बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्व बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्वसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 19
मुद्रण तकनीकें
(Printing Techniques)
प्रश्न- मुद्रण तकनीक के विषय में आप क्या जानते हैं? इनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर -
तकनीक परिचय - हमारा अधिकतर सम्प्रेषण वैयक्तिक होता है परन्तु अभिव्यक्ति के माध्यम की अपनी सीमायें होती हैं। किसी भी विचार या अनुभूति को स्वरूपों में अभिव्यक्त करके कलाकार स्वतः का परिचय देता है। यह अभिव्यक्ति ऐसा माध्यम है जो समाज के सभी वर्गों के लिये आदिम युग से वर्तमान तक प्रभावशाली रहा है। आदिकाल से मानव ने सम्प्रेषण (अपनी भावनाओं को एक- दूसरे तक किसी भी माध्यम से पहुँचाना) के लिये कला का प्रयोग किया। 15वीं शताब्दी में मुद्रण के आविष्कार के पश्चात् सम्प्रेषण (अभिव्यक्ति) के लिये नवीन से नवीन माध्यम विकसित होने लगे। जिससे शिक्षा का विस्तार व कला के स्वरूप बदलते गये। औद्योगिक विकास से उत्पन्न सम्प्रेषण की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये मुद्रित कला माध्यमों का विकास हुआ जिनमें छाया कला, फोटोग्राफी, व्यावहारिक कला प्रमुख रूप से उभर कर सम्मुख आये। जिसमें पुस्तक डिजाइन, पोस्टर, समाचार पत्र, पत्रिका डिजाइन एवं विभिन्न प्रकार के विज्ञापनों का प्रयोग सम्प्रेषण के लिये किया जाने लगा। इसमें नुओं कला (अमेरिका व यूरोप) के क्रोमोलियोग्राफी से मुद्रित पोस्टरों एवं विलियम मोरिश के 'आर्ट एण्ड क्राफ्ट आन्दोलन' (इंलैण्ड) की पुस्तकों ने सम्प्रेषण के लिये कला को एक नया स्वरूप प्रदान किया और इस कला के माध्यम से घरों, गलियों, दफ्तरों एवं कारखानों तक संदेश सम्प्रेषित होने लगे। यह सबसे लोकप्रिय एवं प्रभावी कला स्वरूप था जो वर्तमान तक प्रभावी एवं लोकप्रिय है। आधुनिक युग के चित्रकारों, मूर्तिकारों, फोटोग्राफरों व डिजाइनरों द्वारा बनाई गई कलाकृतियाँ सामाजिक परिवेश, राजनैतिक क्रान्ति, युद्ध, औद्योगीकरण, पर्यावरण तथा अन्य सामाजिक सरोकारों से प्रभावित रही। जिन्होंने जन साधारण तक अपना संदेश पहुँचाया।
तकनीकी विकास के साथ-साथ ही कला के विभिन्न स्वरूप विकसित हुए जिसमें मुद्रण तकनीक एवं फोटोग्राफी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
व्यावहारिक कला - 'व्यावहारिक कला एक उद्देश्यात्मक कला है जो वस्तुओं (उत्पाद) या सेवाओं की सूचना व बिक्री के लिये उन्हे ललित रूप (चित्र, चिन्ह एवं शब्द) में प्रस्तुत करती है।" यह कला प्रतिदिन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (समाधान) के लिये प्रतिदिन काम आने वाली भौतिकवादी वस्तुओं को एक कला रूप में प्रस्तुत करती हैं जिसमें वस्तु की सुन्दर कलात्मक छवि के साथ उस वस्तु की कार्य अभिव्यक्ति भी समाहित होती है। मूलतः व्यावहारिक कला एक उद्देश्यात्मक कला है जिसमें व्यावहारिक रूप से उपयोगी डिजाइन तैयार कर उनका प्रयोग किया जाता है। प्राचीन समय में व्यावहारिक कला ( अप्लाइड आर्ट) के समानार्थी शब्दों का प्रयोग विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के लिये किया जाता था, जैसे प्राचीन मिस्र में विलासिता की वस्तुओं के लिए, प्राचीन यूनान में खूबसूरत एवं आरामदायक वस्तुओं के लिए तथा रिपब्लिक रोम में आडम्बरहीन रुचिकर वस्तुओं को अप्लाइड आर्ट जैसे शब्दों से चिन्हित किया जाता था।
मध्यकाल में अप्लाइड आर्ट को पूर्णतः रचनात्मक, सटीक तर्कणात्मक और व्यावहारिक बनाया गया। उत्तरकालीन सामन्ती समाज के समय इसका प्रयोग व्यावहारिक वस्तुओं के सजावटीपन और संरचना के लिए किया गया। पुनर्जागरण काल में अप्लाइड आर्ट सौन्दर्य और कार्य के एकत्व को विशिष्टता प्रदान की जाने लगी। 19वीं सदी में ब्रिटेन के विलियम मोरिश तथा ओ कला काल में जुल्सचेरट ने इस कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया था।.
व्यावहारिक कला किसी भी राष्ट्र को उद्योगों एवं व्यापार के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है जैसे यह औद्योगिक उत्पादों के निर्माण में महत्वपूर्ण है वैसे ही व्यावहारिक कला की भूमिका उन उत्पादों के डिजाइन बनाने, विज्ञापन बनाने और उत्पाद की जानकारी देने एवं उन्हें बेचने में होती है। व्यावहारिक कला का एक उद्देश्य संदेश को प्रेषण करना भी होता है। संदेश को सम्प्रेषण करने के लिये विभिन्न माध्यमों, जैसे समाचार पत्र, पत्रिका, डायरेक्ट मेल, आउटडोर मीडिया, वेबसाइट इत्यादि का प्रयोग किया जाता है। संदेश को सम्प्रेषित करने के लिये जो डिजाइन तैयार किये जाते हैं उन्हें ग्राफिक डिजाइन ( छापा चित्रण ) कहा जाता है। ये ग्राफिक डिजाइन व्यावहारिक कला का ही एक भाग होते हैं।
ग्राफिक माध्यम ( छाया चित्रण विधि) (Graphic) - ग्राफिक माध्यम छाया चित्रण की विधियाँ है। इन सबमें मुद्रण की तकनीक को अपनाया जाता है। अतः कलाकार अपनी आरम्भिक कृति उल्टी बनाता है जो छपकर सीधी दिखाई देती है। ग्राफिक मुद्रण के चार भेद हैं। (1) धरातलीय मुद्रण (2) उभार दार (3) गड्ढेदार (4) स्टेन्सिल पद्धति
1. धरातलीय मुद्रण ( लिथो प्रिंट) - इस विधि में पत्थर की शिला पर प्रयोग किया जाता है। इसे लिथोप्रिंट भी कहा जाता है। शिला के तल को चिकना घोट लिया जाता है, उसके बाद उस पर उल्टा चित्रण किया जाता है। तत्पश्चात शिला को पानी से भिगोकर गीला कर लेते हैं उसके बाद उस पर स्याही का बेलन फिराया जाता है। यह स्याही शिला के चित्रित अंशों पर लग जाती है और शेष भाग पानी से नम होने के कारण उस पर स्याही नहीं पकड़ती है। इस पर कागज रख कर दबाने से चित्र सीधा छप जाता है। प्रत्येक चित्र छापने से पूर्व स्याही लगाते है।
2. उभारदार पद्धति - उभारदार पद्धति का प्रयोग काष्ठ मुद्रण में किया जाता है। कोमल लकड़ी के चौकोर समतल टुकड़ों पर रेखांकन के पश्चात तेज चाकू से गड्ढे डालते हैं। चित्र के उभरे हुए स्थानों पर स्याही लगाकर कागज रखकर छापते हैं। गड्ढे वाले स्थान स्याही न लगने के कारण नहीं छपते। लिनोलियमन द्वारा भी इसी विधि से चित्र छापे जाते है।
3. गड्ढेदार पद्धति - इस पद्धति से लकड़ी तथा धातु की प्लेट पर गड्ढे बनाकर उनमें रंग भरते हैं। उभरे हुये स्थानों पर लगे रंग को सावधानीपूर्वक पोंछकर साफ कर लेते हैं और कागज रखकर दबाते हैं जिससे गड्डों का रंग कागज पर लग जाता है। अत्यन्त बारीक कार्य करने के लिए धातु की प्लेट को भीतर ही भीतर तेज चाकू से काट देते हैं जो महीन रेखाएँ छापने का कार्य करती है। गड्ढेदार काटने की यह विधि एनग्रेविंग (Engraving) अथवा उत्कीर्णन कही जाती है।
धातु की प्लेट को चाकू से काटने के बजाय तेजाब ( अम्ल Acid ) से गलाकर भी गड्ढे बनाये जाते हैं। इस विधि को अम्लांकन ( Etching) कहते हैं। धातु की समतल चिकनी प्लेट पर मोम पिघलाकर लगा देते हैं। इसमें बारीक चाकू या सुई से रेखांकन करते हैं। फिर प्लेट के पीछे लाख लगाकर अम्ल (तेजाब) में चलाते हैं। जिन स्थानों से मोम हटाया गया था वहाँ तेजाब गड्ढे बना देता है। प्लेट तैयार हो जाने पर पानी से धोकर गरम करते हैं जिससे मोम हट जाता है। इस विधि में भी चित्र उल्टा बनाया जाता है।
4. सेरीग्राफी अथवा सिल्क स्क्रीन प्रिंटिंग - इस विधि में उत्तम किस्म का महीन रेशमी कपड़ा फ्रेम में कस लिया जाता है। इस पर चित्र का स्केच बना लेते हैं। अब जिन स्थानों को रिक्त छोड़ना हो उनमें एक प्रकार का सोल्यूशन लगा देते है इसके उपरान्त कड़ी रबड़ के एक चौकोर टुकड़े के सहारे गाढ़ा रंग उस पर लगाकर चलाते हैं। जिन स्थानों पर सोल्यूशन लगा होता है वहाँ नीचे के कागज तक रंग नहीं पहुँचता। शेष स्थानों पर चित्र छप जाता है !
उपरोक्त इन सभी विधियों में एक ब्लाक, ठप्पे, प्लेट अथवा सिल्क के फ्रेम से केवल एक रंग ही छपता है अतः जितने रंगों में कार्य करना हो उतने रंगों को ध्यान में रखकर उतनी ही संख्या में ब्लाक तथा प्लेटें तैयार की जाती हैं।
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