बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 चित्रकला - भारतीय वास्तुकला का इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- इण्डो-इस्लामिक वास्तुकला की इमारतों का परिचय दीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. इण्डो इस्लामिक वास्तुकला में भवन निर्माण के लिए किस प्रकार के मसाले का प्रचलन था?
2. ग्वालियर का किला अजेय क्यों माना जाता था?
उत्तर-
इण्डो इस्लामिक वास्तुकला में शिल्पकार भवन निर्माण के लिए सबसे अधिक लोकप्रिय मसाला (सामग्री) रोड़ी कंकड़ आदि से चिनाई करने के मिश्रण का प्रयोग करते थे। उस समय के सभी भवनों की दीवारें काफी मोटी होती थीं। इन दीवारों को चुनने के बाद उन पर चूने की लिपाई की जाती थी या पत्थर के चौके जड़े जाते थे। निर्माण के काम में कई तरह के पत्थरों का इस्तेमाल होता था, जैसे-स्फटिक, बलुआ पत्थर, पीला पत्थर, संगमरमर आदि। दीवारों को अंतिम रूप देने तथा आकर्षक बनाने के लिए बहुरंगी टाइलों का प्रयोग किया जाता था। सत्रहवीं शताब्दी के शुरू होते-होते भवन निर्माण के कार्य में ईंटों का भी प्रयोग होने लगा। इनसे निर्माण कार्य में अधिक सरलता और नम्यता आ गई। इस चरण की मुख्य बात यह थी कि स्थानीय सामग्रियों पर निर्भरता बढ़ गई।
किला/दुर्ग
ऊँची-मोटी प्राचीरों, फसीलों व बुर्जों के साथ विशाल दुर्ग, किले बनाना मध्यकालीन भारतीय राजाओं तथा राजघरानों की विशेषता थी, क्योंकि ऐसे अभेद्य किलों को अक्सर राजा की शक्ति का प्रतीक माना जाता था। जब ऐसे किलों को आक्रमणकारी सेना द्वारा अपने कब्जे में कर लिया जाता था तो पराजित शासक की सम्पूर्ण शक्ति और प्रभुसत्ता उससे छिन जाती थी क्योंकि उसे विजेता राजा के आधिपत्य को स्वीकार करना पड़ता था। इस तरह के कई दुर्भेद्य, विशाल और जटिल दुर्ग चित्तौड़, ग्वालियर, देवगिरि/दौलताबाद और गोलकुण्डा में पाए जाते हैं जिन्हें देखकर दर्शक दंग रह जाते हैं और उनकी कल्पनाशक्ति कुंठित पड़ती दिखाई देती है।
दुर्गों के निर्माण के लिए पहाड़ों की प्रभावशाली ऊँचाईयों का उपयोग अधिक लाभप्रद समझा जाता था। इन ऊँचाईयों के कई फायदे थे, जैसे-इन पर चढ़कर सम्पूर्ण क्षेत्र को दूर-दूर तक देखा जा सकता था। सुरक्षा की दृष्टि से भी ये ऊँचाइयाँ सामरिक महत्व रखती थीं। उनमें आवास और दफ्तरी भवन बनाने के लिए बहुत खाली जगह होती थी और सबसे बड़ी बात तो यह कि इनसे आम लोगों तथा आक्रमणकारियों के मन में भय पैदा होता था। ऐसी ऊँचाइयों पर बने किलों के और भी कई फायदे थे जिनमें से एक यह था कि किले के चारों ओर, बाहरी दीवारों के एक के बाद एक कई घेरे बनाए जाते थे जैसा कि गोलकुण्डा में देखने को मिलता है। इन बाहरी दीवारों को तोड़कर भीतर किले में पहुँचने के लिए शत्रु सेना को स्थान-स्थान पर लड़ाई लड़नी होती थी।
दौलताबाद के किले में शत्रु को धोखे में डालने के लिए अनेक सामरिक व्यवस्थाएँ की गई थी, जैसे- उसके प्रवेश द्वार दूर-दूर पर टेढ़े-मेढ़े ढंग से बेहद मजबूती के साथ बनाए गए थे। जिन्हें हाथियों की सहायता से भी तोड़ना और खोलना आसान नहीं था। यहाँ एक के भीतर एक यानी दो किले बनाए गए थे जिनमें दूसरा किला पहले किले की अपेक्षा अधिक ऊँचाई पर बनाया गया था और उस तक पहुँचने के लिए एक भूल-भुलैया को पार करना पड़ता था और इस भूल-भुलैया में लिया गया एक भी गलत मोड़ शत्रु के सैनिकों को चक्कर में डाल देता था या सैकड़ों फुट नीचे खाई में गिराकर मौत के मुँह में पहुँचा देता था
ग्वालियर का किला इसलिए अजेय माना जाता था, क्योंकि इसकी खड़ी ऊँचाई एकदम सपाट थी और उस पर चढ़ना असम्भव था। इसे आवास की व्यवस्था के अलावा और भी कई कामों में लिया जाता था। बाबर को वैसे तो हिन्दुस्तान की बहुत-सी चीजों में कोई अच्छाई नहीं दिखाई दी, पर वह भी ग्वालियर के किले को देखकर भयभीत हो गया था। चित्तौड़गढ़ को एशिया का सबसे बड़ा किला माना जाता है और यह सबसे लम्बे समय तक शक्ति का केन्द्र बना रहा। इसमें कई तरह के भवन हैं जिनमें से कुछ विजय एवं वीरता के स्मारक स्तंभ एवं शिखर हैं। इसमें अनेक जलाशय हैं। इस किले के प्रधान सेनापतियों तथा सैनिकों के साथ अनेक वीरगाथाएँ जुड़ी हैं। इसके अलावा इसमें ऐसे कई स्थल हैं जो यहाँ के नर-नारियों के त्याग-तपस्या और बलिदान की याद दिलाते हैं। इन सभी किलों का एक दिलचस्प पहलू यह है कि इनमें स्थित राजमहलों ने अनेक शैलियों के आलंकारिक प्रभावों को बड़ी उदारता के. साथ अपने आप में संजो रखा है।
मीनारें
स्तंभ या गुम्बद का एक अन्य रूप मीनार थीं, जो भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वत्र पायी जाती है। मध्य काल की सबसे प्रसिद्ध और अकर्षक मीनारें थीं- दिल्ली में कुतुब मीनार और दौलताबाद के किले में चाँद मीनार। इन मीनारों का दैनिक उपयोग नमाज या इबादत के लिए अज़ान लगाना था। तथापि इसकी असाधारण आकशीय ऊँचाई शासक की शक्ति का प्रतीक थी जो उसके विरोधियों के मन में भय पैदा करती रहती थी, चाहे वे विरोधी समानार्थी हों या अन्य किसी धर्म के अनुयायी।
कुतुब मीनार का सम्बन्ध दिल्ली के संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी से भी जोड़ा जाता है। तेरहवीं सदी में बनाई गई यह मीनार 234 फुट ऊँची है। इसकी चार मंजिलें हैं जो ऊपर की ओर क्रमश: पतली या संकरी होती चली जाती हैं। यह बहुभुजी और वृत्ताकार रूपों में मिश्रण है। यह अधिकतर लाल और पांडु रंग के बलुआ पत्थर की बनी है, अलबत्ता इसकी ऊपरी मंजिलों में कहीं-कहीं संगमरमर का भी प्रयोग हुआ है। इसकी एक विशेषता यह है कि इसके झरोखे अत्यन्त सजे हुए हैं और इसमें कई शिलालेख हैं जिन पर फूल-पत्तियों के नमूने बने हैं।
चाँद मीनार जो पंद्रहवीं सदी में बनाई गई थी, 210 फीट ऊँची है। इसकी चारमंजिलें हैं जो ऊपर की ओर क्रमश: पतली होती चली जाती हैं। अब यह आडू रंग से पुती हुई है। इसका बाहरी भाग कभी पकी हुई टाइलों पर बनी द्विरेखीय सज्जापट्टी और बड़े-बड़े अक्षरों में खुदी कुरान की आयतों के लिए प्रसिद्ध था। यद्यपि यह मीनार एक ईरानी स्मारक की तरह दिखाई देती है, लेकिन इसके निर्माण में दिल्ली और ईरान के वास्तुकलाविदों के साथ-साथ स्थानीय वास्तु कलाकारों का भी हाथ था।
मकबरे
शासकों और शाही परिवार के लोगों की कब्रों पर विशाल मकबरे बनाना मध्य कालीन भारत का एक लोकप्रिय रिवाज़ था। ऐसे मकबरों के कुछ सुप्रसिद्ध उदाहरण हैं- दिल्ली स्थित गयासुद्दीन तुगलक, हुमायूँ, अब्दुर्रहीम खानखाना और आगरा स्थित अकबर व इतमादुद्दौला के मकबरे। मकबरा यह सोचकर बनाया जाता था कि मज़हब में सच्चा विश्वास रखने वाले इन्सान को कयामत के दिन इनाम के तौर पर सदी के लिए जन्नत (स्वर्ग) भेज दिया जाएगा। जहाँ हर तरह का ऐशोआराम होगा। इसी स्वर्ग प्राप्ति की कल्पना को लेकर मकबरों का निर्माण किया जाने लगा। शुरू-शुरू में तो इन मकबरों की दीवारों पर कुरान की आयतें लिखी जाती थीं मगर आगे चलकर इन मकबरों को स्वर्गीय तत्वों के बीच में, जैसे- बाग-बगीचों के भीतर या किसी जलाशय या नदी के किनारे बनाया जाने लगा जैसा कि हुमायूँ के मकबरे और ताजमहल के मामले में दिखाई देता है, जहाँ ये दोनों चीजें पाई जाती हैं। यह तो निश्चित हैं कि इतनी बड़ी-बड़ी और शानदार इमारतें दूसरी दुनिया में शांति और खुशी पाने भर के लिए नहीं बनाई जा सकतीं, इसलिए इनका उद्देश्य दफनाए गए व्यक्ति की शान-ओ-शौकत और ताकत का प्रदर्शन करना भी रहा होगा।
सरायें
मध्यकालीन भारत की एक अत्यन्त दिलचस्प परम्परा सराय बनाने की भी थी जो भारतीय उपमहाद्वीप में शहरों के आसपास यत्र-तत्र बनाई जाती थीं। सरायें आमतौर पर किसी वर्गाकार या आयताकार भूमि खंड पर बनाई जाती थीं और उनका प्रयोजन भारतीय और विदेशी यात्रियों, तीर्थयात्रियों सौदागरों, व्यापारियों आदि को कुछ समय के लिए ठहरने की व्यवस्था करना था, दरअसल ये सरायें आम लोगों के लिए होती थीं और वहाँ विभिन्न सांस्कृतिक पृष्ठभूमियों वाले कुछ समय के लिए इकट्ठे होते या ठहरते थे। इसके फलस्वरूप आम लोगों के स्तर पर सांस्कृतिक विचारों, प्रभावों, समन्वयवादी प्रवृत्तियों, सामयिक रीति-रिवाजों आदि का आदान-प्रदान होता था।
लोगों के लिए इमारतें
मध्यकालीन भारत का वास्तुकलात्मक अनुभव राजे-रजवाड़ों या शाही परिवारों तक ही सीमित नहीं रहा बल्कि समाज के सामान्य वर्गों द्वारा और उनके लिए भी सार्वजनिक और निजी तौर पर भवन आदि बनाए गए जिनमें अनेक शैलियों, तकनीकों और सजावटों का मेल पाया जाता है। इन इमारतों में रिहायशी इमारतें, मंदिर, मस्जिदें, खानकाह और दरगाह, स्मृति-द्वार, भवनों के मंडप और बाग-बगीचे, बाजार आदि शामिल हैं।
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