बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- हर्षवर्धन की सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन कीजिये?
उत्तर-
भारतीय इतिहास में हर्षवर्धन एक महान शासक माना गया है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसके व्यक्तित्व को बेहद आकर्षक बतलाया गया है, वैसे तो इसका बहुत-सा अंश कल्पना और अनुमान पर अवलम्बित है। उसके जीवन के कार्य वास्तव में अलौकिक तथा प्रायः कथात्मक हैं। कुछ लोग हर्षवर्धन को भारत का आखिरी साम्राज्य निर्माता मानते हैं हालाँकि उसके साम्राज्य जैसे या उससे बड़े अनेक साम्राज्य बने और बिगड़े, जैसे प्रतिहारों का, लेकिन फिर भी हर्षवर्धन की योग्यता में सन्देह नहीं किया जा सकता व उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियाँ उसको औरों से श्रेष्ठ बना देती हैं।
उसकी सांस्कृतिक उपलब्धियों का वर्णन हमें ह्वेनसांग के विवरण तथा हर्षचरित से प्राप्त होता है। हर्ष ने हिन्दू सभ्यता को अग्रणी स्थान दिया। हर्ष के पूर्वज भगवान शिव और सूर्य के अनन्य उपासक थे। अतः प्रारम्भ में हर्ष भी अपने कुल देवता शिव का भक्त था परन्तु उस समय बौद्ध धर्म की ख्याति कुछ इस तरह फैली कि हर्षवर्धन भी उस लहर से अछूते न रहे। धीरे-धीरे हर्षवर्धन का झुकाव भी बौद्ध धर्म की ओर बढ़ा। चीनी यात्री ह्वेनसांग से मिलने के पश्चात उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया और वह पूर्ण बौद्ध बन गये राज्यश्री (बहन) को खोजने में भी एक बौद्ध मित्र ने ही उसका सहयोग किया था। हर्षवर्धन ने कई बौद्ध बिहार तथा स्तूपों का निर्माण करवाया। हर्ष बौद्ध भिक्षुओं का बेहद सम्मान करता था और समय-समय पर इन मठों पर दान भी किया करता था।
हर्षवर्धन की सेना बेहद सबल व शक्तिशाली थी। ह्वेनसांग के अनुसार उसकी सेना में 60,000 हाथी और बेहद अच्छी नस्ल के 10,000 हाथी थे। हर्षवर्धन एक योद्धा ही नहीं बल्कि शान्ति के निर्माता के रूप में भी विख्यात था। उसने शान्ति के लिये बहुत ही अधिक प्रयत्न किया। शान्तिकाल के उसके कृत्यों में एक महत्वपूर्ण समारोह कन्नौज का अधिवेशन था, जिसे उसने महायान के सिद्धान्तों के प्रचार के लिये बुलाया था।
हर्षवर्धन ने बलपूर्वक कश्मीर से बुद्ध का दाँत निकलवा कर कन्नौज के संघाराम में सुरक्षित कराया। चीनी स्रोतों के अनुसार उसने पशुवध तथा मांस भक्षण के विरुद्ध कठोर विधान बनाया, साथ ही साथ बौद्ध बिहार एवं स्तूपों का निर्माण भी किया।
गरीबों तथा रोगियों को निःशुल्क भोजन तथा औषधियों के वितरण हेतु पुण्यशालाओं का भी निर्माण किया। प्रत्येक पांच वर्ष बाद प्रयाग में धार्मिक मेला लगाया जाता था। हर्षवर्धन वहाँ जाकर मुक्तहस्त से दान देता था। सूर्य, बुद्ध और शिव की प्रतिमाओं के जुलूस निकलते थे। विद्वानों और दरिद्रों को इतना अधिक दान दिया जाता था कि हर्ष का खजाना खाली होने के बाद ही रुकता था। इससे हर्ष की धार्मिक सहिष्णुता भी सिद्ध हो जाती है। वह सभी धर्मावलम्बियों को दान देता था। बुद्ध के साथ अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की भी पूजा करता था। ह्वेनसांग बताता है कि उस समय प्रयाग में भी बड़ा मेला हुआ करता था।
हर्षवर्धन विद्या के प्रति भी उदार था। ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष राजकीय क्षेत्रों का चतुर्थीय प्रख्यात मेधावियों को पुरस्कार करने में व्यय करता था। 'जीवन-वृतान्त' के अनुसार उसने उदारतापूर्वक प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान जयसेन को उड़ीसा के अस्सी बड़े नगरों की आय दान कर दी। नालंदा महाबिहार को भी उसने प्रभुत दान दिया। बाणभट्ट जैसे महान साहित्यिक को उसने संरक्षता प्रदान की।
हर्षवर्धन केवल विद्या और विद्वानों को ही प्रोत्साहन नहीं देता था, बल्कि स्वयं एक विद्वान था। उसे प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द का रचयिता माना जाता है। प्राचीन ग्रन्थकार (साठल तथा जयदेव) उसे व्यास तथा कालिदास की श्रेणी में रखते हैं। इत्सिंग ने भी शिलादित्य को साहित्य का प्रेमी बतलाया है।
हर्षकालीन समाज में अनुलोम तथा प्रतिलोम दोनों प्रकार के विवाह का प्रचलन था। पुनर्विवाह नहीं होते थे तथा सती प्रथा का प्रचलन था। कुलीन परिवारों में कई पत्नियाँ रखने का प्रचलन था। सामान्यतः लोगों का जीवन सुखी तथा आमोदपूर्ण था। लोग नाच-गाने के शौकीन थे।
इन विवरणों से हर्ष के व्यक्तित्व की और उसके द्वारा किये गये सांस्कृतिक कार्यों को भी कुछ लोग उसे अशोक तथा कनिष्क जैसे महान भारतीय सम्राटों जैसा मानते हैं, लेकिन वह न तो अशोक जैसा आदर्शवादी ही था, न उतनी मानवीय गुणों से पूर्ण ही था और न वह कनिष्क जैसा महान सेनापति था। धर्म के इतिहास में कनिष्क का स्थान बहुत ही ऊँचा है। उसने बौद्ध धर्म के उत्थान में यथेष्ट योगदान दिया; उसकी गिनती भारत के महान शासकों में की गई। हर्षवर्धन द्वारा एक संवत भी चलाया गया। जो 'हर्षसंवत्' के नाम से विख्यात है और जिसका आरम्भ 606-7 ई. माना जाता है।
ह्वेनसांग बताता है कि उस समय नालन्दा महाबिहार अत्यन्त उन्नत अवस्था में था। उस समय वहाँ के कुलपति महान पण्डित शीलभद्र थे। इस विश्वविद्यालय में दस हजार विद्यार्थी और एक हजार शिक्षक थे। यहाँ पर प्रतिदिन सौ व्याख्यान होते थे तथा विद्यार्थियों की भर्ती अत्यन्त कड़ी परीक्षा के बाद होती थी। हर्षवर्धन का नालन्दा पर विशेष ध्यान रहता था।
कुल मिलाकर हर्ष के समय पर पर्याप्त सांस्कृतिक उपलब्धियों को बढ़ावा दिया गया। जिसे न केवल भारत के लोगों ने सराहा, बल्कि विदेशी राज्यों ने भी उसे सराहा।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि हर्ष एक महान विजेता, विस्तारक, कुशल प्रशासक, विद्वान एवं विद्या का संरक्षक था। उसने शिक्षा एवं साहित्य को अत्यधिक प्रोत्साहन दिया। वह एक धर्म सहिष्णु सम्राट भी था। इन्हीं कारणों से वह एक महान सम्राट कहा जाता है, किन्तु इसके बावजूद यह तर्कसंगत नहीं है कि हर्ष प्राचीन भारत का अन्तिम हिन्दू सम्राट था। उसके समय में भारतीय संस्कृति बेहद फली फूली।
हर्ष के बाद कई शासक जैसे कन्नौज नरेश यशोवर्मा, कश्मीर नरेश ललितादित्य, प्रतिहार नरेश मिहिरभोज व महेन्द्रपाल और पालवंशी शासक हुये। धर्मपाल का साम्राज्य न तो हर्ष के साम्राज्य से कम था और न ही वे महानता में हर्ष से कम थे। परन्तु फिर भी हर्ष के समय में भारत की संस्कृति देखते बनती थी।
वह स्वयं एक उच्चकोटि का साहित्यकार था। उसके साथ-साथ हर्ष विद्वानों का आश्रयदाता भी था। हर्ष की रचनाओं पर संस्कृत साहित्य गर्व कर सकता है। इसके अतिरिक्त उसके दरबार में रहने तथा साहित्य का. सृजन करने वाले विद्वान युग-युग तक अमर हो गये। बाणभट्ट की अमर रचना कादम्बरी तथा हर्षचरित विशेष उल्लेखनीय है। स्वयं हर्षरचित रचनाएँ प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द थी।
मीनेण्डर तथा कनिष्क के समान ही हर्ष भी एक महान धर्म प्रचारक था। पतन की ओर अग्रसित होते हुये बौद्ध धर्म की उसने पुनः प्रतिष्ठा की थी। कन्नौज की धार्मिक सभा में अन्य धर्मों पर बौद्ध धर्म की विजय का प्रतिपादन करके उसने बौद्ध धर्म को नया जीवन प्रदान किया। उसने अनेक स्तूपों और विहारों का निर्माण कराया और जीव हिंसा को निषेध करा दिया था।
हर्षवर्धन के विषय में हम यह कह सकते हैं कि सातवीं सदी के आरम्भ में भारतीय रंगमंच पर एक विशाल व्यक्तित्व का प्रवेश हुआ जिसको आज सम्पूर्ण विश्व हर्षवर्धन के नाम से जानता है। ह्वेनसांग जो एक विदेशी यात्री था, लगभग 15 वर्षों तक उसके काल में भारत में रहा, उसने अपने ग्रन्थों में हर्षवर्धन की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
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