प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- काकतीय राजवंश की उत्पत्ति के विषय में बताते हुए इसके प्रारम्भिक एवं स्वतन्त्र शासकों का संक्षिप्त इतिहास बताइए।
अथवा
काकतीय वंश के प्रमुख शासकों का उल्लेख कीजिए। इस वंश के शासकों की प्रमुख उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. काकतीय राजवंश का संक्षिप्त इतिहास लिखिए।
2. काकतीय नरेश रुद्रदेव की उपलब्धियाँ बताइये।
3. रुद्राम्बा कौन थी? स्पष्ट कीजिए।
4. काकतीय शासक महादेव के विषय में बताइये।
5. काकतीय नरेश प्रतापरुद्र के विषय में आप क्या जानते हैं?
6. काकतीय शासक गणपति की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
गणपति के विषय में लिखिए।
उत्तर-
काकतीय राजवंश
काकतीयों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। दक्षिण-पूर्वी दक्कन के आन्ध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में कल्याणी के चालुक्यों के शासन काल में काकतीयों का उदय हुआ। कतिपय इतिहासकार कल्याणी के चालुक्य शासक, अम्भ द्वितीय ( 945-970 ई.) के सामन्त कार्कत्य गुंड्यन को काकतीयों का पूर्वज बताते हैं परन्तु इस तथ्य का कोई प्रमाण न होने के कारण यह विवादास्पद है।
प्रारम्भिक काकतीय शासक
इस वंश का पहला ज्ञात शासक बेत प्रथम था जिसने राजेन्द्र चोल के आक्रमण से उत्पन्न अध्यवस्था का लाभ उठाकर नलगोन्ड (हैदराबाद) में अपने लिये एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी प्रोल प्रथम वातापी के पश्चिमी चालुक्यों का सामन्त था। उसने चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम की ओर से युद्धों में भाग लिया तथा पर्याप्त ख्याति अर्जित कर ली। उसकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सोमेश्वर ने उसे अंमकोण्ड विषय ( वारंगल में हनुमकुण्ड ) का स्थायी सामन्त बना दिया। उसके उत्तराधिकारी बेत द्वितीय ने चलुक्य शासक विक्रमादित्य से कुछ और प्रदेश प्राप्त किये तथा अपनी राजधानी को अंमकोण्ड में स्थापित किया। काजीपेट अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने 'विक्रमचक्री' तथा ' 'त्रिभुवनमल्ल' नामक विरुदों को धारण किया था। 1090 ई. में बेत द्वितीय की मृत्यु होने के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र दुर्गनृपति सिंहासन पर बैठा। काजीपेट से मिले उसके शासन के समय के अभिलेख से उसके सम्बन्ध में कोई विशेष सूचना प्राप्त नहीं होती है। उसने भी अपने पिता की भाँति त्रिभुवनमल्ल' की उपाधि धारण की। 1117 ई. में उसका देहावसनं हो गया। इसके बाद प्रोल द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जो दुर्गनृपति का अनुज था। प्रोल द्वितीय एक वीर शासक था। उसके शासनकाल के अभिलेखों से ज्ञात होता है कि उसने अनेक विजयें की थीं। उसने तैलप तृतीय को पराजित किया। इसी क्रम में उसने परमार राजा जगदेव को भी पराजित किया था। तैलप तृतीय तथा जगदेव ने प्रोल द्वितीय को चालुक्य शासन के अधीन बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया परन्तु वे इसमें असफल रहे। प्रोल द्वितीय की इन सफलताओं के फलस्वरूप गोदावरी तथा कृष्णा नदियों के मध्यवर्ती भू-क्षेत्र पर काकतीय वंश का एकछत्र अधिकार हो गया। 1150 ई. में प्रोल द्वितीय युद्धभूमि में मारा गया।
स्वतन्त्र काकतीय शासक एवं उनकी उपलब्धियाँ
रुद्रदेव (1150-1196 ) - प्रोल द्वितीय का ज्येष्ठ पुत्र रुद्रदेव उसकी मृत्यु के उपरान्त काकतीय- सिंहासन पर बैठा। वह एक कुशल योद्धा था। उसने अपने पिता की राज्य विस्तारवादी नीति का अनुसरण करते हुए अपने प्रतिद्वन्द्वी शासकों से लोहा लेने का संकल्प लिया।
उसके शासन काल के अनुमकोंड अभिलेख से उसके उन विरोधी शासकों का उल्लेख मिलता है जिन्हें उसने पराजित किया था। इन विजित शासकों में डोम्मराज, मेडराज तथा मैलिंगदेव प्रमुख हैं। ये पराजित राज्य आन्ध्र प्रदेश के वर्तमान करीमपुर एवं वारंगल जनपद के उत्तरी क्षेत्र में स्थित थे। इन क्षेत्रों की विजय के फलस्वरूप काकतीय राज्य की उत्तरी सीमा गोदावरी नदी तक विस्तृत हो गई। अनुमकोड़ अभिलेख में उत्तरी अभियानों के साथ-साथ उसके दक्षिणी अभियानों का भी उल्लेख मिलता है। इस अभियान में रुद्रदेव का सामना भीम, गोकर्ण, चोडोदय तथा तैलप से हुआ था। रुद्रदेव ने भी तैल को परास्त किया परन्तु यादव नरेश जैतुगी ने युद्ध में रुद्रदेव की हत्या कर दी।
महादेव (1196-1199 ई.) - सन्तानहीन रुद्रदेव की हत्या हो जाने के उपरान्त उसका छोटा भाई महादेव इस वंश का शासक हुआ। उसके शासन काल का मात्र एक खण्डित अभिलेख उपलब्ध हो सका है, जिसमें उसके शासन काल की कोई महत्वपूर्ण घटना को अंकित नहीं किया गया है। उसने केवल तीन वर्षों तक ही शासन किया। 1199 ई. में महादेव देवगिरि के यादवों से युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ।
गणपति (1199-1261 ई.) - 1199 ई. में यादवों से हुए युद्ध में न केवल महादेव मारा गया बल्कि उसके उत्तराधिकारी पुत्र गणपति को भी बन्दी बना लिया गया। राजा विहीन काकतीय राज्य को देखकर उसके सामन्तों ने विद्रोह कर दिया। संभवतः यादव नरेश जैनपाल की कमजोरी से गणपति 1199 ई. में ही किसी समय यादवों की कैद से छोड दिया गया।
गणपति यद्यपि विपरीत परिस्थितियों में काकतीय राजसिंहासन पर बैठा था परन्तु अपनी योग्यता एवं साहस के बल पर उसने सम्पूर्ण आन्ध्र प्रदेश पर एक गौरवशाली शासन स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। गणपति अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा हुआ। उसने आन्ध्र प्रदेश के साथ-साथ नेल्लोर, काञ्ची, कर्नूल आदि को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया तथा 60 वर्षों तक शासन करता रहा। अपने शासन के अन्तिम वर्षों में सुन्दरपाण्ड्य ने उसे हराकर उससे काञ्ची तथा नेल्लोर को छीन लिया। गणपति ने अपनी राजधानी वारंगल में स्थानान्तरित कर दी।
रुद्राम्बा (1261-1295 ई.) - गणपति के बाद उसकी पुत्री रुद्राम्बा काकतीय राज्य की शासिका बनी। वह पुरुष वेश में सिंहासन पर बैठती थी तथा युद्धों में भी भाग लेती थी। 'प्रतापचरित' नामक ग्रन्थ से पता चलता है कि उसका शासिका बनना उसके सौतेले भाइयों को नहीं भाया तथा उन्होंने उसके विरुद्ध विद्रोह करके वारंगल पर अधिकार कर लिया तथा उसे सत्ता से अपदस्थ कर दिया। परन्तु वीरांगना रुद्राम्बा ने शीघ्र ही अपने प्रतिद्वन्द्वी भाइयों को पराजित कर वारंगल दुर्ग को अपने अधीन करें लिया।
रुद्राम्बा के शासन के प्रारम्भिक वर्ष बड़े संघर्षशील रहे। उसके शासन के 15-16 वर्षों में गोदावरी घाटी तथा वेंगी क्षेत्र पर उसकी प्रभुसत्ता के अभिलेखिक साक्ष्यों का अभाव है। फिर भी इस बात का प्रमाण है कि उसने अपने पौरुष से वारंगल में अपनी शक्तिशाली अधिसत्ता को अक्षुण्ण बनाए रखने में सफलता प्राप्त की थी। मार्को पोलो ने रुद्राम्बा की योग्यता, कुशल शासन तथा शान्तिप्रियता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। रुद्राम्बा का शासन काल लगभग 1295 ई. तक बना रहा।
प्रतापरुद्र ( 1295-1323 ई.) - रुद्राम्बा के उपरान्त उसका 35 वर्षीय दौहित्र प्रतापरुद्र काकतीय वंश का शासक हुआ। उसने काकतीय वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा का पुनरुद्धार किया। उसने अम्बदेव को पराजित कर कर्नूल तथा कुड्डपह को पुनः जीता तथा नेल्लोर पर आक्रमण किया, परन्तु 1309-10 ई. के लगभग मलिक काफूर ने वारंगल पर चढ़ाई की तथा राजधानी को घेर लिया। प्रतापरुद्र वीरतापूर्वक लड़ता रहा और अन्त में उसने मलिक काफूर को हाथी, घोड़े तथा अमूल्य रत्न दिये। मुसलमानों के वापस चले जाने के बाद प्रतापरुद्र ने अपना दक्षिणी अभियान प्रारम्भ किया तथा नेल्लोर और काञ्ची की विजय करता हुआ त्रिचनापल्ली तक जा पहुँचा। परन्तु उसकी सफलताएँ क्षणिक ही रहीं। 1323 ई. में मुहम्मद तुगलक ने उसके राज्य पर आक्रमण किया जिसमें प्रतापरुद्र पराजित हुआ तथा बन्दी बना लिया गया। बन्दी प्रतापरुद्र को दिल्ली ले जाते समय मार्ग में ही नर्मदा नदी के तट पर उसकी आकस्मिक मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि सम्भवतः मार्ग में ही उसने आत्महत्या कर ली थी।
प्रतापरुद्र के कोई सन्तान नहीं थी। अतः 1323 ई. में उसकी मृत्यु के बाद काकतीय राजवंश का पतन हो गया।
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