प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 7
कौटिल्य के सप्तांग एवं मण्डल सिद्धान्त
(Saptang and Mandal Theory of Kautilya)
प्रश्न- राज्य की सप्त प्रवृत्तियाँ अथवा सप्तांग सिद्धान्त को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त के विषय में आप क्या जानते हैं? समझाइए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. राज्य के सात अंगों के महत्व का विवरण दीजिए।
2. राज्य के सप्तांगों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
राज्य की सप्त प्रवृत्तियाँ या सप्तांग सिद्धान्त
सप्तांग अंग - प्राचीन भारत में हिन्दू राजतंत्र के व्यापक विकास के दर्शन होते हैं। नीतिशास्त्र की प्राचीनकाल की पुस्तकों तथा समकालीन साहित्य से राजा के स्वरूप, गुण, राज्य की प्रकृति एवं स्वरूप तथा संगठन में तार्किक, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि पर विस्तार के साथ विवरण है, साथ ही साथ कौटिल्य के सप्तांग सिद्धान्त के विषय में भी अच्छी जानकारी प्राप्त होती है। मनुस्मृति तथा अन्य ग्रन्थों में भी इस प्रकार के सिद्धान्त पर प्रकाश डाला गया है।
सप्तांग - नामकरण तथा अवधारणा : प्राचीन हिन्दू राजतंत्र के विद्वानों ने राज्य के सावयव रूप की कल्पना की है तथा यह स्वीकार किया है कि मानव शरीर के समान राज्य भी विभिन्न अवयव जन्म प्रवृत्तियों का एक सम्बन्धित स्वरूप है। ये अवयव सात बताये गये हैं। इन सातों को राज्य के सात अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। इनसे राज्य शरीर की रचना मानी जाती है। इन्हीं अंगों को सप्तांग के नाम से पुकारा गया है।
सात अंग या सप्तांग - सातों अंग प्राकृतिक अवयव हैं। प्राकृतिक अवयव वह है जो स्वतः अपने जुटा हो। कालिम अवयव तो जोड़ा जाता है तथा निकाला जाता है, परन्तु प्राकृतिक अवयव को हटाया नहीं जा सकता है। राज्य के नाम के साथ ही ये सातों स्वयमेव जुड़े रहने से प्राकृतिक अवयव अथवा स्वाभाविक अंग कहे जाते हैं।
(1) स्वामी - स्वामी से तात्पर्य राजा अथवा सम्राट से है। यह राज्य का प्रथम अंग है। कौटिल्य राजा के गुणों की विस्तारपूर्वक चर्चा करता है। उसके अनुसार राजा को निम्नलिखित गुणों से संयुक्त होना चाहिए-
(i) उच्चकुल में उत्पन्न,
(ii) दैव- सम्पन्न,
(iii) बुद्धिमान,
(iv) सत्व- सम्पन्न (सम्पत्ति तथा विपत्ति में धैर्यशाली),
(v) वृद्धदर्शी
( वृद्धजनों का सेवक ),
(vi) धर्मात्मा,
(vii) सत्यनिष्ठ,
(viii) सत्यप्रतिज्ञ (अविसंवादक),
(ix) कृतज्ञ,
(x) स्थूललक्ष ( महान दाता),
(xi) महान उत्साहयुक्त,
(xii) आलस्यरहित,
(xiii) सामन्तों को आसानी से वश में करने वाला,
(xiv) दृढ़ निश्चयी
(xv) विनयशील।
यहाँ 'महाकुलीनता' का उल्लेख विशेष महत्वपूर्ण है। कौटिल्य इस बात के बिल्कुल पक्ष में नहीं था कि शासन की बागडोर किसी निम्न कुल में उत्पन्न व्यक्ति को प्राप्त हो।
(2) अमात्य - कौटिल्य ने अमात्यों की उपयोगिता का उल्लेख करते हुए राज्य प्रबन्ध की सफलता के लिए अमात्यों की नियुक्ति पर अधिक बल दिया है। एक अमात्य में विद्या, बुद्धि, विवेक, नीति, निपुण, साहसी, राष्ट्र सेवा, स्वामी भक्त, कर्तव्यनिष्ठ एवं स्वार्थरहित आदि गुण होना चाहिए तब ही वह सफल अमात्य बन सकेगा।
(3) जनपद - कौटिल्य ने इनका जनपद के महत्व पर अधिक महत्व दिया गया है। जनपद का अर्थ राष्ट्र एवं वहाँ की निवास करने वाली जनता से है। अर्थशास्त्र में हर जनपद के लिए जनसंख्या निश्चित तथा प्राकृतिक सीमाबद्ध भू-क्षेत्र, राज्य सत्ता की स्थापना, सैन्य शक्ति एवं आर्थिक व्यवस्था को आवश्यक अंग बताया गया हैं।
(4) दुर्ग - कौटिल्य ने राज्य का विशेष महत्व पर बल देते हुए दुर्गों के निर्माण की आवश्यकता बताई है। उसने चार प्रकार के दुर्गों का उल्लेख किया है। जिनके नाम हैं-
(1) औदिक दुर्ग
(2) पार्वत दुर्ग
( 3 ) घान्वन् दुर्ग तथा
(4) वन दुर्ग।
महाभारत में भी कई अन्य प्रकार के दुर्गों का उल्लेख है। राजधानी को दुर्गाकार रूप में बसाया जाता था इस कारण इसको पुर भी कहा गया है।
(5) कोष - राज्य की खुशहाली, समस्त कार्यविधियों तथा सुचारु संचालन के दृष्टिकोण से कोष का बड़ा महत्व है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार "राजा को अपने पूर्वजों द्वारा कोष में जो धन जमा किया है उसका व्यय बड़ी सावधानी के साथ करना चाहिए तथा ऐसे उचित साधनों द्वारा इसमें वृद्धि भी करनी आवश्यक है।'
(6) सैनिक शक्ति - राज्य की सुरक्षा तथा उसके विस्तार के लिये सैनिक शक्ति का बड़ा महत्व है। अतः इसके संगठन पर अधिक रूप में बल देना चाहिए। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में सेना की सात श्रेणियों का वर्णन किया है। जिनके नाम हैं-
(i) मोल सेना - इस सेना को राजधानी में रहना चाहिए तथा राजधानी की सुरक्षा इसी के हाथों में रहना चाहिए।
(ii) भूत सेना - इसमें किराए पर लड़ने वाले सैनिक होते थे।
(iii) श्रेणी सेना - इस प्रकार की सेना में युद्धवीर जातियों के सैनिकों को भर्ती करना चाहिए।
(iv) मित्र सेना - इस प्रकार की सेना में मित्र राज्यों के सैनिक होते थे।
(v) अमित्र सेना - इस प्रकार की सेना में शत्रु राज्य के सैनिक होते थे।
(vi) अटवी सेना - इस प्रकार की सेना में अन्य जातियों के सैनिक थे।
(vii) साहिक सेना - इसमें लूटमार करने वाले हिंसक तथा दस्यु आदि व्यक्तियों को सैनिक रूप में नियुक्त किया जाता था।
(7) मित्र - कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्य के सप्तांग का अन्तिम अंग मित्र वर्ग है। विपदा अशान्ति तथा आवश्यकता के समय अच्छी सहायता मित्र राष्ट्रों की सेना से मिलती है।
सापेक्षिक महत्व - सप्तांग सिद्धान्त के सातों अंग में कौटिल्य ने बताया है कि प्रत्येक पहले वाला अपने बाद वाले के मुकाबले में अधिक महत्वपूर्ण होता है जैसेकि स्वामी अमात्य से, अमात्य जनपद से इत्यादि-इत्यादि। परन्तु कौटिल्य ने इन सात अंगों में स्वामी राजा के अंग को सर्वश्रेष्ठ तथा शक्तिमान माना है। क्योंकि अन्य अंग उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं तथा उसी के आदर्श ग्रहण करते हैं। यही वह प्रमुख कारण है कि प्राचीन विचारकों ने जब भी राज्य की उत्पत्ति की बात पर प्रकाश डाला तब राजा की उत्पत्ति का वर्णन सर्वश्रेष्ठ माना। परन्तु भारद्वाज ने आमात्य पर अधिक बल दिया है जो राजा के होने या न होने पर राज्य संचालन में हर सम्भव प्रयास करता है। परन्तु यह भी कहा है कि यदि राजा योग्य होगा तब आमात्य भी योग्य चुनेगा। कामन्दक ने समस्त सातों अंगों को महत्वपूर्ण रूप में स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में एक के बिना दूसरा अपंगु रूप में रहता है। अतः सातों का स्वतंत्र स्थान तथा महत्व है। तक सातों अंगों का एक समान रूप रहेगा तब तक राज्य उन्नति करता रहेगा।
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