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फास्टर नोट्स-2018 बी. ए. प्रथम वर्ष शिक्षाशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र

यूनिवर्सिटी फास्टर नोट्स

प्रकाशक : कानपुर पब्लिशिंग होम प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 307
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष (सेमेस्टर-1) शिक्षाशास्त्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-प्रश्नोत्तर

9

मानवीय मूल्य
(Human Values)

 

प्रश्न- मूल्य शब्द का अर्थ बताइए। मानव जीवन में मूल्यों का क्या स्थान है?

उत्तर-

मूल्य का अर्थ
(Meaning of Value)

Value शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द 'Volere' से हुई है जो कि किसी वस्तु की कीमत या उपयोगिता को व्यक्त करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो मूल्य एक प्रकार का मानक है। विभिन्न विद्वानों ने मूल्य को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने का प्रयास किया है। जो कि निम्नलिखित है -
"मूल्य वह है जो मानव इच्छाओं की तुष्टि कर सके • अर्बन
"मूल्य वे आदर्श, विश्वास या प्रतिमान हैं जिनको एक समाज या समाज के अधिकांश सदस्यों ने ग्रहण कर लिया है।
मूल्य एक अमूर्त सम्प्रत्यय है। इसका सम्बन्ध मनुष्य के भावात्मक पक्ष से होता है और यह उसके व्यवहार को नियन्त्रित एवं निर्देशित करता है। परन्तु भिन्न-भिन्न अनुशासनो में इसे भिन्न-भिन्न रूप में लिया गया है और अभी तक इसके विषय में कोई सर्वमान्य अवधारणा निश्चित नहीं हो सकी है। दर्शनशास्त्र में मनुष्य के जीवन के प्रति दृष्टिकोण को मूल्य की संज्ञा दी जाती है। वेदमूलक दर्शनों के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष है और चारवाक तथा आजीवक दर्शनों के अनुसार भौतिक सुख भोग। दर्शनशास्त्रियों की दृष्टि में मोक्ष और भोग दो भिन्न मूल्य है। तभी तो मोक्ष में विश्वास रखने वालों का व्यवहार परमार्थ केन्द्रित होता है और भोग में विश्वास रखने वालों का स्वार्थ केन्द्रित।
धर्मशास्त्र में नैतिक नियमों का मूल्य माना जाता है। हम जानते हैं कि प्रत्येक धर्म के कुछ नैतिक नियम होते हैं और मनुष्य को उनका पालन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में करना होता है। जब ये नियम मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करने लगते हैं तब ये उसके लिए मूल्य बन जाते हैं।
मानवशास्त्री मूल्यों को सांस्कृतिक लक्षणों के रूप में स्वीकार करते हैं। उनकी दृष्टि से संस्कृति और मूल्य अभिन्न होते हैं, कोई संस्कृति अपने मूल्यों से ही पहचानी जाती है।
इस युग में मूल्यों पर सबसे अधिक चिन्तन मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों ने किया है। मनोवैज्ञानिकों ने मूल्यों को मनुष्यों की रुचियों, पसन्दों और अभिवृत्तियों के रूप में लिया है। फिलंक महोदय के अनुसार हम जिसे पसन्द करते हैं और महत्व देते हैं, वे हमारे लिए मूल्य होते हैं। उनके शब्दों में - “मूल्य मानक रूपी मापदण्ड हैं जिनके आधार पर मनुष्य अपने सामने उपस्थित क्रिया विकल्पों में से चयन करने में प्रभावित होते हैं।"
समाजशास्त्री मूल्यों का सम्बन्ध समाज में विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और सामाजिक मानदंडों से जोड़ते हैं। उनकी दृष्टि से किसी समाज के विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार मानदंड ही उस समाज के मूल्य होते हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि मनुष्य की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं, वह उनमें से कुछ का चुनाव करता है और ये उसके लिए लक्ष्य बन जाती हैं। लक्ष्यों में प्रतिस्पर्धा होती है लक्ष्यों में सर्वोत्तम होता है वह उसका आदर्श बन जाता है समाज इन आदर्शों से सम्बन्धित आदर्श नियम अथवा मानदंड समाज के सदस्यों के अन्तःकरण व विश्वास के रूप में आन्तरिक तत्व का रूप धारण करते हैं तो इन्हें मूल्य कहते हैं। भारतीय समाजशास्त्री डॉ. राधाकमल मुकर्जी ने मूल्यों को लक्ष्यों के रूप में ही परिभाषित किया है। उनके शब्दों में -
'मूल्य समाज द्वारा स्वीकृत उन इच्छाओं और लक्ष्यों के रूप में परिभाषित किये जा सकते हैं जिन्हें अनुबन्धन, अधिगम या समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा आभ्यान्तरीकृत किया जाता है और जो आत्मनिष्ठ अधिमान, मान तथा आकांक्षाओं का रूप धारण कर लेते हैं।'
मूल्यों का वास्तविक सम्प्रत्यय मूल्यों के संदर्भ में इन भिन्न-भिन्न विचारों से दो सामान्य तथ्य उजागर होते हैं। एक यह कि मूल्यों का सम्बन्ध व्यक्ति और समाज के आचार-विचार से होता है। दूसरा यह कि मूल्य मनुष्य के व्यवहार को नियंत्रित एवं निर्देशित करते हैं। अब यदि हम मूल्यों की प्रकृति और कार्यों को और अधिक स्पष्ट रूप से समझना चाहें तो हमें इन पर थोडा अपने ढंग से विचार करना होगा।
मूल्य का शाब्दिक अर्थ - उपयोगिता, वांछनीयता, महत्व। हम जानते हैं कि प्रत्येक समाज के अपने कुछ विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार मानदंड होते हैं और किसी भी व्यक्ति को यथा समाज का मान्य सदस्य बनने के लिए इन्हें स्वीकार करना होता है। जब कोई व्यक्ति समाज द्वारा स्वीकृत इन विश्वासों, आदर्शों, सिद्धान्तों और व्यवहार मानदंडों को उपयोगी मानता है, वाछनीय मानता है, महत्वपूर्ण मानता है और इनके अनुसार व्यवहार करता है तो वे उसके लिए मूल्य हो जाते हैं। यहाँ यह बात समझने की है किसी समाज के अनेक विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार मानदंड होते हैं। व्यक्ति इनमें से कुछ का चयन करता है और उनमें से भी कुछ को अधिक महत्व देता है और कुछ को अपेक्षाकृत कम। वह जिन्हें जितना अधिक महत्व देता है वे उसके लिए उतने ही अधिक शक्तिशाली मूल्य होते हैं। तभी तो भिन्न-भिन्न व्यक्तियों का व्यवहार भिन्न-भिन्न होता है। इसके मूल्यों के बारे में दो तथ्य और उजागर होते हैं। एक यह कि प्रत्येक मनुष्य को समाज का मान्य सदस्य होने के लिए उसके मूल्यों को स्वीकार ना होता है, यह बात दूसरी है कि वह इन मूल्यों में से किन्हें अधिक महत्व देता है और किन्हें कम और दूसरा यह कि समाज द्वारा स्वीकृत विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार मानदंड अपने में मूल्य नहीं होते अपितु जब कोई व्यक्ति इन्हें उपयोगी मानता है, वाछनीय मानता है और इन्हें महत्व देता है और इस महत्व के कारण इनसे उसका व्यवहार प्रभावित होता है तब ये उसके लिए मूल्य हो जाते हैं।
अब थोड़ा विचार समाज के विश्वास, आदर्श, सिद्धान्त और व्यवहार मानदंडों पर करें। किसी समाज में इनका विकास एक दिन में नहीं होता, ये मनुष्य के दीर्घ अनुभवों के परिणाम होते हैं। तब दीर्घ अनुभवों के आधार पर इनमें परिवर्तन भी होना चाहिए। इससे मूल्यों के विषय में दो तथ्य और स्पष्ट होते हैं। एक यह कि मूल्य युग-युग के अनुभवों का परिणाम होते हैं और दूसरा यह कि ये परिवर्तनशील होते हैं, यह बात दूसरी है कि किस समाज में मूल्यों में परिवर्तन किस गति से होता है।
मूल्यों के संदर्भ में एक तथ्य और उल्लेखनीय है और यह कि ये किसी समाज, जाति, धर्म अथवा संस्कृति की पहचान होते हैं। हम जानते हैं कि संसार के सभी धर्मों में सम्प्रत्यय, प्रेम, सेवा और ईश्वर भक्ति पर बल दिया गया है। सभी मनुष्य को दया और दान का उपदेश देते हैं और सभी पवित्रता के पोषक हैं। परन्तु यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो वेद मूलक धर्मों का ज्ञान एवं कर्म पर अधिक बल दिया गया है, जैन धर्म में अहिंसा और तप पर, बौद्ध धर्म में अहिंसा और करुणा पर, सिक्ख धर्म में गुरु भक्ति और ईश्वर स्मरण पर, आर्य समाज में विवेक और यज्ञ पर पारसी धर्म में पवित्रता और दया पर, ईसाई धर्म में सेवा और प्रेम और इस्लाम धर्म में शान्ति और भाईचारे पर और ये ही उनकी पहचान है।
मूल्य सम्बन्धी उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम उन्हें निम्नलिखित रूप में परिभाषित कर सकते हैं- मूल्य समाज के विश्वासों, आदर्शों, सिद्धान्तों अथवा व्यवहार मानदंडों को व्यक्ति द्वारा दिया गया वह महत्व है जिसके आधार पर उसका व्यवहार नियंत्रित एवं निर्देशित होता है। व्यक्ति के इन मूल्यों का विकास समाज की क्रियाओं में भाग लेने से होता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- वैदिक काल में गुरुओं के शिष्यों के प्रति उत्तरदायित्वों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा में गुरु-शिष्य के परस्पर सम्बन्धों का विवेचनात्मक वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- वैदिक शिक्षा व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं की विवेचना कीजिए। वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु यह किस सीमा तक प्रासंगिक है?
  4. प्रश्न- वैदिक शिक्षा की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के कम से कम पाँच महत्त्वपूर्ण आदर्शों का उल्लेख कीजिए और आधुनिक भारतीय शिक्षा के लिए उनकी उपयोगिता बताइए।
  6. प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श क्या थे? वैदिक काल में प्रचलित शिक्षा के मुख्य गुण एवं दोष बताइए।
  7. प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या थे?
  8. प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा के प्रमुख गुण बताइए।
  9. प्रश्न- प्राचीन काल में शिक्षा से क्या अभिप्राय था? शिक्षा के मुख्य उद्देश्य एवं आदर्श क्या थे?
  10. प्रश्न- वैदिककालीन उच्च शिक्षा का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा में प्रचलित समावर्तन और उपनयन संस्कारों का अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  12. प्रश्न- वैदिककालीन शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ज्ञान का विकास तथा आध्यात्मिक उन्नति करना था। स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- आधुनिक काल में प्राचीन वैदिककालीन शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।
  14. प्रश्न- वैदिक शिक्षा में कक्षा नायकीय प्रणाली के महत्व की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- वैदिक कालीन शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- शिक्षा से आप क्या समझते हैं? शिक्षा के विभिन्न सम्प्रत्ययों का उल्लेख करते हुए उसके वास्तविक सम्प्रत्यय को स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- शिक्षा का अर्थ लिखिए।
  18. प्रश्न- शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
  19. प्रश्न- शिक्षा के दार्शनिक सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
  20. प्रश्न- शिक्षा के समाजशास्त्रीय सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- शिक्षा के राजनीतिक सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
  22. प्रश्न- शिक्षा के आर्थिक सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
  23. प्रश्न- शिक्षा के मनोवैज्ञानिक सम्प्रत्यय की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- शिक्षा के वास्तविक सम्प्रत्यय को स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- क्या मापन एवं मूल्यांकन शिक्षा का अंग है?
  26. प्रश्न- शिक्षा को परिभाषित कीजिए। आपको जो अब तक ज्ञात परिभाषाएँ हैं उनमें से कौन-सी आपकी राय में सर्वाधिक स्वीकार्य है और क्यों?
  27. प्रश्न- शिक्षा से तुम क्या समझते हो? शिक्षा की परिभाषाएँ लिखिए तथा उसकी विशेषताएँ बताइए।
  28. प्रश्न- शिक्षा का संकीर्ण तथा विस्तृत अर्थ बताइए तथा स्पष्ट कीजिए कि शिक्षा क्या है?
  29. प्रश्न- शिक्षा का 'शाब्दिक अर्थ बताइए।
  30. प्रश्न- शिक्षा का अर्थ स्पष्ट करते हुए इसकी अपने शब्दों में परिभाषा दीजिए।
  31. प्रश्न- शिक्षा से आप क्या समझते हैं?
  32. प्रश्न- शिक्षा को परिभाषित कीजिए।
  33. प्रश्न- शिक्षा की दो परिभाषाएँ लिखिए।
  34. प्रश्न- शिक्षा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  35. प्रश्न- आपके अनुसार शिक्षा की सर्वाधिक स्वीकार्य परिभाषा कौन-सी है और क्यों?
  36. प्रश्न- 'शिक्षा एक त्रिमुखी प्रक्रिया है।' जॉन डीवी के इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
  37. प्रश्न- 'शिक्षा भावी जीवन की तैयारी मात्र नहीं है, वरन् जीवन-यापन की प्रक्रिया है। जॉन डीवी के इस कथन को उदाहरणों से स्पष्ट कीजिए।
  38. प्रश्न- शिक्षा के क्षेत्र का वर्णन कीजिए।
  39. प्रश्न- शिक्षा विज्ञान है या कला या दोनों? स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- शिक्षा की प्रकृति की विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- शिक्षा के व्यापक व संकुचित अर्थ को स्पष्ट कीजिए तथा शिक्षा के व्यापक व संकुचित अर्थ में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  42. प्रश्न- शिक्षा और साक्षरता पर संक्षिप्त टिप्पणी दीजिए। इन दोनों में अन्तर व सम्बन्ध स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- शिक्षण और प्रशिक्षण के बारे में प्रकाश डालिए।
  44. प्रश्न- विद्या, ज्ञान, शिक्षण प्रशिक्षण बनाम शिक्षा पर प्रकाश डालिए।
  45. प्रश्न- विद्या और ज्ञान में अन्तर समझाइए।
  46. प्रश्न- शिक्षा और प्रशिक्षण के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।

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