शब्द का अर्थ
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					निंदा					 :
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					स्त्री० [सं०√निंद+अ–टाप्] [भू० कृ० निंदित, बि० निंदनीय] १. किसी के दोषों, बुराइयों आदि का दूसरों के समक्ष किया जानेवाला वह बखान जो उसे दूसरों की नजरों में गिराने या हेय सिद्ध करने के लिए किया जाय। २. व्यक्ति अथवा उसके किसी कार्य की इस उद्देश्य से की जानेवाली कटु आलोचना कि लोभ उसे बुरा समझने लगें। ३. अपकीर्ति। बदनामी।				 | 
			
			
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					निंदा-प्रस्ताव					 :
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					पुं० [सं० ष० त०] किसी सभा में उपस्थित किया जानेवाला वह प्रस्ताव जिसमें किसी अधिकारी, कार्यकर्ता या सदस्य के किसी काम के संबंध में अपना असंतोष प्रकट करते हुए उसकी निंदा का उल्लेख किया जाता है। (सेन्सर मोशन)				 | 
			
			
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					निंदा-स्तुति					 :
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					स्त्री०=ब्याज स्तुति।				 | 
			
			
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					निँदाई					 :
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					स्त्री०=निराई (खेतों की)।				 | 
			
			
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					निँदाना					 :
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					स०=निराना।				 | 
			
			
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					निंदारा					 :
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					वि०=निंदासा।				 | 
			
			
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					निंदासा					 :
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					वि० [हिं० नींद] १. (जीव) जिसे नींद आ रही हो। २. (आँखें) जिनमें नींद भरी हुई हो।				 | 
			
			
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