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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र - प्राचीन समाजशास्त्रीय परम्परायें

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2681
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र - प्राचीन समाजशास्त्रीय परम्परायें

प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के विकास की प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिये।

उत्तर -

भारत में समाजशास्त्र के विकास की प्रवृत्तियाँ
(Trends of Development of Socialogy in India)

भारत में समाजशास्त्र के विकास की तीन प्रवृत्तियाँ स्पष्टतः दिखायी पड़ती हैं। यहाँ एक ओर समाजशास्त्री हैं जो पश्चिमी समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों एवं पद्धतियों के आधार पर भारत में समाजशास्त्र को विकसित करना चाहते हैं। दूसरी ओर वे समाजशास्त्री हैं जो भारतीय परम्परा, चिन्तन एवं संस्कृति के आधार पर भारत में समाजशास्त्र का विकास चाहते हैं। तीसरी ओर वे समाजशास्त्री हैं जो पश्चिमी और भारतीय चिन्तन के समन्वय के आधार पर भारत में समाजशास्त्र का विकास चाहते हैं। इन तीन प्रकार की विचारधाराओं से सम्बंन्धित प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हैं :

(1) पाश्चात्य समाजशास्त्रीय परम्परा से प्रभावित।
(2) परम्परागत भारतीय चिन्तन से प्रभावित।
(3) पाश्चात्य एवं भारतीय समाजशास्त्रीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन से प्रभावित। अब यहाँ हम इन पर एक-एक करके विचार करेंगे :

(1) पाश्चात्य समाजशास्त्रीय परम्परा से प्रभावित (Influenced by Western Sociological Thinking) - इस विचारधारा से सम्बन्धित लोगों का कहना है कि पंश्चिमी देशों में जिस प्रकार के समाजशास्त्रीय अध्ययन हुए हैं, उसी प्रकार के अध्ययन भारत में भी किये जाने चाहिए। भारत में ऐसे विद्वानों की संख्या काफी है जिन्होंने इस विचारधारा से प्रभावित होकर समाजशास्त्रीय अध्ययन किये हैं। इस प्रकार के अध्ययनों में निम्नलिखित अध्ययन प्रमुख हैं -

यहाँ पाश्चात्य समाजशास्त्रीय चिन्तन से प्रभावित होकर जाति, वर्ग, विवाह, परिवार, नातेदारी और धर्म से सम्बन्धित अनेक अनुभवात्मक अध्ययन (Empirical Studies) किये गये हैं। ऐसे अध् ययनकर्ताओं में डॉ० हट्टन, रिजले, डॉ० घुरिये, मजूमदार एवं कापड़िया के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं।

इन विद्वानों ने उपर्युक्त विषयों पर गहन अध्ययन कर समाजशास्त्र के विकास में अपूर्व योग दिया। डॉ० हट्टन और मजूमदार ने भारतीय जाति-व्यवस्था की सूक्ष्म विवेचना प्रस्तुत की हैं। डॉ० घुरिये ने विभिन्न समाजशास्त्रीय विषयों पर लिखा है जिनमें जाति, वर्ग, व्यवसाय, परिवार एवं धर्म आदि मुख्य हैं। आपने अनेक पुस्तकें भी लिखी हैं। जिनमें (i) Caste, Class and Occupation, (ii) Culture and Society, (iii) Cities and Civilization प्रमुख हैं। आपके प्रयत्नों से सन् 1952 में 'Indian Sociolgical Society' की स्थापना हुई जिसने 'सोशियोलॉजीकल बुलेटिन' (Sociological Bulletin) का प्रकाशन किया। आप ही इस पत्रिका के प्रथम सम्पादक रहे हैं। डॉ० के० एम० कापड़िया ने विवाह, परिवार और नातेदारी पर अपने अध्ययनों के आधार पर बहुत कुछ लिखा है। आपने कई लेखों के अतिरिक्त दो महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी हैं - (i) Marriage and Family in India, तथा (ii) Hindu Kinship | डॉ० मजूमदार ने बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल के जनजातीय क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान कार्य किया है। जाति-व्यवस्था और ग्रामीण भारत के सम्बन्ध में भी आपने काफी कुछ लिखा है। आपकी पुस्तकों में निम्नलिखित पुस्तकंन प्रमुख हैं: -

(i) Races and Cultures of India,
(ii) An Introduction to Social Anthropology,
(iii) A Tribe Transition, तथा
(iv) Caste and Communication in an Indian Village |

इस विचारधारा से सम्बन्धित अन्य विद्वानों में वे लोग आते हैं जिन्होंने धार्मिक विश्वास तथा नैतिक विचारों के तुलनात्मक अध्ययन पर जोर दिया है। उदाहरण के रूप में डॉ० एस० एन० श्रीनिवास ने दक्षिण के कुर्ग प्रदेश में कुर्ग लोगों का इस दृष्टि से अध्ययन किया और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'Religion and Society among the Coorgs of South India' लिखी। आगे समाजशास्त्रियों ने इस प्रकार के अध्ययनों में कोई विशेष रुचि नहीं दिखायी यद्यपि भारत में ऐसे अध्ययनों की काफी महत्ता एवं उपयोगिता है। आपने भारत में जाति के सन्दर्भ में होने वाले परिवर्तनों को समझाने हेतु 'संस्कृतीकरण' (Sanskritization) नामक अवधारणा प्रस्तुत की। आपकी उपर्युक्त पुस्तक के. अलावा अन्य प्रमुख पुस्तकें निम्नलिखित हैं :

(i) Marriage and Family in Mysore,
(ii) Caste in Modern India and other Essays,
(iii) Social Change in Modern India,
(iv) Indian Villages,
(v) The Remembered Village.

यहाँ अनेक विद्वानों ने 'ग्रामीण अध्ययन' (Village Studies) भी किये हैं। ये अध्ययन अमेरिका की समाजशास्त्रीय परम्परा से काफी प्रभावित हैं। भारत में डॉ० एस० सी० दुबे, डॉ० मजूमदार, डॉ० ए० आर० देसाई आदि प्रमुख समाजशास्त्रियों ने ग्रामीण समाज के अध्ययन में विशेष रुचि दिखायी है। डॉ० दुबे की निम्नलिखित पुस्तकें काफी लोकप्रिय हैं :

(i) An Indian Village,
(ii) India's Changing Villages
(iii) The Kamar

प्रथम दो पुस्तकों के शोध कार्यों के आधार पर ग्रामीण समुदायों पर बहुत कुछ लिखा गया और साथ ही वहाँ चल रहे विकास कार्यों की धीमी गति के कारणों का विश्लेषण किया गया हैं। डॉ० मजूमदार ने अपनी पुस्तक 'Rural Profile' में ग्रामीण समाज का सामाजशास्त्रीय दृष्टि से चित्रण किया है। डॉ० ए० आर० देसाई ने भारतीय ग्रामीण समाज पर काफी कुछ सामग्री उपलब्ध करायी है। आपकी पुस्तके रू (i) Rural Sociology in India, (ii) Rural India in Transition काफी लोकप्रिय हैं।

समाजशास्त्र की इस परम्परा से सम्बन्धित एक अन्य प्रवृत्ति सामाजिक और आर्थिक कारकों के एक-दूसरे पर पढ़ने वाले प्रभावों के अध्ययन से सम्बन्धित है। इस प्रवृत्ति को 'सामाजिक अर्थशास्त्र' के नाम से जाना जाता है। इस प्रवृत्ति के विकास में डॉ० राधाकमल मुकर्जी और प्रो० डी० पी० मुकर्जी का विशेष योगदान है। डॉ० राधाकमल मुकर्जी ने 'अर्थशास्त्र का संस्थात्मक सिद्धान्त' (Institutional Theory of Economics) प्रतिपादित किया। इसमें आपने बताया है कि सामाजिक मूल्य और परम्पराएँ आर्थि जीवन को काफी मात्रा में प्रभावित करती हैं। डॉ० डी० पी० मुकर्जी ने अर्थशास्त्र से सम्बन्धित प्राचीन ज्ञान को इतिहास एवं समाजशास्त्र से जोड़ने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया। यद्यपि ये दोनों विद्वान प्रमुखतः अर्थशास्त्री हैं, परन्तु इन्होंने अपने मौलिक चिन्तन और समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के कारण समाजशास्त्र विकास में काफी योग दिया।

भारत में समाजशास्त्रीय चिन्तन पर पश्चिम का काफी प्रभाव होने के कारण यहाँ समाजशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विकास नहीं हो सका। यहाँ समाजशास्त्र में आत्म-निर्भरता (Se. Sufficiency) का अभाव पाया जाता है। डॉ० एस० सी० दुबे की मान्यता है कि भारतीय समाजशास्त्रीय चिन्तन और लेखन में उपनिवेशवाद का स्पष्ट प्रभाव अब भी देखने को मिलता है। यहाँ के बुद्धिजीवी अब भी पाश्चात्य देशों के समाजशास्त्रियों से समाजशास्त्रीय चिन्तन की दृष्टि से प्रेरणा प्राप्त करते हैं। परन्तु वर्तमान में विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि समाजशास्त्र उपनिवेशवाद के प्रभाव से छुटकारा प्राप्त करता और स्वतन्त्र रूप से विकसित होता जा रहा है।

(2) परम्परागत भारतीय चिन्तन से प्रभावित (Influenced by Traditional Indian Thinking) - भारत में समाजशास्त्र के विकास की द्वितीय प्रवृत्ति के समर्थकों के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रीय चिन्तन की धारा का आधार पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्त न होकर भारतीय परम्परागत सिद्धान्त होने चाहिए। भारतीय समाज और संस्कृति में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों का अन्धानुकरण करके ठीक से नहीं समझा जा सकता। ऐसी स्थिति में भारत में समाजशास्त्र का विकास परम्परागत भारतीय समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों के आधार पर ही किया जाना चाहिए। ऐसा करने पर ही हम भारतीय समाज को सही परिप्रेक्ष्य में समझ सकेंगे। इस * प्रवृत्ति के समर्थकों में श्री आनन्द कुमार स्वामी, डॉ० भगवानदास, प्रो० ए० के० सरन, डॉ० नगेन्द्र एवं नर्मदेश्वर प्रसाद आदि हैं। श्री आनन्द कुमार स्वामी एवं डॉ. भगवानदास ने भारतीय संस्कृति का काफी गहनता के साथ अध्ययन किया है। इन विद्वानों की मान्यता है कि पश्चिम से लिये गये सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं के आधार पर हम भारत को ठीक से नहीं समझ पायेंगे। भारतीय समाज और पाश्चात्य समाजों के सामाजिक मूल्यों, जीवन-दर्शन एवं संस्कृति में कुछ ऐसे मौलिक अन्तर है कि पाश्चात्य सिद्धान्त यहाँ लोगों को भारतीय समाज को वास्तविक रूप में समझने में मदद नहीं दे पायेंगे। इन दोनों विद्वानों के अनुसार परम्परागत भारतीय विचारों का अध्ययन तार्किक दृष्टि से किया जाना चाहिए। प्रो० सरन ने भारतीय समाज की संरचना के अध्ययन के लिए सामाजिक मूल्यों को भली-भाँति समझने पर जोर दिया है। प्रो० नर्मदेश्वर प्रसाद ने जाति-व्यवस्था के अध्ययन के आधार पर भारतीय समाज और सम्पूर्ण जीवन-व्यवस्था को समझाने का प्रयत्न किया है। इन सभी विद्वानों की मान्यता है कि भारतीय समाज, सामाजिक संस्थाएँ और संस्कृति इतने व्यापक एवं जटिल हैं कि इनके अध्ययन से सम्पूर्ण भारतीय समाज व्यवस्था को ठीक से समझ सकते हैं।

आज अधिकतर समाजशास्त्री यह मानने को तैयार नहीं हैं कि केवल परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों के आधार पर ही भारत में समाजशास्त्र का विकास किया जाना चाहिए। आजकल लोग बौद्धिक समन्वय में विश्वास करते हैं। पाश्चात्य देशों में समाजशास्त्र के क्षेत्र में जो कुछ कार्य हुआ है, उस पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में विचार किया जाना चाहिए। यहाँ दृष्टिकोण यह नहीं होना चाहिए कि जो कुछ परम्परागत भारतीय चिन्तन या सिद्धान्त हैं, उन्हें हमें छोड़ना ही है तथा जो कुछ पाश्चात्य है, उसे ग्रहण करना ही है। भारत की समाज-व्यवस्था को ठीक से समझने और यहाँ समाजशास्त्र के एक विज्ञान के रूप में विकास में न केवल परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों को बल्कि जहाँ आवश्यक और लाभदायक हों, पाश्चात्य समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों एवं अवधारणाओं का भी सहारा लिया जाना चाहिए।

(3) पाश्चात्य एवं भारतीय समाजशास्त्रीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन से प्रभावित (Influenced by Synthetical Thinking of Western and Indian Sociological Traditions) - इस प्रवृत्ति के समर्थकों में डॉ० राधाकमल मुकर्जी, प्रो० डी० पी० मुकर्जी, डॉ० जी० एस० घुरिये एवं डॉ० आर० एन० सक्सेना के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इन विद्वानों ने समाजशास्त्र के विकास की दृष्टि से परम्परागत एवं आधुनिक विचारों के समन्वय पर जोर दिया है। डॉ० राधाकमल मुकर्जी ने बताया है कि समाजशास्त्रीय विचारों को भली-भाँति समझने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। आपकी मान्यता है कि समाज के सामान्य सिद्धान्त को समझने हेतु समाज की संस्तरणात्मक प्रणाली (Hierarchial System) और साथ ही उस समाज में मौजूद अलौकिक विश्वासों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। पाश्चात्य समाजशास्त्रीय परम्पराओं से प्रभावित होकर आपने भारत में परिस्थितीय समाजशास्त्र (Ecological Sociology) के विकास की काफी कोशिश की। आपकी एक प्रमुख देन 'प्रवासित का सिद्धान्त' है। आपने अपने विचारों का प्रतिपादन प्रमुखतः अपनी निम्नलिखित पुस्तकों में किया है :

(i) Dynamics of Morals;.
(ii) Social Ecology;
(iii) Social Structure of Values।

डॉ० डी० पी० मुकर्जी ने भारत में समाजशास्त्र के विकास में काफी योग दिया है। आपका दृढ़ विश्वास है कि भारतीय समाज का अपना स्वयं का कोई चिन्तन है, स्वयं की कुछ मान्यताएँ हैं जिनका अध्ययन किया जाना चाहिए। आप भारतीय समाज को समझने के लिए भारतीय परम्पराओं के अध् ययन को अत्यन्त आवश्यक मानते हैं। आपने तो यहाँ तक कहा है कि इन परम्पराओं का अध्ययन भारतीय समाजशास्त्रियों के लिए प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिए। आपकी मान्यता है कि भारत में अनुसन्धान कार्य केवल पश्चिम से आयातित सिद्धान्तों, अवधारणाओं एवं अध्ययन-पद्धतियों के आधार पर नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ अनुसन्धान के लिए भारतीय परम्पराओं, प्रथाओं, संस्कारों, जनरीतियों आदि को ठीक से समझा जाना चाहिए। यहाँ भारतीय संस्कृति पर समय-समय पर अन्य संस्कृतियों का और विशेषतः पश्चिमी संस्कृतियों का प्रभाव भी पड़ा और इसके परिणामस्वरूप संस्कृतीकरण एवं सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया भी प्रारम्भ हुई। संस्कृति के इस समन्वय को समझने के लिए ऐतिहासिक पद्धति का सहारा लिया जाना चाहिए। आपका दृढ़ विश्वास रहा है कि भारत में पाश्चात्य और भारतीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन के आधार पर ही समाजशास्त्र का उपयोगी ढंग से विकास हो सकता है। आपने अपने विचार प्रमुखतः निम्नलिखित पुस्तकों में व्यक्त किये हैं :

(i) Basic Concepts in Sociology; 
(ii) Modern Indian Culture;
(iii) Diversities;
(iv) Personality and Social Sciences |

डॉ० जी० एस० घुरिये की मान्यता है कि केवल पश्चिमी सिद्धान्तों के अन्धानुकरण के आधार पर भारतीय समाज और संस्कृति को नहीं समझा जा सकता। इसके लिए पाश्चात्य और भारतीय परम्पराओं के समन्वित चिन्तन की आवश्यकता है। पश्चिम में समाजशास्त्र का जो कुछ विकास हुआ है, जो कुछ सिद्धान्त एवं अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, जो पद्धतियाँ अपनायी गयी हैं, उन्हें भारतीय परिस्थितियों एवं समाज-व्यवस्था की विशेषताओं का ध्यान में रखे बिना उसी रूप में अपनाना किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं होगा। अतः उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन करके भारतीय परम्पराओं को ध्यान में रखकर समन्वित चिन्तन के आधार पर ही भारत में समाजशास्त्र का विकास किया जाना चाहिए। आपकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख पहले किया जा चुका है। डॉ० आर० एन० सक्सेना भी उपर्युक्त प्रवृत्ति के ही समर्थक हैं। आपकी मान्यता है कि परम्परागत भारतीय सिद्धान्तों को समझने के लिए ऐतिहासिक दृष्टिकोण को अपनाया जाना चाहिए। आपने बताया है कि पुरुषार्थ सिद्धान्त-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-व्यक्ति के सभी प्रकार के सामाजिक सम्बन्धों का आधार है और समाजशास्त्र में इसके अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाना चाहिए। आपके अनुसार प्राचीन भारतीय विचारों पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।

भारत में समाजशास्त्र के विकास की अन्य प्रवृत्ति मार्क्सवादी चिन्तन से प्रभावित है। प्रो० डी० पी० मुकर्जी इसी प्रवृत्ति से प्रभावित रहे हैं, यद्यपि आपने सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन के आधार पर समाज व्यवस्था को समझने पर जोर दिया है।

भारत में समाजशास्त्र के विकास में उपर्युक्त विद्वानों के अतिरिक्त डॉ० पी० एन० प्रभु, प्रो० सच्चिदानन्द, डॉ० योगेश अटल, डॉ० योगेन्द्र सिंह, प्रो० एल० पी० विद्यार्थी, प्रो० राजाराम शास्त्री, प्रो० एम० एस० ए० राव, प्रो० वाई० वी० दामले, डॉ० श्रीमती इरावती कार्वे, डॉ० टी० के० एन० यून्निनाथ, डॉ० बृजनाथ चौहान, प्रो० एस० पी० नगेन्द्र आदि विद्वानों का योगदान भी काफी महत्त्वपूर्ण है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद से अब तक भारत में समाजशास्त्रीय चिन्तन की कोई स्पष्ट दिशा नहीं बन पायी है। यहाँ अन्य देशों से आयातित समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों को भारतीय समाज-व्यवस्था की विशिष्ट विशेषताओं को ध्यान में रखे बिना, अपनाये जाने की प्रबल प्रवृत्ति रही है। भारतीय समाज, संस्कृति और सामाजिक चिन्तन पर समाजशास्त्रीय दृष्टि से कम विचार हुआ है। यही कारण है कि यहाँ समाजशास्त्र की किसी निश्चित पुष्ट परम्परा का अभी तक यहाँ विकास नहीं हो पाया है, यद्यपि इसके लक्षण अब दिखायी अवश्य देंने लगे हैं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिये।
  2. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव की विवेचना कीजिये।
  3. प्रश्न- समाजशास्त्र के उद्भव में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का संक्षिप्त वर्णन कीजिये।
  4. प्रश्न- समाजशास्त्र की उत्पत्ति एवं विकास के विभिन्न चरणों की व्याख्या कीजिये।
  5. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के विभिन्न चरणों का वर्णन कीजिये।
  6. प्रश्न- भारत में समाजशास्त्र के विकास की प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिये।
  7. प्रश्न- सामाजिक विचारधारा की प्रकृति व उसकी विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- ज्ञान का समाजशास्त्र क्या है? दुर्खीम के अनुसार इसकी विवेचना कीजिए।
  9. प्रश्न- 'दुर्खीम बौद्धिक पक्ष' की विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- दुर्खीम का समाजशास्त्र में योगदान बताइये।
  11. प्रश्न- समाजशास्त्र के विकास में दुर्खीम का योगदान बताइये।
  12. प्रश्न- विसंगति की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
  13. प्रश्न- कॉम्ट तथा दुर्खीम की देन की तुलना कीजिये।
  14. प्रश्न- दुर्खीम का समाजशास्त्रीय योगदान बताइये।
  15. प्रश्न- 'दुर्खीम ने समाजशास्त्र की अध्ययन पद्धति को समृद्ध बनाया' व्याख्या कीजिये।
  16. प्रश्न- दुर्खीम की कृतियाँ कौन-कौन सी हैं? स्पष्ट करें।
  17. प्रश्न- इमाइल दुर्खीम के जीवन-चित्रण तथा प्रमुख कृतियों पर प्रकाश डालिये।
  18. प्रश्न- दुर्खीम के समाजशास्त्रीय प्रत्यक्षवाद के नियम बताइए।
  19. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या-सिद्धान्त की आलोचनात्मक जाँच कीजिये।
  20. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धान्त के क्या प्रकार हैं?
  21. प्रश्न- आत्महत्या का परिचय, अर्थ, परिभाषा तथा कारण बताइये।
  22. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धान्त की विवेचना करते हुए उसके महत्व पर प्रकाश डालिए।
  23. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या सिद्धान्त के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- 'आत्महत्या सामाजिक कारकों की उपज है न कि वैयक्तिक कारकों की। दुर्खीम के इस कथन की विवेचना कीजिए।
  25. प्रश्न- आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- अहम्वादी आत्महत्या के सम्बन्ध में दुर्खीम के विचारों की विवेचना कीजिए।
  27. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार आत्महत्या से आप क्या समझते हैं? इसके कारणों की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- दुर्खीम के आत्महत्या के सिद्धान्त को परिभाषित कीजिये।
  29. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार 'विसंगत आत्महत्या' क्या है?
  30. प्रश्न- आत्महत्या का समाज के साथ व्यक्ति के एकीकरण की समस्या।
  31. प्रश्न- दुर्खीम के पद्धतिशास्त्र की विवेचना कीजिए।
  32. प्रश्न- दुर्खीम के पद्धतिशास्त्र की विशेषताएँ लिखिए।
  33. प्रश्न- सामाजिक तथ्य की अवधारणा की विस्तृत व्याख्या कीजिये।
  34. प्रश्न- बाह्यता (Exteriority) एवं बाध्यता (Constraint) क्या है? वर्णन कीजिये।
  35. प्रश्न- दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य की व्याख्या किस प्रकार की है?
  36. प्रश्न- समाजशास्त्रीय पद्धति के नियम' पुस्तक में दुर्खीम ने सामाजिक तथ्य को कैसे परिभाषित किया है?
  37. प्रश्न- दुर्खीम के सामाजिक तथ्य की विशेषताओं का मूल्यांकन कीजिए।
  38. प्रश्न- दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों के लिये कौन-कौन से नियमों का उल्लेख किया है?
  39. प्रश्न- दुर्खीम ने सामान्य और व्याधिकीय तथ्यों में किस आधार पर अंतर किया है?
  40. प्रश्न- दुर्खीम द्वारा निर्णीत “अपराध एक सामान्य सामाजिक तथ्य है" को रॉबर्ट बीरस्टीड मानने को तैयार नहीं है। स्पष्ट करें।
  41. प्रश्न- अपराध सामूहिक भावनाओं पर आघात है। स्पष्ट कीजिये।
  42. प्रश्न- दुर्खीम के अनुसार दण्ड क्या है?
  43. प्रश्न- दुर्खीम ने धर्म और जादू में क्या अंतर किये हैं?
  44. प्रश्न- टोटमवाद से दुर्खीम का क्या अर्थ है?
  45. प्रश्न- दुर्खीम ने धर्म के किन-किन प्रकार्यों का उल्लेख किया है?
  46. प्रश्न- दुर्खीम का धर्म का क्या सिद्धांत है?
  47. प्रश्न- दुर्खीम के सामाजिक तथ्यों की अवधारणा पर प्रकाश डालिये।
  48. प्रश्न- दुर्खीम के धर्म के सामाजिक सिद्धान्तों को विश्लेषित कीजिए।
  49. प्रश्न- दुर्खीम ने अपने पूर्ववर्तियों की धर्म की अवधारणों की आलोचना किस प्रकार की है।
  50. प्रश्न- दुर्खीम के धर्म की अवधारणा को विशेषताओं सहित स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- दुर्खीम की धर्म की अवधारणा का आलोचनात्मक मूल्यांकन करें।
  52. प्रश्न- धर्म के समाजशास्त्र के क्षेत्र में दुर्खीम और वेबर के योगदान की तुलना कीजिए।
  53. प्रश्न- पवित्र और अपवित्र, सर्वोच्च देवता के रूप में समाज धार्मिक अनुष्ठान और उनके प्रकार बताइये।
  54. प्रश्न- टोटमवाद क्या है? व्याख्या कीजिये।
  55. प्रश्न- 'कार्ल मार्क्स के अनुसार ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  57. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक युगों के विभाजन को स्पष्ट कीजिए।
  58. प्रश्न- मार्क्स के ऐतिहासिक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  59. प्रश्न- मार्क्स की वैचारिक या वैचारिकी के सिद्धान्त का विश्लेषण कीजिए।
  60. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार अलगाव को कैसे समाप्त किया जा सकता है?
  61. प्रश्न- मार्क्स का 'आर्थिक निश्चयवाद का सिद्धान्त' बताइए। 'सामाजिक परिवर्तन' के लिए इसकी सार्थकता समझाइए।
  62. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  63. प्रश्न- मार्क्स के विचारों में समाज में वर्गों का जन्म कब और क्यों हुआ?
  64. प्रश्न- आदिम साम्यवादी युग में वर्ग और श्रम विभाजन का कौन-सा स्वरूप पाया जाता था?
  65. प्रश्न- दासत्व युग में वर्ग व्यवस्था की व्याख्या कीजिये।
  66. प्रश्न- मार्क्स ने वर्गों की सार्वभौमिक प्रकृति को कैसे स्पष्ट किया है?
  67. प्रश्न- पूर्व में विद्यमान वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने क्या जोड़ा?
  68. प्रश्न- मार्क्स ने 'वर्ग संघर्ष' की अवधारणा को किस अर्थ में प्रयुक्त किया?
  69. प्रश्न- मार्क्स के वर्ग संघर्ष के विवेचन में प्रमुख कमियाँ क्या रही है?
  70. प्रश्न- वर्ग और वर्ग संघर्ष की विवेचना कीजिए।
  71. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के "द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त" का मूल्याकंन कीजिए।
  72. प्रश्न- कार्ल मार्क्स की वर्गविहीन समाज की अवधारणा को संक्षेप में समझाइए।
  73. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के राज्य सम्बन्धी विचारों की विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- पूँजीवादी व्यवस्था तथा राज्य में क्या सम्बन्ध है?
  75. प्रश्न- मार्क्स की राज्य सम्बन्धी नई धारणा राज्य तथा सामाजिक वर्ग के बार में समझाइये।
  76. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य के रूप में विखंडित, ऐतिहासिक, भौतिकवादी अवधारणा बताइये |
  77. प्रश्न- स्तरीकरण के प्रमुख सिद्धांत बताइये।
  78. प्रश्न- कार्ल मार्क्स के 'ऐतिहासिक भौतिकवाद' से आप क्या समझते हैं?
  79. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- मार्क्स के विचारों में समाज में वर्गों का जन्म कब और क्यों हुआ?
  81. प्रश्न- मार्क्स ने वर्गों की सार्वभौमिक प्रकृति को कैसे स्पष्ट किया है?
  82. प्रश्न- पूर्व में विद्यमान वर्ग संघर्ष की धारणा में मार्क्स ने क्या जोड़ा?
  83. प्रश्न- मार्क्स ने 'वर्ग संघर्ष' की अवधारणा को किस अर्थ में प्रयुक्त किया?
  84. प्रश्न- मार्क्स के वर्ग संघर्ष के विवेचन में प्रमुख कमियाँ क्या रही हैं?
  85. प्रश्न- वर्ग और वर्ग संघर्ष की विवेचना कीजिए।
  86. प्रश्न- समाजशास्त्र को मार्क्स का क्या योगदान मिला?
  87. प्रश्न- मार्क्स ने समाजवाद को क्या योगदान दिया?
  88. प्रश्न- साम्यवादी समाज के निर्माण के लिये मार्क्स ने क्या कार्य पद्धति सुझाई?
  89. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के बारे में मार्क्स के विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  90. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  91. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषताएँ बताइये।
  92. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  93. प्रश्न- मार्क्स द्वारा प्रस्तुत वर्ग संघर्ष के कारणों की विवेचना कीजिए।
  94. प्रश्न- सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
  95. प्रश्न- सर्वहारा क्रान्ति की विशेषताएँ बताइये।
  96. प्रश्न- मार्क्स के अनुसार अलगाववाद के लिए उत्तरदायी कारकों पर प्रकाश डालिए।
  97. प्रश्न- मार्क्स का आर्थिक निश्चयवाद का सिद्धान्त बताइए। 'सामाजिक परिवर्तन' के लिए इसकी सार्थकता बताइए।
  98. प्रश्न- द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मुख्य विशेषतायें बताइये।
  99. प्रश्न- मैक्स वेबर के बौद्धिक पक्ष के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालिये।
  100. प्रश्न- वेबर का समाजशास्त्र में क्या योगदान है?
  101. प्रश्न- वेबर के अनुसार सामाजिक क्रिया क्या है? सामाजिक क्रिया के विभिन्न प्रचारों का वर्णन भी कीजिए।
  102. प्रश्न- सामाजिक क्रिया के विभिन्न प्रकार क्या हैं?
  103. प्रश्न- नौकरशाही किसे कहते हैं? वेबर के नौकरशाही सिद्धान्त की समीक्षा कीजिए।
  104. प्रश्न- वेबर का नौकरशाही सिद्धान्त क्या है?
  105. प्रश्न- नौकरशाही की प्रमुख विशेषताएँ बतलाइये।
  106. प्रश्न- सत्ता क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  107. प्रश्न- मैक्स वैबर के अनुसार समाजशास्त्र को परिभाषित किजिये।
  108. प्रश्न- वेबर का पद्धतिशास्त्र तथा मूल्यांकनात्मक निर्णय क्या हैं? स्पष्ट करो।
  109. प्रश्न- आदर्श प्ररूप की धारणा का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- करिश्माई सत्ता के मुख्य लक्षणों पर प्रकाश डालिए।
  111. प्रश्न- 'प्रोटेस्टेण्ट आचार और पूँजीवाद की आत्मा' सम्बन्धी मैक्स वेबर के सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- कार्य प्रणाली का योगदान या कार्य प्रणाली का अर्थ, परिभाषा बताइये।
  113. प्रश्न- मैक्स वेबर के 'आदर्श प्रारूप' की विवेचना कीजिए।
  114. प्रश्न- मैक्स वैबर का संक्षिप्त जीवन-चित्रण तथा प्रमुख कृतियों का वर्णन कीजिये।
  115. प्रश्न- मैक्स वेबर का बौद्धिक दृष्टिकोण क्या है?
  116. प्रश्न- सामाजिक क्रिया को स्पष्ट कीजिये।
  117. प्रश्न- मैक्स वेबर द्वारा दिये गये सामाजिक क्रिया के प्रकारों की विवेचना कीजिए।
  118. प्रश्न- वैबर के अनुसार सामाजिक वर्ग और स्थिति क्या है? बताइये।
  119. प्रश्न- वेबर का सामाजिक संगठन का सिद्धान्त क्या है? बताइये।
  120. प्रश्न- वेबर का धर्म का समाजशास्त्र क्या है? बताइये।
  121. प्रश्न- धर्म के सम्बन्ध में कार्ल मार्क्स तथा मैक्स वेबर के विचारों की तुलना कीजिए।
  122. प्रश्न- वेबर ने शक्ति को किस प्रकार समझाया?
  123. प्रश्न- नौकरशाही के दोष समझाइए?
  124. प्रश्न- वेबर के पद्धतिशास्त्र में आदर्श प्रारूप की अवधारणा का क्या महत्त्व है?
  125. प्रश्न- मैक्स वेबर द्वारा प्रदत्त आदर्श प्रारूप की विशेषताएँ बताइये। .
  126. प्रश्न- वेबर की आदर्श प्रारूप की अवधारणा से आप क्या समझते हैं?
  127. प्रश्न- डिर्क केसलर की आदर्श प्रारूप हेतु क्या विचारधाराएँ हैं?
  128. प्रश्न- मैक्सवेबर के अनुसार दफ्तरी कार्य व्यवस्थाएँ किस तरह की होती हैं?
  129. प्रश्न- मैक्स वेबर के अनुसार, कर्मचारी-तंत्र के कौन-कौन से कारण हैं? स्पष्ट करें।
  130. प्रश्न- 'मैक्स वेबर ने कर्मचारी तंत्र का मात्र औपचारिक रूप से ही अध्ययन किया है।' स्पष्ट करें।
  131. प्रश्न- रोबर्ट मार्टन ने कर्मचारी तंत्र के दुष्कार्य क्या बताये हैं?
  132. प्रश्न- मैक्स वेबर के अनुसार, 'कार्य ही जीवन तथा कुशलता ही धन है' किस तरह से?
  133. प्रश्न- “जो व्यक्ति व्यवसाय में कुशल है, धन और समाज दोनों ही पाते हैं।" मैक्स वेबर की विचारधारा पर स्पष्ट करें।
  134. प्रश्न- मैक्स वेबर की धर्म के समाजशास्त्र की कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं? स्पष्ट करें।
  135. प्रश्न- मैक्स वेबर का पद्धतिशास्त्र क्या है? इसकी विशेषताएँ बताइये।
  136. प्रश्न- वेबर का धर्म का सिद्धान्त क्या है?
  137. प्रश्न- वेबर का पूँजीवाद समाज में नौकरशाही व्यवस्था पर लेख लिखिये।
  138. प्रश्न- प्रोटेस्टेन्टिजम और पूँजीवाद के बीच सम्बन्धों पर वेबर के विचारों की विवेचना कीजिए।
  139. प्रश्न- वेबर द्वारा प्रतिपादित आदर्श प्ररूप की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
  140. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा क्या है?
  141. प्रश्न- परेटो के अनुसार समाजशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
  142. प्रश्न- परेटो की वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणा का वर्णन कीजिये।
  143. प्रश्न- विलफ्रेडो परेटो की प्रमुख कृतियों के साथ संक्षिप्त परिचय दीजिये।
  144. प्रश्न- पैरेटो के “सामाजिक क्रिया सिद्धान्त का परीक्षण कीजिए?
  145. प्रश्न- परेटो के अनुसार तर्कसंगत और अतर्कसंगत क्रियाओं की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  146. प्रश्न- परेटो ने अतर्कसंगत क्रियाओं को कैसे समझाया?
  147. प्रश्न- विशिष्ट चालक की अवधारणा का वर्णन कीजिए एवं महत्व बताइये।
  148. प्रश्न- विशिष्ट चालक का महत्व बताइये।
  149. प्रश्न- पैरेटो के भ्रान्त-तर्क के सिद्धांत की विवेचना कीजिए।
  150. प्रश्न- पैरेटो के 'अवशेष' के सिद्धांत का क्या महत्त्व है?
  151. प्रश्न- भ्रान्त तर्क की अवधारणा क्या है?
  152. प्रश्न- भ्रान्त-तर्क का वर्गीकरण कीजिये।
  153. प्रश्न- संक्षेप में परेटो का समाजशास्त्र में योगदान बताइये।
  154. प्रश्न- पैरेटो की मानवीय क्रियाओं के वर्गीकरण की चर्चा कीजिये।
  155. प्रश्न- तार्किक क्रिया व अतार्किक क्रिया में अन्तर स्पष्ट कीजिये।

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