बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
महत्वपूर्ण तथ्य
जिस पर पाश्चात्य समाज अर्थ व भौतिक सुख पर अवलम्बित है, उसी प्रकार भारतीय समाज धर्म पर अवलम्बित है।
समाजशास्त्रियों ने धर्म के तीन पक्षों पर बल दिया है ये तीन धर्म हैं. पहला पक्ष 'धर्म की वैचारिकी से सम्बन्धित है। इसके अन्तर्गत हम उन सिद्धान्तों पर नैतिक नियमों को सम्मिलित करते हैं जो हमारे व्यवहारों को एक विशेष रूप देते हैं। दूसरे पक्ष का सम्बन्ध उन विश्वासों से है जो मनुष्य और अलौकिक शक्ति के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं। तीसरे पक्ष का सम्बन्ध उन विभिन्न अनुष्ठानों से होता है जिन्हें पूरा करके व्यक्ति मानसिक रूप से अपने आपको सन्तुष्ट महसूस करता है।
सतयुग में धर्म इन चारों पैरों (सत्य, दया, तप, दान) पर खड़ा था। इसका एक पैर कम होता गया, त्रेता में धर्म तीन पैरों पर, द्वापर में दो पैरों पर और कलियुग में एक पैर पर खड़ा रह गया।
व्यक्ति द्वारा उसके जीवनकाल में सम्पादित किये जाने वाले कार्यों को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कहा गया है, इन्हें ही हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ की संज्ञा दी गयी है।
भारतीय जीवन दर्शन ने जहाँ अर्थ को एक पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार किया है वहीं काम को जीवन का एक लक्ष्य माना है।
हिन्दू धर्म में व्यक्ति पर पाँच प्रकार के ऋण (देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण, अतिथि ऋण, जीव ऋण) माने गये हैं।
मुख्यतः धर्म के तीन स्वरूपं हैं-
(1) सामान्य धर्म
(2) विशिष्ट धर्म,
(3) आपद धर्म ।
सामान्य धर्म किसी एक व्यक्ति, परिवार, जाति, समूह या देश का धर्म न होकर समस्त मानव जाति का धर्म है।
श्रीमद्भागवत में देवर्षि नारद ने प्रहलाद को धर्म का उपदेश देते हुए सामान्य धर्म के 10 लक्षण बताये जो इस प्रकार हैं
1. घृति अर्थात् जीभ या जननेन्द्रियों पर संयम रखना,
2. क्षमा अर्थात् क्षमाशील होना,
3. काम एवं लोभ पर नियन्त्रण,
4. अस्तेय अर्थात् सोये हुए, पागल या अविवेकी व्यक्ति से विविध तरीकों द्वारा कपट करके कोई वस्तु न लेना,
5. शुचिता अर्थात् पवित्रता,
6. इन्द्रिय - निग्रह अर्थात् इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना,
7. घी का तात्पर्य बुद्धि के समुचित विकास से है,
8. विद्या वह है जो व्यक्ति को काम, क्रोध, लोभ, मोहं आदि क्षुद्र प्रवृत्तियों से मुक्त करती है,
9. सत्य,
10. अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना।
समाज में दूसरे व्यक्तियों की तुलना में एक व्यक्ति की जो स्थिति है, जैसी परिस्थिति है उसके अनुसार निर्धारित होने वाले कर्त्तव्यों को विशिष्ट धर्म कहा जाता है। इसे स्वधर्म भी कहा जाता है। विशिष्ट धर्म के स्वरूप निम्न हैं- वर्ण धर्म, आश्रम धर्म, कुल धर्म, राजधर्म, युग धर्म, राष्ट्र धर्म, मित्र धर्म, गुरु धर्म।
आपद धर्म का तात्पर्य है आपत्ति के समय अपनाया जाने वाला धर्म।
इस्लाम धर्म दो सम्प्रदायों शिया और सुन्नी में विभाजित है।
कुरान में कुल 114 अध्याय हैं। इनमें से 90 अध्यायों का संग्रह मक्का में किया गया है जबकि 24 अध्यायों का संग्रह मदीना में किया गया है।
शरीयत को ही मुसलमानों का धार्मिक और सामाजिक कानून कहते हैं।
तारिकात इस्लाम की शिक्षाओं से सम्बन्धित है जो व्यक्ति को अल्लाह के प्रति समर्पण और नैतिक जीवन की ओर ले जाती है। इसी के आधार पर मुसलमानों में एक नये भक्ति सम्प्रदाय का विकास हुआ जिसे 'सूफी पंथ' कहा जाता है।
19वीं शताब्दी में अगस्त कॉम्ट (1852-1856) ई. बी. टायलर (1871), फ्रेजर (1890), स्पेन्सर (1896) ने धर्म के अनेक पहलुओं का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से अध्ययन किया। पारसी धर्मावलम्बी 766 ई. में भारत के दियू तट पर सर्वप्रथम आये।
भारत में सर्वाधिक पारसी समाज के लोग महाराष्ट्र प्रान्त के मुम्बई, गुजरात में बसे हुए हैं।
पारसी धर्म का उद्गम पशुचारी समाज में हुआ। इस धर्म को 'माजदा धर्म (ज्ञानी) के नाम से भी जाना जाता है।
भारत में सबसे बड़ा यहूदी समुदाय बेने इजरायली यहूदियों का है। टोटम शब्द का बोध सर्वप्रथम श्री जे. लांग ने सन् 1791 में किया।
दुर्खीम ने टोटमवाद को ही समस्त धर्मों का प्राथमिक स्तर माना है।
इबादत में पैगम्बर द्वारा पाँच क्रियाएँ बताई गई हैं-
1. शहादा
2. सलाह
3. जकात
4. रोजा
5. हज
ईसाई धर्म में बपतिस्मा, पुष्टिकरण पवित्र संचार, आत्म निवेदन, विवाह सम्बन्ध जैसे अनुष्ठानों को पूरा करना आवश्यक होता है।
सन् 1604 में सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुनदेव द्वारा 'गुरु ग्रन्थ साहिब' की रचना की गई।
सिखों के दसवें और अन्तिम गुरु गोविन्द सिंह ने वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की।
खालसा पंथ में सिखों के लिये पाँच चीजों का उपयोग करना आवश्यक है, ये हैं- केश, कंघा, कृपाण, कच्छ और कड़ा।
कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनीवन नामक स्थान पर 566 ई. पू. के लगभग उनका जन्म हुआ। बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग नैतिक नियमों का ही मार्ग था।
जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर हैं। महावीर इसके 24वें तीर्थंकर हैं। जैन धर्म दिगम्बर शाखा और श्वेताम्बर शाखा में विभक्त हो गया।
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