बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
|
5 पाठक हैं |
बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 5
सन्त थॉमस एक्वीनास
(St. Thomas Aquinas)
यूरोप के इतिहास में रोमन साम्राज्य के पतन (476 ई.) से 15 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध तक के दौर को मध्य युग कहा जाता है। इस युग के अधिकांश भाग में यूरोप का राजनीतिक जीवन किसी सुनिश्चित उद्देश्य या सिद्धान्त से प्रेरित नहीं रहा। उन दिनों कुछ ऐसे विचार तो प्रचलित रहे जो रोमन परम्परा की देन थे या मसीही धर्म की शिक्षाओं में से उभर कर सामने, आए थे या सामंतवाद की परिस्थितियों से पैदा हुए थे परन्तु उन्होंने राजनीतिक संस्थाओं पर विशेष प्रभाव नहीं डाला। मध्ययुगीन चिंतन न तो इतिहास पर आधारित था, न विज्ञान पर। उसमें आलोचनात्मक दृष्टिकोण का भी नितान्त अभाव था। इसके अन्तर्गत आस्था और विश्वास से जुड़ी हुई मान्यताओं के आधार पर निष्कर्ष निकाले जाते थे - निरीक्षण अन्वेषण और प्रयोग विधि के आधार पर नहीं। सम्पूर्ण शिक्षा पर पुरोहित वर्ग का नियंत्रण था और सारे चिंतन का केन्द्रबिन्दु धर्ममीमांसा से सम्बन्धित प्रश्न थे। संगठितं चर्च धर्म के विषय में जो भी मान्यताएँ निर्धारित करता था वही सम्पूर्ण ज्ञान का आधार मानी जाती थीं। सम्पूर्ण चिन्तन कठोर रूढ़ियों से जकड़ा था।
मध्ययुग में चर्च की सत्ता धार्मिक शक्ति की प्रतीक थी और राज्य की सत्ता लौकिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करती थी। इन दोनों का परस्पर सम्बन्ध मध्ययुगीन राजनीतिक का मुख्य विषय था। 9 वीं से 13 वीं शताब्दी के दौरान सामान्य प्रवृत्ति यह मानने की थी कि राजनीति में धर्म-संगठन या पोप तंत्र की सत्ता सर्वोच्च है। इस सिद्धान्त का निर्माण यूनानी और रोमन लेखकों के विचारों को मानकर परे रख दिया गया था। वैसे तो चर्च राज्य एक ही समाज से जुड़े थे फिर भी इस समाज की दो सरकारें थीं। ईसाई लेखकों ने आध्यात्मिक और सांसारिक जगत में जिस अन्तर का संकेत दिया था उसने दो शक्तियों के सिद्धान्त (Doctrine of Two Swords) को जन्म दिया। इससे सम्पूर्ण सत्ता पोप और सम्राट के बीच बंट गयी और यह माना जाने लगा कि ईसाई सम्राट को अमरत्व प्राप्त करने के लिए धर्माध्यक्ष की आवश्यकता है और धर्माध्यक्ष को लौकिक मामलों के प्रबन्ध में सम्राट की सरकार से सहायता लेनी पड़ती है। प्रारम्भ में पृथ्वी का शासन चलाने के लिए लौकिक और आध्यात्मिक सत्ता के इस सामंजस्यपूर्ण विभाजन को दैवी आदेश की अभिव्यक्ति माना गया और आशा की गई कि ये दोनों एक-दूसरे के सीमाक्षेत्र में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे, परन्तु मध्ययुगीन परिस्थितियों में व्यवहार के धरातल पर लौकिक और आध्यात्मिक शक्तियों में इस प्रकार का अलगाव अधिक समय तक नहीं चल सका। अतः कालान्तर में दोनों तरह की सत्ताएँ अपनी-अपनी शक्तियों के विस्तार के उद्देश्य से एक-दूसरे पर अपनी-अपनी सीमाओं के अतिक्रमण का आरोप लगाने लगीं। इस तरह चर्च और राज्य का विवाद मध्ययुगीन यूरोपीय चिन्तन का मुख्य मुद्दा बन गया था।
|