बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- पर्यावरण के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
अथवा
वातावरण के अवयवों का वर्णन कीजिए। भारतीय दर्शन में पर्यावरण के प्रमुख घटकों एवं सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
पर्यावरण के प्रमुख घटक
पर्यावरण का निर्माण पाँच प्रमुख घटकों की अन्तर्क्रियाओं के फलस्वरूप हुआ है जो चित्र से स्पष्ट है। पर्यावरण के विभिन्न घटकों को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है।
(1) जैविक पर्यावरण में सभी जीवधारी सम्मिलित हैं।
(2) भौतिक पर्यावरण (निर्जीव) पर्यावरण) में निर्जीव तत्व जैसे मिट्टी, जल तथा वायु आदि सम्मिलित हैं।
(3) सांस्कृतिक पर्यावरण में मानव और पर्यावरण के मध्य के सम्बन्धों, जैसे- बस्तियाँ, आर्थिक गतिविधियाँ आदि सम्मिलित हैं।
इन तत्वों का वर्गीकरण तालिका से स्पष्ट है।
पर्यावरण के कारकों का वर्गीकरण

(3) बोधात्मक पर्यावरण
(4) व्यवहारगत पर्यावरण
प्रो. बर्नार्ड ने - अमेरिकन जनरल ऑफ सोशियोलॉजी में भौगोलिक पर्यावरण को दो भागों में विभाजित किया है-
1. भौतिक पर्यावरण-
भौतिक पर्यावरण के अन्तर्गत अजैविक तत्व आते हैं, जैसे-
(i) सृष्टि सम्बन्धी - जैसे सूर्य का ताप, विद्युत सम्बन्धी अवस्थायें, उल्कापात, चन्द्रमा के आकर्षण का ज्वार-भाटा पर प्रभाव।
(ii) भौतिक-भौगोलिक जैस - पर्वत, समुद्र, नदियाँ, घाटियाँ, दरें आदि।
(iii) मिट्टी।
(iv) जलवाय - इसमें मुख्यतया तापमान का सम्बन्ध, आर्द्रता तथा ऋतुओं का चक्र आता, आते हैं।
(v) अकार्बनिक पदार्थ - इसमें खनिज पदार्थ, धातुयें तथा पृथ्वी के रासायनिक गुण
(vi) प्राकृतिक साधन - जैसे- जल प्रपात, हवायें, ज्वार-भाटा, सूर्य की किरणें आदि।
(vii) प्राकृतिक यांत्रिक प्रक्रियायें - जैसे - पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण आदि।
2. जैविकीय अथवा कार्बनिक पर्यावरण-
(i) सूक्ष्म अवयव - इसके अन्तर्गत कीटाणु तथा बैक्टीरिया आदि आते हैं।
(ii) परोपजीवी कीटाण - ये कीट फसलों पर प्रभाव डालते हैं।
(iii) पेड़-पौधे।
(iv) भ्रमणशील पशु।
(v)हानिप्रद पशु और वृक्ष।
(vi) वृक्षों और पशुओं की परिस्थिति यह प्रत्यक्ष रूप से मनुष्य को प्रभावित करती है।
(vii) पशुओं के जन्म के पूर्व का वातावरण।
(viii) प्राकृतिक जैविकीय प्रक्रियायें-इनमें प्रजनन, विकास, रक्त संचार तथा मल निर्गमन आदि की प्रक्रियायें आती हैं।
भारतीय दर्शन में पर्यावरण के प्रमुख घटक
भारतीय दर्शन में पर्यावरण की अपेक्षा सृष्टि अथवा प्रकृति जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। सृष्टि से तात्पर्य मूलरूप से चार घटकों से है जिन्हें वरीयता क्रम में निम्नलिखित चार सोपानों में रख सकते हैं-
1. अण्डज (अंडों से पैदा होने वाले समस्त जीव, कीड़े-मकोड़े, साँप आदि।
2. पिण्डज (गर्भपिण्ड से पैदा होने वाले जन्तु-मनुष्य आदि।)
3. स्वेदज (शरीर के पसीने-मैल आदि से उत्पन्न होने वाले जूँ, चीलर आदि।
4. उद्भिज (जमीन के नीचे से उत्पन्न होने वाले वनस्पति-पेड़ आदि।
इस क्रम में उद्भिज के साथ भेषज अर्थात् जड़-मूल की औषधियाँ आदि जीव भी आते हैं।)
ये चारों ही जीव अर्थात् जीवित सृष्टि के चैतन्य तत्व कहे गये हैं। इस विशुद्ध भारतीय सोच से देखने पर पर्यावरण जैसा शब्द गौण-सा लगता है। आज पर्यावरण शब्द का अर्थ उपरोक्त परिभाषा क्रम के केवल चौथे नम्बर के (उद्भिज-भेषज) वृक्ष, वनस्पतियों आदि के संरक्षण-संवर्द्धन से लगाया जाता है। कुछ पर्यावरणशास्त्री दूसरे वरीयता क्रम पिण्डज अर्थात् वन्य जन्तु तथा मानव को पर्यावरण के मूल में मानते हैं। वास्तव में वे दोनों ही सोच आधी-अधूरी है। वरीयता क्रम के दूसरे और चौथे सृष्टि तत्त्वों को सर्वप्रथम मानने की सोच बौद्धिक मनुष्य की अस्तित्ववादी जीवनरक्षा मूलक स्वार्थपरक सोच का ही उदाहरण है। इस दो नम्बर के पिण्डज जिसमें मनुष्य ने अग्रणी भूमिका निभाई है, ने चार नम्बर के उद्भिज-भेषज जीव-जन्तुओं का सर्वाधिक दोहन-शोषण करके सृष्टि क्रम को छिन्न-भिन्न कर दिया है। यह सब कुछ मनुष्यों ने स्वार्थपरक अन्त के भण्डारण तथा क्रय-विक्रय के लालच के अधीन किया है। एक स्वास्थ्य तथा सामान्य सहज सृष्टि क्रम का अर्थ इन चारों जीव तत्वों के पारस्परिक सन्तुलन-संवर्द्धन व सहअस्तित्व से है। यह भाव ब्रह्म की सृष्टिवादिता को आदर, श्रद्धा तथा प्रेम से देखने की प्राचीन भारतीय मोच का एक विशेष अंग है। इसमें अत्यधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हम ब्रह्म को सृष्टि के वरीयता क्रम का पूर्णरूपेण आयाम देकर पर्यावरणीय अध्ययन करें तभी सार्थकता बन सकती है।
वरीयता-क्रम का पहला घटक अण्डज (छोटे से छोटे कृमि, कीट आदि) प्राणी ही सृष्टि के प्रथम श्रेणी के जीव हैं, जिन्हें पृथ्वी का सर्वश्रेष्ठ व सर्वप्रथम जीव कहलाया जाना चाहिए। अण्डों से उत्पन्न जीव ही (साँप से लेकर डायनासोर तक के विशालकाय अण्डज) मूल में है न कि मनुष्य। इसलिए सर्वप्रथम इन जीवों के रक्षण, संर्वद्धन तथा विकास के विषय में सोचना चाहिए। ये हजारों-लाखों अण्डज-कृमि, कीट मिट्टी को बनाते हैं। ये शनैः-शनैः कुतर-कुतर कर तथा चबा- चबाकर पृथ्वी के ऊपर के आवरण को तैलीय, जलीय, उर्वरक तथा मिट्टी में लास्य पैदा करते हैं। इन अति महत्वपूर्ण अण्डजों को आज अति उत्पादन के पश्चिमी भोगवादी सिद्धान्त के आधार पर कृमिनाशक तथा कीटनाशक रसायनों से नष्ट किया जा रहा है। इस दिशा में इन रासायनिक खादों तथा दवाओं का पूर्ण परित्याग करके विशुद्ध भारतीय परम्परावादी कृषक सोच को अपनाना चाहिए।
पर्यावरण सम्बन्धी सिद्धान्त
1. सीमाकारी कारकों का सिद्धान्त - सर्वप्रथम 1940 में लिविंग महोदय ने अपने शोध द्वारा यह स्पष्ट किया है कि पादप वृद्धि उसको प्राप्त खनिजों में सबसे कम मात्रा में उपस्थित खनिज पर भी निर्भर करती है। इसे बाद में 'लिविंग का न्यूनतम का नियम' कहा गया है। इनके अनुसार यदि किसी पौधे की वृद्धि के लिये एक तत्व को छोड़कर शेष सभी आवश्यक तत्व पर्याप्त मात्रा में उपस्थित हों, तभी भी पौधे की वृद्धि उस एक न्यूनतम मात्रा वाले तत्व द्वारा नियंत्रित होती है। बाद में 1905 में ब्लैकमैन ने भासंश्लेषण की क्रिया को प्रभावित करने वाले कारकों पर कार्य करते हुए "सीमाकारी कारकों का सिद्धान्त" प्रतिपादित किया। इनके अनुसार किसी भी जीवन क्रिया की गति सीमाकारी मात्रा में मिल रहे कारक पर निर्भर करती है।
2. सहनशीलता की सीमा का सिद्धान्त -1913 में शैलफोर्ड ने न्यूनतम सीमा के साथ- साथ अधिकतम सीमा का नियम बताया। शैलफोर्ड के अनुसार यदि कोई कारक अत्यधिक मात्रा में उपस्थित हो, जैसे मिट्टी में किसी एक तत्व की मात्रा आवश्यकता से अधिक हो, अथवा न्यूनतम मात्रा में हो जैसे ताप, तो भी जीवों की वृद्धि तथा जनन क्रिया पर ज्यादा प्रभाव पड़ता शैलफोर्ड ने न्यूनतम सीमा के नियम को बदलकर सहनशीलता की सीमा के नियम प्रतिपादन किया है।
इस नियम के अनुसार किसी भी जीव के लिए भौतिक पर्यावरण के कारकों को सहन कर सकने की एक न्यूनतम व एक अधिकतम सीमा होती है। इस न्यूनतम व अधिकतम सीमा के बीच किसी एक स्थान पर वह सीमा होती है जिस पर उस कारण की उपस्थिति में जीव की वृद्धि व जीवन क्रिया की दर अधिकतम होती है, इसको उपयुक्त सीमा कह सकते हैं।
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