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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

 

 

अध्याय - 5
पाश्चात्य कला (मध्यकालीन सौन्दर्यशास्त्र)
[Western Art (Medieval Aesthetics)]

 

प्रश्न- पाश्चात्य मध्य युग के विषय में आप क्या जानते हैं?

उत्तर-

अरस्तू की मृत्यु के पश्चात् यूनान में दार्शनिक विचारधारा का उत्तरोत्तर ह्रास हुआ। यह धारा पूर्णतः अवरुद्ध (रुकी) तो नहीं हुई परन्तु गति अवश्य धीमी हो गई थी। अरस्तू के बाद यूनानी विचारधारा का स्वर्णयुग समाप्त हो गया। यूनान पर पहले रोम का राज्य आया तत्पश्चात् ईसाई धर्म प्रारम्भ हुआ। ऐसा महान विचारक उत्पन्न नहीं हुआ जिसने दर्शन जगत को कोई मौलिक विचार प्रदान किया हो। एक, दो जो भी विचारक हुए भी तो वे प्लेटो और अरस्तू आदि के विचारों का संग्रह करने में ही अपनी सफलता समझते रहे।

वस्तुतः इस समय प्रतिभा का अकाल तो नहीं था परन्तु एक ऐसा धर्म-प्रधान वातावरण निर्मित हो गया था तथा अर्थ की शक्ति और राजनैतिक शक्ति अधिक व्यापक थी, उसका आदेश सम्पूर्ण यूरोप पर हावी होता गया। जब भी धर्म की प्रभुत्ता बढ़ी, समाज में विशुद्ध साहित्यिक विकास कठिन हो जाता है। इस काल में धर्म के प्रभुत्व के कारण जितने भी प्रभावशाली व्यक्ति थे, वे चर्च में दीक्षित (शिक्षा-दीक्षा) हुए इसलिये साहित्यिक व कला के निर्माण का क्षेत्र सूना हो गया। दूसरी बात, काव्य और कला को आत्मिक विकास का अवरोधक माना गया तथा इनके अध्ययन और अध्यापन पर प्रतिबन्ध लगाया गया। जिस प्रकार प्लेटो ने कवि को आदर्श गणराज्य से निष्कासित करने का सुझाव दिया था उसी प्रकार शक्ति मिल जाने पर धर्म ने साहित्य व कला को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया। इस समय कोई नवीन या मौलिक विचारधारा नहीं उजागर हुई। यह विचारों का अंध-युग कहा गया था। इतने सख्त प्रतिबन्ध के बावजूद भी लोक- साहित्य एवं कला की धारा विकासमान रही है, जिसमें जीवन के सहज आवेगों एवं स्थितियों को प्रदर्शित किया गया किन्तु सभ्य समाज में कलात्मक सर्जना हेतु समयाभाव था। इस युग में वास्तुकला का विकास गिरिजाघरों और किले के रूप में स्पष्ट परिलक्षित है क्योंकि वास्तुकला को सुरक्षा एवं धर्म की दृष्टि से पर्याप्त प्रोत्साहन मिला किंन्तु काव्य कला चित्रकला और मूर्तिकला आदि को धार्मिक उन्नति का विरोधी मानते हुए विकास नहीं होने दिया। वस्तुतः इस युग में सम्पूर्ण ज्ञान-साधना का केन्द्र ईसाई धर्म था और इसलिए जो ज्ञान-साधनाएँ धर्म के केन्द्र से सम्बन्धित थीं उनका ही पूर्ण विकास दृष्टव्य है। इस युग में मानव जीवन एवं कला में कोई रुचि लोगों में दिखाई नहीं दी। कलाओं के क्षेत्र में वास्तुकला के पश्चात् मूर्तिकला का ही विकास हुआ। इसमें भी चित्रों का अधिक विकास हुआ जिसमें इतनी गहरी खुदाई है कि तीन स्तर स्पष्ट परिलक्षित है। इसका उदाहरण-कॉलम ऑफट्राजन (रोमन)। व्यक्ति चित्र बनाये जाने लगे, जिसमें यथार्थवादिता का समावेश है। प्रारम्भिक ईसाई कला, वाइजेण्टाइन कला, रोमनस्क तथा गोथिक कला धार्मिक रहस्यात्मकता का ही परिणाम है। इस समय कला और सौन्दर्य सम्बन्धी विचार धर्म एवं नैतिकता से आक्रांत थे। इस समय रंग मंच आदि की निंदा की गई। नाट्य संवादों' को 'हवा और धुआँ कहा गया। रंगमंच की साज-सज्जा 'विलासितापूर्ण पागलपन है, इसके प्रति प्रेम का प्रदर्शन करना उचित नहीं। ये संत आंगस्टाइन के विचार थे। संत जेराम ने कहा था कि - "स्वर्ग में न्यायाधीशों के समक्ष देवदूतों द्वारा कोड़े खाते-खाते नीले पड़ गये थे क्योंकि उनकी केवल इतनी गलती थी कि उन्होंने सिसरो की प्रशंसा की थी। संत बेसिल ने तो खिलखिलाहट या हँसी दुराचारिता पर लिखते हुए कहा कि यह एक शारीरिक उत्तेजना है जिसे ईसा ने कभी अनुभव नहीं किया।"

मूर्तिकला का उपयोग बड़े गिरजाघर के चैप्पल सजाने में, स्थापत्य का काम चर्च बनाना, चित्रकला गिरिजाघर के भित्ति चित्र बनाना इत्यादि में कला कब्रों के तहखानों में जन्मी थी, तत्पश्चात यही से ही सिमट गये। प्रारम्भिक ईसाई रोमन कला, वाइजैण्टाइन कला, रोमनस्क और गोथिक कला में परिवर्तित हुई। धार्मिक कला को नवीन ऊँचाइयाँ भी मिलीं।

प्रारम्भिक ईसाई धर्म-गुरु कला पर नैतिक प्रतिबन्ध लगाते थे। कला उनके लिए माया, मिथ्यावादी, निकृष्ट और मनुष्य को पतन की ओर ले जाने वाली थी। दूसरे कला और सौन्दर्य यूनानी देवी के नाम से जुड़े थे जो ईसाई धर्म में मान्य नहीं था। लगभग पन्द्रह सौ सालों के इस मानसिक परेशानियों में कुछ नाम पुनः तारे की भाँति चमकते दृष्टव्य हुए। प्रारम्भिक ईसाई नैतिक प्रतिबन्ध अपने सर्वांगीण रूप में प्लेटो के कला सम्बन्धी दो प्रमुख निषेधों का ही प्रतिरूपण है, जो उसने रिपब्लिक के दसवें अध्याय में बताये थे प्रथम प्लेटो का कथन था कि कविता और चित्रकला अपनी असत्य कल्पनाशीलता के गुण के कारण सत्य और ईश्वर से दुगुनी दूर है। इसी आधार पर ईसाई विचारकों ने यह धारणा प्रस्तुत की, कि 'भ्रमात्मक कला विशेषतः रंगमंचीय कला अपकर्षात्मक तथा 'प्रारम्भ से ही मिथ्यावादी' है। प्लेटो का द्वितीय मत था कि अनुकरण कलायें। उत्तेजनाओं को सींचती हैं। अतः ईसाईयों ने भी ललित कलाओं को निकृष्ट माना तथा धार्मिक सत्व से परिपूर्ण कलाओं को ही श्रेष्ठ बताया। प्लेटो के समान ही इन्होंने कला को बहलाने वाला। आकर्षक कहा और उस पर "मिथ्या ऐन्द्रिय सुख प्रधान, अपकर्ष की ओर अग्रसर करने वाली अत्यन्त हानिकारक बताकर आरोप लगाया। कवितायें भी निकृष्ट हैं क्योंकि उनकी लय के साथ आत्मा अपने सौन्दर्य से गिरती है।"

मध्ययुग में सौन्दर्यशास्त्र के प्रायः विलोप होने का एक कारण यह भी है कि उन्होंने सौन्दर्य को दैवी नाम से जोड़कर एक भ्रांति उत्पन्न कर दी थी। ईसाई विचारकों के लिए ईश्वर के अतिरिक्त कुछ भी पवित्र व सत्य नहीं था। परमात्मा ही प्रत्येक निर्णय का एकमात्र विषय था। ईश्वर, जिसने सभी वस्तुओं का निर्माण किया, वही सत्य है, अवर्णनीय तथा अदृश्य है। दैवीय परिमाण और अनुपात में सम्बन्ध सौन्दर्य दृष्टव्य हैं। 'सत्यता पारलौकिक है। यह तथ्य कैथोलिक धर्माध्यक्षों में अपनी धार्मिक निष्ठा के फलस्वरूप 'ईसा के पुनर्जन्म से जोड़ी है। उनका यह विश्वास था कि ईसा मृत्योपरान्त जब कब्र से उठे तो उन्होंने शरीर व आत्मिक दोनों रूपों से सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त की थी। तत्पश्चात उन्होंने प्रत्येक वस्तु के अर्थ को पारलौकिकता से सम्बन्धित किया। इस तरह मध्ययुगीन सौन्दर्यशास्त्र पर कोई पुस्तक लिखने का प्रयत्न नहीं हुआ। कुछ विद्वानों ने सौन्दर्यशास्त्र का इतिहास लिखते हुए प्लाटिनस के पश्चात् सीधे अट्ठारहवीं सदी में पहुँच जाते हैं। वस्तुतः यह उचित भी है क्योंकि सौन्दर्यशास्त्र ईसाईयत के नैतिक प्रतिबन्धों द्वारा मार दिया गया। इस युग को सांस्कृतिक दृष्टि से पतन का युग कहा जाता है आत्मा के विकास, ईश्वर के गुणगान एवं स्वर्ग प्राप्ति पर बल दिया गया। आत्मा का परिमाण प्रेम, आनन्द, शान्ति, नम्रता, संयम, सहनशीलता, दयालुता इत्यादि गुणों को माना गया। क्रोचे ने अपनी पुस्तक में मध्ययुग के इतिहास को केवल चार पृष्ठों पर ही समाप्त कर दिया। इन 1000 वर्षो के उपरान्त तेरहवीं सदी में दांते एक ऐसे महान कृतिकार हुए जिन्होंने 'डिवाइन कॉमेडी' के रूप में न केवल एक महान साहित्यिक रचना की वरन् साहित्य के सम्बन्ध में कुछ मौलिक प्रश्नों पर भी विचार किया। इनके अनुसार वास्तविक सौन्दर्य की अनुभूति आध्यात्मिक स्तर से की जा सकती है। सौन्दर्य पर इन्होंने स्पष्ट विचार व्यक्त नहीं किये। मौलिक प्रतिभा एवं विचार के अभाव में कुछ विद्वानों ने दर्शन की अनेक शाखाओं के महत्वपूर्ण विचारों का संग्रह करना ही उचित समझा। महत्वपूर्ण दर्शनशास्त्र के विचारकों में सिसरों, लौंजाइनस, प्लाटिनस, संत आगस्टाइन, संत थामस एक्विनास, जॉन ड्राइडन इत्यादि का नाम उत्कृष्ट है।

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