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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2683
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता

प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।

उत्तर -

सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाएँ
(Basic Concepts Relating to Social Stratification)

समानता

मुख्य प्रश्न है - क्या समानता असमानता के विपरीत है ? अन्य प्रश्न इस प्रकार है- क्या समानता भ्रामक है ? क्या समानता केवल कानून में ही है? क्या वैयक्तिक अधिकारों और सामाजिक समानता में अन्तर्निहित विरोधाभास है? क्या समानता अधीनस्थ / वंचित समूहों के लिये हिंसक या क्रांतिकारी क्रिया का परिणाम है?

एक मत यह है कि अपने माता-पिता की भिन्न पृष्ठभूमियों और सांस्कृतिक विरासत के उपरांत भी, कम-से-कम जन्म के समय, सब मनुष्य समान पैदा होते हैं। दूसरा मत यह है कि प्रजातांत्रिक समाजों में अवसर और परिणाम कार्य की दशाओं आदि की समानताओं के बारे में उद्घोषणा की जाती है। फिर भी, 'समानता' की अवधारणा के अलग-अलग अर्थों, और परिभाषाओं को समझना आवश्यक है। 'समानता' और 'असमानता' की अवधारणायें आधुनिक समाज विज्ञान और पूँजीवादी व्यवस्था के लिये आधारभूत हैं। राजनीतिक तौर पर, समानता एक सच्ची / सही भावना हो सकती है, परन्तु आर्थिक दृष्टि से समाज के संसाधनों तक विभेदीकृत पहुँच एक कड़वी वास्तविकता है। ऐसी असमानता को एक आवश्यक और अनिवार्य प्रघटना के रूप में विवेकीकृत और न्यायोचित करार दिया जाता है। जीवन के हर क्षेत्र में समानता और असमानता के बीच दरार बहुत स्पष्ट पाई जाती है, फिर भी दोनों निरंकुश नहीं हैं। समानता और असमानता सापेक्षिक प्रघटक हैं और सामाजिक परिवर्तन के संरचनात्मक व सांस्कृतिक दोनों कारकों से एक समयावधि में उनमें दर्शनीय परिवर्तन होता है। समानता के लिये सदैव लालसा रहती है और कभी-कभी इस प्रक्रिया में निरंतर असमानताओं के लुप्त होने या कमजोर पड़ने के साथ-साथ नये प्रकार की असमानतायें भी उभर सकती हैं।

जब प्रस्थिति और जन्म पर आधारित विशेषाधिकारों में गिरावट आती है तब समानता और नागरिकता में प्रगति होती है। लेकिन सही व सच्ची समानता तभी प्राप्त की जा सकती है जब बाजार, निजी सम्पति, पारिवारिक विरासत और वर्ग व्यवस्था जैसी पूँजीवादी संस्थाओं को समाप्त किया जाता है। व्यक्तिवाद के पुनर्जीवन, प्रतियोगिता और उपलब्धि जैसे प्रमुख मूल्यों द्वारा जीवन में गुणवत्ता को प्रोत्साहन मिलना चाहिये, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता। राज्य के समर्थन और कमजोर व निर्धन के लिये कल्याणकारी उपायों के बिना कोई भी समाज अपने नागरिकों में समानता नहीं ला सकता। समतावादी सम्बन्धों की व्यवस्था के रूप में समानता के कारण एक समाज में स्थिरता या प्रस्थिति निरंतरता विचलित होती है। ब्रायन एस० टर्नर के अनुसार, समानता तब ही आश्वस्त की जा सकती है, जब समाज में राजनीतिक स्थिरता और समतावादी विचारधारा व्याप्त रहती है। समानता की प्रकृति, सामाजिक स्थिरता की अवस्थायें, विचारधारा और सामाजिक आन्दोलनों द्वारा समाज में अधिक समानता और समरूपता आ सकती है।

मूल्य व अवधारणा के रूप में समानता

टर्नर ने कहा है कि "मूलत: मैं समानता को वास्तव में एक आधुनिक और प्रगतिशील मूल्य और एक सिद्धान्त समझता हूँ।" आज, असमानता को प्रदत्त समझकर स्वीकार नहीं किया जाता है और न ही मानव जाति को स्वाभाविक परिस्थिति समझा जाता है। असमानता न केवल एक आधुनिक मूल्य है, इसको आधुनिकता के पैमाने के रूप में और आधुनिकीकरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया के पैमाने के रूप में काम में लेते हैं। समानता राष्ट्र राज्य के विकास, राजनीतिक समतावाद और सामाजिक न्याय के साथ जुड़ी हुई है।

समानता ने एक मूल्य और एक सिद्धान्त दोनों के रूप में, 'स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व' के नारे में स्पष्ट रूप धारण किया, जो 1789 की फ्रांसीसी क्रांति में दिया गया था। फ्रांसीसी क्रांति में सामाजिक असमानता को एक अनिवार्य और स्वाभाविक प्रघटना के रूप में तिरस्कृत किया गया था। 1765 की अमेरिकन क्रांति ने भी सर्वव्यापी सामाजिक भागीदारी को बढ़ावा देकर समानता के विचार और अभ्यास को प्रोत्साहित किया। 2009 में बराक ओबामा का अमेरिका के राष्ट्रपति के लिये चुनाव समानता की उपलब्धि में सजातीय/प्रजातीय कारण (बाधा ) को निश्चित रूप से एक झटका है। एक अश्वेत अफ्रीकी मुसलमान की पृष्ठभूमि के होते हुए अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर ओबामा का आसीन होना अमेरिकी समाज के इतिहास में ही एक सुखद उद्भुत घटना नहीं है, बल्कि प्रजातन्त्र और रंगभेद विरोधी इतिहास में भी मील का एक पत्थर है।

समानता के अन्तर्गत, सामाजिक प्रस्थिति और सोपान पर आधारित परम्परात्मक विभेदों को स्वीकार नहीं किया जाता है। समानता के सिद्धान्त में, वैयक्तिक अन्तरों और स्वतंत्रताओं को भी शामिल किया जाता है। वास्तविक समानता जाति आधारित सोपान और सामन्तवाद के साथ अस्तित्व में नहीं रह सकती। प्रदत्त विभेदों या जन्म-आधारित कसौटियों द्वारा वास्तविक जीवन में अवसरों और पहुँचों को निर्धारित नहीं किया जा सकता। समानता का ऐसा सिद्धान्त और प्रतिमान, क्रांतिकारी आन्दोलनों और व्यावहारिक समतावाद द्वारा ही उभर सकता है। सच्ची समानता व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सांस्कृतिक विशेषता के विरुद्ध नहीं हो सकती। टर्नर का मत है कि "समानता का आधुनिक विचार नागरिकता के उद्भव से परित्याग कर नहीं देखा जा सकता।" आर०एच० तावने और टी०एच० मार्शल के साथ सहमति प्रकट करते हुए टर्नर ने समताकारी नागरिकता को तीन प्रमुख आयामों के आधार पर अवधारणित किया है -

(i) कानून में समानता, वैयक्तिक स्वतंत्रता,
(ii) राजनीतिक नागरिकता और
(iii) सामाजिक नागरिकता।

समानता की प्राप्ति के प्रयत्नों में राजनीतिक संघर्ष एक आवश्यक तत्व है।

उदाहरण के लिये, प्रजातांत्रिक राजनीतिक व्यवस्थाओं के उभरने के कारण हैं -

(i) स्वैच्छाचारी (मनमाने ) नियमों पर नियंत्रण,
(ii) मनमाने कानूनों के स्थान पर न्यायपरक और औचित्यपूर्ण नियमों की स्थापना और
(iii) नियम निर्माण में वंचित जनसंख्या को भागीदारी देना।

प्रजातांत्रिक व्यवस्थायें राजनीतिक निरंकुशवाद और क्रूरवाद के नष्ट होने पर उभरी है। कार्ल मार्क्स ने एकाधिकारी वर्ग चेतना की बात कही है।

समानता और सामाजिक न्याय

जोन रॉल्स ने अपनी सुविख्यात पुस्तक- ए थ्यौरी ऑफ जस्टिस (संशोधित) में 'समानता' के प्रश्न को मात्र राजनीतिक अवधारणा के बजाये सामाजिक न्याय की दृष्टि से समझने का प्रयास किया है। रॉल्स ने समानता को समाज की मूलभूत संरचना से जोड़ा है, जिसके द्वारा अधिकारों और कर्तव्यों का आवंटन होता है तथा सामाजिक व आर्थिक लाभों का वितरण भी नियंत्रित होता है।

रॉल्स का मत इस प्रकार है-

(1) प्रत्येक व्यक्ति को समान आधारभूत स्वतंत्रताओं को अति वृहद् योजना के तहत समान अधिकार हों, जो अन्य लोगों के लिये स्वतंत्रताओं की योजना में तुलना योग्य हों।
(2) सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को ऐसे व्यवस्थित करना चाहिये, ताकि वे दोनों -
(क) प्रत्येक व्यक्ति के लिये ठीक ढंग से अपेक्षित हों
(ख) सब लोगों की प्रस्थितियों और पदों से जुड़े हुए हों।

वास्तव में, जोन रॉल्स द्वारा प्रस्तुत ये दो सिद्धान्त हैं। प्रथम सिद्धान्त के सन्दर्भ में रॉल्स सोचते हैं कि " तमाम सामाजिक मूल्य स्वतंत्रता और अवसर, आय और दौलत और आत्म-सम्मान के सामाजिक आधार- सभी समान रूप से वितरित होने चाहिए, जब तक किसी भी तरह का असमान वितरण या इन सभी तरह के मूल्यों का असमान वितरण हर व्यक्ति के लाभ का न हो।" दूसरे सिद्धान्त को रॉल्स ने स्पष्ट रूप में इस प्रकार रेखांकित, किया है -

प्रत्येक व्यक्ति को लाभ

क्र.स.
समान रूप से खुला क्षमता का सिद्धान्त विभेद का सिद्धान्त
1.
समानता कैरियर के रूप में स्वाभाविक स्वतंत्रता की स्वाभाविक
2.
सबके लिये खुली व्यवस्था व्यवस्था कुलीनता
3..
समानता न्याय संगत |उदार समानता प्रजातांत्रिक
4.
अवसर के रूप में समानता   समानता

वास्तविक अर्थ में, समानता को आश्वस्त करने हेतु, सामाजिक व्यवस्था पर आधारभूत संरचनात्मक शर्तें थोपी जा सकती हैं। उदाहरण के लिये, राजनीतिक और कानूनी संस्थाओं के ढाँचे के अन्तर्गत, स्वतंत्र बाजार की व्यवस्थायें अस्तित्व में रह सकती हैं। ऐसे ढाँचे से सम्पत्ति और सम्पदा के अत्यधिक संचय को नियंत्रित किया जाता है और सब लोगों को शिक्षा के अवसर प्रदान किये जा सकते हैं। रॉल्स का मत है कि " सांस्कृतिक ज्ञान और कौशलता प्राप्त करने के अवसर एक व्यक्ति की वर्ग-प्रस्थिति ( पद - स्थान ) पर निर्भर नहीं होने चाहिए और इसी तरह स्कूल व्यवस्था चाहे सार्वजनिक हो या निजी, वर्ग की बाधाओं को मिटाने के लिये, आयोजित की जानी चाहिये।" रॉल्स का सरोकार मुख्यतः 'प्रजातांत्रिक समानता' से है। स्वाभाविक कुलीनता के अस्तित्व का अर्थ यह है कि औपचारिक समानता के अवसर के लिये आवश्यकता से अधिक, जो समाज के निर्धन वर्गों की भलाई के लिये चाहिये, उन सामाजिक उपायों को नियंत्रित नहीं किया गया है।

रॉल्स समानता को न्याय की समतावादी अवधारणा समझते हैं। विभेद का सिद्धान्त एक अनिवार्य प्रघटन होने के कारण समाज के सुयोग्य सदस्यों के अहितों को दूर करता है। स्वाभाविक बुद्धिमत्ताओं और सामाजिक परिस्थिति के उपायों के अन्यायिक वितरण के कारण असमानतायें पाई जाती हैं। रॉल्स यह भी कहते हैं कि "स्वाभाविक वितरण न तो न्यायोचित है और न ही अन्यायोचित है। ये मात्र प्राकृतिक तथ्य है। जिस तरीके से इन तथ्यों को संस्थायें निबटाती हैं, वह न्यायोचित और अन्यायोचित है।" एक जाति समाज में वितरण व्यवस्था का प्रदत्त आधार अन्योचित है, क्योंकि व्यवस्था बन्द हो जाती है। व्यवस्थाओं की निरंकुशता ( मनमानापन ) से कोई भी पहलू अन्यायोचित और असमताकारी बनता है।

रॉल्स के अनुसार, समानता की अवधारणा तीन स्तरों पर लागू होती है। ये हैं -

(i) संस्थाओं को सार्वजनिक व्यवस्थाओं के रूप में नियमों को कार्यान्वित करना;
(ii) संस्थाओं की वास्तविक संरचना के स्तर पर समानता को अपनाना; और
(iii) समान न्याय के लिये नैतिक व्यक्तियों को अधिकार दिलाना।

इस प्रकार समानता आवश्यक रूप में नियमित न्याय है। सब व्यक्तियों को समान मूलभूत अधिकार देने की आवश्यकता है। जो लोग अपनी भलाई और न्याय की भावना की अवधारणा रखने योग्य हैं, जिनमें न्याय के सिद्धान्तों के लिये तीव्र इच्छा और कार्य करने की जिज्ञासा है, उनको उनकी स्वयं की और समाज की भलाई के लिये समानता दी जानी चाहिये। प्रथम बिन्दु द्वितीय से परिभाषित होता है और द्वितीय बिन्दु प्रथम से परिभाषित होता है। समाज में एक संतुलनकारी यंत्र ( उपाय) है, जो अवसर की समता पर आधारित है।

सम्पूर्ण समानता, न्याय और अवसर की समता के विचार मात्र आदर्श हैं। फिर भी मानव इतिहास दर्शाता है कि सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को मिटाने या कमजोर करने के लिये सदैव प्रयास किये गये हैं ताकि एक समाज के लोगों में अधिकतम सम्भव सीमा तक समानता प्राप्त की जा सके। जैसे असमानता निरन्तर रहती है, वैसे ही समाज में समानता रखने की तीव्र इच्छा रहती है। दोनों सापेक्षिक और विडम्बनाकारी प्रघटनायें हैं।

भारतीय संदर्भ में, विशेषतः, शिक्षण संस्थाओं और सरकारी सेवाओं ( नौकरियों) में आरक्षण नीति के बारे में, मार्क गैलान्तर ने औपचारिक बनाम वास्तविक समानता के बारे में लम्बवत् और क्षितिजीय दृष्टिकोणों का उल्लेख किया है। वास्तव में, मार्क गैलान्तर ने समान अवसर और समानता के विभिन्न अर्थों की चर्चा की है। तीन श्रेष्ठतम सिद्धान्त, अर्थात् समानता, न्याय और उचित अवसर, अधिकतर मानव समाजों में एक समान हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण क्या है? सामाजिक स्तरीकरण की विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  2. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की क्या आवश्यकता है? सामाजिक स्तरीकरण के प्रमुख आधारों को स्पष्ट कीजिये।
  3. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण को निर्धारित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं?
  4. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण किसे कहते हैं? सामाजिक स्तरीकरण और सामाजिक विभेदीकरण में अन्तर बताइये।
  5. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण से सम्बन्धित आधारभूत अवधारणाओं का विवेचन कीजिए।
  6. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के सम्बन्ध में पदानुक्रम / सोपान की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- असमानता से क्या आशय है? मनुष्यों में असमानता क्यों पाई जाती है? इसके क्या कारण हैं?
  8. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के स्वरूप का संक्षिप्त विवेचन कीजिये।
  9. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के अकार्य/दोषों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  10. प्रश्न- वैश्विक स्तरीकरण से क्या आशय है?
  11. प्रश्न- सामाजिक विभेदीकरण की विशेषताओं को लिखिये।
  12. प्रश्न- जाति सोपान से क्या आशय है?
  13. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता क्या है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए सामाजिक गतिशीलता के विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के प्रमुख घटकों का वर्णन कीजिए।
  15. प्रश्न- सामाजिक वातावरण में परिवर्तन किन कारणों से आता है?
  16. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की खुली एवं बन्द व्यवस्था में गतिशीलता का वर्णन कीजिए तथा दोनों में अन्तर भी स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- भारतीय समाज में सामाजिक गतिशीलता का विवेचन कीजिए तथा भारतीय समाज में गतिशीलता के निर्धारक भी बताइए।
  18. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता का अर्थ लिखिये।
  19. प्रश्न- सामाजिक गतिशीलता के पक्षों का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  20. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  21. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के मार्क्सवादी दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  22. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण पर मेक्स वेबर के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
  23. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण की विभिन्न अवधारणाओं का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।
  24. प्रश्न- डेविस व मूर के सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्यवादी सिद्धान्त का वर्णन कीजिये।
  25. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार्य पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  26. प्रश्न- डेविस-मूर के संरचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  27. प्रश्न- स्तरीकरण की प्राकार्यात्मक आवश्यकता का विवेचन कीजिये।
  28. प्रश्न- डेविस-मूर के रचनात्मक प्रकार्यात्मक सिद्धान्त पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी लिखिये।
  29. प्रश्न- जाति की परिभाषा दीजिये तथा उसकी प्रमुख विशेषतायें बताइये।
  30. प्रश्न- भारत में जाति-व्यवस्था की उत्पत्ति के विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
  31. प्रश्न- जाति प्रथा के गुणों व दोषों का विवेचन कीजिये।
  32. प्रश्न- जाति-व्यवस्था के स्थायित्व के लिये उत्तरदायी कारकों का विवेचन कीजिये।
  33. प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
  34. प्रश्न- भारतवर्ष में जाति प्रथा में वर्तमान परिवर्तनों का विवेचन कीजिये।
  35. प्रश्न- जाति व्यवस्था में गतिशीलता सम्बन्धी विचारों का विवेचन कीजिये।
  36. प्रश्न- वर्ग किसे कहते हैं? वर्ग की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिये।
  37. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण व्यवस्था के रूप में वर्ग की आवधारणा का वर्णन कीजिये।
  38. प्रश्न- अंग्रेजी उपनिवेशवाद और स्थानीय निवेश के परिणामस्वरूप भारतीय समाज में उत्पन्न होने वाले वर्गों का परिचय दीजिये।
  39. प्रश्न- जाति, वर्ग स्तरीकरण की व्याख्या कीजिये।
  40. प्रश्न- 'शहरीं वर्ग और सामाजिक गतिशीलता पर टिप्पणी लिखिये।
  41. प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
  42. प्रश्न- धर्म क्या है? धर्म की विशेषतायें बताइये।
  43. प्रश्न- धर्म (धार्मिक संस्थाओं) के कार्यों एवं महत्व की विवेचना कीजिये।
  44. प्रश्न- धर्म की आधुनिक प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिये।
  45. प्रश्न- समाज एवं धर्म में होने वाले परिवर्तनों का उल्लेख कीजिये।
  46. प्रश्न- सामाजिक स्तरीकरण में धर्म की भूमिका को स्पष्ट कीजिये।
  47. प्रश्न- जाति और जनजाति में अन्तर स्पष्ट कीजिये।
  48. प्रश्न- जाति और वर्ग में अन्तर बताइये।
  49. प्रश्न- स्तरीकरण की व्यवस्था के रूप में जाति व्यवस्था को रेखांकित कीजिये।
  50. प्रश्न- आंद्रे बेत्तेई ने भारतीय समाज के जाति मॉडल की किन विशेषताओं का वर्णन किया है?
  51. प्रश्न- बंद संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  52. प्रश्न- खुली संस्तरण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
  53. प्रश्न- धर्म की आधुनिक किन्हीं तीन प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिये।
  54. प्रश्न- "धर्म सामाजिक संगठन का आधार है।" इस कथन का संक्षेप में उत्तर दीजिये।
  55. प्रश्न- क्या धर्म सामाजिक एकता में सहायक है? अपना तर्क दीजिये।
  56. प्रश्न- 'धर्म सामाजिक नियन्त्रण का प्रभावशाली साधन है। इस सन्दर्भ में अपना उत्तर दीजिये।
  57. प्रश्न- वर्तमान में धार्मिक जीवन (धर्म) में होने वाले परिवर्तन लिखिये।
  58. प्रश्न- जेण्डर शब्द की अवधारणा को स्पष्ट कीजिये।
  59. प्रश्न- जेण्डर संवेदनशीलता से क्या आशय हैं?
  60. प्रश्न- जेण्डर संवेदशीलता का समाज में क्या भूमिका है?
  61. प्रश्न- जेण्डर समाजीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  62. प्रश्न- समाजीकरण और जेण्डर स्तरीकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  63. प्रश्न- समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण बताइये।
  64. प्रश्न- लैंगिक असमता का अर्थ एवं प्रकारों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  65. प्रश्न- परिवार में लैंगिक भेदभाव पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- परिवार में जेण्डर के समाजीकरण का विस्तृत वर्णन कीजिये।
  67. प्रश्न- लैंगिक समानता के विकास में परिवार की भूमिका का वर्णन कीजिये।
  68. प्रश्न- पितृसत्ता और महिलाओं के दमन की स्थिति का विवेचन कीजिये।
  69. प्रश्न- लैंगिक श्रम विभाजन के हाशियाकरण के विभिन्न पहलुओं की चर्चा कीजिए।
  70. प्रश्न- महिला सशक्तीकरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- पितृसत्तात्मक के आनुभविकता और व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  72. प्रश्न- जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता से क्या आशय है?
  73. प्रश्न- पुरुष प्रधानता की हानिकारकं स्थिति का वर्णन कीजिये।
  74. प्रश्न- आधुनिक भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है?
  75. प्रश्न- महिलाओं की कार्यात्मक महत्ता का वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- सामाजिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता का वर्णन कीजिये।
  77. प्रश्न- आर्थिक क्षेत्र में लैंगिक विषमता की स्थिति स्पष्ट कीजिये।
  78. प्रश्न- अनुसूचित जाति से क्या आशय है? उनमें सामाजिक गतिशीलता तथा सामाजिक न्याय का वर्णन कीजिये।
  79. प्रश्न- जनजाति का अर्थ एवं परिभाषाएँ लिखिए तथा जनजाति की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- भारतीय जनजातियों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  81. प्रश्न- अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्गों की समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  82. प्रश्न- जनजातियों में महिलाओं की प्रस्थिति में परिवर्तन के लिये उत्तरदायी कारणों का वर्णन कीजिये।
  83. प्रश्न- सीमान्तकारी महिलाओं के सशक्तीकरण हेतु किये जाने वाले प्रयासो का वर्णन कीजिये।
  84. प्रश्न- अल्पसंख्यक कौन हैं? अल्पसंख्यकों की समस्याओं का वर्णन कीजिए एवं उनका समाधान बताइये।
  85. प्रश्न- भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की स्थिति एवं समस्याओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों से क्या आशय है?
  87. प्रश्न- सीमान्तिकरण अथवा हाशियाकरण से क्या आशय है?
  88. प्रश्न- सीमान्तकारी समूह की विशेषताएँ लिखिये।
  89. प्रश्न- आदिवासियों के हाशियाकरण पर टिप्पणी लिखिए।
  90. प्रश्न- जनजाति से क्या तात्पर्य है?
  91. प्रश्न- भारत के सन्दर्भ में अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या कीजिये।
  92. प्रश्न- अस्पृश्य जातियों की प्रमुख निर्योग्यताएँ बताइये।
  93. प्रश्न- अस्पृश्यता निवारण व अनुसूचित जातियों के भेद को मिटाने के लिये क्या प्रयास किये गये हैं?
  94. प्रश्न- मुस्लिम अल्पसंख्यक की समस्यायें लिखिये।

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