बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
महत्वपूर्ण तथ्य
जब जन्म के अतिरिक्त अन्य किसी आधार पर समाज विभिन्न समूहों में विभाजित कर दिया जाता है तो उनमें से प्रत्येक समूह को हम एक सामाजिक वर्ग कहते हैं।
वर्ग की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(i) प्रत्येक वर्ग में वर्ग चेतना पाई जाती है।
(ii) वर्ग की सदस्यता जन्म पर आधारित होती है।
(iii) वर्ग की सदस्यता पूर्णतः अर्जित होती है ।
(iv) वर्ग एक मुक्त अवस्था है, जिसमें कोई भी व्यक्ति एक वर्ग के दूसरे वर्ग में जा सकता है।
(v) एक ही वर्ग के सदस्यों की प्रस्थिति समान होती है।
(vi) एक वर्ग के सदस्यों के सामाजिक सम्बन्ध प्रायः उनके अपने ही वर्ग के लोगों तक सीमित होते हैं।
(vii) प्रत्येक वर्ग में कई उपवर्ग होते हैं।-
(viii) प्रत्येक वर्ग के सदस्यों का जीवन जीने का ढंग लगभग एक समान होता है।
(ix) एक वर्ग के सदस्य दूसरे वर्ग के प्रति उच्चता या हीनता की भावना रखते हैं।
(x) वर्ग व्यवस्था में उच्चता और निम्नता का क्रम पाया जाता है।
वर्ग-निर्धारण के आधार निम्नलिखित हैं-
(i) सम्पत्ति,
(ii) निवास की स्थिति,
(iii) व्यवसाय की प्रकृति,
(iv) धर्म
(v) शिक्षा या नैतिक स्तर,
(vi) निवास स्थान की अवधि
(vii) परिवार और नातेदारी
कार्ल मार्क्स और मैक्स वेबर ने - वर्ग निर्धारण में आर्थिक आधार को महत्वपूर्ण माना है।
मार्क्स के अनुसार - पश्चिम समाज का विकास चार युगों से गुजर कर हुआ है.आदिम साम्यवाद, प्राचीन समाज, साम्यवाद, पूँजीवाद।
डॉ. जी. एस. घुरिये ने - जाति की छः विशेषताओं का वर्णन किया है-
(1) समाज का खण्डात्मक विभाजन
(2) इन खण्डों का सोपानगत क्रम विन्यास
(3) अशुद्धता का विचार,
(4) आनुवंशिक व्यवसास
(5) जाति एवं उपजाति अन्तर्विवाह
(6) विभिन्न जातियों के मध्य दूरी बनाये रखने के लिये भोजन, पोशाक, भाषा, प्रथा आदि पर निषेध।
लेस्की के अनुसार - 7000 ई. पू. तक आखेट एवं संग्राहक समाज का पूरे विश्व में प्रभुत्व था।
अफ्रीका, मध्य-पूर्व एवं मध्य एशिया में आज भी पशुपालन समाज पाये जाते हैं।
उद्यानकर्मी समाजों का प्रभुत्व 3000 ई. पू. तक रहा।
विकसित उद्यानकर्मी समाजों में आर्थिक असमानता, दास प्रथा एवं वंशानुगत आधार पर शक्ति प्रतिष्ठा पाई जाती है।
कृषक समाज 3000 ई. पू. से लेकर 1800 ई. तक प्रभावशाली था । इस समाज में वर्ग और शक्ति एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
मूलतः वर्ग चेतना की अवधारणा का प्रयोग मार्क्सवादी व्यवस्था के विकास की उस अवस्था को दर्शने के लिये किया गया जबकि सर्वहारा वर्ग दूसरे वर्ग अर्थात् बुर्जुआ वर्ग के सन्दर्भ में अपनी स्थिति के सम्बन्ध में अत्यधिक सचेत हो जाता है।
कार्ल मार्क्स ने - वर्ग चेतना को एक ऐसी दशा के रूप में परिभाषित किया है जिसमें एक सामाजिक वर्ग के सदस्य, एक वर्ग के रूप में अपनी दयनीय दशा के सम्बन्ध में जागरूक हो जाते हैं अर्थात् वे अपने आपको बुर्जुआ वर्ग से एक भिन्न वर्ग समझने लगते हैं।
माइकेल मत्र ने - मार्क्स की अवधारणा का विस्तार करते हुए इसमें वर्ग सदस्यता की जागरूकता के साथ पूँजीपतियों और कामगारों के मध्य के विरोधी समाजों को भी सम्मिलित किया है।
कोटोवस्की ने - बुर्जुआ, पूँजीपति प्रकार के भूस्वामी, धनी किसान, भूमिहीन किसान एवं कृषक मजदूर आदि पाँच वर्गों की बात की है।
गाडगिल ने - भूस्वामियों, साहूकारों तथा खेती करने वाले प्रमुख दो वर्गों की बात की है।
थॉर्नर ने - दो वर्गों मालिक तथा साहूकार का उल्लेख किया है।
प्रो. आर. के. मुखर्जी ने - गाँवों के नौ पेशागत समूहों को तीन वर्गों में विभक्त किया है- भूमिपति एवं निरीक्षक किसान आत्मनिर्भर किसान तथा कृषि मजदूर।
डॉ. के. एल. शर्मा ने - राजस्थान के छः गाँवों के आधार पर बताया कि नई भू-नीतियों के कारण पूर्व भूस्वामियों की सामाजिक स्थिति में बदलाव आया है तथा वर्ग संरचना में उनकी प्रस्थिति निम्न हुई है। इस प्रक्रिया को डॉ. शर्मा ने प्रोलेटिरयनाइजेशन का नाम दिया है।
आन्द्रेबेते ने - अपने तंजौर के श्रीपुरम गाँव के अध्ययन के आधार पर जाति एवं वर्ग की स्थिति की बात की है।
भारतीय ग्रामीण समाजों में प्रमुख रूप से तीन वर्ग पाये जाते हैं-
(i) मालिक, बड़े कृषक. सेठ साहूकार वर्ग
(ii) किसान वर्ग
(iii) भूमिहीन, श्रमिक अथवा मजदूर वर्ग
भारत के नगरीय समाजों में भी औद्योगीकरण तथा नवीन प्रशासनिक व्यवस्था ने तीन वर्गों उच्च वर्ग, मध्यम वर्ग तथा निम्न वर्ग को उत्पन्न किया है।
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