शब्द का अर्थ
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वास्तु :
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पुं० [सं०] १. बसने या रहने के लिए अच्छा और उपयुक्त स्थान। २. वह स्थान जिस पर रहने के लिए मकान बनाया जाय। ३. बनाकर तैयार किया हुआ घर या मकान। ४. ईंट, चूने, पत्थर, लकड़ी आदि से बनाकर तैयार की जानेवाली कोई रचना। इमारत। जैसे—कूआँ, तालाब, पुल आदि। |
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वास्तु-कर्म (न्) :
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पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम। |
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वास्तु-कला :
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स्त्री० [सं०] वास्तु या मकान, महल आदि बनाने की कला जिसके अन्तर्गत चित्रण और तक्षण दोनों आते हैं और जो बिलकुल आरभिक तथा सब कलाओं की जननी मानी गई है। (आर्किटेक्चर)। |
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वास्तु-काष्ठ :
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पुं० [सं०] इमारत के काम में आनेवाली लकड़ी, अर्थात् किवाड़,चौखट,धरनें आदि बनाने के योग्य लकड़ी। |
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वास्तु-पुरुष :
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पुं० [सं०] वास्तु अर्थात् इमारत का या बसने योग्य स्थान का अधिष्ठाता देवता। |
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वास्तु-पूजा :
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स्त्री०=वास्तु-शांति। |
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वास्तु-बंधन :
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पुं० [ष० त०] इमारत बनाने का काम। |
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वास्तु-यान :
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पुं० [सं०] वह याग जो नये घर में प्रवेश करने से पहले किया जाता है। |
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वास्तु-विद्या :
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स्त्री०=वास्तु-कला। |
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वास्तु-वृक्ष :
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पुं० [सं०] वह वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम आती हो। |
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वास्तु-शांति :
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स्त्री० [सं०] कर्मकांड संबंधी वे कृत्य जो गृह-प्रवेश से पहले वास्तु या मकान के दोष शांत करने के लिए किए जाते हैं और जिसमें वास्तु-पुरुष का पूजन प्रधान होता है। |
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वास्तु-शास्त्र :
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पुं० [सं०]=वास्तु-कला। |
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वास्तुक :
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पुं० [सं० वास्तु+कन्] १. बथुआ नाम का साग। २. पुनर्नवा। गदहपूरना। |
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वास्तुप वास्तुपति :
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पुं०=वास्तु-पुरुष। |
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