। बल। ताकत। २. महत्व। ३. मान-मर्यादा।
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वक्रगल  : पुं० [सं० ब० स०] फूँककर बजाया जानेवाला पुरानी चाल का एक बाजा।
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वक्रगामी (मिन्)  : वि० [सं० वक्र√गम् (जाना)+णिनि] १. जिसकी गति वक्र हो। टेढ़ी चालवाला। २. कुटिल और धूर्त।
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वक्रता  : स्त्री० [सं० वक्र+तल्-टाप्] १. वक्र होने की अवस्था, गुण या भाव। टेढ़ापन। २. साहित्य में किसी रचना, वस्तु या विषय के निर्वचन और उसकी वर्णन-शैली में रहनेवाला वह अनोखा बाँकापन या उच्च कोटि का सौन्दर्य जो परम उत्कृष्ट प्रतिभा का परिचायक होता है। जैसे– वस्तु-वक्रता, वाक्य-वक्रता।
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वक्रांग  : वि० [सं० वक्र-अंग, ब० स०] जिसका कोई अंग टेढ़ा हो। पुं० १. हंस नाम का पक्षी। २. सर्प। साँप।
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वक्रित  : भू० कृ० [सं० वक्र+इतच्] टेढ़ा किया हुआ।
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वक्रिम  : वि० [सं० वंच (गमनादि)+क्रिमच्] १. टेढ़ा। २. कुटिल।
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वक्रिमा (मन्)  : स्त्री० [सं० वक्र+इमनिच्]=वक्रता।
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वक्री (त्रिन्)  : वि० [सं० वक्र+इनि, दीर्घ, नलोप] जो अपना सीधा मार्ग छोड़कर इधर-उधर हट गया हो या पीछे की ओर मुड़ने लगा हो। जैसे–अब मंगल ग्रह वक्री होगा।
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वक्रोक्ति  : स्त्री० [सं० वक्र-उक्ति, कर्म० स०] १. किसी प्रकार की वक्रता से युक्त कोई चमत्कारपूर्ण उक्ति। २. काकु अलंकार से युक्त उक्ति। ३. साहित्य में एक प्रकार का अर्थालंकार जिसमें एक अभिप्राय से कही हुई बात का काकु या श्लेष के आधार पर कुछ और ही अभिप्राय निकलता या निकाला जाता है। यह अर्थ परिवर्तन शब्दों के आधार पर ही होता है, इसलिए कुछ आचार्य इसे शब्दालंकार मानते हैं।
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वक्रोक्ति-गर्विता  : स्त्री० [सं०]=गर्विता (नायिका)।
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वक्रोष्ठिका  : स्त्री० [सं० वक्र-ओष्ठ, ब० स०+कन्+टाप्,इत्व] मंद हँसी। मुसकान।
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वक्ष (स्)  : पुं० [सं०√वक्ष् (बलिष्ठ होना)+असुन्] १. पेट और गले के बीच में पड़नेवाला वह भाग जिसमें स्त्रियों के स्तन और पुरुषों के स्तन के से चिन्ह होते हैं। उरस्थल। २. बैल।
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वक्ष-स्थल  : पुं० [सं० ष० त०] छाती।
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वक्षश्छद  : पुं० [सं० वक्षस्√छद् (ढकना)+घ] कवच।
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वक्षु  : पुं०=वंक्षु (नद)।
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वक्षोज  : पुं० [सं० वक्षस्√जन् (उत्पन्न करना)+ड] स्त्री का स्तन।
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वक्षोरुह  : पुं० [सं० वक्षस्√रूह् (उगना)] स्त्री का स्तन।
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वक्ष्यमाण  : वि० [सं०√वच् (कहना)+लृट्-शानच्, मुक्, आगम] १. जो कहा जा सके। वाच्य। वक्तव्य। २. जो कहा जा रहा हो।
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