लोगों की राय

बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा

बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2759
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- पारिस्थितिकी तन्त्र की संरचना एवं कार्य प्रणाली की विवेचना कीजिए।

अथवा
पारिस्थितिकी तन्त्र के प्रमुख घटकों पर प्रकाश डालिए।
'अथवा
निम्न पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-
1. ऊर्जा प्रवाह 2. भोजन श्रृंखला

उत्तर-

पारिस्थतिकी तन्त्र की संरचना एवं कार्यप्रणाली
अथवा
पारिस्थतिकी तन्त्र के घटक या अवयव

पारिस्थितिकी तन्त्र की संरचना में जैविक और निर्जीव पर्यावरण के घटकों को सम्मिलित किया जाता है। पारिस्थितिकी तन्त्र में केवल कार्यप्रणाली पर बल दिया जाता है जैविक पर्यावरण के अन्दर जीवों के परस्पर सम्बन्ध का आधार भोजन है। भोजन प्राप्त करने के तरीकों के आधार पर जीवों को दो मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है-

(1) स्वयंपोषी
(2) परपोषी 

1. स्वयंपोषी जीव - स्वयंपोषी जीव हरे पौधे हैं जो भोजन का निर्माण स्वयं सरल तत्वों और ऊर्जा की सहायता से करते हैं। इसीलिये इन्हें उत्पादक भी कहते हैं।

2. परपोषी जीव - परपोषी स्वयंपोषी जीवों द्वारा निर्मित भोजन पर निर्भर करते हैं। इसीलिए इन्हें उपभोक्ता भी कहते हैं। परपोषी या उपभोक्ता जीवों को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है-

(i) वृहत उपभोक्ता - ये वो जीव हैं जो वनस्पतियों तथा जीवों को अपना भोजन बनाते हैं। ये भक्षपोषी कहलाते हैं।

(ii) लघु उपभोक्ता - ये वो जीव हैं जो मृत और सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों पर अपना जीवनयापन करते हैं। ये परासरण पोषी या अपघटक कहलाते हैं।

वृहत उपभोक्ता अर्थात् भक्षपोषी जीवों को उनके भोजन के प्रकार से कई वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-

(i) शाक भक्षी
(ii) माँस भक्षी
(iii) सर्वभक्षी

जीवों के समान ही भौतिक पर्यावरण को भी तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) अकार्बनिक तत्व - नाइट्रोजन, कार्बन डाइ ऑक्साइड, कैल्सियम तथा फास्फोरस आदि।

(ii) कार्बनिक पदार्थ - प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और ह्यूमस आदि।

(iii) जलवायु कारक - ऊर्जा, ताप तथा जल आदि।

अकार्बनिक तत्वों का सम्बन्ध परिसंचरण की क्रिया से है और कार्बनिक पदार्थ जैविक और अजैविक अवयवों के बीच की कड़ी होती है। इन कार्बनिक पदार्थों पर अपघटकों का जीवन आश्रित होता है। जलवायु कारक जीवों की वृद्धि व जीवन क्रियाओं के लिए आवश्यक होते हैं। इनमें से ऊर्जा जीवों में प्रवाहित होकर एक संगठन बनाये रखने में सहायक होती है।

जैव-भौम-रासायनिक परिसंचरण

पौधे अपनी वृद्धि के लिये सौर ऊर्जा, जल व कार्बन डाइ आक्साइड के अतिरिक्त मिट्टी से भी अनेक खनिज तत्व ग्रहण करते हैं जो विभिन्न पोषण स्तर के प्राणियों में से होते. हुए, जीवों की मृत्यु के पश्चात् पुनः मृदा में विलीन हो जाते हैं। इस प्रकार जहाँ ऊर्जा एक बार जीवों द्वारा उपयोग किए जाने के बाद पुनः उपयोग के लिये प्राप्त नहीं होती है, खनिज तत्त्व बार-बार पौधों द्वारा अवशेषित होकर, विभिन्न जीवों में से गुजरते हुए चक्रीय रूप से भ्रमण करते रहते हैं। खनिज तत्वों क जीवों व भूमि के माध्यमों से होकर चक्रीय भ्रमण के कारण ही इस क्रिया को जैव-भौम रासायनिक परिसंचरण कहते हैं। कुछ तत्त्व वायुमण्डल में से होकर भी चक्रीय भ्रमण करते हैं। जैसे कार्बन व आक्सीजन तथा कुछ तत्वों के परिसंचरण में वायुमण्डल, स्थलमण्डल व जलमण्डल व जीवों सभी का योगदान रहता है। उदाहरणार्थ कार्बनिक पदार्थों के स्थल पर भूमि में ऑक्सीजन से कार्बन डाइ ऑक्साइड बनती है जो कि वायुमण्डल में मिल जाती है। इसी प्रकार नाइट्रोजन वायुमण्डल में होते हुए भी सीधे पौधों द्वारा अवशेषित नहीं की जा सकती है। नाइड्रोजन पहले आक्साइडों के रूप में जल के साथ भूमि में पहुँचती है और फिर नाइट्रेटों के रूप में पौधों द्वारा ग्रहण की जाती है। नाइट्रोजन वायुमण्डल में स्वतन्त्र गैस के रूप में वापस आने से पहले भूमि में एकत्रित होती है।

ऊर्जा प्रवाह 

जैव मण्डल में जीवों का अस्तित्व ऊर्जा पर निर्भर है। जीवों की समस्त जीवन क्रियाओं के लिए ऊर्जा आवश्यक है। भोजन ग्रहण करने तथा उसको पचाकर शरीर के तंतुओं के निर्माण में ऊर्जा का ही रूपान्तरण होता है। इस प्रकार जीवों के परस्पर सम्बन्ध और उनके पर्यावरण के साथ. सम्बन्ध ऊर्जा गतिकी के सिद्धान्तों के आधार पर नियमित होते हैं।

ऊर्जा के प्रथम सिद्धान्त के अनुसार - ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में बदला जा सकता है परन्तु ऊर्जा को नष्ट नहीं किया जा सकता है। प्रकाश ऊर्जा को ऊष्मा या रासायनिक ऊर्जा में बदला जा सकता है। रासायनिक ऊर्जा ही श्वसन क्रिया के फलस्वरूप ताप ऊर्जा (ऊष्मा) में बदल जाती है।

ऊर्जा के द्वितीय सिद्धान्त के अनुसार - जब ऊर्जा को एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित किया जाता है तो ऊर्जा का ह्रास होता है। यह ह्रास होने वाली ऊर्जा वायुमण्डल में विकिरित हो जाती है। जब किसी वस्तु को गर्म किया जाता है तो उस वस्तु को दी जा रही सारी ऊर्जा का प्रयोग उसका 2. तापक्रम बढ़ाने में नहीं होता है, क्योंकि कुछ ऊर्जा गर्म वस्तु के समीप के ठण्डे स्थान में विकिरित होती रहती है। इसी प्रकार किसी पौधे पर पड़ने वाली प्रकाश ऊर्जा की सारी मात्रा पौधे के भोजन में संश्लेषित नहीं होती है। उदाहरण के लिये लकड़ी द्वारा, गैस द्वारा तथा स्टोव पर खाना बनाते समय परम्परागत चूल्हों में 20% से अधिकतम 40% तक ऊर्जा का उपयोग हो पाता है शेष ऊर्जा वातावरण में विलीन हो जाती है।

प्रकाश ऊर्जा की कुछ मात्रा हरे पौधों द्वारा भोजन के रूप में संश्लेषित की जाती है। इस ऊर्जा का बड़ा भाग पौधों द्वारा श्वसन क्रिया में खर्च हो जाता है और शेष ऊर्जा द्वारा उनके शरीर का निर्माण होता है। जब पौधों को कोई शाकभक्षी प्राणी भोजन के रूप में लेता है तो रासायनिक ऊर्जा का अधिकांश भाग पुनः श्वसन क्रिया द्वारा ताप ऊर्जा में बदल जाता है और कुछ अंश मात्र ही प्राणी के शरीर में रह जाता है। यही क्रिया आगे भी चलती रहती है और अन्त में विभिन्न प्राणियों की मृत्यु के बाद उनके शरीर में बची ऊर्जा अपघटकों द्वारा व्यय करके ताप ऊर्जा में बदलती जाती है। इस प्रकार प्रकाश ऊर्जा की सारी मात्रा कुछ समय बाद जीवों में से प्रवाहित होकर ऊष्मा में रूपान्तरित हो जाती है। यह ऊष्मा पौधों द्वारा पुनः प्रयोग नहीं की जा सकती है और जीवों की गतिविधियों के सुचारू रूप से संचालन के लिए ऊर्जा की नियमित आपूर्ति सौर विकिरणों के रूप में बनी रहती है। इस प्रकार ऊर्जा चक्रीय रूप में भ्रमण न करके केवल प्रवाहित होती है। इसी क्रिया को ऊर्जा प्रवाह कहते हैं।

ऊर्जागतिकी के द्वितीय सिद्धान्त को किसी पारिस्थितिकी तन्त्र के ऊर्जा प्रवाह में प्रयुक्त करने से ज्ञात होता है कि कोई भी जीव अपने भोजन द्वारा प्राप्त की गई समस्त ऊर्जा अपने शरीर के तन्तुओं से एकत्र नहीं कर सकता है। परिणामतः यदि प्राणी शाकभक्षी के स्थान पर मांसभक्षी होगा तो उसे ऊर्जा की आवश्यकता पूरी करने के लिए सौर ऊर्जा की अधिक मात्रा की आवश्यकता. होगी। विभिन्न अनुसंधानों से ज्ञात हुआ है कि कोई भी जीव प्राप्त की हुई ऊर्जा का औसतन 10% से अधिक भाग अपने शरीर निर्माण में प्रयोग नहीं कर पाता। पौधे तो सौर ऊर्जा का लगभग एक प्रतिशत भाग ही तन्तु निर्माण में एकत्र कर पाते हैं। उदाहरण के लिए सौर ऊर्जा की मात्रा 1000 कैलोरी हो तो पौधों में 10 कैलोरी, उस पौधे को प्राप्त शाकभक्षी में केवल एक कैलोरी और उस शाकभक्षी जीव को खाकर मांसभक्षी में केवल 0.1 कैलोरी ऊर्जा संग्रहीत होगी।

भोजन श्रृंखला

विभिन्न जीव अपने भोजन के लिए एक भक्षण-भक्ष श्रृंखला में बँधे होते हैं। इस श्रृंखला के एक छोर पर हरे पौधे हैं तो दूसरे छोर पर अपघटक। इसी श्रृंखला को भोजन श्रृंखला की संज्ञा दी गई है। उदाहरण के लिए-

(1) घास बकरी अथवा मनुष्य
(2) घास हिरण शेर आदि प्रमुख भोजन श्रृंखला है।

भोजन ऊर्जा का एक प्राणी से दूसरे प्राणी में जाने में लगभग 90% ऊर्जा का ऊष्मा के रूप में अपव्यय हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि भोजन श्रृंखला लम्बी नहीं हो सकती। एल्टन नामक जीव शास्त्री द्वारा बताया गया है कि एक भोजन श्रृंखला में पाँच-छः से अधिक कड़ियाँ नहीं होती।

प्रकृति में केवल एक सरल भोजन श्रृंखला ही नहीं होती है अपितु कई सरल भोजन श्रृंखलायें आपस में जुड़ी रहती हैं। ये आपस में अत्यन्त जटिल रूप में गुँथे रहकर भोजन जाल का निर्माण करती हैं। यही कारण है कि एक प्राणी कई प्रकार के प्राणियों को अपना भोजन बनाता है। इसी प्रकार एक पौधा या प्राणी कई प्राणियों का भोजन बनता है।

ओडम ने -  भोजन श्रृंखला के दो प्रकार बताए हैं-

1. शाकवर्ती भोज्य श्रृंखला - यह पौधों से प्रारम्भ होकर शाकभक्षी और विभिन्न मांसभक्षी। प्राणियों से सम्बन्ध रखती है।

2. अपरदी भोजन श्रृंखला - यह मृत सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों से प्रारम्भ होती है। इस कार्बनिक पदार्थ से सूक्ष्म जीव भोजन ऊर्जा प्राप्त करते हैं। सूक्ष्म जीवों को अन्य अपरद भक्षी प्राणी खाते हैं। इन अपरद भक्षी प्राणियों पर अन्य माँस भक्षी प्राणी निर्भर रहते हैं। इस श्रृंखला के प्रारम्भ कार्बनिक पदार्थ पौधों और प्राणियों दोनों से प्राप्त हो सकते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book