शब्द का अर्थ
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प्रतिज्ञा :
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स्त्री० [सं० प्रति√ज्ञा (जानना)+अङ्+टाप्] १. किसी बात की जानकारी की दी जानेवाली स्वीकृति। २. कोई बात कह चुकने के बाद अथवा कोई काम कर चुकने के बाद इस बात का किया जानेवाला दृढ़ निश्चय कि भविष्य में पुनः ऐसा काम नहीं करेंगे। ३. कुछ करने या न करने के संबंध में किया जानेवाला दृढ़ निश्चय। मुह०—प्रतिज्ञा पारना=प्रतिज्ञा पूरी करना। उदा०— जन प्रहलाद प्रतिज्ञा पारी।—सूर। ४. किसी प्रकार का कथन या वक्तव्य। ५. किसी के विरुद्ध उपस्थित किया जानेवाला अभियोग। ६. शपथ। सौगंध। ७. न्याय में किसी पक्ष से कही जानेवाली वह बात या उपस्थित किया जानेवाला वह मत जिसे आगे चलकर उसे प्रमाण, युक्ति आदि की सहायता से ठीक सिद्ध करना पड़ता हो। (प्रॉपोज़ीशन) विशेष—यह अनुमान के पाँच अवयवों में से एक माना गया है। |
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प्रतिज्ञा-पत्र :
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पुं० [ष० त०] १. ऐसा पत्र जिस पर कोई की हुई प्रतिज्ञा लिखी हो। २. इकरारनामा। |
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प्रतिज्ञा-पालन :
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पुं० [ष० त०] की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार काम करना या चलना। |
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प्रतिज्ञा-भंग :
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पुं० [ष० त०] प्रतिज्ञा का भंग होना। प्रतिज्ञा के विरुद्ध कार्य कर बैठना, जिससे उस प्रतिज्ञा का महत्त्व समाप्त हो जाता है। |
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प्रतिज्ञात :
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वि० [सं० प्रति√ज्ञा+क्त] १. घोषित किया हुआ। कहा हुआ। २. जिसके संबंध में प्रतिज्ञा की गई हो। जो प्रतिज्ञा की विषय बन चुका हो। ३. जो किया जा सकता या हो सकता हो। संभव। साध्य। |
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प्रतिज्ञांतर :
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पुं० [सं० प्रतिज्ञा-अंतर, मयू० स०] तर्क में एक प्रकार का निग्रह-स्थान, जिसमें अपनी की हुई प्रतिज्ञा का खंडन होने पर वादी अपने मन से कोई और दृष्टान्त देता हुआ अपनी प्रतिज्ञा में किसी नये धर्म का आरोप करता है। जैसे—यदि कहा जाय, ‘शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घट के समान इंद्रियों का विषय है।’ तो उसके उत्तर में यह कहना कि प्रतिज्ञांतर होगा—शब्द नित्य है, क्योंकि वह जाति के समान इन्द्रियों का विषय है। |
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प्रतिज्ञान :
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पुं० [सं० प्रति√ज्ञा+ल्युट्—अन] १. प्रतिज्ञा। २. किसी बात के संबंध में शपथ या सौगन्ध न खाकर सत्य-निष्ठापूर्वक कोई बात कहना। |
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पुं० [सं०] विशेष रूप से जोर देकर कोई बात कहना। (एफरमेशन) |
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