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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - चतुर्थ प्रश्नपत्र - अनुसंधान पद्धति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2696
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - चतुर्थ प्रश्नपत्र - अनुसंधान पद्धति

अध्याय - 1

अनुसन्धान : अर्थ, प्रकृति, महत्व एवं क्षेत्र

(Research : Meaning, Nature, Importance and Scope)

 

प्रश्न- अनुसन्धान की अवधारणा एवं चरणों का वर्णन कीजिये।

अथवा

शोध की परिभाषा दीजिये तथा शोध के प्रमख चरणों का उल्लेख कीजिये।

अथवा
शोध प्रक्रिया के विभिन्न चरणों का विवरण दीजिये।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
'अनुसन्धान' शब्द की परिभाषा व अर्थ समझाइए।

उत्तर -

अनुसन्धान की परिभाषा व अर्थ

मानव द्वारा वस्तुओं या घटनाओं के बारे में जानने या खोजने का कार्यक्रम निरन्तर चल रहा है और इस कार्यक्रम या प्रयास का उद्देश्य ज्ञान की वृद्धि, अस्पष्ट ज्ञान का स्पष्टीकरण व मौजूदा ज्ञान का सत्यापन करना है। इसी को शोध या अनुसन्धान कहते हैं। इस प्रकार सामाजिक जीवन व घटनाओं के बारे में अधिक से अधिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए 'अनुसन्धान' का प्रयोग किया जाता है। इसमें अनुसन्धानकर्त्ता वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग से सामाजिक जीवन एवं घटनाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है और मानव व्यवहार के बारे में प्राप्त तथ्यों के आधार पर सामान्य सिद्धान्तों को निकालता है। फिर भी अनुसन्धान के अर्थ को भली-भाँति समझने के लिए विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक है। वास्तव में सर्वप्रथम अनुसन्धान की परिभाषा, लक्षण, उद्देश्यों आदि को भली-भाँति समझना आवश्यक होगा। प्रस्तुत विवेचन में विस्तारपूर्वक इन्हीं पर प्रकाश डाला जा रहा है। विभिन्न विद्वानों द्वारा अनुसन्धान को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है-

(i) श्रीमती यंग के अनुसार, "अनुसन्धान को एक वैज्ञानिक योजना के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसका उद्देश्य तार्किक एवं क्रमबद्ध पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज, पुराने  तथ्यों के सत्यापन, उनकी क्रमबद्धताओं व अन्तर्सम्बन्धों, कार्य-कारण व्याख्याओं तथा उन्हें नियंत्रित करने वाले स्वाभाविक नियमों की खोज करना है।"
(ii) ह्विटने के अनुसार, “अनुसन्धान के अन्तर्गत मानव समूह के सम्बन्धों का अध्ययन होता है।"
(iii) मोसर के अनुसार, “घटनाओं व समस्याओं के बारे में नवीन ज्ञान को प्राप्त करने के लिए किये गये व्यवस्थित अनुसन्धान को हम अनुसन्धान कहते हैं।"

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अनुसन्धान जीवन व घटनाओं के कारणों, अन्तः सम्बन्धों, प्रक्रियाओं आदि का वैज्ञानिक अध्ययन व विश्लेषण है। इस प्रकार अनुसन्धान एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसका उद्देश्य घटनाओं व समस्याओं के बारे में क्रमबद्ध व तार्किक पद्धतियों के द्वारा शुद्ध ज्ञान प्राप्त करना है और इस प्राप्त ज्ञान के आधार पर घटनाओं में पाये जाने वाले स्वाभाविक नियमों का पता लगाना है।

अनुसन्धान की विशेषताएँ अथवा लक्षण

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर अनुसन्धान के निम्नलिखित लक्षणों का पता लगाया जा सकता है-

(1) अनुसन्धान एक वैज्ञानिक योजना है जो तार्किक व क्रमबद्ध पद्धतियों पर आधारित होती है।
(2) अनुसन्धान जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित है। यह भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में मानव की भावनाओं, प्रवृत्तियों, व्यवहार आदि की खोज करता है।
(3) अनुसन्धान के मुख्य रूप से दो उद्देश्य होते हैं-
    (अ) नवीन तथ्यों का पता लगाना और
    (ब) प्राप्त ज्ञान या पुराने तथ्यों का सत्यापन करना।
    प्रत्येक विज्ञान का सत्यापन करना एक महत्वपूर्ण पहलू है इसलिए अनुसन्धान में नवीन तथ्यों, नवीन सम्बन्धों एवं घटनाओं को संचालित करने वाले नियमों की खोज करनी होती है और नियम बन जाने पर बराबर उसकी जाँच या परख की आवश्यकता होती है। जीवन गतिशील है, इसलिए दोनों उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनुसन्धान किया जाता है।
(4) अनुसन्धान इस बात पर बल देता है कि भौतिक घटनाओं की भाँति ही घटनाएँ भी निश्चित नियमों द्वारा संचालित होती हैं।
(5) अनुसन्धान भविष्य में होने वाली सामाजिक घटनाओं की अनुमानित जानकारी प्रदान करता है। इस प्रकार इसका चिकित्सा सम्बन्धी महत्व भी है।
(6) अनुसन्धान विभिन्न तथ्यों के मध्य सम्बन्धों का अन्वेषण करता है। इस प्रकार कार्य-कारण के सम्बन्ध के आधार पर सामाजिक घटना के सही रूप का अनुमान लगाया जाता है।

उदाहरणार्थ-अनुसन्धान के द्वारा निर्धनता और अपराध के परस्पर सम्बन्ध का पता लगाया जा सकता है।

 

अनुसन्धान के चरण
(Steps of Research)

अनुसन्धान एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है। वस्तुतः अनुसन्धान भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत किये जाने वाले शोध से भी अधिक जटिल एवं व्यापक होते हैं। इसलिये अनुसन्धानों की सफलता हेतु यह- अत्यन्त आवश्यक है कि एक शोधकर्त्ता व्यवस्थित रूप से शोध के प्रमुख चरणों को ध्यान में रखते हुए कार्य करे। अनुसन्धान से सम्बन्धित प्रमुख चरण इस प्रकार हैं -

(1) विषय का चुनाव (Selection of the subject) - सर्वप्रथम अध्ययन किये जाने वाले किसी एक विषय का चुनाव कर लिया जाता है। विषय का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि शोध-कार्य के दृष्टिकोण से वह विषय व्यावहारिक है या नहीं। यहाँ व्यावहारिकता से तात्पर्य उपयोगिता से नहीं है वरन् यह है कि जिस विषय का हम चुनाव कर रहे हैं, उसके सम्बन्ध में उपलब्ध वैज्ञानिक विधियों की सहायता से अध्ययन करना सम्भव है या नहीं। इसके साथ ही यह भी देखना पड़ता है कि जिस विषय को अध्ययन हेतु चुना गया है उसका क्षेत्र कहीं इतना अधिक विस्तृत न हो कि उसके सम्बन्ध में अध्ययन करना ही आगे चलकर असम्भव प्रतीत हो। नॉर्थरोप (Northrope) के अनुसार अपने अनुसन्धान के बाद के स्तरों पर शोधकर्त्ता सर्वाधिक कठिन पद्धतियों का प्रयोग कर सकता है, पर यदि शोधकार्य का प्रारम्भ गलत या आडम्बरपूर्ण ढंग से किया गया है तो आगे चलकर कठिन पद्धतियाँ ही परिस्थिति को कदापि सुधार नहीं पायेंगी। शोध कार्य उस जहाज की भांति है जो कि एक अति दूर के गन्तव्य स्थल की ओर जाने के लिये बन्दरगाह से चलता है, पर यदि प्रारम्भ में ही दिशा निर्धारण के सम्बन्ध में थोड़ी सी भूल हो जाए तो उसके भटक जाने की सम्भावना अत्यधिक होती है चाहे वह जहाज कितनी ही कुशलता से क्यों न बनाया गया हो और उसका कप्तान कितना ही योग्य क्यों न हो? ऑगबर्न ने लिखा है कि शोधकार्य हेतु ऐसा विषय कदापि नहीं चुनना चाहिये जिसके सम्बन्ध में प्रामाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हों और जोकि पद्धतिशास्त्र के दृष्टिकोण से अत्यधिक कठिन हो।

(2) सम्बन्धित साहित्य का अध्ययन (Review of Related Literature) - विषय के चयन के बाद यह आवश्यक है कि शोधकर्ता अपने विषय से सम्बद्ध अन्य शोध पुस्तकों का अध्ययन करे तथा अन्य शोधकर्त्ताओ के विचारों, निष्कर्षों एवं पद्धतियों से अपने को परिचित कर ले। ऐसा कर लेने पर श्रीमती यंग के अनुसार (क) अध्ययन विषय के सम्बन्ध में एक अर्न्तदृष्टि तथा सामान्य ज्ञान प्राप्त करने, (ख) शोध-कार्य में उपयोगी सिद्ध होने वाली पद्धतियों के प्रयोग के सम्बन्ध में, (ग) प्राक्कल्पना के निर्माण में और (घ) एक ही शोध-कार्य को फिर से दोहराने की गलती से बचने तथा विषय से सम्बद्ध उन पक्षों पर जिन पर कि दूसरे शोधकर्त्ताओं ने ध्यान नहीं दिया है, ध्यान देने के विषय में हमें सहायता प्राप्त हो सकती है। वस्तुतः शोध चाहे सामाजिक क्षेत्र से सम्बन्धित हो अथवा भौतिक विज्ञानों से, यह कार्य सभी शोधकर्त्ताओं के लिये अत्यन्त आवश्यक होता है। शोध पुस्तकों के अध्ययन से हमें यह ज्ञात हो जाता है कि आवश्यक तथ्यों व सामग्री का संकलन विश्वसनीय रूप में किन स्रोतों से किया जा सकता है।

(3) इकाइयों को परिभाषित करना (Defining of Units) - अनुसन्धान का तृतीय चरण अध्ययन से सम्बद्ध इकाइयों को परिभाषित करना है। जो शोधकर्त्ता प्रारम्भ में ही इकाइयों का स्पष्टीकरण नहीं कर लेते, उन्हें बाद में अपने अध्ययन-कार्य में अत्यधिक कठिनाई उठानी पड़ती है। सभी इकाइयों का अर्थ स्पष्ट हो जाने का तात्पर्य अध्ययन का लक्ष्य व क्षेत्र का भी स्पष्टीकरण है। उदाहरणार्थ बेरोजगारी, तनाव, शिक्षित, निर्धन, भ्रष्ट आदि बाहरी तौर पर बहुत सरल शब्द मालूम होते हैं लेकिन विभिन्न व्यक्त इनका विभिन्न अर्थ लगा सकते हैं। इसीलिये यंग ने लिखा है, “शोध से सम्बन्धित अध्ययन की इकाइयाँ प्रतिनिधित्वपूर्ण होनी चाहियें, प्रयोग में लाये जाने वाले शब्द स्पष्ट और सुपरिभाषित होने चाहियें तथा उनका चयन इस प्रकार होना चाहिए जिससे वे सम्पूर्ण समग्र से अपनी समरूपता को स्पष्ट कर सकें।" यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ये इकाइयाँ अध्ययन के उद्देश्य से सम्बन्धित हों तथा उनका क्षेत्र पूर्णरूपेण स्पष्ट हो।

(4) परिकल्पना का निर्माण (Formation of hypothesis) - वस्तुतः अपने शोध-विषय के सम्बन्ध में प्राथमिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् शोधकर्त्ता अपने विचार से ऐसा सिद्धान्त या निष्कर्ष बना लेता है जिसके सम्बन्ध में वह यह कल्पना करता है कि वह सिद्धान्त सम्भवतः उसके अध्ययन का आधार सिद्ध हो सकता है। लेकिन जब तक उस सिद्धान्त या निष्कर्ष का पुष्टिकरण वास्तविक तथ्यों द्वारा न हो जाये, वह उसे सच नहीं मान लेता। जार्ज कैसवैल (George Caswell) के अनुसार, प्राक्कल्पना अध्ययन-विषय से सम्बद्ध वह काल्पनिक व अस्थायी (अल्पकालिक) निष्कर्ष है जिसके सत्यासत्य को केवल वास्तविक तथ्य ही दर्शा सकते हैं। डुनहम (Dunham) के अनुसार, प्राक्कल्पना शोधकर्त्ता के कार्यों को दिशा प्रदान करती है और उसे यह बताती है कि क्या ग्रहण करना है और क्या त्यागना है। प्राक्कल्पना के बन जाने पर शोध कार्य का क्षेत्र निश्चित हो जाता है और शोधकर्त्ता को अपने अध्ययन-कार्य में आगे बढ़ने में मदद मिलती है। प्राक्कल्पना चाहे सच प्रमाणित हो या झूठ लेकिन दोनों ही अवस्थाओं में यह शोध-कार्य ज्ञान की अभिवृद्धि में सहायक होती है।

(5) सूचना के स्रोतों का निर्धारण (Determination of Sources of Information) - परिकल्पना के निर्माण के पश्चात् शोधकर्त्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह उन स्रोतों की जानकारी प्राप्त करे जिनसे विश्वसनीय सूचनायें एकत्रित की जा सकें। सूचनायें प्राप्त करने के प्रमुख रूप से दो स्रोत होते हैं-प्राथमिक (Primary) तथा द्वैतीयक (Secondary)। प्राथमिक स्रोत वे हैं जिनसे एक शोधकर्त्ता स्वयं ही तथा प्रथम बार सूचनायें एकत्रित करता है। द्वैतीयक स्रोत वे हैं जो पहले से ही दूसरे व्यक्तियों द्वारा संकलित तथ्य प्रदान करते हैं जैसे-अभिलेख, गजेटियर, पुस्तकें, पाण्डुलिपियाँ आदि। शोध कार्यों में यद्यपि दोनों ही प्रकार के स्रोतों का प्रयोग किया जाता है किन्तु इन स्रोतों का पूर्व निर्धारण कर लेने से तथ्यों के संकलन में कम समय लगता है तथा यह कार्य अल्प समय में ही पूरा किया जा सकता है।

(6) उपकरणों एवं प्रविधियों का निर्धारण (Determination of the Tools and Techniques) - सूचना के स्रोतों के निर्धारण के पश्चात् उन उपकरणों तथा प्रविधियों को निश्चय किया जाता है जिनकी सहायता से विश्वसनीय एवं वस्तुनिष्ठ तथ्यों का संकलन किया जा सके। प्रविधियों का चयन सदैव समस्या की प्रकृति को ध्यान में रखकर किया जाता है। यहाँ यह स्मरण रखना आवश्यक है कि इसी स्तर पर विभिन्न उपकरणों एवं प्रविधियों के उपयोग को स्पष्ट करना भी आवश्यक होता है क्योंकि इनके समुचित उपयोग से ही तथ्यों का संकलन करना सम्भव है।

(7) तथ्यों का एकत्रीकरण (Collection of Data) - विभिन्न उपकरणों व प्रविधियों का चुनाव हो जाने के पश्चात् वास्तविक शोध कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जबकि तथ्यों के निरीक्षण व संकलन का कार्य प्रारम्भ किया जाता है। शोधकर्त्ता के लिये यह आवश्यक है कि वह तथ्यों को पक्षपातरहित एकत्रित करे तथा अपनी व्यक्तिगत धारणाओं एवं पूर्वाग्रहों को कोई महत्व न दे। तथ्य यदि दोषपूर्ण होंगे तो निष्कर्ष भी त्रुटिपूर्ण होंगे, इसलिये दोषरहित तथ्यों को संग्रहीत करने हेतु आवश्यक है कि उनको उसी रूप में एकत्रित किया जाये जैसे कि वे वास्तव में हों।

(8) तथ्यों का सांख्यिकीय विश्लेषण (Statistical Analysis of Data) - आधुनिक युग में सांख्यिकी का अत्यधिक महत्व है। सांख्यिकीय विश्लेषण के अभाव में आज शायद ही कोई शोध पूर्ण किया जा सके। शोधकर्त्ता को अपनी शोध के अन्तर्गत अनेक ऐसे तथ्य प्राप्त होते हैं जिनकी केन्द्रीय प्रवृत्ति को ज्ञात करना, विभिन्न तथ्यों के तुलनात्मक महत्व को देखना तथा तथ्यों के बीच सह-सम्बन्ध को स्पष्ट करना आवश्यक होता है। इस कार्य हेतु माध्य, मध्यांक, बहुलांक, मानक विचलन तथा सह-सम्बन्ध आदि अनेक ऐसी विधियाँ हैं जिनकी सहायता से तथ्यों का सांख्यिकीय विश्लेषण किया जा सकता है। सांख्यिकीय विश्लेषण पर आधारित निष्कर्षों को क्योंकि अधिक प्रामाणिक माना जाता है, इसलिये आवश्यक है कि तथ्यों की वास्तविक विवेचना करने से पूर्व उनका सांख्यिकीय विश्लेषण किया जाये।

(9) तथ्यों का विश्लेषण एवं विवेचन (Analysis and Interpretation of Data) - साँख्यिकीय विश्लेषण के पश्चात् विश्लेषण और विवेचन के द्वारा तथ्यों को व्यवस्थित रूप प्रदान किया जाता है। तथ्यों के विश्लेषण और विवेचन का सम्बन्ध तथ्यों का अर्थ निकालने तथा परिकल्पना पर प्रकाश डालने से होता है। इनसे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किसी विशेष दशा के लिये कौन से कारक उत्तरदायी हैं। विभिन्न तथ्यों के बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध भी इसी स्तर पर स्पष्ट होता है।

(10) प्रतिवेदन का प्रस्तुतीकरण (Presentation of Report) - शोध का यह अन्तिम किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है। वस्तुतः प्रतिवेदन के द्वारा ही एक शोधकर्त्ता शोध के निष्कर्षों को जनसामान्य के समक्ष प्रस्तुत करता है। प्रतिवेदन मुख्यतः तीन भागों में विभाजित होता है। प्रथम भाग में पद्धति-शास्त्रीय परिप्रेक्ष्य एवं अवधारणाओं को स्पष्ट किया जाता है। द्वितीय भाग में अध्ययन विषय के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित तथ्यों के कारणात्मक सम्बन्ध की व्याख्या की जाती है तथा तृतीय भाग में प्राप्त तथ्यों के आधार पर सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाते हैं जिसको हम सामन्यीकरण या सैद्धान्तीकरण की संज्ञा देते हैं। प्रतिवेदन की भाषा का अत्यधिक वैज्ञानिक व व्यवस्थित होना आवश्यक होता है तथा यह भी आवश्यक होता है कि प्रतिवेदन से सम्बन्धित निष्कषों की वैज्ञानिकता पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाये। प्रतिवेदन के अन्त में अध्ययन-विषय से सम्बन्धित दूसरे अध्ययनों को स्पष्ट करने हेतु एक सन्दर्भ-सूची (Bibliography) देना भी आवश्यक होता है। इसके अतिरिक्त कुछ महत्वपूर्ण किन्तु लम्बी तालिकाओं एवं प्रश्नावली के प्रारूप आदि को परिशिष्ट (Appendix ) के रूप में दिया जाता है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि शोध एक दीर्घ प्रक्रिया है और इसके प्रत्येक स्तर पर शोधकर्त्ता को अनेक सावधानियों को ध्यान में रखना पड़ता है। वस्तुतः एक शोधकर्त्ता शोध के विभिन्न चरणों के प्रति जितना अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाता है, उसे उतनी ही अधिक सफलता प्राप्त होती है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- अनुसंधान की अवधारणा एवं चरणों का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- अनुसंधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिये तथा तथ्य व सिद्धान्त के सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
  3. प्रश्न- शोध की प्रकृति पर प्रकाश डालिए।
  4. प्रश्न- शोध के अध्ययन-क्षेत्र का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
  5. प्रश्न- 'वैज्ञानिक पद्धति' क्या है? वैज्ञानिक पद्धति की विशेषताओं की व्याख्या कीजिये।
  6. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरणों का वर्णन कीजिए।
  7. प्रश्न- अन्वेषणात्मक शोध अभिकल्प की व्याख्या करें।
  8. प्रश्न- अनुसन्धान कार्य की प्रस्तावित रूपरेखा से आप क्या समझती है? इसके विभिन्न सोपानों का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- शोध से क्या आशय है?
  10. प्रश्न- शोध की विशेषतायें बताइये।
  11. प्रश्न- शोध के प्रमुख चरण बताइये।
  12. प्रश्न- शोध की मुख्य उपयोगितायें बताइये।
  13. प्रश्न- शोध के प्रेरक कारक कौन-से है?
  14. प्रश्न- शोध के लाभ बताइये।
  15. प्रश्न- अनुसंधान के सिद्धान्त का महत्व क्या है?
  16. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के आवश्यक तत्त्व क्या है?
  17. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ लिखो।
  18. प्रश्न- वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण बताओ।
  19. प्रश्न- गृह विज्ञान से सम्बन्धित कोई दो ज्वलंत शोध विषय बताइये।
  20. प्रश्न- शोध को परिभाषित कीजिए तथा वैज्ञानिक शोध की कोई चार विशेषताएँ बताइये।
  21. प्रश्न- गृह विज्ञान विषय से सम्बन्धित दो शोध विषय के कथन बनाइये।
  22. प्रश्न- एक अच्छे शोधकर्ता के अपेक्षित गुण बताइए।
  23. प्रश्न- शोध अभिकल्प का महत्व बताइये।
  24. प्रश्न- अनुसंधान अभिकल्प की विषय-वस्तु लिखिए।
  25. प्रश्न- अनुसंधान प्ररचना के चरण लिखो।
  26. प्रश्न- अनुसंधान प्ररचना के उद्देश्य क्या हैं?
  27. प्रश्न- प्रतिपादनात्मक अथवा अन्वेषणात्मक अनुसंधान प्ररचना से आप क्या समझते हो?
  28. प्रश्न- 'ऐतिहासिक उपागम' से आप क्या समझते हैं? इस उपागम (पद्धति) का प्रयोग कैसे तथा किन-किन चरणों के अन्तर्गत किया जाता है? इसके अन्तर्गत प्रयोग किए जाने वाले प्रमुख स्रोत भी बताइए।
  29. प्रश्न- वर्णात्मक शोध अभिकल्प की व्याख्या करें।
  30. प्रश्न- प्रयोगात्मक शोध अभिकल्प क्या है? इसके विविध प्रकार क्या हैं?
  31. प्रश्न- प्रयोगात्मक शोध का अर्थ, विशेषताएँ, गुण तथा सीमाएँ बताइए।
  32. प्रश्न- पद्धतिपरक अनुसंधान की परिभाषा दीजिए और इसके क्षेत्र को समझाइए।
  33. प्रश्न- क्षेत्र अनुसंधान से आप क्या समझते है। इसकी विशेषताओं को समझाइए।
  34. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ व प्रकार बताइए। इसके गुण व दोषों की विवेचना कीजिए।
  35. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं? इसके प्रमुख प्रकार एवं विशेषताएँ बताइये।
  36. प्रश्न- सामाजिक अनुसन्धान की गुणात्मक पद्धति का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन के गुण लिखो।
  38. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन के दोष बताओ।
  39. प्रश्न- क्रियात्मक अनुसंधान के दोष बताओ।
  40. प्रश्न- क्षेत्र-अध्ययन और सर्वेक्षण अनुसंधान में अंतर बताओ।
  41. प्रश्न- पूर्व सर्वेक्षण क्या है?
  42. प्रश्न- परिमाणात्मक तथा गुणात्मक सर्वेक्षण का अर्थ लिखो।
  43. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण का अर्थ बताकर इसकी कोई चार विशेषताएँ बताइए।
  44. प्रश्न- सर्वेक्षण शोध की उपयोगिता बताइये।
  45. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के विभिन्न दोषों को स्पष्ट कीजिए।
  46. प्रश्न- सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धति कीक्या उपयोगिता है? सामाजिक अनुसंधान में वैज्ञानिक पद्धति की क्या उपयोगिता है?
  47. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के विभिन्न गुण बताइए।
  48. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण तथा सामाजिक अनुसंधान में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की क्या सीमाएँ हैं?
  50. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की सामान्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  51. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की क्या उपयोगिता है?
  52. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण की विषय-सामग्री बताइये।
  53. प्रश्न- सामाजिक अनुसंधान में तथ्यों के संकलन का महत्व समझाइये।
  54. प्रश्न- सामाजिक सर्वेक्षण के प्रमुख चरणों की विवेचना कीजिए।
  55. प्रश्न- अनुसंधान समस्या से क्या तात्पर्य है? अनुसंधान समस्या के विभिन्न स्रोतक्या है?
  56. प्रश्न- शोध समस्या के चयन एवं प्रतिपादन में प्रमुख विचारणीय बातों का वर्णन कीजिये।
  57. प्रश्न- समस्या का परिभाषीकरण कीजिए तथा समस्या के तत्वों का विश्लेषण कीजिए।
  58. प्रश्न- समस्या का सीमांकन तथा मूल्यांकन कीजिए तथा समस्या के प्रकार बताइए।
  59. प्रश्न- समस्या के चुनाव का सिद्धान्त लिखिए। एक समस्या कथन लिखिए।
  60. प्रश्न- शोध समस्या की जाँच आप कैसे करेंगे?
  61. प्रश्न- अनुसंधान समस्या के प्रकार बताओ।
  62. प्रश्न- शोध समस्या किसे कहते हैं? शोध समस्या के कोई चार स्त्रोत बताइये।
  63. प्रश्न- उत्तम शोध समस्या की विशेषताएँ बताइये।
  64. प्रश्न- शोध समस्या और शोध प्रकरण में अंतर बताइए।
  65. प्रश्न- शैक्षिक शोध में प्रदत्तों के वर्गीकरण की उपयोगिता क्या है?
  66. प्रश्न- समस्या का अर्थ तथा समस्या के स्रोत बताइए?
  67. प्रश्न- शोधार्थियों को शोध करते समय किन कठिनाइयों का सामना पड़ता है? उनका निवारण कैसे किया जा सकता है?
  68. प्रश्न- समस्या की विशेषताएँ बताइए तथा समस्या के चुनाव के अधिनियम बताइए।
  69. प्रश्न- परिकल्पना की अवधारणा स्पष्ट कीजिये तथा एक अच्छी परिकल्पना की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  70. प्रश्न- एक उत्तम शोध परिकल्पना की विशेषताएँ बताइये।
  71. प्रश्न- उप-कल्पना के परीक्षण में होने वाली त्रुटियों के बारे में उदाहरण सहित बताइए तथा इस त्रुटि से कैसे बचाव किया जा सकता है?
  72. प्रश्न- परिकल्पना या उपकल्पना से आप क्या समझते हैं? परिकल्पना कितने प्रकार की होती है।
  73. प्रश्न- उपकल्पना के स्रोत, उपयोगिता तथा कठिनाइयाँ बताइए।
  74. प्रश्न- उत्तम परिकल्पना की विशेषताएँ लिखिए।
  75. प्रश्न- परिकल्पना से आप क्या समझते हैं? किसी शोध समस्या को चुनिये तथा उसके लिये पाँच परिकल्पनाएँ लिखिए।
  76. प्रश्न- उपकल्पना की परिभाषाएँ लिखो।
  77. प्रश्न- उपकल्पना के निर्माण की कठिनाइयाँ लिखो।
  78. प्रश्न- शून्य परिकल्पना से आप क्या समझते हैं? उदाहरण सहित समझाइए।
  79. प्रश्न- उपकल्पनाएँ कितनी प्रकार की होती हैं?
  80. प्रश्न- शैक्षिक शोध में न्यादर्श चयन का महत्त्व बताइये।
  81. प्रश्न- शोधकर्त्ता को परिकल्पना का निर्माण क्यों करना चाहिए।
  82. प्रश्न- शोध के उद्देश्य व परिकल्पना में क्या सम्बन्ध है?
  83. प्रश्न- महत्वशीलता स्तर या सार्थकता स्तर (Levels of Significance) को परिभाषित करते हुए इसका अर्थ बताइए?
  84. प्रश्न- शून्य परिकल्पना में विश्वास स्तर की भूमिका को समझाइए।

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