शब्द का अर्थ
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बलि :
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पुं० [सं०√बल (देना)+इन्] १. प्राचीन भारत में (क) भूमि की उपज का वह छठा अंश जो भूस्वामी प्रतिवर्ष राजा को देता था। राजकर। (ख) वह कर जो राजा अपने धार्मिक कृत्यों के लिए प्रजा से लेता था। २. वह अंश या पदार्थ जो किसी देवता के लिए अलग किया गया हो या निकालकर रखा गया हो। ३. देवताओं के आगे रखा जानेवाला भोजन। नैवेद्य। भोग। ४. देवताओं पर चढ़ाई जानेवाली चीजें। चढ़ावा। ५. देवताओं के पूजन की सामग्री। ६. वह पशु जो किसी देवता या अलौकिक शक्ति को प्रसन्न तथा संतुष्ट करने के लिए उसके सामने या उसके उद्देश्य से मारा जाता हो। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—देना। २. वह स्थिति जिसमें कोई व्यक्ति अपने प्राण या शरीर तक किसी काम, बात या व्यक्ति के लिए पूर्ण रूप से अर्पित कर देता है। मुहा०—(किसी पर) बलि जाना=किसीके महत्त्व, मान आदि का ध्यान करते हुए अपने आपको उस पर निछावर करना। बलिहारी होना। उदा०—तात जाऊँ बलि वेगि नहाहू।—तुलसी। ८. पंच महायज्ञों में से भूत यज्ञ नामक चौथा महायज्ञ। ९. उपहार। भेंट। १॰. खाने-पीने की चीज। खाद्य सामग्री। ११. चैवर का डंडा। १२. आठवें मन्वन्तर में होनेवाले इन्द्र का नाम। १३. प्रह्लाद का पौत्र और विरोचन का पुत्र जो दैत्यों का राजा था, जिसे विष्णु ने वामन अवतार धारण करके छलपूर्वक बाँध लिया था और ले जाकर पाताल में रख दिया था। स्त्री० १. शरीर के चमड़े पर पड़नेवाली झुर्री। २. बल। शिकन। ३. एक प्रकार का फोड़ा जो गुदार्वत के पास अर्श आदि रोगों में उत्पन्न होता है। ४ बवासीर का मसा। स्त्री० [सं० बला=छोटी बहन] सखी। उदा०—ए बलि ऐसे बलम को विविध भाँति बलि जाऊँ।—पद्माकर। |
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बलि-कर :
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वि० [सं० बलि√कृ (करना)+अच्] १. बलि चढ़ानेवाला। २. कर या राजस्व देनेवाला। ३. शरीर में झुर्रियाँ उत्पन्न करनेवाला। |
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बलि-कर्म (न्) :
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पुं० [सं० ष० त०] बलि देने या चढ़ाने का काम। |
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बलि-दान :
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पुं० [सं० ष० त०] [वि० बलिदानी] १. देवताओं आदि को प्रसन्न करने के लिए उनके उद्देश्य से किसी पशु का किया जानेवाला वध। २. किसी उद्देश्य या बात की सिद्धि के लिए अपने प्राण तक दे देना। जैसे—देश-सेवा के लिए अपने आपको बलिदान करना। पद—बलिदान का बकरा-ऐसा व्यक्ति जिस पर किसी काम या बात का व्यर्थ ही सारा अपराध या दोष लाद दिया जाय, और तब उसे पूरा-पूरा दंड दिया जाय। (प्रायः अपने आपको उस अपराध या दोष का भागी बनाने के लिए)। |
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बलि-नंदन :
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पुं० [सं० ष० त०] बाणासुर। |
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बलि-पशु :
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पुं० [सं० मध्य० स०] वह पशु जो यज्ञ आदि में अथवा किसी देवता को संतुष्ट तथा प्रसन्न करने के लिए उसके नाम पर मारा जाता हो। |
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बलि-पुष्ट :
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पुं० [तृ० त०] कौआ। |
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बलि-प्रदान :
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पुं० [सं० ष० त०]=बलि-दान। |
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बलि-प्रिय :
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पुं० [सं० बलि√प्री+क०] १. लोध का पेड़। २. कौआ। |
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बलि-बंधन :
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पुं० [सं० बलि√बंध्(बाँधना)+णिच्+युच्—अन] विष्णु, जिन्होने राजा बलि को बाँधा था। |
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बलि-मंदिर :
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पुं० [ष० त०] राजा बलि के रहने का स्थान, पाताल लोक। |
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बलि-मुख :
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पुं० [ब० स०]=बलि-मंदिर। |
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बलि-वैश्यदेव :
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पुं० [कर्म० स०] पंच महायज्ञों मे से भूतयज्ञ नाम का चौथा महायज्ञ। |
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बलित :
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भू० कृ० [हिं० बलि] (पशु) जो बलि चढ़ाया गया हो। |
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बलिदम :
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पुं० [सं० बलि√दम् (दमन करना)+खुश, मुम्] विष्णु। |
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बलिदानी :
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वि० [सं० बलिदान] १. बलिदान-संबंधी। बलिदान का। जैसे—बलिदानी परम्परा, बलिदानी बकरा। २. बलिदान करने या चढ़ानेवाला। स्त्री०=बलिदान। |
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बलिद्विट् (ष्) :
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पुं० [सं० बलि√द्विष् (बैर करना)+क्विप्] विष्णु। |
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बलिध्वंसी(सिन्) :
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पुं० [सं० बलि√ध्वंस (नाश)+णिनि] विष्णु। |
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बलिभुज् :
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पुं० [सं० ] बलि-भुज् का वह रूप जो उसे सम्बोधन कारक में प्रयुक्त होने पर प्राप्त होता है। उदाहरण—किन्तु कौन पा सकता बलिभुज् अमिट कामना पर जाय।—पंत। |
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बलिभुज् (ज्) :
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पुं० [सं० बलि√भुज्+क्विप्] कौआ। |
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बलिभृत् :
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[सं० बलि√भृ (भरण करना)+क्विप्, तुक्] १. बलि अर्थात् राज-कर देनेवाला। २. अधीनस्थ। |
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बलिभोजी (जिन्) :
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पुं० [सं० बलि√भुज् (खाना)+णिनि] कौआ। |
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बलिश :
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पुं० [सं० बलि√शो (पैना करना)+क] मछली फँसाने की कटिया। बंसी। |
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बलिष्ठ :
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वि० [सं० बलिन्+इष्ठन्] जो सबसे अधिक बलवान हो। पुं० ऊंट। |
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बलिष्ठ :
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वि० [सं०√वल् (संवरण)+इष्णुच्] अपमानित। |
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बलिहरण :
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पुं० [ष० त०] सब प्रकार के जीवों को बलि देना। |
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बलिहारना :
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स० [हिं० बलि+हारना] को चीज किसी पर से न्यौछावर करना। जैसे—जान बलिहारना। |
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बलिहारी :
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स्त्री० [हिं० बलि+हारना] बलिहारने अर्थात् न्यौछावर करने की क्रिया या भाव। कुर्बान करना। मुहावरा—बलिहारी जाना=न्यौछावर होना। बलिहारी लेना=बलाएँ लेना। (दे० बला के अन्तर्गत)। पद—बलिहारी हैं=मैं इतना मोहित या प्रसन्न हूँ कि अपने को न्यौछावर करता हूँ। वाह वाह क्या बात है। |
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बलिहृत :
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वि० [सं० बलि√हृ (हरण करना)+क्विप्, तुक्] १. बलिया भेट लानेवाला। २. कर देनेवाला। पुं० राजा। |
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