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शब्द का अर्थ

नित  : अव्य०=निमित्त। उदा०–नित सेवा नित धावैं, कै परनाम।–नूर मोहम्मद। अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल स्थानिक रूप में प्रयुक्त हुआ है)
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नितंत  : वि० [सं० निद्रित] १. सोया हुआ। २. बसा हुआ। ३. उपस्थित। वर्तमान। उदा०–सबकर करम गोसाई जानइ जो घट घट महँ नितंत।–जायसी। अव्य०=नितांत।
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नितंब  : पुं० [सं० नि√तम्ब् (पीड़ित करना)+अच्] १. कूल्हे (टाँग और कमर का जोड़) के ऊपर का वह उभरा हुआ पिछला मांसल और प्रायः गोलाकार भाग जिसे टेककर जमीन आदि पर आदमी बैठते हैं। चूतड़। २. कंधा। ३. तट। तीर। ४. पर्वत का ढालुवाँ किनारा।
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नितंबिनी  : स्त्री० [सं० नितम्ब+इनि–ङीप्] सुन्दर नितंबोंवाली स्त्री। सुन्दरी।
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नितंबी (बिन्)  : वि० [सं० नितम्ब+इनि] [स्त्री० नितंबिनी] बड़े तथा भारी नितंबोवाला।
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नितराम्  : अव्य० [सं० नि+तरप्, अमु] १. सदा। हमेशा। निरंतर। २. अवश्य।
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नितल  : पुं० [सं० नि+तल, ब० स०] पुराणानुसार पृथ्वी के नीचे स्थित सात लोकों में पहला लोक।
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नितांत  : वि० [सं० नि√तम् (चाहना)+क्त, दीर्घ] १. बहुत अधिक। २. हद दर्जे का। असाधारण। ३. बिलकुल।
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निति  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्तह  : अव्य०=नित्य।(यह शब्द केवल पद्य में प्रयुक्त हुआ है)
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नित्य  : वि० [सं० नि+त्यप्] [भाव० नित्यता] जो निरंतर या सदा बना रहे। अविनाशी। शाश्वत। अव्य० १. प्रतिदिन। हर रोज। २. हर समय। सदा। हमेशा।
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नित्य-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] १. वह काम जो प्रतिदिन करना पड़ता हो। रोज का काम। २. वे धार्मिक कृत्य जो प्रतिदिन आवश्यक रूप से किया जाते हों। जैसे–तर्पण, पूजन, संध्या, वंदन आदि।
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नित्य-क्रिया  : स्त्री० दे० ‘नित्य-कर्म’।
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नित्य-गति  : वि० [ब० स०] जो सदा गतिशील रहता हो। पुं० वायु। हवा।
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नित्य-नर्त  : पुं० [ब० स०] महादेव। शंकर।
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नित्य-नियम  : पुं० [कर्म० स०] ऐसा निश्चित या नियत नियम जिसका पालन प्रतिदिन करना पड़ता हो या किया जाता हो।
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नित्य-नैमित्तिक-कर्म (न्)  : पुं० [कर्म० स०] नित्य अर्थात् नियमित रूप से तथा किसी विशिष्ट उद्देश्य की सिद्धि के निमित्त किये जानेवाले सब कर्म।
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नित्य-प्रति  : अव्य० [सं० अव्य० सं०] प्रतिदिन। हररोज।
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नित्य-प्रलय  : पुं० [कर्म० स०] वेदांत के अनुसार जीवों की नित्य होती रहनेवाली मृत्यु।
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नित्य-बुद्धि  : वि० [ब० स०] (व्यक्ति) जो यह समझता हो कि हर चीज नित्य या शाश्वत है।
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नित्य-भाव  : पुं० [ष० त०] दे० ‘नित्यता’।
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नित्य-मित्र  : पुं० [कर्म० स०] निःस्वार्थ-भाव से सदा मित्र बना रहनेवाला व्यक्ति। शाश्वत मित्र।
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नित्य-मुक्त  : पुं० [कर्म० स०] परमात्मा।
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नित्य-यज्ञ  : पुं० [मध्य० स०] प्रतिदिन का कर्तव्य यज्ञ। जैसे–अग्निहोत्र।
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नित्य-यौवना  : वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री) जिसका यौवन सदा बना रहे। चिरयौवना। स्त्री० द्रौपदी।
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नित्य-संबंध  : पुं० [कर्म० स०] १. दो वस्तुओं में परस्पर होनेवाला नित्य या स्थायी संबंध। २. व्याकरण में, दो शब्दों का वह पारस्परिक संबंध जिससे वाक्यांशों में दोनों शब्दों का आगे-पीछे आना अनिवार्य तथा आवश्यक होता है। जैसे–‘जब मैं कहूँ तब तुम वहाँ जाना। मैं ‘जब’ और ‘तब’ में नित्य-संबंध है।
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नित्य-संबंधी (धिन्)  : वि० [सं० नित्यसंबंध+इनि] (व्याकरण में ऐसे शब्द) जिनमें परस्पर नित्य-संबंध हो।
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नित्यता  : स्त्री० [सं० नित्य+तल्–टाप्] नित्य अर्थात् शाश्वत होने या सदा वर्तमान रहने की अवस्था या भाव।
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नित्यदा  : अव्य० [सं० नित्य+दाच्] सदा से।
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नित्यमत्व  : पुं० [सं० नित्य+त्व] दे० ‘नित्यता’।
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नित्यर्तु  : वि० [नित्य-ऋतु, ब० स०] १. जो सब मौसमों में और सदा बना रहे। २. निरंतर अपनी ऋतु में होनेवाला।
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नित्यशः (शस्)  : अव्य० [सं० नित्य+शस्] १. प्रतिदिन। रोज। नित्य। २. सदा। सर्वदा।
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नित्यसम  : पुं० [तृ० त०] तर्क या न्याय में, यह दूषित सिद्धांत कि सभी चीजें वैसी ही या वही बनी रहती हैं। (इसकी गणना २4 जातियों अर्थात् दूषित तर्कों में की गई है।)
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नित्या  : स्त्री० [सं० नित्य+टाप्] १. पार्वती। २. भनसादेवी। ३. एक शक्ति का नाम।
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नित्याचार  : पुं० [नित्य-आचार, कर्म० स०] ऐसा आचार या सदाचार जिसके निर्वाह या पालन में कभी त्रुटि न हुई हो।
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नित्यानंद  : पुं० [सं० नित्य-आनन्द, कर्म० स०] मन में निरन्तर या सदा बना रहनेवाला आनंद, जो सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।
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नित्यानध्याय  : पुं० [नित्य-अनध्याय, कर्म० स०] धर्मशास्त्र के अनुसार ऐसी स्थिति जिसके उपस्थित होने पर सदा अनध्याय रखना आवश्यक है। मनु के अनुसार–पानी बरसते समय, बादल के गरजने के समय अथवा ऐसे ही अन्य अवसरों पर सदा अनध्याय रखना चाहिए।
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नित्यानित्य  : वि० [नित्य-अनित्य, द्व० स०] नित्य और अनित्य। नश्वर और अनश्वर।
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नित्यानित्य वस्तु-विवेक  : पुं० [सं०] ऐसा विवेक जिसके फल-स्वरूप ब्रह्म, सत्य और जगत् मिथ्या भासित होता है।
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नित्याभियुक्त  : वि० [नित्य-अभियुक्त, कर्म० स०] (योगी) जो देह की रक्षा के निमित्त हल्का और थोड़ा भोजन करता हो।
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नित्योद्युत  : पुं० [सं०] एक बोधिसत्व।
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