शब्द का अर्थ
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व्यक्त :
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भू० कृ० [सं० वि√अञ्ज+क्त] १. जिसका व्यंजन हुआ हो। जो प्रकट किया या सामने लाया गया हो। २. साफ। स्पष्ट। |
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व्यक्त राशि :
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स्त्री० [सं० कर्म० स०] अंकगणित में ऐसी राशि या अंग जो व्यक्त किया या बतला दिया गया हो। ज्ञात राशि। |
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व्यक्त रूप :
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पुं० [सं०] विष्णु। |
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व्यक्त-दृष्टांत :
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वि० [सं०] प्रत्यक्षदर्शी। |
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व्यक्तता :
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स्त्री० [सं० व्यक्त+तल्+टाप्] व्यक्त होने की अवस्था या भाव। |
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व्यक्ताक्षेप :
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पुं० [सं०] साहित्य में आक्षेप अलंकार का एक भेद जिसमें पहले अपनी ही कही हुई कोई बात काटकर दोबारा उसे और जोरदार रूप में कहते हैं। जैसे—वह सीधा क्या है, बल्कि यों कहना चाहिए कि मूर्ख है। |
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व्यक्ति :
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स्त्री० [सं० वि√अञ्ञ् (व्याप्त होना)+क्तिन्] १. (समस्त पदों के अंत में) व्यक्त, जाहिर या स्पष्ट करने की क्रिया या भाव। जैसे—अभिव्यक्ति। २. भूत-मात्र। ३. पदार्थ। वस्तु। ४. प्रकाश। पुं० १. वह जिसका कोई अलग और स्वतंत्र रूप या सत्ता हो। समष्टि का कोई अंग। २. मनुष्य या किसी और जो किसी शरीरधारी का सारा शरीर जिसकी पृथक् सत्ता मानी जाती है और समूह या समाज का अंग माना जाता है। समष्टि का विपर्याय। व्यष्टि। ३. आदमी। मनुष्य। |
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व्यक्तिक :
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वि० [सं०] किसी एक ही व्यक्ति से संबंध रखनेवाला दूसरे सभी व्यक्तियों से पृथक् या भिन्न। (इण्डिवीजुअल) |
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व्यक्तिकरण :
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पुं० [सं० व्यक्त+च्वि√कृ (करना)+ल्युट-अन] व्यक्त करने की क्रिया या भाव। |
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व्यक्तित्व :
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पुं० [सं० व्यक्ति+त्वल्] १. व्यक्त होने की अवस्था या भाव। (इण्डिविजुएल्टी)। २. किसी व्यक्ति की निजी विशिष्ट क्षमताएँ गुण, प्रवृत्तियाँ आदि जो उसके उद्देश्यों, कार्यों, व्यवहारों आदि में प्रकट होती हैं और जिनसे उस व्यक्ति का सामाजिक स्वरूप स्थिर होता है। (पर्सनैलिटी)। विशेष—मनोविज्ञान के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व दो भागों में विभक्त रहता है—एक आन्तर, दूसरा बाह्म। आन्तर व्यक्तित्व मूलतः नैसर्गिक या प्राकृतिक होता है और आध्यात्मिक, दैविक तथा दैहिक शक्तियों का सम्मिलित रूप होता है। यह मनुष्य के अन्दर रहनेवाली समस्त प्रकट तथा प्रच्छन्न प्रवृत्तियों और शक्तियों का प्रतीक होता है। बाह्य व्यक्तित्व इसी का प्रत्याभास मात्र होता है, फिर भी लोक के लिए वही गोचर या दृश्य होता है। इससे यह सूचित होता है कि कोई व्यक्ति अपनी आन्तरिक प्रवृत्तियों और शक्तियों को कहाँ तक कार्यान्वित तथा विकसित करने में समर्थ है या हो सका है। |
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व्यक्तिवाद :
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पुं० [सं० व्यक्ति√वद+घञ्] [वि० व्यक्तिवादी] १. यह मत या सिद्धान्त कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने ढंग से चलना और रहना चाहिए, दूसरों के सुख, दुःख आदि का ध्यान नहीं रखना चाहिए। २. आर्थिक क्षेत्र में यह सिद्धान्त कि सब प्रकार के काम-धन्धों में सब लोगों को स्वतंत्र रहना चाहिए, शासन अथवा समाज का उन पर कोई नियन्त्रण नहीं रहना चाहिए, और उन्हें अपनी इच्छा से मिलकर अपना संगठन स्थापित करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। ३. आधुनिक राजनीति में, यह सिद्धान्त कि सृष्टि व्यक्तियों के कल्याण के लिए ही हुई है, व्यक्तियों की सृष्टि राज्य या शासन का अस्तित्व बनाए रखने के लिए नहीं हुई है (इंडिविजुएअलिज्म)। |
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व्यक्तिवादी :
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वि० [सं०] व्यक्तिवाद संबंधी। पुं० वह जो व्यक्तिवाद के सिद्धान्तों का अनुयायी और समर्थक हो। (इंडिविजुअलिज़्म)। |
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व्यक्तीकृत :
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भू० कृ० [सं० व्यक्त+च्वि√कृ (करना)+क्त] व्यक्त किया हुआ। |
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व्यक्तीभूत :
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वि० [सं० व्यक्त+च्वि√भू (होना)क्त]=व्यक्तीकृत। |
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