बी काम - एम काम >> बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय 18 - मजदूरी
(Wages)
कुल उत्पादन का वह भाग जो मजदूर को उत्पादन की क्रिया में उसकी सेवाओं के लिए दिया जाता है उसे मजदूरी कहते हैं यह श्रम के त्याग का प्रतिफल है। मार्शल के अनुसार “श्रम की सेवाओं के लिए दिया गया मूल्य मजदूरी है।”
समय-समय पर मजदूरी निर्धारण के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण सिद्धांत इस प्रकार हैं। जीवन-निर्वाह सिद्धांत, रहन-सहन-स्तर-सिद्धांत, मजदूरी-कोष-सिद्धांत, सीमांत, उत्पादकता-सिद्धांत, मजदूरी का अजरक स्वतः-सिद्धांत, मांग एवं पूर्ति का आधुनिक सिद्धांत आदि।
मजदूरी का आधुनिक सिद्धांत
(Modern Theory of Wages)
आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मत है कि मजदूर की मजदूरी का निर्धारण उसकी मांग तथा पूर्ति की पारस्परिक शक्तियों से होता है। जो बात किसी वस्तु के मूल्य निर्धारण के संबंध में लागू होती है, वही बात श्रम की मजदूरी के संबंध में भी लागू होती है। इस प्रकार मजदूरी का निर्धारण मूल्य के सामान्य सिद्धांत (General theory of value) का ही एक विशेष रूप है। यह सिद्धांत मजदूरी निर्धारण का महत्वपूर्ण सिद्धांत है। जिस प्रकार वस्तु का मूल्य सीमांत उपयोगिता (Marginal Utility) और सीमांत लागत (Marginal Cost) से निर्धारित होता है, उसी प्रकार मजदूरी भी श्रमिक की सीमांत उत्पाद (Marginal product), उसके जीवन स्तर (Standard of living) से निर्धारित होती है। अर्थात् एक उद्योग में मजदूरों की मजदूरी उस बिंदु पर निर्धारित होती है, जहाँ श्रमिकों की कुल मांग श्रमिकों की कुल पूर्ति के बराबर होती है।
श्रम की मांग (Demand for Labour) – श्रम की मांग उत्पादकों द्वारा की जाती है जो उनकी उत्पादकता पर निर्भर करती है। मजदूरी तथा श्रम की मांग में विपरीत सम्बन्ध होता है। अतः श्रम का मांग वक्र दाएं से बाएं नीचे की ओर गिरता है। श्रम की मांग अन्य उत्पादन के अन्य साधनों की-भांति श्रम की भी व्युत्पन्न होती है। साधनों की मांग वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग पर आधारित होती है। जब वस्तुओं व सेवाओं की मांग में वृद्धि होती है तो उत्पादन में वृद्धि होने लगती है फलस्वरूप श्रम की मांग में वृद्धि होती है। आर्थिक समृद्धि की अवस्था में श्रम की मांग में वृद्धि होती है जबकि विपरीत मंदी के समय श्रम की मांग में कमी हो जाती है। अधिक मजदूरी पर श्रम की मांग कम तथा कम मजदूरी पर श्रम की मांग अधिक होने की प्रवृत्ति होती है।
श्रम की पूर्ति (Supply of Labour) – श्रम की पूर्ति श्रमिकों द्वारा होती है और यह श्रम की उत्पादन लगात पर निर्भर करती है जो श्रमिक के जीवन स्तर को बनाये, रखने के लिए उसके व्यय के बराबर है। श्रमिकों की पूर्ति तथा मजदूरी दर का एक प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अतः श्रमिकों की पूर्ति वक्र पहले बायें से दायें को ऊपर उठता है तथा एक सीमा के पश्चात बायें को पीछे की ओर झुक जाता है।
मजदूरी का निर्धारण (Wage Determination) – मजदूरी उस बिन्दु पर निर्धारित होती है जहाँ श्रम की मांग उसकी पूर्ति के बराबर हो जाती है। इसे निम्न रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है –
उपरोक्त चित्र में OX पर श्रमिकों की संख्या तथा OY पर मजदूरी दिखाई गयी है। D तथा S क्रमशः श्रम के मांग तथा पूर्ति वक्र हैं जो एक दूसरे को E बिन्दु पर काटते हैं अतः श्रम की मांग OM, श्रम की पूर्ति OM तथा मजदूरी OP है। आधुनिक सिद्धांत की कुछ सीमाएँ भी हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –
मजदूरी निर्धारण में संस्थागत तथा सामाजिक तत्वों का विशेष स्थान है। श्रम संगठनों की मोल-भाव शक्ति का भी मजदूरी की दर पर प्रभाव पड़ता है।
मजदूरी निर्धारण में राजनीतिक हस्तक्षेप की नीति व्यापक है। उचित मजदूरी निर्धारण का वैज्ञानिक प्रवर्तन होता है जिसे उपेक्षित नहीं किया जा सकता।
मजदूरी निर्धारण में सामाजिक, राजनीतिक तत्वों का भी प्रभाव पड़ता है।
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