बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 2
कला और समाज
(Art and Society)
प्रश्न- कला का समाज के साथ क्या सम्बन्ध है?
उत्तर-
चित्रकला इस संसार को 'आनन्द' और 'शान्ति' का संदेश देती है। किसी भी कलाकृति के निर्माण के समय जो क्रिया होती है उसका सम्बन्ध कलाकार के मन से है, कलाकार की चेतना से है। कलाकार के कार्य का एक सामान्य पक्ष यह भी है कि वह अपना अनुभव समाज तक पहुँचाता है। इसके लिये भौतिक और इन्द्रिय बोध गम्य साधनों की आवश्यकता होती है। परन्तु कला को ऐसी अभिव्यक्ति माना जाता है जिसका सम्बन्ध कलाकार के अपने व्यक्तित्व से ही होता है। तब फिर कलाकृति का भी समाज से क्या सम्बन्ध रह जाता है? किसी कृति को हम श्रेष्ठ कलाकृति तभी कहते हैं जब वह समाज में अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न कर सके। पर कलाकृति की रचना के समय क्या कलाकार केवल स्वयं के लिये ही अभिव्यक्ति करता है?
कला के सामाजिक पक्ष का विचार करने वाले विद्वानों ने इसका उत्तर दिया है-
1. नैतिकता के कारण कलाकार अपने जिस अनुभव को महत्वपूर्ण मानता है उसमें दूसरे को भी भागीदार बनाना चाहता है।
2. कलाकार आजीविका के लिये कलाकृति की रचना करता है।
इस दृष्टि से वह या तो समाज का सेवक है या तो अपनी वस्तु का विक्रेता। परन्तु ये दोनों ही बातें अकलात्मक हैं क्योंकि जो वस्तु कलाकार द्वारा समाज को दी जाती है वह कलाकृति होती है, कलाकार का अपना कलात्मक अनुभव नहीं। यह अनुभव एक प्रकार का विशिष्ट मानसिक अनुभव है। जो विचारक कलात्मक अनुभव को केवल कलाकार के मन की अभिव्यक्ति मानते हैं उनके अनुसार तो कलाकृति को भौतिक रूप की भी आवश्यकता नहीं होती। इसका उत्तर है कि कलात्मक अनुभव का एक रूप तो कलाकार की कल्पना में ही पूर्ण हो जाता है, पर कृति की रचना करते समय उस अनुभव का एक विकसित रूप भी स्पष्ट होता है। इस प्रकार कलाकार के मूल अनुभव के साथ ही कृति की रचना का अनुभव बँधा हुआ है। अतः कला का किसी बाहरी माध्यम में रूप ग्रहण करना सर्वथा अकलात्मक नहीं है। कलाकृति के भौतिक माध्यम से कलाकार के मन की अभिव्यक्ति निरन्तर समृद्ध और विकसित होती है। जिस प्रकार कोई संवेदन शून्य में उत्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार कलात्मक आईडिया की सृमद्धि भी कला- कृति की रचना के बिना शून्य में से नहीं हो सकती। इस दृष्टि से कलाकृतियाँ कलाकार द्वारा कल्पना में होने वाले अनुभव के दृश्यमान चिन्ह हैं। ऐसे चिन्हों को समझने वाले ही रसिक, दृष्टा या कलाकार की दृष्टि से समाज कहलाते हैं। अतः कला के क्षेत्र में केवल वे ही लोग 'समाज' हैं जो कला में रूचि लेते हैं।
चित्रकला इस संसार को आनन्द और शान्ति का संदेश देती है। यह व्यक्ति के ज्ञान और उसके अर्न्तमन की शक्तियों का विकास करती है, जिससे उसकी रचनाओं में आन्तरिक सुख अभिव्यक्त होता है। यदि चित्रकार अपने देश के लोगों के जीवन में मधुर संगीत, रंग और लय के गुणों को न ला सके, तो उसका जीवन उस पशु के समान है जो केवल पेट भरने के लिए ही जीवित रहता है। कलाकार के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने देश की सांस्कृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयत्न करता रहे।
यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमारे देश में अनेकों लोग शिक्षित एवं ऊँची शिक्षा प्राप्त किये हुए हैं परन्तु वे अपने ज्ञान का उपयोग देश की संस्कृति के विकास और कलात्मक रचनाओं के सृजन के लिए नहीं कर पाते। यही कारण है कि संस्कृति के विकास के बिना देश में अनेक सामाजिक एवं राजनैतिक बुराईयों ने जन्म ले लिया है। यहाँ सौन्दर्य चेतना का इतना अभाव हो गया है कि अनैतिकता, भ्रष्टाचार और कुरीतियाँ फैलती जा रही हैं।
कला के द्वारा सौन्दर्य चेतना का विकास होता है जिससे मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। यह व्यक्ति के मस्तिष्क को संतुलित करती है। कलाकार की कृति में उसके देश की संस्कृति झलकती है यह लोगों का मनोवैज्ञानिक एवं सांवेगिक विकास करती है।
हमारे मस्तिष्क में संवेदनशीलता पहले से ही छिपी रहती है। कला उस छिपी हुई प्रतिभा का विकास करती है। संवेदनशीलता के विकसित होने पर ही व्यक्ति अपने आप-पास, समाज और देश के प्रति भावनाओं को अनुभव करता है तथा अपने दायित्वों का निर्वाह करता है। इस प्रकार, कला के माध्यम से व्यक्ति का जीवन सुखी और समरसतापूर्ण बनता है।
हमारा समाज कैसा बनेगा, यह इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी सांस्कृतिक चेतना कितनी जाग्रत है, हम समाज के लिये कितने संवेदनशील हैं और विकास के लिये कितना रचनात्मक प्रयास कर रहे हैं। कलाकार अपनी रचनाओं के माध्यम से देश और समाज के सांस्कृतिक विकास के लिए सदा महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
सांस्कृतिक चेतना के द्वारा जीवन में "आनन्द" और "शक्ति" की स्थापना होती है। चित्रकार का यह उद्देश्य होना चाहिए कि वह सिद्धान्त और व्यवहार दोनों ही पक्षों में इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्य करता रहे। संवदेनशीलता अथवा सुरूचि का विकास तभी सम्भव है, जब विचारों के साथ-साथ व्यवहार में भी सौन्दर्य चेतना को विकसित किया जाए। इस चेतना को अपने मन से धारण करना चाहिए। बलपूर्वक धारण किया गया कोई भी गुण, विकास को अधूरा छोड़ देता है।
कला समाज का अभिन्न अंग है। संकीर्णता को दूर करके वह समाज से बुराईयों और अनैतिकता को नष्ट करती है। कलाकार सदा यह प्रयत्न करता रहता है कि वह अपने समाज और देश को संवारे अपनी कुशल आँखो, कान और हाथ की सहायता से वह अपनी रचना में सभी रचनात्मक शक्तियों को केन्द्रित करता है और समाज के विकास में अपना योगदान करता है।
हमारा इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज में आध्यात्मिक चेतना और कोमल भावनाओं का पतन हुआ, तब - तब समाज में अनैतिकता और जीवन मूल्यों में गिरावट देखी गई। इसलिये यह आवश्यक है कि समयानुसार अध्यात्मक और संवेदनशीलता का समाज में संचार होता रहना चाहिए। कला इस संसार की एक सबल स्रोत है। यह रचनात्मक वृत्ति जगाती हैं, अच्छे चिन्तन के लिए प्रेरित करती है और जीवन मूल्यों का विकास करती है। समाज में व्याप्त अनुशासनहीनता को एक कलाकार अपने रचनात्मक कार्यों से दूर कर सकता है।
संवदेनशीलता, आध्यात्मिक चेतना और सौन्दर्यबोध को विकसित करने के लिए इन बातों पर विचार एवं व्यवहार करना उपयोगी है-
1. समाज में सांस्कृतिक और स्वस्थ मनोरंजन की गतिविधियाँ होती रहनी चाहिए। सम्पूर्ण समाज के ज्ञान को विकसित करने के लिए इस दिशा में कलात्मक रचनाएँ बहुत महत्वपूर्ण हैं।
2. कलात्मक कार्यों के लिए नए स्रोतों का निर्माण आवश्यक है। इनसे व्यक्ति की विचारधारा विकसित होती है और उसकी भावनाओं को सही दिशा मिलती है। इनसे सांस्कृतिक- विरासत बनती है जो सौन्दर्य-बोध को जगाने और विकसित करने में सहायक है।
3. कलात्मक कार्यों के द्वारा रचनात्मक क्षमताओं का पता लगाया जा सकता है। जब ये क्षमतायें विकसित होती हैं, तो उनसे व्यक्ति के आत्मसम्मान की रक्षा होती है। इससे वह संतुष्ट होता है। जब व्यक्ति में संतुष्टि की भावना जागती है, तो वह नित नए रचनात्मक कार्यों में लग जाता है।
4. गाँवों - गाँवों में कलात्मक वातावरण का विकास करना चाहिए। वहाँ दीवारों पर चित्र बनाने की लोक कला अब भी कहीं - कहीं देखी जा सकती है, परन्तु भौतिक दौड़ में भागते मानव का ध्यान आज उधर से हटता जा रहा है। वहाँ भित्ति चित्र बनाए जाएं, इससे लोगों का ध्यान कला के प्रति आकृष्ट होगा। वे नित नई रचनाएँ बनाने के लिये प्रेरित होगें। इसके अतिरिक्त मुखौटे बनाना, खिलौने बनाना, नए-नए आलेखनों का निर्माण करना, ये सभी लोक कला के कार्य हैं, जो लोक जीवन का अंग बन जाएँगे और कलात्मक वातावरण को विकसित करेंगे। इन कार्यो में वातावरण और सांस्कृतिक जानकारी का बड़ा महत्व है। कलात्मक चेतना का क्षेत्र नगरों महानगरों तक ही सीमित न रह जाए, वह ग्रामीण क्षेत्रों के विकास का भी स्रोत बन सकता है।
5. समाज के अलग-अलग समुदायों और वर्गों का आपसी सहयोग लेकर कलात्मक कार्यों का विकास किया जा सकता है।
6. व्यक्ति के हाव-भाव अचेतन भावनाओं को कला के संकेतो के द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। यह अभिव्यक्ति किसी भाषा अथवा लिपि के द्वारा सम्भव नहीं है। इसलिये कला-संकेतों का निर्माण एवं अध्ययन बहुत महत्वपूर्ण है।
प्राचीन काल में मनुष्य इन कला संकेतों के माध्यम से ही अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति करता था, क्योंकि उस समय भाषा का विकास नहीं हुआ था। इन संकेतो के अवशेष आज भी पत्थरों पर प्रागैतिहासिक काल की गुफाओं में मिलते हैं।
चित्रकार स्वयं जो अनुभव करता है, उस को अभिव्यक्त करने के लिये वह अनेक प्रकार के नए आकारों को जन्म देता है। इन आकारों पर समाज प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करता है। इस प्रतिक्रिया के कारण तथा वातावरण के अनुसार चित्रकार का आचार-व्यवहार प्रभावित होता रहता है। इस प्रकार समाज की सहायता से चित्रकार अपने व्यक्तित्व का विकास करता है और अपने सौन्दर्य बोध का उपयोग करके वह समाज को नए संदेश देता है।
वातावरण और समाज की प्रतिक्रिया से चित्रकार जितना अधिक प्रभावित होता है, उतनी ही अधिक वह अभिव्यक्ति चाहता है। इस प्रकार वह अपने 'स्वयं' को अधिक से अधिक अभिव्यक्त करता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाए, तो उसके सामाजिक वातावरण में उसकी अभिव्यक्ति अधूरी रह जाती है। निराशाओं और अनसुलझी समस्याओं को भी व्यक्त करना आवश्यक है। कला के द्वारा इन्हें सफलतापूर्वक व्यक्त किया जा सकता है। कलाकार की अपने प्रति और अपने वातावरण के प्रति जो भावनाएँ हैं, उन्हें जानने के लिए मनोविज्ञान से भी सहायता मिलती है। कलात्मक अभिव्यक्ति को देखकर मनोविज्ञान समाज की आवश्यकताओं और भावनाओं को निर्धारित कर सकता है इसलिए यह आवश्यक है कि इन भावनाओं को समय-समय पर अभिव्यक्ति मिलनी चाहिए।
कलाकार अपनी रचनाओं में अपने स्वयं की तथा अपने समाज की अभिव्यक्ति करता है, जिसके द्वारा वह अपनी आवश्यकताओं को भी समझ सकता है। इसी ज्ञान से सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना पनपती है। इसके अभाव में समाज में न तो आपसी सहयोग स्थापित होता है। और न ही उसमें आपसी तालमेल की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।
7. व्यक्ति के पास जब खाली समय होता है तो हो सकता है कि वह उसका सदुप्रयोग करने के स्थान पर उसका दुरूपयोग ही करने लगे। हमें प्रयास करना चाहिये कि वो खाली समय हम अच्छे कार्यों में लगायें। कला के माध्यम से इस खाली समय का रचनात्मक उपयोग किया जा सकता है।
आर्ट क्लबों में अनेक कलाकार एक स्थान पर एकत्र होते हैं और अपनी अभिव्यक्ति के द्वारा वे एक-दूसरे के साथ गहरे सम्बन्ध बना लेते हैं। एक ही मंच पर कार्य करने से उनके मतभेद भी समाप्त हो जाते हैं। समाज में अनेक मतभेद, वैमनस्य, आरोप-प्रत्यारोप, गुडागर्दी और झगड़े चलते रहते हैं क्योंकि लोगों में सहयोग की भावना की कमी है। सहयोग के द्वारा यदि इन बुराइयों को समाप्त करना सम्भव नहीं, तो इन्हें कम तो अवश्य ही किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पाए। यह अभिव्यक्ति खाली समय में कलात्मक कार्यों के द्वारा बहुत अच्छी प्रकार से की जा सकती है।
कलात्मक कार्यों के द्वारा लोगों को समूह में कार्य करने का अवसर मिलता है। किसी नाटिका को तैयार करने के लिये सजावट का कार्य और सैटों का निर्माण किया जाता है। इसके लिये कई व्यक्ति मिलकर एक साथ चिन्तन-मनन करते हैं और मिलजुल कर अपनी योजनाओं पर कार्य करके अपने-अपने कला संकेतों और आकारों के द्वारा अभिव्यक्ति करते हैं। वे अपनी कल्पना के रंगों से सजावट करके त्यौहार की खुशी में चार चाँद लगा देते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक सद्भाव को बनाये रखने और आपसी सहयोग का विकास करने के लिए कला एक सशक्त माध्यम है। देश के नागरिक ऐसे होने चाहिए, जिनका चरित्र उज्जवल हो, जिनको अपने देश के गौरवशाली इतिहास का ज्ञान हो, और जो स्वयं को मानवीय मूल्यों के साँचे में ढाल सकते हों, क्योंकि ऐसा बनकर ही वे देश की प्रगति में रचनात्मक सहयोग दे सकते हैं। मानवीय मूल्यों के विकास के लिये और चरित्र को उज्जवल बनाने के लिए कलात्मक सृजन का बहुत बड़ा महत्व है।
आज हम जीवन के हर क्षेत्र में पश्चिम की नकल करते हैं। उनकी नकल करने और उनकी पद्धति पर कार्य करने की अपेक्षा हमें भारतीय कला और संस्कृति के गौरव की रक्षा करनी चाहिये। भारतीय कला संस्कृति को हमें पश्चिम तक पहुँचाना चाहिये। जिससे हमारी भारतीय संस्कृति की रक्षा हो सकेगी और हर कलाकार अपने को गौरवान्वित महसूस कर सकेगा।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि कला का समाज के प्रति उत्तरदायित्व ही महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है।
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