प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 2
आश्रम व्यवस्था
(Ashrama System)
प्रश्न- वर्णाश्रम धर्म से आप क्या समझते हैं? इसकी मुख्य विशेषताएं बताइये।
अथवा
आश्रम व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? प्रत्येक आश्रम का व्यवस्थाकारों ने क्या समय निश्चित किया था?
अथवा
गृहस्थ आश्रम के सामाजिक महत्व का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
प्राचीन आश्रम व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं? समझाइये |
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. आश्रम व्यवस्था का परिचय दीजिए तथा उसका महत्व बताइये।
अथवा
आश्रम व्यवस्था का परिचय दीजिए।
अथवा
आश्रम व्यवस्था के विषय में आप कया जानते हैं?
2. प्राचीन भारत में गृहस्थ आश्रम का अन्य आश्रमों के साथ क्या सम्बन्ध था? अपने विचार लिखिए।
3. प्राचीन आश्रम व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते है? व्याख्या कीजिए।
4. प्राचीन भारत में ग्रहस्थ आश्रम को अन्य सभी आश्रमों का आधार माना गया है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? अपने विचार व्यक्त कीजिए।
5. प्राचीनकाल में गृहस्थ आश्रम का अन्य आश्रमों के साथ क्या सम्बन्ध था अपने विचार विस्तारपूर्वक लिखिए।
6. "ब्रह्मचर्य आश्रम के महत्व को लिखिए।
उत्तर-
वर्ण तथा आश्रम
सामाजिक संगठन वर्णाश्रम धर्म के अनुसार बना हुआ था, जिसे अस्पष्ट विस्तृत तथा जटिल स्वरूप वाले हिन्दू धर्म की सर्वोत्तम परिभाषा में कहा जा सकता है, यह पद्धति दो बातों पर आश्रित है
वर्ण या जाति-वर्ण की शुद्धि विवाह पर एवं भोजन और अस्पृश्य वस्तु के स्पर्शवर्जन पर निर्भर है। उसके नियम भिन्न जाति के साथ विवाह का और अन्तर्जातीय भोजन का निषेध करते हैं। पूर्वकालीन सूत्रों के ये नियम इतने कड़े न थे, गौतम के अनुसार ब्राह्मण या द्विज तीन उच्च वर्गों का दिया हुआ भोजन खा सकता था और आपत्ति के समय शूद्र का दिया हुआ भी ले सकता था, किन्तु दण्डिक ( पुलिस अधिकारी), कंजूस कारागृह के अधिकारी या शत्रु का अन्नन कुत्सित कहा गया है। आपस्तम्ब ( 1/6/18/1 ) के अनुसार ब्राह्मण अपने से नीचे तीन वर्गों के घर भोजन नहीं कर सकता था। विवाह सम्बन्धी नियम भी इसी प्रकार थे। विवाह के लिए जाति का इतना महत्व नहीं जितना कुल का शूद्र कन्या केवल चौथी पत्नी के रूप में ब्राह्मण के साथ विवाह कर सकती थी। उनकी संतान मिश्रित संतान, द्विज का पद न पाने पर भी धर्मसम्मत (वैध) मानी जाती थी।
आश्रम सम्बन्धी नियम भी हिन्दू समाज व्यवस्था के जीवन के लिए उतने ही आवश्यक थे जितने कि जात-पांत के नियम, जिनमें खान-पान और विवाह का अधिक प्रतिबन्ध था। इन नियमों के अनुसार व्यक्ति क्रमशः चार आश्रमों का जीवन में पालन करना चाहिए। अर्थात् ब्रह्मचारी या दीक्षित विद्यार्थी का जीवन, गृहस्थ या वैवाहिक अवस्था, वानप्रस्थ और सन्यासी। ब्रह्मचर्य आश्रम की आवश्यकता इतनी अधिक मानी गयी थी जो द्विज होकर इसका पालन नहीं करते थे। वे पतित समझे जाते थे। ऐसे व्यक्ति के साथ न किसी को व्यवहार करना चाहिए, न शिक्षा देनी चाहिए, न यज्ञ करना चाहिए और न किसी प्रकार उसका अनुसरण करना चाहिए। उसकी सन्तान व्रात्य मानी जाती थी। इससे विदित होता है कि हिन्दू धर्म के तीन द्विज वर्णों के लिए अनिवार्य शिक्षा का आग्रह है और यह शिक्षा केवल आरम्भिक ही नहीं होती थी. साधारणतः आरम्भिक कक्षा तक ही होकर नहीं रह जाती थी। यह तो अनिवार्य उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी।
भिन्न-भिन्न वर्ण और उनके कर्त्तव्य - विभिन्न वर्णों और उनके कर्त्तव्य इस प्रकार कहे गये हैं
ब्राह्मण के लिए विशेष कर्म-
1. प्रवचन (अध्ययन),
2. आजन (यज्ञ करना),
3. पतिग्रह (दान स्वीकार करना)।
क्षत्रिय के लिए विशेष कर्म-
1. सब प्राणियों की रक्षा (सर्व भूतरक्षणम्)
2. न्याय के अनुसार दंड व्यवस्था ( न्याय दण्डत्वम्)
3. श्रौतिय या विद्वान ब्राह्मणों का पालन
4. आपदाग्रस्त ब्राह्मणेत्तरों का भी पालन
5. ब्राह्मणेत्तर भिक्षुकों का पालन और पोषण (अकर) और जो लोग सार्वजनिक सेवा करते हैं, जैसे - चिकित्सा उनकी भी वृत्ति का प्रबन्ध करना।
6. युद्ध के लिए तैयार रहना ( योगश्च विजये)
7. सेना के साथ राष्ट्र में सर्व विचरण करना (राष्ट्रस्य सर्वतोऽनम् )
8. युद्ध के पश्चात्पद हुए बिना मृत्युपर्यन्त डटे रहना (संग्रामे संस्थानवनिवृत्तिश्च)।
9. राज्य की रक्षा के लिए आवश्यक कर संग्रह करना (तद्रक्षण-धर्मित्वात्)।
वैश्य के लिए कर्म -
1. कृषि,
2. वाणिज्य,
3. पशुपालन,
4. कुसीद।
शूद्र के लिए कर्म-
1. सत्य, नम्रता और शौच का पालन।
2. आचमन मंत्र के बिना स्नान।
3. श्राद्ध कर्म।
4. अपने आश्रित कुटुम्बियों का भरण-पोषण (भृत्युचरणम्) दासों को इसकी आज्ञा न थी।
5. स्वदार वृत्ति - अपनी जाति में विवाह करना अथवा जीवनपर्यन्त गृहस्थ अवस्था में रहना।
6. परिचर्या - वृत्ति लेकर उच्च वर्णों की सेवा करना।
7. शिल्पवृत्ति - शिल्प द्वारा स्वतंत्र जीविकोपार्जन, जैसे- नाई, धोबी, रंगरेज, बढ़ई या लुहार का काम।
शूद्र का पंद बहुत पतित नहीं था। जब वह काम में आशक्त हो जाता था तो मालिक को उसकाभरण करना आवश्यक था।
आश्रम व्यवस्था - वैदिककालीन व्यवस्थाकारों ने मनुष्य की आयु को सौ वर्ष माना था। इन्हीं वर्णों को चार भागों में बांट कर चार आश्रमों का निरूपण किया गया है। चारों आश्रमों का वर्गीकरण निम्नलिखित हैं।-
1. ब्रह्मचर्य आश्रम - प्रारम्भ प्रारम्भ से 25 वर्ष तक।
2. गृहस्थ आश्रम - 26 से 50 वर्ष तक।
3. वानप्रस्थ आश्रम - 51 से 75 वर्ष तक।
4. संयास आश्रम -76 वर्ष से 100 वर्ष तक।
1. ब्रह्मचर्य आश्रम - यह आश्रम उपनयन संस्कार से प्रारम्भ होता है। उपनयन का अर्थ है कि आचार्य के समीप ले जाना अथवा वह संस्कार जिसके द्वारा ब्रह्मचारी को आचार्य के समीप ले जाया जाये। शूद्रों को छोड़कर शेष तीनों वर्णों को उपनयन का अधिकार था। यह काल मनुष्य के आगामी जीवन संघर्ष के लिए, अपने व्यक्तिगत विकास के लिए तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को निभाने के लिए तैयारी का काल था। संसार के प्रलोभनों से दूर, आमोद-प्रमोद से विरक्त ब्रह्मचारी अति सरलता, दिखावे से दूर, शुद्धता का जीवन व्यतीत करता हुआ अपने आचार्य की छत्रछाया में शिक्षा ग्रहण करता था। दंड, कमण्डल और यज्ञोपवीत यही सब उसकी संपत्ति थी। साधारणतया ब्रह्मचारी दो वस्त्र धारण करता था। उत्तरीय (ऊर्ध्ववस्त्र) और वास (अधोवस्त्र)। ब्रह्मचारी को नियमित रूप से भिक्षाटन करना पड़ता था। शिक्षा से मिली वस्तु का उपभोग भी वह अपने गुरु की आज्ञा से ही कर सकता था। अपने गुरु के प्रति उसकी श्रद्धा, भक्ति तथा आज्ञाकारिता असीम थी।
ब्रह्मचर्याश्रम की अवधि प्रायः 12 वर्ष तक रहती थी। इस काल के पश्चात् ब्रह्मचारी 25 वर्ष का हो जाता था तब उसे गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने की अनुमति दी जाती थी। ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति भी एक विशेष संस्कार में होती थी। इस संस्कार को स्नान अथवा समावर्तन संस्कार कहते थे। इस स्नान के पश्चात् ब्रह्मचारी स्नातक कहलाता है। ब्रह्मचारी को मुख्य रूप से निम्नलिखित कार्य करने पड़ते थे-
(i) सन्ध्या और अग्नि होत्र
(ii) अग्नि परिचर्या
(iii) स्वाध्याय
(iv) आचार्य के लिए या अपनी संध्या के लिए भिक्षा करना
(v) खेतों और जंगलों से जल, ईंधन, मिट्टी, पुष्प आदि लाना।
(vi) अध्यापक का प्रवचन आदि सुनना।
ब्रह्मचर्य आश्रम का महत्व - ब्रह्मचर्य आश्रम का व्यक्ति के जीवन में विशेष महत्व है। इसका महत्व निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट होता है-
1. शास्त्रकारों के अनुसार- बह्मचर्य आश्रम व्यक्ति को लम्बी आयु प्रदान करता है।
2. यह संतुलित जीवन का विकास करने में सहायता प्रदान करता है। बह्मचर्य आश्रम के कर्तव्य इस प्रकार से निर्धारित किए गए हैं कि वह उसके चार संकायों का विकास करता है। अध्ययन, मानसिक विकास, स्वतः नियंत्रण, शारीरिक विकास, सादा जीवन, आत्मिक विकास तथा गुरु सेवा भावनात्मक विकास में सहायक है।
3. ब्रह्मचर्य आश्रम बालक को उसके अधिकारों व कर्तव्यों की व्यावहारिक शिक्षा देकर उसके सामाजीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
4. यह आश्रम समाज में अनिवार्य शिक्षा व्यवस्था की महत्वपूर्ण कड़ी है।
अतः यह विभाजन युवावस्था के सन्तुलित विकास से सम्बन्धित है। यह आश्रम श्रम के महत्व पर बल देकर जीवन की असफलताओं की सम्भावनाएँ कम करने में सहायता देता है।
2. गृहस्थ आश्रम - समावर्तन संस्कार के पश्चात् ब्रह्मचारी विवाह कर गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। अगर विवाह में देरी हो जाये तो ब्रह्मचर्य तथा गृहस्थ के मध्य को स्नातकावस्था कहते थे। समस्त सूत्र साहित्य, रामायण तथा महाभारत में गृहस्थ आश्रम को चतुराश्रमों में सर्वप्रमुख बताया गया है। ब्राह्मण व्यवस्था में गृहस्थाश्रम की सर्वोपरि महत्ता के अनेक कारण बताये गये। जैसे
(i) ब्राह्मण धर्म ऋग्वैदिककाल से ही प्रवृत्ति प्रधान रहा है। अतः उसने प्रवृत्तिमूलक ग्रहस्थाश्रम को ही महत्वपूर्ण माना है।
(ii) ब्राह्मण धर्म यज्ञ और कर्मकाण्ड प्रधान रहा है। इन कर्मों को संपन्न करने के लिए आवश्यकता होती थी। परन्तु पुत्र की उपलब्धि गृहस्थ आश्रम के बिना असंभव है।
(iii) ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम तथा सन्यास तीनों ही गृहस्थ आश्रम की दानशीलता और उदारता पर निर्भर थे। यदि गृहस्थ भिक्षा, दानादि न करते तो तीनों आश्रमों का अस्तित्व ही न रहता।
गृहस्थ आश्रम के संस्कारों का विशेष महत्व है। ये मनुष्य के संपूर्ण शारीरिक, मानसिक, मनोवैज्ञानिक, चारित्रिक एवं सांस्कृतिक विकास से सम्बन्धित थे। संस्कार विशेषतया द्विजातियों के लिए ही थे। शूद्रों और स्त्रियों के कुछ संस्कार थे जो विवाह संस्कार के अलावा सभी मन्त्रहीन होते थे। गृहस्थ आश्रम में रहकर उसे अपने कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता था। जिनमें तीन प्रमुख थे-
(अ) अध्ययन (वेदाध्ययन)
(ब) यजन (यज्ञादि करना)
(स) दान करना।
यह तीन कर्त्तव्य गृहस्थ को तीन ऋणों से मुक्त होने के लिए करने पड़ते थे। यह तीन ऋण है ऋषि ऋण, देव ऋण तथा तथा पितृ ऋण थे। विधिवत यज्ञ द्वारा देव ऋण से मुक्त हो सकते थे। अध्ययन द्वारा ऋषि से तथा पुत्र की उत्पत्ति पितृ ऋण से।
गृहस्थ आश्रम में व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को सन्तुष्ट करता था जिससे विरक्ति के लिए मार्ग स्वच्छ हो जाये। इसके अलावा उसे सामाजिक दायित्वों का पालन करना पड़ता था। उसे अनेक संस्कार करने पड़ते थे जिसमें पांच महायज्ञों का विशेष महत्व है। इन्हें ऋण भी कहते हैं। प्रथम तीन ही प्रमुख ऋण माने जाते हैं-
(i) ब्रह्मयज्ञ - इस यज्ञ द्वारा वह प्राचीन ऋषियों के प्रति अपनी भक्ति एवं आदर की भावना को प्रदर्शित करता था, वह ऋषि वेदों के ज्ञाता एवं ज्ञानी होते थे। अतएव इनके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए वह वेदों का अध्ययन एवं अध्यापन करता था।
(ii) पितृयज्ञ - मनुष्य को अपने पितरों के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए उनके प्रति श्रद्धा एवं भक्ति प्रकट करने के लिए पितृयज्ञ की व्यवस्था की गयी थी। इस यज्ञ के अनुसार मनुष्य पितरों के लिए तर्पण श्राद्ध आदि करता था।
(iii) देवयज्ञ - देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिए देवयज्ञ का आयोजन किंया गया था। इनके लिए अग्नि में इन्द्र, सोम, पृथ्वी, वरुण आदि देवताओं के नाम पर आहुतियाँ दी जाती थीं।
(iv) भूतयज्ञ - यह यज्ञ असहाय जीवों की रचना के लिए मनुष्य को करना पड़ता था। इसके अनुसार कुत्ते, कृमि आदि असहाय जीवों के लिए भोजन की व्यवस्था करना भी गृहस्थ का कार्य था।
(v) मनुष्ययज्ञ - असहाय जीवों के प्रति जो उदारता प्रदर्शित करें उसी प्रकार मनुष्यों के प्रति उदारता प्रदर्शित करनी चाहिए। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए मनुष्य यज्ञ का विधान बनाया गया था। इसके अन्तर्गत मनुष्य को अतिथि सत्कार करना आवश्यक था। इसी कारण प्राचीनकाल से भारत में आतिथ्य संस्कार का नियम बन गया।
पंचयज्ञों के अतिरिक्त गृहस्थों को अनेक संस्कार करने पड़ते थे यह संस्कार जन्म से मृत्युपर्यन्त तक गृहस्थ व्यक्तियों को करने पड़ते थे।
गृहस्थ आश्रम में गृहस्थ के अनेक कार्य होते थे उसे विवाह के पश्चात् एक नये घर का संचालन करना होता था। अपनी पत्नी तथा बच्चों के लिए जीविका का प्रबन्ध करना होता था, यह सब कार्य धार्मिक रीतियों और नियमों के साथ-साथ चलते थे जिनमें उसे यज्ञ, तर्पण, सन्ध्या, अग्निहोत्र तथा अन्य संस्कारों का व्यवहार भी करना पड़ता था।
3. वानप्रस्थ आश्रम - अपनी आयु के तृतीय चरण में मनुष्य वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता था। साधारणतः मनुष्य अपने जीवन के गृहस्थ आश्रम के समस्त उत्तरदायित्वों को पूरा करने के पश्चात् ही इस आश्रम को ग्रहण करता था। महाकाव्यों के अनुसार सामान्यतः ऐसी सामाजिक धारणा थी कि पौत्र प्राप्त होने पर मनुष्य वानप्रस्थ का अनुसरण करता था।
वानप्रस्थ में प्रवेश करने वाले अधिकांशतः ब्राह्मण और क्षत्रिय होते थे, शूद्रों को तो गृहस्थाश्रम के अलावा अन्य आचरण करने की अनुमति नहीं थी, वैश्य समुदाय स्वभावतः प्रवृत्ति प्रधान था, व्यावसायिक वैभव एवं आर्थिक समिति के सामने विराग और त्याग का रूप इन्हें स्वीकार नहीं था अतः वानप्रस्थ इन्हें आवश्यक नहीं था।
डॉ० राधाकुमुद मुकर्जी के अनुसार - वानप्रस्थ के लिए अग्रांकित वस्तुयें आवश्यक थीं-
(i) अनिश्चय ( वस्तुओं का संग्रह न करना)
(ii) अर्ध्वरेता (ब्रह्मचारी)
(iii) वर्ष में एक स्थान पर रहना (ध्रुवशीलो वर्षासु)
(iv) केवल भिक्षा के लिए गांव में प्रवेश करना और वह भी गांव वालों के भोजन प्राप्त कर लेने पर अथवा उस समय जब उनके द्वारा प्राप्यखान की संभावना न हो और अपनी वाणी, चक्षु और इन्द्रियों को रोककर बिना आशीर्वाद दिये लौट आना।
(i) शरीर को ढकने के लिए (आच्छादनार्थ) कोपीन धारण करना या पुराने चिपड़ों (प्रहीण) को खुश होकर (निर्णिज्य) पहनना।
(ii) वृक्षों को तोड़कर फल या पत्ती न खाना और वनस्पतियों की भी हिंसा न करना।
(iii) वर्षा ऋतु के पश्चात् किसी गांव में दो रात न ठहरना।
(iv) अपने प्राण धारण के लिए जीव हिंसा न करना।
इस प्रकार वानप्रस्थ का जीवन बड़ा साधनामय होता था। उसे नख, केश आदि का कार्तन वर्जित था, उसे गृह त्यागकर वनभूमि, पाषाणखंड अथवा धूल-धूसरित भूमि पर सोना पड़ता था। वह पूर्णतः वनवासी था। वन के कन्दमूल फल और दूध का ही भोजन के स्थान पर सेवन करना पड़ता था, जीर्ण- शीर्ण वस्त्र, वृक्ष की छाल तथा पशु चर्म ही उनके वस्त्राभूषण होते थे। इन कष्टों को सहते हुए वे तपस्या में लीन रहते थे।
डॉ० मुकर्जी ने आगे बताया है - “यदि वानप्रस्थी बनने में सपत्नी रहता तो औदुम्बर (तामसं भेद) वरिंच, या वालखिल्य की भांति तप करना था, अथवा अपलीक होता तो उद्दण्डक उद्दवृत्तिका या पंचाग्नि-मध्यशायी (पंचाग्नि तापन) रूप से तप करता था। उसे उचित है कि कृष्ट भूमि पर न रहे, गांव में न जाये, वर्ष भर के लिए अन्न का संचय जरा न रखे और केवल वल्कल और अजिन (चीराजिन) धारण करें।
यह ध्यान देने योग्य है कि गौतम ने भिक्षु, शब्द की तृतीय आश्रम पर के लिए प्रयोग किया है किन्तु वैधायन तथा आपस्तम्ब ने इसके स्थान पर परिब्राज्ञक शब्द का और चौथे आश्रम के अर्थ में प्रयोग किया है।
4. संन्यास आश्रम - मनुष्य अपनी आयु के अन्तिम चरण में सन्यास ग्रहण करता था। वैधायन के अनुसार संन्यासी या परिब्राजक, नैष्ठिक, विधुर, अनपत्य गृहस्थ और सप्तति वर्ष से अधिक आयु वाले ऐसे गृहस्थों में से जिनके पुत्र गृहस्थाश्रम में सुप्रतिष्ठित हो गये हों, सन्यास लेकर चतुर्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। अनपत्य ( बिना पत्नी के) गृहस्थों को शालीन (शाला या गृह के स्वामी) यायावर और चक्रचर (जो बारी-बारी से जीविका के लिए धनाढ्यों का आश्रम लेते हैं) कहा गया है।
आपस्तम्ब में ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है जो अवैध ढंग से भिक्षु बन जाते हैं। इस प्रकार उन्होंने संन्यासी या परिब्राजक की परिभाषा इस प्रकार दी है, 'सत्य और अनृत्य, सुख और दुःख वेद इस लोक और परलोक को त्याग कर जो केवल आत्मा की जिज्ञासा करता है। पर कुछ ऐसे संन्यासी का किया है जो स्त्री के साथ या बिना स्त्री के तथा स्त्री के सहित भी होते थे।
संन्यास आश्रम में मनुष्य अन्य सांसारिक वातावरण और प्रलोभनों से पूर्णतया विरक्त हो जाता है। सूत्र साहित्य में संन्यासी को भिक्षु, परिव्राज, यती, मौन आदि नामों से पुकारा गया है। संन्यासी मनुष्य चरित्र से ब्रह्मचारी, अहिंसावृत्ति, निर्द्वन्द्व, सत्यनिष्ठ, क्रोधहीन और क्षमताशील होता था। वस्त्रों के नाम पर भी वह वृक्षों की छाल अथवा फेंके हुए फटे-पुराने कपड़े पहना करता था। अगर यह भी न हो तो नग भी रहता था। भोजन की दृष्टि से संन्यासी अल्पाहारी होते थे एक समय की भिक्षा में मिला पदार्थ ही उनका भोजन होता था। शेष समय संन्यासी तपस्या तथा अपने ईष्ट के ध्यान में व्यतीत करता था। महाकाव्यों के अनुसार स्त्रियाँ भी संन्यास आश्रम में प्रवेश करती थीं परन्तु कालान्तर में उनका प्रवेश निषेध समझा जाने लगा।
सामान्यतः ब्राह्मण वर्ग ही संन्यास को ग्रहण करते थे परन्तु उदाहरण मिले हैं। वैश्य इसे उपयुक्त नहीं समझते थे तथा शूद्रों का महाकाव्य काल में अपवाद स्वरूप विदुर ने संन्यास ग्रहण किया था।
कहीं-कहीं क्षत्रिय संन्यासियों के संन्यास ग्रहण करना निषेध था।
आश्रम धर्म के अध्ययन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इस धर्म का विधान मानव जीवन के 4 पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया गया था। तीन पुरुषार्थों का अर्जन करते हुए मनुष्य मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी होता था। इस व्यवस्था से जीवन के किसी भी पक्ष की अवहेलना नहीं की गई थी, वरन् इसके द्वारा जीवन में सन्तुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया था। केवल तप जीवन का निरादर और भोग जीवन का उपहास है लेकिन इन दोनों में समन्वय से ही जीवन की समृद्धि और पूर्णता है। भारतवर्ष की यह आश्रम व्यवस्था संसार के सामाजिक विचार के संपूर्ण इतिहास में एक अनोखी देन है। ड्यूसन नामक फ्रांसीसी विद्वान ने लिखा है- “मानव जाति के संपूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं मिलती जो भव्यता और महत्ता में इसकी तुलना कर सकें
पुनर्जन्म - कर्मवाद की धारणा को प्रभावपूर्ण बनाने के हेतु पुनर्जन्म की भावना को व्यापक रूप से प्रयोग किया गया है। पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने द्वारा किये गये कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। हम जिस प्रकार के कर्म करते हैं उनमें से कुछ का फल तो हमें उसी जीवन में मिल जाता है परन्तु शेष कर्म हमारे आगामी जीवन को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार पुनर्जन्म की धारणा के अनुसार सुख-दुःख, सफलता असफलता, समृद्धता और निर्धनता आदि सभी हमारे पूर्व कर्मों के परिणाम है।
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- प्रश्न- वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं? भारतीय दर्शन में इसका क्या महत्व है?
- प्रश्न- जाति प्रथा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- जाति व्यवस्था के गुण-दोषों का विवेचन कीजिए। इसने भारतीय
- प्रश्न- ऋग्वैदिक और उत्तर वैदिक काल की भारतीय जाति प्रथा के लक्षणों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन काल में शूद्रों की स्थिति निर्धारित कीजिए।
- प्रश्न- मौर्यकालीन वर्ण व्यवस्था पर प्रकाश डालिए। .
- प्रश्न- वर्णाश्रम धर्म से आप क्या समझते हैं? इसकी मुख्य विशेषताएं बताइये।
- प्रश्न- पुरुषार्थ क्या है? इनका क्या सामाजिक महत्व है?
- प्रश्न- संस्कार शब्द से आप क्या समझते हैं? उसका अर्थ एवं परिभाषा लिखते हुए संस्कारों का विस्तार तथा उनकी संख्या लिखिए।
- प्रश्न- सोलह संस्कारों का विस्तृत वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में संस्कारों के प्रयोजन पर अपने विचार संक्षेप में लिखिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के प्रकारों को बताइये।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में विवाह के अर्थ तथा उद्देश्यों का उल्लेख कीजिए तथा प्राचीन भारतीय विवाह एक धार्मिक संस्कार है। इस कथन पर भी प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- परिवार संस्था के विकास के बारे में लिखिए।
- प्रश्न- प्राचीन काल में प्रचलित विधवा विवाह पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय समाज में नारी की स्थिति पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में नारी शिक्षा का इतिहास प्रस्तुत कीजिए।
- प्रश्न- स्त्री के धन सम्बन्धी अधिकारों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- वैदिक काल में नारी की स्थिति का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- ऋग्वैदिक काल में पुत्री की सामाजिक स्थिति बताइए।
- प्रश्न- वैदिक काल में सती-प्रथा पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक में स्त्रियों की दशा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- ऋग्वैदिक विदुषी स्त्रियों के बारे में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- राज्य के सम्बन्ध में हिन्दू विचारधारा का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- महाभारत काल के राजतन्त्र की व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्य के कार्यों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- राजा और राज्याभिषेक के बारे में बताइये।
- प्रश्न- राजा का महत्व बताइए।
- प्रश्न- राजा के कर्त्तव्यों के विषयों में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- वैदिक कालीन राजनीतिक जीवन पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक काल के प्रमुख राज्यों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- राज्य की सप्त प्रवृत्तियाँ अथवा सप्तांग सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- कौटिल्य का मण्डल सिद्धांत क्या है? उसकी विस्तृत विवेचना कीजिये।
- प्रश्न- सामन्त पद्धति काल में राज्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्य के उद्देश्य अथवा राज्य के उद्देश्य।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में राज्यों के कार्य बताइये।
- प्रश्न- क्या प्राचीन राजतन्त्र सीमित राजतन्त्र था?
- प्रश्न- राज्य के सप्तांग सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- कौटिल्य के अनुसार राज्य के प्रमुख प्रकारों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- क्या प्राचीन राज्य धर्म आधारित राज्य थे? वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- मौर्यों के केन्द्रीय प्रशासन पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
- प्रश्न- अशोक के प्रशासनिक सुधारों की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गुप्त प्रशासन के प्रमुख अभिकरणों का उल्लेख कीजिए।
- प्रश्न- गुप्त प्रशासन पर विस्तृत रूप से एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- चोल प्रशासन पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- चोलों के अन्तर्गत 'ग्राम- प्रशासन' पर एक निबन्ध लिखिए।
- प्रश्न- लोक कल्याणकारी राज्य के रूप में मौर्य प्रशासन का परीक्षण कीजिए।
- प्रश्न- मौर्यों के ग्रामीण प्रशासन पर एक लेख लिखिए।
- प्रश्न- मौर्य युगीन नगर प्रशासन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- गुप्तों की केन्द्रीय शासन व्यवस्था पर टिप्पणी कीजिये।
- प्रश्न- गुप्तों का प्रांतीय प्रशासन पर टिप्पणी कीजिये।
- प्रश्न- गुप्तकालीन स्थानीय प्रशासन पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में कर के स्रोतों का विवरण दीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में कराधान व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
- प्रश्न- प्राचीनकाल में भारत के राज्यों की आय के साधनों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारत में करों के प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- कर की क्या आवश्यकता है?
- प्रश्न- कर व्यवस्था की प्राचीनता पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- प्रवेश्य कर पर टिप्पणी लिखिये।
- प्रश्न- वैदिक युग से मौर्य युग तक अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- मौर्य काल की सिंचाई व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक कालीन कृषि पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- वैदिक काल में सिंचाई के साधनों एवं उपायों पर एक टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- उत्तर वैदिक कालीन कृषि व्यवस्था पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भारत में आर्थिक श्रेणियों के संगठन तथा कार्यों की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- श्रेणी तथा निगम पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- श्रेणी धर्म से आप क्या समझते हैं? वर्णन कीजिए
- प्रश्न- श्रेणियों के क्रिया-कलापों पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- वैदिक काल की शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- बौद्धकालीन शिक्षा व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए वैदिक शिक्षा तथा बौद्ध शिक्षा की तुलना कीजिए।
- प्रश्न- प्राचीन भारतीय शिक्षा के प्रमुख उच्च शिक्षा केन्द्रों का वर्णन कीजिए।
- प्रश्न- "विभिन्न भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों की जड़ें उपनिषद में हैं।" इस कथन की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- अथर्ववेद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।