बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्व बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्वसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- भारत में वाश तकनीक पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर -
भारत में वाश तकनीक
जलरंगों के उपयोग की इस नई विधि वाश चित्रण का आगमन भारतवर्ष में बंगाल स्कूल के माध्यम से हुआ। इस तकनीक को भारत लाने वाले दो जापानी कलाकार योकोयामा ताईकान व हिशिदा थे। जिन्होंने 1901-1902 के मध्य छः महीने तक भारत रहकर अवनीन्द्रनाथ के साथ जापानी वाश तकनीक साझा की। दोनों कलाकारों द्वारा प्रयोग की गई इस तकनीक के विषय में अवनीन्द्रनाथ ने स्वयं अपनी आत्मकथा में लिखा है “.. That Taikan initiated me in the technique of line drawing with a Japanese brush..... In reciprocity, I used to tell him all about the technique of Mughal school of painting.... About this time, while watching Taikan at work the idea came to my head to try the wash technique. At a particular stage of the picture, he would go over it with a flat brush dipped in water. I gave the whole picture a bath and discovered the effect to be quite pleasing. That was how the wash technique came to naturalize in India.” इस तकनीक के विषय में बताते हुए अवनीन्द्रनाथ कहते हैं, कि चित्रकला भी एक प्रकार की लेखन प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में ब्रश को पहले पानी में फिर रंग में डुबोया जाता है, उसके पश्चात ही कलाकार अपनी कल्पना से चित्र को बनाने में समर्थ हो पाता है। काल्पनिकता, रंग और ब्रश तीनों के कुशल सहयोग से ही एक सुन्दर चित्र का निर्माण होता है।
तकनीक में अवनीन्द्रनाथ जी ने पूर्व में जापानी पारदर्शी रंगों का प्रयोग किया और बाद में यह स्थान अपारदर्शी रंगों ने ले लिया, जिसके पतले प्रयोग करने पर उसमें कहीं-कहीं गाढ़ापन या धब्बे दिखाई दिये। उन धब्बों को दूर करने के लिए आपने इसके नामानुसार चित्रों को वाश किया। वाश करने के बाद कुछ सुखा कर पुनः रंग चढ़ाया तो धब्बे दूर हो गए। इस प्रकार अवनीन्द्रनाथ टैगोर ने पारदर्शक वाटर कलर और अपारदर्शक पोस्टर रंग दोनों के माध्यम से इस बंगाली वाश तकनीक में कार्य किया। तकनीक के विषय में डॉ. रतन परिमू ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अवनीन्द्रनाथ में चमकदार रंगों का उपयोग नहीं किया और रंगों को सपाट न भरकर क्रमिक रूप में प्रयोग किया था।
अवनीन्द्रनाथ की इस तकनीक में अन्तिम वाश के बाद ऊपर से किरमिची ( बर्न साइना) रंग से चित्र की सीमा रेखा को उभार दिया जाता था। इस तकनीक को सीखकर आचार्य जी ने सभी शिष्यों ने भी चित्र कार्य प्रारंभ किया। एक पद्धति होने के बावजूद कलाकारों की कृतियों में यह तकनीक अलग-अलग रूप में निखर कर आई, क्योंकि वर्णों की यह प्रणाली कलाकार की मनः स्थिति और प्रकृति पर निर्भर होती है और एक कलाकार की प्रणाली दूसरे से इतनी भिन्न होती है कि अवनीन्द्रनाथ के शिष्यों के लिए भी यह संभव नहीं था कि वे समानांतर रूप से भी उनके पदचिन्हों का अनुसरण करें )। उदाहरणस्वरूप अवनीन्द्रनाथ टैगोर, असित हाल्दार व नंदलाल बोस, क्षितिन्द्रनाथ मजूमदार आदि की कृतियाँ हैं जिनमें एकसा व क्रमिक दोनों प्रकार के वाश का प्रयोग कलाकार ने अपनी मानसिकता के आधार पर किया है।
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