शब्द का अर्थ
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दोष :
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पुं० [सं०√दुष् (विकृति)+णिच्+घञ्] १. किसी चीज या बात में होने वाली कोई ऐसी खराबी या बुराई जिसके कारण उसकी उपदेयता, महत्ता आदि में कमी या बाधा होती हो। ऐब। खराबी बुराई। (फॉल्ट) विशेष—इसके अनेक प्रकार और रूप होते हैं। यथा— (क) पदार्थ या रचना में किसी अंग या अंश का अभाव या न्यूनता। जैसे—आँख या कान का दोष, जिससे ठीक तरह से दिखाई या सुनाई नहीं देता। (ख) पदार्थ या रचना में होनेवाला कोई प्राकृतिक या स्वाभाविक दुर्गुण या विकार। जैसे—नीलम या हीरे का दोष; औषध या खाद्य पदार्थ का दोष। (ग) कर्त्ता के रचना-कौशल की कमी के कारण होनेवाली कोई खराबी या त्रुटि। जैसे—वाक्य में होनेवाला व्याकरण-संबंधी दोष। (घ) रूप-रंग, शोभा, सौन्दर्य आदि में बाधक होनेवाला तत्त्व। जैसे—चन्द्रमा का दोष। सारांश यह कि किसी पदार्थ या वस्तु का अपने सम्यक् रूप में न होना अथवा आवश्यक गुणों से रहित होना ही उसका दोष माना जाता है। कुछ अवस्थाओं में परम्परा, परिपाटी, रीति-नीति आदि के आधार पर भी कुछ क्षेत्रों में पारिभाषिक वर्ग की भी कुछ बातें स्थिर हो जाती हैं जिनकी गणना दोषों में होती है। २. किसी चीज या बात में होनेवाला कोई ऐसा अभाव जिससे उसका ठीक या पूरा उपयोग न हो सकता हो। अपूर्णता। कमी। त्रुटि। (डिफेक्ट) ३. न्याय शास्त्र में, मिथ्या ज्ञान के कारण उत्पन्न होनेवाले मनोविकार जो मनुष्य को अच्छे और बुरे कामों में प्रवृत्त करते हैं। जैसे—राग, द्वेष आदि हमारे मनोगत दोष हैं। ४. नव्य न्याय में, तर्क के अवयवों के प्रयोग में होने वाली त्रुटि या भूल। ५. मीमांसा में, वह अदृष्ट फल जो विधियों का ठीक तरह से पालन न करने अथवा उनके विपरीत आचरण करने से प्राप्त होता है। ६. वैद्यक में, शरीर के अन्तर्गत रहनेवाले कफ, पित्त और वात नामक तत्त्वों अथवा अन्यान्य रसों का प्रकोप या विकार जिससे अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। ७. साहित्य में, वे बातें जिनमें काव्य या रचना के निश्चित गुणों या स्वरूपों में कुछ कमी रहती या बाधा होती हो। जैसे—अर्थ-दोष, काव्य-दोष, रस-दोष। ८. आचार, चरित्र या व्यवहार में, कोई ऐसा काम, तत्त्व या बात जो धार्मिक, सामाजिक आदि दृष्टियों से अनुचित या निंदनीय मानी जाती हो। (गिल्ट) मुहा०—(किसी को) दोष देना= यह कहना है कि इसके कारण अमुक खराबी या बुराई हुई है। (किसी में) दोष निकालना= यह कहना कि इसमें अमुक दोष या बुराई है। ९. किसी पर लगाया जानेवाला अभियोग, कलंक या लांछन जो नैतिक, विधिक आदि दृष्टियों से अपराध माना जाता या दंडनीय समझा जाता हो। अपराध। कसूर। जुर्म। (गिल्ट) क्रि० प्र०—लगाना। १॰. पातक। पाप। ११. सन्ध्या का समय। प्रदोष। १२. भागवत के अनुसार आठ वसुओं में से एक। पुं०=द्वेष। उदा०—सो जन जगत-जहाज है जाके राग न दोष।—तुलसी। |
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दोष-पत्र :
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पुं० [ष० त०] वह पत्र जिसमें अपराधी के अपराधों, दोषों आदि का विवरण लिखा होता है। |
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दोष-प्रमाणित :
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वि० [ब० स०] जिसका दोष प्रमाणित हो चुका हो। जो दोषी सिद्ध हो चुका हो। |
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दोषक :
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पुं० [सं० दोष+कन्] गौ का बच्चा। बछड़ा। |
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दोषग्राही (हिन्) :
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पुं० [सं०दोष√गह् (ग्रहण)+णिनि] १. वह जो केवल दूसरों के दोषों पर ध्यान दे। २. दुर्जन। दुष्ट। |
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दोषघ्न :
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पुं० [सं० दोष√हन् (मारना)+टक्] वह औषध जिससे शरीर के कुपित कफ, वात और पित्त का दोष शांत हो। |
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दोषज्ञ :
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पुं० [सं० दोष√ज्ञा (जानना)+क] पंडित। |
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दोषण :
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पुं० [सं०√दुष+णिच्+ल्युट्—अन] दोषारोपण। |
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दोषता :
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स्त्री० [सं० दोष+तल्—टाप] दोष का भाव। |
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दोषत्व :
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पुं० [सं० दोष+त्व] दोष का भाव। |
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दोषन :
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पुं० [सं० दूषण] १. दोष। २. दूषण। |
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दोषना :
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स० [हिं० दूषण+न (प्रत्य०)] किसी पर दोषारोपण करना। दोष लगाना। |
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दोषल :
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वि० [सं० दोष+लच्] दोष या दोषों से भरा हुआ। दूषित। |
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दोषसिद्ध :
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वि० दे० ‘दोष-प्रमाणित’। |
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दोषा :
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स्त्री० [सं०√दुष्+आ] १. रात्रि का अंधकार। २. रात्रि। रात। ३. सांयकाल। सन्ध्या। ४. बाँह। भुजा। |
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दोषा-तिलक :
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पुं० [ष० त०] दीपक। दीया। |
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दोषाकार :
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पुं० [सं० दोष-आकर ष० त०] १. दोषों का केन्द्र या भण्डार। २. [दोषा√कृ+ट] चन्द्रमा। |
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दोषाक्लेशी :
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स्त्री० [सं० दोषा√क्लिश् (कष्ट देना) +अण्-ङीप्] बन-तुलसी। |
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दोषाक्षर :
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पुं० [सं० दोष-अक्षर ब० स०] किसी पर लगाया हुआ अपराध। अभियोग। |
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दोषारोपण :
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पुं० [सं० दोष-आरोपण ष० त०] १. यह कहना कि इसमें अमुक दोष है। २. यह कहना कि इसने अमुक दोष किया है। |
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दोषावह :
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वि० [सं० दोष-आ√वह् (वहन)+अच्] जिसमें दोष हों। दोषपूर्ण। |
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दोषिक :
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पुं० [सं० दोष+ठन्—इक्] रोग। बीमारी। वि० १.=दोषी। २. दूषित। |
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दोषित :
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वि०= दूषित। |
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दोषिता :
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स्त्री० [सं० दोषिन्+तल्—टाप] दोषी होने की अवस्था या भाव। (गिल्ट) |
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दोषिन :
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स्त्री० [हिं० दोषी का स्त्री०] १. अपराधिनी। २. पापपूर्ण आचरणवाली स्त्री। ३. दुष्ट स्वभाववाली और दूसरों पर दोष लगाती रहनेवाली स्त्री। ४. वह कन्या जिसने विवाह से पहले किसी से संबंध स्थापित कर लिया हो। |
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दोषी (षिन्) :
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पुं० [सं० दोष+इनि] १. जिसने कोई अपराध या दोष किया हो। २. जिस पर कोई दोष लगा हो। ३. दोषपूर्ण। ४. दुष्ट। ५. पापी। वि० [सं० द्वेष] द्वेष करनेवाला। उदा०—गुरु-दोषी सग की मृतु पाव।—गुरु गोविंद सिंह। विशेष—यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ‘दोष’ का प्रयोग ‘द्वेष’ के अर्थ में गोस्वामी तुलसीदास ने भी किया है। (दे० ‘दोष’) |
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