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बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2749
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 2
साहित्य दर्पण ( प्रथम परिच्छेद)

भावना को निर्मल करना और भावुकता को परिष्कृत करना साहित्य - शिक्षा का प्रथम सोपान है। साहित्यदर्पण के रचयिता आचार्य विश्वनाथ हैं। उनका समय तेरहवीं - चौदहवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य विश्वनाथ के पूर्वज उत्कल के कवि पण्डित माने जाते हैं। इनके प्रपितामह का नाम कवि पण्डित प्रवर 'नारायण' था। पण्डित प्रवर नारायण साहित्य शास्त्र के उद्भट विद्वान एवं अलङ्कारशास्त्र के प्रणेता थे। इनके पिता का नाम पण्डित चन्द्रशेखर था। पण्डित चन्द्रशेखर की दो रचनाओं - 'पुष्पमाला' एवं 'भाषार्णव' का उल्लेख साहित्य दर्पण में मिलता है। प्रशस्तपाद ऐसे आचार्य थे जो विश्वनाथ के विरुद्ध थे, जिनमें से सात का उल्लेख साहित्यदर्पण के परिच्छेदों की समाप्ति पर कविराज के नाम के साथ किया गया है। चण्डीदास ने काव्य-प्रकाश पर 'दीपिका' नामक टीका लिखी। उनके पिता चन्द्रशेखर ने पुष्पमाला तथा भाषार्णव नामक ग्रन्थ लिखे थे। विश्वनाथ ने गीतगोविन्द तथा नैषध के उद्धरण दिए हैं। इन्होंने खिलजी वंश के सुल्तान अलाउद्दीन (मृत्यु 1312 ई.) का उल्लेख किया है। अतः इनकी पूर्वसीमा तेरहवीं शताब्दी का मध्य भाग है।

विश्वनाथ ने अनेक ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें राधवविलास महाकाव्य का भी उल्लेख किया जाता है। अलङ्कार शास्त्र पर उनकी दो प्रसिद्ध रचनाएँ हैं - एक काव्यप्रकाश की टीका काव्यप्रकाश दर्पण और दूसरी मौलिक रचना साहित्यदर्पण। 'साहित्यदर्पण' काव्य प्रकाश की शैली पर लिखा गया ग्रन्थ है। केवल इसमें नाट्य विषय का अधिक विवेचना किया गया है। इसमें भी दस परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य के प्रयोजन तथा स्वरुप आदि का विवेचन किया गया है। द्वितीय परिच्छेद में शब्दार्थ निर्णय, तृतीय में रसभाव आदि। चतुर्थ में काव्यभेद ध्वनि तथा गुणीभूतव्यङ्गय, पञ्चम् में व्यञ्जनावृत्ति, षष्ठ में नाट्य, सप्तम में दोष, अष्टम् में गुण, नवम् में वैदर्भी आदि रीति तथा दशम् परिच्छेद में शब्दालङ्कारों और अर्थालङ्कारों का निरुपण किया गया है। साहित्यदर्पण में ध्वन्यालोक तथा काव्यप्रकाश आदि का अनुसरण किया गया है तथापि अनेक स्थलों पर काव्य प्रकाश की आलोचना भी की गई है। विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं। उन्होंने काव्य की सत्ता रस रूप में ही स्वीकार की है। उनके अनुसार रस विभाव, अनुभाव, संचारी भावों के द्वारा परिपुष्ट स्थायी भाव से अभिव्यक्त होता है। सर्वप्रथम आचार्य विश्वनाथ ने अपने 'साहित्यदर्पण में काव्यशास्त्र को भी काव्य का अङ्ग माना तथा काव्य एवं काव्यशास्त्र दोनों के प्रयोजन का उद्देश्य समान माना। विश्वनाथ ने काव्य के चार प्रयोजन बतलाए हैं। काव्य के द्वारा चतुर्वर्ग की प्रारित ही काव्य का उद्देश्य है। चतुर्ववर्ग प्राप्ति का अर्थ है-

( 1 ) धर्म प्राप्ति,
( 2 ) अर्थ प्राप्ति,
( 3 ) काम प्राप्ति,
(4) मोक्षप्राप्ति।

आचार्य विश्वनाथ के अनुसार काव्य से धर्म की प्राप्ति होती है। इस प्रकार चतुर्ववर्ग, जो काव्य का प्रयोजन है वही इस ग्रन्थ के पढ़ने का भी प्रयोजन है। जो चतुर्वर्ग के अभिलाषी हैं वे ही एक ग्रन्थ के पढ़ने के अधिकारी हैं। इन्हीं चारों-प्रयोजन, अधिकारी, विषय और सम्बन्ध को 'अनुबन्ध चतुष्टय' भी कहा जाता है। जिस ग्रन्थ का प्रारम्भ आचार्य विश्वनाथ करना चाहते हैं उसकी निर्विह्न समाप्ति के लिए शास्त्रों में अधिकृत होने के कारण भगवती सरस्वती की आराधना करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि निर्विह्न समाप्ति के लिए विह्नध्वंसकारी मङ्गलाचरण प्रयोजनीय है और सब शास्त्रों की अधिष्ठात्री भगवती सरस्वती की आराधना ही शास्त्रारम्भ में उचित है। 'ग्रन्थारम्भे' शब्द में आरम्भ शब्द लक्षणा से आरम्भ के पूर्व काल का बोधक है। मुख्य अर्थ के बाधित होने से प्रयोजनवती लक्षणा हुई है। आचार्य विश्वनाथ जो विक्रम की चौदहवीं शताब्दी में हुए थे, इनके पिता का नाम चन्द्रशेखर था। ये विश्वनाथ कविराज न्याय मुक्तावली के कर्त्ता विश्वनाथ पंचानन से भिन्न हैं। यह कविराज हैं।

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