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प्रदीप  : वि० [सं० प्र√ दीप् (चमकना)+अच्] प्रकाश करने या देनेवाला। पुं० १. दीपक। दीया। २. प्रकाश। रोशनी। ३. संपूर्ण जाति का एक राग जिसके गाने का समय तीसरा प्रहर है। किसी किसी ने इसे दीपक राग का पुत्र माना।
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प्रदीप-न्याय  : पुं० [ष० त०] सांख्य का यह मत या सिद्धान्त कि जिस प्रकार आग, तेल और बत्ती के संयोग से प्रतीप या दीया जलता है, उसी प्रकार सत्त्व, रज और तम के सहयोग के शरीर से सब काम होते हैं।
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प्रदीपक  : वि० [सं० प्र√दीप्+णिच्+ण्वुल्—अक] [स्त्री० प्रदीपिका] १. प्रदीपन करनेवाला। २. प्रकाश या रोशनी करनेवाला। पुं० वैद्यक के अनुसार नौ प्रकार के विषों में से एक प्रकार का भयंकर स्थावर विष। कहते हैं कि इसके सूँघने मात्र से मनुष्य मर जाता है।
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प्रदीपकी  : स्त्री० [सं० प्रदीपक+ङीष्] संगीत में एक प्रकार की रागिनी।
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प्रदीपति  : स्त्री० =प्रदीप्ति।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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प्रदीपन  : पुं० [सं० प्र√दीप्+णिच्+ल्युट्—अन] [भू० कृ० प्रदीप्त] १. प्रकाश करने का काम। उजाला करना। २. उज्ज्वल करना। चमकाना। ३. उत्तेजित करना। भड़काना। ४. तीव्र या तेज करना। ५. [प्र√दीप्+णिच्+ल्यु—अन] वह जिससे पेट की अग्नि तीव्र हो, भूख लगे तथा भोजन पचे। ६. प्रदीपक नाम का स्थावर विष।
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प्रदीपिका  : स्त्री० [सं० प्रदीपक+टाप्, इत्व] १. छोटी लालटेन। २. संगीत में एक रागिनी जो किसी किसी के मत में दीपक राग की स्त्री है। ३. आज-कल टीका, व्याख्या आदि के रूप में कोई ऐसी पुस्तक जिससे कोई दूसरी कठिन पुस्तक पढ़ने या समझने में सहायता मिलती हो।
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प्रदीप्त  : वि० [सं० प्र√दीप्+क्त] [भाव० प्रदीप्ति] १. जलता हुआ। २. चमकता या जममगाता हुआ। प्रकाशित। ३. उज्ज्वल। चमकीला।
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प्रदीप्ति  : स्त्री० [सं० प्र√दीप्+क्तिन्] १. रोशनी। प्रकाश। २. चमक।
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