बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- उत्तर प्रदेश की चिकन कढ़ाई का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
अथवा
चिकनकारी कढ़ाई में प्रयोग आने वाले टाँकों का विवरण दीजिए।
उत्तर -
चिकन लखनऊ की कढ़ाई और कशीदाकारी की प्रसिद्ध शैली है। यह लखनऊ की कशीदाकारी का उत्कृष्ट नमूना है और लखनवी - जरदोजी यहाँ का लघु उद्योग है जो कुर्ते और साड़ियों जैसे कपड़ों पर अपनी कलाकारी की छाप चढ़ाते हैं। इस उद्योग का अधिकांश भाग पुराने लखनऊ के चौके इलाके में फैला हुआ है। यहाँ के बाजार चिकन कशीदाकारी की दुकानों से भरे हुए हैं। मुर्रे, जाली, बखिया, टेप्ची, टप्पा आदि 36 प्रकार की चिकन की शैलियाँ होती हैं। इसके माहिर एवं प्रसिद्ध कारीगरों में उस्ताद फयाज खां और हसन मिर्जा साहिब थे।
इस हस्तशिल्प उद्योग का एक विशिष्ट पक्ष यह भी है कि उसमें 95 महिलाएँ हैं। अधिकांश महिलाएँ लखनऊ में गोमती नदी के पार के पुराने इलाकों में बसी हुई है। चिकन की कला अब लखनऊ शहर तक ही सीमित नहीं है अपितु लखनऊ तथा आसपास के अंचलों के गाँव-गाँव तक फैल गई है।
मुगलकाल से शुरू हुआ चिकनकारी का शानदार सफर सैकड़ों देशों से होता हुआ आज भी निरन्तर जारी है। चिकनदारी की कढ़ाई का एक उत्कृष्ट नमूना लंदन के रायल अल्बर्ट म्यूजियम में भी विश्वभर के पर्यटकों को अपनी गाथा सुना रहा है।
महीन कपड़े पर सुई-धागे से विभिन्न टांकों द्वारा की गई हाथ की कारीगरी लखनऊ की चिकन कला कहलाती है। अपनी विशिष्टता के कारण ही यह कला सैंकड़ों वर्षों से अपनी लोकप्रियता बनाए हुए है। यदि कोई ब्रश और रंगों के सहारे चित्रकारी करे तो इसमें नई बात क्या हुई लेकिन यदि ब्रुश की जगह एक महीन सुई हो और रंगों का काम कच्चे सूत के धागों से लिया जा रहा हो और कैनवास की जगह हो महीन कपड़ा, तो ऐसी चित्रकारी को अनूठी ही कहा जाएगा।
चिकन शब्द फारसी भाषा के चाकिन से बिगड़ कर बना है। चाकिन का अर्थ है— कशीदाकारी या बेल-बूटे उभारना। जिस प्रकार मुगलकाल ने भारत की कला, संगीत और संस्कृति को समृद्ध किया और देश को ताजमहल और लालकिले जैसे अनेक इमारतें दीं, उसी प्रकार चिकनदारी भी मुगलिया तहजीब की एक अनमोल विरासत है।
कहा जाता है कि मुगल सम्राट जहाँगीर की पुत्री नूरजहाँ इसे ईरान से सीख कर आई थीं और एक दूसरी धारणा यह है कि नूरजहां की एक बांदी बिस्मिल्लाह जब दिल्ली से लखनऊ आई तो उसने इस हुनर का प्रदर्शन किया। नूरजहाँ ने अपनी बांदी से इसे स्वयं भी सीखा और आगे भी बढ़ाया। नूरजहां ने शाही महलों तथा इमामबाड़ों की दीवारों पर की गई नक्काशी को वस्त्रों पर समेट लेने का पूरा प्रयास किया। नवाबों के जमाने में भी चिकनदारी को खूब बढ़ावा मिला। कई नवाबों ने स्वयं भी चिकन के काम वाले अंगरखे और टोपियां आदि धारण कीं।
चिकनदारी में सुईं धागे के अलावा यदि कुछ और प्रयोग होता है तो वह है आँखों की रोशनी और उच्चस्तरीय कलात्मकता का बोध सुई धागों से जन्में टाँकों और जालियों का एक विस्तृत, जटिल किन्तु मोहक संसार है। तरह-तरह के टाँकों और जालियों के अलग-अलग नाम हैं, उनकी रचना का एक निश्चित विधान है और उनकी निजी विशिष्टताएँ हैं।
लगभग 40 प्रकार के टाँके और जालियाँ होते हैं, जैसे—मुर्री, फनदा, कांटा, तोपची, पंखड़ी, लौंग जंजीरा, राहत तथा बंगला जाली, मुंदराजी जाली, सिद्दौर जाली, बुलबुल चश्म जाली, बखिया आदि। सबसे मुश्किल और कीमती टांका है नुकीली मुरीं। कच्चे सूत के तीन या पांच तारों से बारीक सुईं से टांके लगाए जाते हैं। जिस कपड़े पर चिकनकारी की जाती है पहले उस पर बूटा लिखा जाता है अर्थात् लकड़ी के छापे पर मनचाहे बेलबूटों के नमूने खोद कर इन नमूनों को कच्चे रंगों से कपड़े पर छाप लिया जाता है। इन्हीं नमूनों के आधार पर चिकनदारी करने के बाद इन्हें कुछ खास धोबियों से धुलाया जाता है जो कच्चा रंग हटा देते हैं तथा साथ ही काढ़ी गई कच्चे सूत की कलियों को भी उजला कर देते हैं।
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