बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलतासरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र तृतीय प्रश्नपत्र - सामाजिक स्तरीकरण एवं गतिशीलता
प्रश्न- जाति व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ कौन-सी हैं?
उत्तर -
जाति-व्यवस्था को दुर्बल करने वाली परिस्थितियाँ आधुनिक काल में देश में अनेक परिस्थितियाँ ऐसी उत्पन्न हो गई हैं जो जाति प्रथा को निर्बल बना रही हैं। जाति प्रथा को दुर्बल बनाने वाले मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) वर्तमान शिक्षा - जाति प्रथा को निर्बल बनाने में सबसे बड़ा हाथ वर्तमान शिक्षा का है। वर्तमान शिक्षा धर्म निरपेक्ष है। वह स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व आदि जनतन्त्रीय मूल्यों पर बल देती है। वर्तमान शिक्षा पर पश्चिम के वैज्ञानिक और स्वतन्त्र विचारों की छाप है। उसमें मनुष्य की महत्ता पर अधिक बल दिया गया है। अत: जैसे-जैसे हिन्दू-समाज में वर्तमान शिक्षा का प्रचार बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे जात-पाँत के बन्धन भी टूटते जाते हैं। सहशिक्षा ने अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया है। सभी जातियों के बालकों के एक ही विद्यालय में पढ़ने से छुआछूत और ऊँच-नीच का भाव क्रमशः उठ रहा है।
(2) औद्योगीकरण - औद्योगीकरण से जाँत-पाँत का भेदभाव कम हुआ है क्योंकि कल-कारखानों में सभी जातियों के लोग काम करने लगे। ए० डब्ल्यू० ग्रीन के शब्दों में, " यद्यपि ब्राह्मण को शूद्र की छाया मात्र से दूषित होने के कारण शुद्ध होने के लिये लम्बा धार्मिक स्नान करना पड़ता है, लेकिन नगर में भीड़-भाड़ वाली गली और व्यस्त कार्यालयों में शूद्रों की छाया से नहीं बचा जा सकता।" औद्योगीकरण के प्रभाव से कारखानों, होटलों, मण्डियों, रेलों, ट्रामों, बसों, चाय की दुकानों आदि में सभी जातियों के व्यक्तियों के परस्पर सम्पर्क होने के कारण अब छुआछूत सम्बन्धी नियमों का पालन सम्भव नहीं रह गया है।
(3) धन के महत्व में वृद्धि - वर्तमान काल में जाति के स्थान पर धन ही सामाजिक प्रतिष्ठा का आधार होता जा रहा है। आजकल जो व्यक्ति जिस काम में लाभ देखता है, वही करने लगता है। व्यवसायों का आधार जाति नहीं वरन् व्यक्तिगत योग्यता और धनोपार्जन की सुविधा हो गई। जूतों का काम सवर्ण जाति के लोग भी करने लगे हैं। अब निर्धन ब्राह्मण से धनी शूद्र को अधिक आदर मिलता है। इस प्रकार धन की दौड़ में जाति के बन्धन ढीले होते जा रहे हैं।
(4) समाज सुधार आन्दोलन - जाति-व्यवस्था को निर्बल बनाने में सबसे अधिक सक्रिय प्रयत्न समाज सुधार आन्दोलन की ओर से किया गया। आधुनिक शिक्षा के प्रभाव से देश में समाज-सुधार आन्दोलनों की बाढ़ सी आ गई जिसके कारण बम्बई में प्रार्थना समाज, बंगाल में ब्रह्म समाज तथा उत्तरी भारत में आर्य समाज ने जाति प्रथा को समूल नष्ट करने का प्रयत्न किया।
(5) आवागमन के साधन - जाति-प्रथा को निर्बल बनाने के आवागमन के साधनों काँ भी हाथ है। भारत में औद्योगीकरण के साथ-साथ आवागमन के साधनों का भी विकास हुआ। इससे भौगोलिक पृथकता दूर हुई और विभिन्न स्थानों के विचारों तथा रीति-रिवाजों आदि का एक-दूसरे पर प्रभाव पड़ा। बसों, रेलों, ट्रामों, मोटरों, रिक्शों आदि में जाँत-पाँत का विचार रखना कठिन हो गया। रिजले के अनुसार, "उन रेलवे स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर जहाँ गाड़ी कुछ ही देर खड़ी रहती है, खाद्य सामग्री बेचने वाले किसी विक्रेता से उसकी जाति पूछकर चीज नहीं खरीदी जाती।"
(6) राजनीतिक आन्दोलन - समाज-सुधार आन्दोलनों के साथ-साथ राजनीतिक आन्दोलनों ने भी जाति प्रथा को निर्बल बनाने में सक्रिय भाग लिया। जाति प्रथा पर आधारित भेद भाव को समाप्त करना भी राजनैतिक जागृति के राष्ट्रीय आन्दोलनों के कार्यक्रम का एक भाग था। इन आन्दोलनों का लक्ष्य भारत में एक लोकतन्त्रीय स्वराज्य स्थापित करना था। इस कारण उन्होंने जातीय चेतना को निर्बल बनाने के लिये भरसक प्रयत्न किये। यहाँ यह स्मरणः रहे कि कुछ लोगों ने राजनैतिक क्षेत्र में जातिवाद को प्रोत्साहन भी दिया।
(7) नवीन कानून - अंग्रेजों के शासन से पूर्व हिन्दू एवं मुस्लिम राज्यों में विभिन्न जातियों के व्यक्तियों को अपराध के लिये भिन्न-भिन्न दण्ड दिये जाते थे। ब्रिटिश शासन की नई कानून व्यवस्था में समान अपराधों पर सभी जातियों को समान दण्ड दिया जाने लगा। न्यायालयों के स्थापित होने से जाति पंचायतों की शक्ति भी समाप्त हो गई और उनको सब अपराधियों को दण्ड देने का अधिकार भी न रहा। इस प्रकार जाति प्रथा के विरोधियों पर से नियन्त्रण हट गये और जाति के नियम भी धीरे-धीरे टूटने लगे।
(8) नये सामाजिक वर्गों का उदय - भारतीय समाज में नवीन सामाजिक वर्गों का उदय हो रहा है। ये सामाजिक वर्ग जाति का स्थान लेते जा रहे हैं। ये वर्ग खुले हैं और व्यवसाय, प्रतिष्ठा तथा धन और राजनीतिक स्वार्थों पर आधारित हैं। जातियों का संगठन गुरुतोन्मुख (Vertical) था, नये वर्ग दिगन्तसम (Horizontal) हैं। जैसे-जैसे वर्ग चेतना बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे जातीय चेतना कम होती जाती है।
(9) महिलाओं में जागृति - परम्परागत रूप में हिन्दू स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। पहले उन्हें नौकरी, विवाह तथा शिक्षा किसी भी क्षेत्र में स्वतन्त्रता नहीं थी परन्तु ब्रिटिश शासन काल में इस दिशा में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुये। स्त्रियों में शिक्षा का विस्तार तीव्रता से हुआ जिससे आर्थिक परावलम्बता घटी। इसके साथ ही साथ पाश्चात्य मूल्यों तथा सिनेमा के प्रभाव से रोमान्स तथा प्रेम-विवाह का महत्व बढ़ने लगा। इन दोनों ही अवस्थाओं ने जाति-पाँति के बन्धनों को कमजोर बनाया।
(10) भारत की स्वतन्त्रता - जाति प्रथा को सबसे बड़ा धक्का देश की स्वतन्त्रता से लगा। स्वतन्त्र भारत के संविधान की धारा 15. (2) ने सब नागरिकों की समानता की घोषणा की। देशी राज्य समाप्त होने से जाति प्रथा के दुर्ग ढह गये। यातायात के साधनों के विकास, शिक्षा का विस्तार, औद्योगीकरण तथा जनतन्त्रीय शासन पद्धति आदि के प्रभाव ने जाति की प्रतिष्ठा को काफी कम कर दिया है।
(11) सरकारी प्रयत्न - स्वतन्त्र भारत की सरकार द्वारा भी अनेक ऐसे कानून पास किये गये हैं जिससे जाति प्रथा पर निरन्तर प्रहार हो रहे हैं। इन कानूनों में 'हिन्दू विवाह वैधकरण अधिनियम, 1949', 'विशेष विवाह अधिनियम, 1954', तथा 'अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955' विशेष उल्लेखनीय हैं। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप समाज पर जाति प्रथा की जकड़ अत्यन्त ढीली पड़ गई है।
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