बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 इतिहास बीए सेमेस्टर-4 इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 2
लॉर्ड रिपन
(Lord Ripon)
भारत में लॉर्ड लिटन के बाद लॉर्ड रिपन का आगमन इंग्लैण्ड में टोरी पार्टी की हार के बाद ग्लैडस्टन की सरकार के सत्तारूढ़ होने पर हुआ। वह ग्लैंडस्टोनियन युग का सच्चा उदारवादी था। उसकी मान्यता थी कि प्रत्येक व्यक्ति को एक मानव के रूप में अपने देश की सरकार अर्थात् समस्त कर्त्तव्यों, उत्तरदायित्वों और भारत में भाग लेने का अधिकार है और दूसरे स्वशासन राजनीतिक का सबसे महान और ऊँचा सिद्धान्त है। उसने कलकत्ता पहुँचते ही कहा था, “आप शब्दों से नहीं कार्यों में मेरा मूल्यांकन करें।।" वह भारत की सेवा के लिए प्रतिबद्ध होकर आया था तथा भारत के प्रशासन को उदार बनाने का संकल्प रखता था।
लॉर्ड रिपन का आन्तरिक प्रशासन या सुधार कार्य
लॉर्ड रिपन के सुधार कार्य इस प्रकार हैं-
1. प्रेस स्वतन्त्रता
लॉर्ड लिटन ने वार्ताक्युलर प्रेस एक्ट के द्वारा प्रेस पर कई प्रतिबन्ध लगा दिये थे जिसके कारण भारतीय जनता अत्यन्त असन्तुष्ट थी। लॉर्ड रिपन ने इस एक्ट को समाप्त कर प्रेस पर से सभी प्रतिबन्धों को हटवा दिया। रिपन बड़ा ही प्रगतिशील तथा लोकतन्त्रीय विचारों वाला व्यक्ति था। इस वजह से वह प्रेस की स्वतन्त्रता का समर्थक था।
2. श्रमिक अधिनियम
लॉर्ड रिपन ने कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की दुर्दशा पर ध्यान दिया तथा उनकी स्थिति को सुधारने के प्रयत्न किये। रिपन ने 1881 में एक फैक्ट्री एक्ट पारित किया। जिसमें 7 से 12 वर्ष के बच्चों से 9 घण्टे से अधिक कार्य करवाने पर प्रतिबन्ध लगाया तथा इसके लिये निरीक्षक नियुक्त किये। कारखानों में खतरनाक मशीनों के चारों ओर सुरक्षा हेतु तार लगा दिए और निरीक्षण के लिए इंस्पेक्टर नियुक्त किये गये।
3. कर सम्बन्धी सुधार
लॉर्ड रिपन ने आयकर को तीन भागों में विभाजित कर दिया अर्थात् केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा सम्मिलित। उनके अनुसार कुछ कर केवल केन्द्रीय सरकार लागू कर सकती थी तथा करों को लागू करने का अधिकार प्रान्तीय सरकार को था। सम्मिलित श्रेणी से प्राप्त धनराशि को केन्द्र एवं प्रान्तों में विभाजित कर दिया जाता था, लेकिन प्रान्तीय सरकारों की आवश्यकताओं की पूर्ति अपनी इस आय से सम्भव नहीं थी। अतएव प्रान्तीय बजट की कमी को पूरा करने हेतु केन्द्रीय सरकार द्वारा प्राप्त भूमिकर में से एक निश्चित राशि प्रान्तीय सरकार को देने की व्यवस्था की गयी।
लॉर्ड रिपन स्वतन्त्र व्यापार का पक्षपाती था। अतएव भारत में उसने स्वतन्त्र व्यापार की नीति को और आगे बढ़ाया। उन दिनों मूल्यों का प्रतिशत आयात कर को देना पड़ता था। सन् 1882 में रिपन ने इस कर को हटा दिया। उसने नमक कर को भी कम कर दिया।
लॉर्ड रिपन ने भारतीयों को शिक्षा देने के लिए भी प्रयास किये तथा हण्टर कमीशन की सिफारिशों को लागू करवाया। सहकारी तथा सरकारी पाठशालाओं को प्रोत्साहित किया गया। शुल्क मुक्ति के नियम भी बनाये गये तथा निर्धनों को शुल्क मुक्ति प्रदान की गई। उच्च शिक्षा संस्थाओं का भी प्रबन्ध भारतीयों को दिया गया।
5. स्थानीय स्वशासन
भारत में भारतीयों को लॉर्ड रिपन की सर्वाधिक महान् देन स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में है। इसके लिये उसने 1881 और 1882 में दो प्रस्ताव किये जिसमें स्थानीय शासन के उद्देश्य, स्वशासन संस्थाओं के निर्माण, विकास, उनके लिये महत्व की विस्तृत योजना थी। इससे जिला बोर्डों में गैर सरकारी सदस्यों का बहुमत रखने तथा निर्वाचन करवाने का निर्देश दिया गया था। प्रान्त सरकारों को अपने धन में से पर्याप्त धन इन्हें देने की आज्ञा भी दी और स्थानीय कर लगाने का भी अधिकार दिया। इस प्रकार उसने प्रशासन कार्य में भारतीयों को शिक्षित जिम्मेदार बनाया तथा सरकार के आर्थिक व्यय में कमी की। इससे भारतीयों को अति प्रसन्नता हुई तथा रिपन उनमें लोकप्रिय हो गया।
6. जनगणना तथा प्रदर्शनी
प्रशासन में वैज्ञानिक सुधार के लिए जनसंख्या का पता लगाना बहुत ही जरूरी था। नेपाल तथा कश्मीर को छोड़कर शेष सम्पूर्ण भारत में 1881 में जनगणना की गई। उस समय से यह जनगणना हर दस वर्ष बाद होती है। रिपन ने भारतीयों का कल्याण करना अपना दायित्व माना अतः उसने प्रथम बार जनगणना करवा कर जनसंख्या का पता लगाया तथा उसका उपयोग प्रशासन में सुधार के लिए किया।
कलकत्ता में अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी की गई। इसका उद्देश्य भारतीय उद्योग को प्रोत्साहित करना था।
7. इल्बर्ट बिल
रिपन के पूर्व बहुधा अंग्रेज अधिकारी यां सामान्य से सामान्य अंग्रेज कर्मचारी भारतीयों का अपमान कर देता था या उनपर कोई अत्याचार कर देता था तो भी वह अंग्रेजी न्यायालयों से निर्देश करार दे दिया जाता था, क्योंकि न्याय करने वाले भी अंग्रेज होते थे जो की पक्षपात करते थे। लॉर्ड हेस्टिंग्स के काल में ऐसा बहुत बार हुआ। भारतीयों को उनके मुकदमे सुनने का ही अधिकार नहीं था तो वे उन्हें दण्ड कैसे देते? परिणामस्वरूप अंग्रेज अदण्ड और निरंकुश हो गये थे।
रिपन ने अंग्रेजों के इस पक्षपात और अत्याचारों को समाप्त करने के लिए अपनी विधि सदस्य सी०पी०इल्बर्ट से एक बिल प्रस्तावित करवाया। भारत में निरंकुश तथा अत्याचारी अंग्रेजों ने इसका जबर्दस्त विरोध किया तथा रिपन के साथ अभद्र और अमानवीय व्यवहार भी किया। इल्बर्ट बिल की भावना यह थी कि भारतीय न्यायाधीश भी अंग्रेजों के मुकदमे सुनने लगे परन्तु कौसिल द्वारा स्वीकृत होने पर भी तीव्र विरोध होने के कारण यह कानून नहीं बन सका। फिर भी रिपन इस बात में सफल हो गया कि अंग्रेजों के मुकदमे भारतीयों और अंग्रेज न्यायाधीशों की संयुक्त बैठक (ज्यूरी) सुने और निर्णय दे।
इलबर्ट बिल का आधारभूत उद्देश्य पूरा नहीं हो सका परन्तु जाग्रत भारत ने इसे बड़ी उत्कण्ठा से देखा और इससे अपनी भावी राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए लाभदायी मार्गदर्शन प्राप्त किया।
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