बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलतासरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता
प्रश्न- खेतिहर वर्ग की सामाजिक गतिशीलता पर प्रकाश डालिये।
उत्तर -
खेतिहर वर्ग और सामाजिक गतिशीलता
अंग्रेज औपनिवेशिक राज से भारत को आजादी दिलाने के संग्राम में विभिन्न सामाजिक वर्गों ने योगदान दिया। किसानों ने अपने वर्ग शत्रु को पहचाना। उन्होंने अपने दो शोषकोंविदेशी शासकों और स्थानीय जमींदार और महाजनों के खिलाफ संघर्ष किया। किसानों और खेतिहर मजदूरों का संघर्ष देहातों के अर्धसामंती और पूँजीवादी शोषण और दमन का खात्मा करने के लिए आजादी के बाद भी चलता रहा।
भूमि सुधार और वर्गीय ढांचे में बदलाव
किसानों के संघर्ष से प्रेरणा लेकर, भारत में आजादी के बाद भूमि सुधार के कई उपाय किये गये। भूमि सुधार लोगों का जीवन स्तर सुधारने की दृष्टि से सामंती कृषि ढांचे को तोड़ने, कृषि उत्पादनों में बढ़ोत्तरी करने और कृषि को गतिशील बनाने के लिए आवश्यक थे।
भूमि सुधार का पहला उपाय था— जमींदारी व्यवस्था का उन्मूलन, जिसका लक्ष्य असली जोतदार न होकर केवल मालगुजारी की वसूली में लगे होने वाले जंमींदारों और अन्यों के बिचौलियों हितों को खत्म करके किसानों को राज्य के साथ सीधे संबंध में लाना था। दूसरे, काश्तकारी की सुरक्षा किसानों के हित में करना और काश्तकारों के लिए मालिकाना अधिकार हासिल करने को सुगम बनाना। तीसरे, खेती योग्य अतिरिक्त भूमि को बड़े भूस्वामियों या जमींदारों से लेकर उन्हें भूमिहीन खेतीहर मजदूरों और सीमान्त (मार्जिनल ) किसानों में बांटने के उद्देश्य से पारिवारिक काश्तकारी पर सीमा बांध दी गयी। लेकिन व्यक्तिगत खेती के लिए भूमि को अपने पास ही रखने के प्रावधान का इस्तेमाल कर देहाती जमींदारों और दूसरे बिचौलियों ने किसानों की जमीन हथिया ली। इसके परिणामस्वरूप काश्तकारों, विशेष तौर पर छोटे काश्तकारों, की बेदखली हो गयी। लेकिन फिर भी, शहरी भूस्वामियों की अनुपस्थिति जमींदारी बहुत हद तक कम हो गयी है और किसानों के एकवर्ग ने भूमि का स्वामित्व ले लिया है।
जमीन का बंटवारा करके और उन्हें पारिवारिक सदस्यों रिश्तेदारों और मित्रों के नाम स्थानान्तरित करके या अतिरिक्त भूमि को बेच कर जमींदार, काश्तकारी पर लगी सीमा संबंधी नियमों से बच निकले हैं। इसका नतीजा हुआ कि जमींदारों और धनी किसानों के हाथों में जमीन के संकेन्द्रित होने पर अधिक असर नहीं पड़ा है।
डेनियल थॉर्नर ने तीन प्रमुख खेतिहर वर्गों की शिनाख्त की है। वह उन्हें क्रमश: मालिक, किसान और मजदूर कहते हैं। मालिक से उसका आशय उस परिवार से है जिनकी खेतिहर आय का स्रोत प्रमुख रूप से (आवश्यक नहीं कि यह एक मात्र स्रोत हो ) जमीन में श्रेष्ठ स्वामित्व अधिकारों में होता है, जो किराये के रूप में होते हैं। इस वर्ग के लोग मजदूरों को किराये पर लेकर उनसे अपनी निगरानी में खेती करवाते हैं और खुद अपने हाथों से खेतों में काम नहीं करते। किसान या काम करने वाले किसान छोटे भूस्वामी या काश्तकार कहलाते हैं जिनकी निश्चित सुरक्षा विभिन्न अंशों में होती है और मालिक की अपेक्षा उनके जमीन के अधिकार निम्न श्रेणी के होते हैं। वे अधिकतर अपने ही श्रम पर निर्भर करते हैं और अपनी जमीनों से ही गुजारा चलाते हैं। मजदूर वे होते हैं जो दिहाड़ी या मेहनताने के रूप में अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, यह मेहनताना रुपयों पैसों की या और किसी सूरत में भी हो सकती है। इस श्रेणी में लावनी करने (फसल काटने वाले) और स्वेच्छा से काश्तकार बने निचली श्रेणी के लोग आते हैं।
योगेन्द्र सिंह के अनुसार, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान या आजादी के बाद की भूमि सुधार की विचारधारा और भूमि सुधारों के लिए किये गये वास्तविक उपायों में काफी अंतर है। धनी मध्यम स्तर के किसानों का एक नया वर्ग बन गया हैं। धनी और निर्धन किसानों के बीच आर्थिक असमानताओं में बढ़ोत्तरी हुई है। खेतिहर वर्गीय संरचना में इन अंतर्विरोधों के परिणामस्वरूप भारत के गांवों में तनाव बढ़े हैं। अंतिम बात, ग्रामीण समुदाय में बदलाव की प्रक्रिया में बुर्जुआकरण (embourgeoisement) और सर्वहाराकरण (proletarianisation) की स्थिति साथ-साथ शामिल है।
सर्वहाराकरण और बुर्जुआकरण की अवधारणा का उपयोग खेतिहर वर्गीय स्तरीकरण में सामाजिक गतिशीलता की प्रक्रिया को बताने के लिए किया गया है। सर्वहाराकरण से आशय उच्च वर्गों से निम्न वर्गों की ओर अधोगामी सामाजिक गतिशीलता से है। इसकी मिसाल छोटे और मार्जिनल किसानों में बार-बार देखी गयी है जो गरीबी के कारण अपनी जमीन बेच देते हैं और भूमिहीन खेतिहर सर्वहारा की कोटि में आ जाते हैं। इसके अलावा, पूर्व जमींदारों के कुछ परिवारों के हाथ से भी उनकी जमीन जाती रही है और वे शारीरिक श्रम करने लग गये। इस तथ्य को के० एल० शर्मा ने राजस्थान के छह गांवों के अपने अध्ययन में रेखांकित किया है।
बुर्जुआकरण से आशय सामाजिक गतिशीलता की उर्ध्वागामी प्रक्रिया से है जिसमें निम्न वर्ग के लोग अपनी वर्ग प्रस्थिति को बेहतर करके उच्च वर्ग में आ जाते हैं। इस प्रक्रिया को सर्वहाराकरण की प्रक्रिया का विलोम या उल्टा माना जा सकता है। इस प्रक्रिया में, निम्नवर्ग के व्यक्ति या परिवार आर्थिक प्रस्थिति, सामाजिक प्रतिष्ठा और शक्ति के स्तर में ऊँचे उठ जाते हैं और उच्च वर्ग में प्रवेश कर जाते हैं।
हरित क्रान्ति का प्रभाव
हरित क्रान्ति की नीति का लक्ष्य प्रौद्योगिक बदलावों के जरिये कृषि उत्पादन को बढ़ावा था, जबकि भूमि सुधार के उपायों का उद्देश्य उन्हीं लक्ष्यों को कृषि क्षेत्र में समानतावादी आधार पर संरचनात्मक बदलाव लाकर प्राप्त करना था। इसलिए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि हरित क्रान्ति के लाभ मुख्य तौर पर जमींदारों और धनी किसानों व बड़े भूस्वामियों के हाथ लगे।
इस शताब्दी के सातवें दशक में, डेनियल थॉर्नर ने शहरी आधार के "सज्जने. किसानों" का देहातों में कुछ हरित क्रान्ति के क्षेत्रों की ओर भागने की स्थिति को रेखांकित किया है। इस तरह के किसानों में व्यापारी, व्यावसायिक लोग, सेवानिवृत्त सैनिक अधिकारी और सरकारी अधिकारी शामिल थे जिन्होंने जमीन खरीद कर कृषि उत्पादनों में पैसा लगाया। वास्तव में, इन 'प्रगतिशील किसानों" की यह पूरी कार्यवाही एक सामंतवादी रियायत से कम और व्यापारिक उद्यम से ज्यादा मेल खाती थी।
खेतिहर संबंधों के अध्ययनों से यह बात सामने आयी है कि हरित क्रान्ति वाले क्षेत्रों में खेती के बहुत लाभदायक होने के कारण बड़े जमींदारों ने काश्तकारों को बेदखल करके और बटाईदारी खत्म करके जमीन को अपने लिये रख लिया। इसके फलस्वरूप कास्तकारों की भूमिहीन सर्वहारा वर्ग की ओर अद्योगामी गतिशीलता की स्थिति बनी।
तमिलनाडु के अध्ययन में कैंथलीन गफ ने देखा कि मुख्य तौर पर खेतिहर मजदूर वाले अर्ध सर्वहारा पूँजीवादी विकास के साथ और भी सर्वहारा हो गये थे। उनका अपने उपकरणों, पट्टे की भूमि, वित्तीय सहायता वाले भू-भागों, सामान्य जमीनों, कारखानों, या रोजी रोटी की दूसरे माध्यमों पर कम कब्जा रह गया था। उनमें से कुछ कम काश्तकार, बंधुआ मजदूर या दस्तकार थे जो गांव के प्रभुत्वशाली वर्ग की सेवा करते थे। कई और खेतिहर मजदूर थे जो कम से कम आंशिक तौर पर नकद दिहाड़ी पर निर्भर करते थे।
उत्सा पटनायक ने विभिन्न खेतिहर वर्गों की शिनाख्त की है ये हैं जमींदार और मजदूर और धनी मध्यम और निर्धन किसान। जमींदार से भिन्न, एक धनी किसान खेती में कुछ शारीरिक श्रम भी कर लेता है। मध्यम किसान मुख्य तौर पर स्वरोजगार वाले होते हैं, जो परिवार के श्रम का सदुपयोग करते हैं। निर्धन किसान अपने आपको किराये पर उठाने पर बहुत अधिक निर्भर करते हैं क्योंकि उनके पास रोजी-रोटी कमाने लायक अत्यधिक भूमि नहीं होती।
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