बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन
अध्याय - 4
मनोविश्लेषणवादी एवं मार्क्सवादी
प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
साहित्य के क्षेत्र में मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त का गहरा प्रभाव रहा है। आधुनिक विचारधारा को मनोवैज्ञानिक धरातल पर स्थापित करने का प्रयास फ्रायड, एडलर और युंग ने किया है। मनोविश्लेषण सिद्धान्त के प्रवर्तक फ्रायड हैं और एडलर तथा युंग उनके सहयोगी हैं। यद्यपि इन तीनों ने अपने-अपने पृथक् सिद्धान्त स्थापित किए हैं, परन्तु फ्रायड के सिद्धान्त ने सर्वाधिक प्रभावित किया। इन तीनों विद्वानों द्वारा स्थापित सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) फ्रायड का मनोविश्लेषण सिद्धान्त 'साइकोएनालिसिस' कहलाता है।
(2) एडलर का व्यक्तिगत मनोविज्ञान का सिद्धान्त 'इनडिविजुअल साइकोलॉजी' कहलाता है।
(3) युंग का विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान का सिद्धान्त एनालिटिकल साइकोलॉजी' कहलाता है।
ये तीनों मनोवैज्ञानिक 'वृहत्रयी' के नाम से विख्यात हैं।
फ्रायड के मनोविश्लेषणवादी सिद्धान्त के चार मुख्य सूत्र हैं-
(1) दृढ़ नियतत्ववाद
(2) अचेतन मन
(3) स्वप्न और
(4) मन की संरचना
नियतत्ववाद का अभिप्राय है कार्यकारण का नियत संबंध अर्थात प्रत्येक मानसिक व्यापार के मूल में कोई न कोई कारण अवश्य होता है और इस कारण को खोजा जा सकता है।
अचेतन मनः इसके तीन स्तर होते हैं -
(1) चेतन,
(2) पूर्ण चेतन
(3) अचेतन।
चेतन मन सामाजिक प्रतिबंधों से जुड़ा रहता है। इसे सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार पर नियन्त्रण रखने वाला कहा जा सकता है। अचेतन मन उन आकांक्षाओं का भण्डार है जो दमित रहने के कारण अत्यन्त व्याकुल रहता हैं। इन आकांक्षाओं में यौन भावनायें या काम अभिलाषायें प्रमुख हैं। दमित भावनायें आगे चलकर मनोग्रन्थियों का रूप धारण कर लेती हैं। कलात्मक सृजन द्वारा इन मनोग्रन्थियों से मुक्ति मिल जाती है। पूर्ण चेतन मन, चेतन मन और अचेतन मन के मध्य में स्थित रहता है। यह सेंसर का कार्य करता है।
स्वप्न को अचेतन मन की ही अभिव्यक्ति माना जा सकता है यह अतृप्त आकांक्षाओं की तृप्ति का साधन है। स्वप्न का अध्ययन अचेतन मन की जानकारी पाने का महत्वपूर्ण मार्ग है।
फ्रायड ने मन का विभाजन एक अन्य रीति से किया इदम् (इड) अहं ( इगो) और अत्यहम् ( सुपर इगो )।
इड का अर्थ है अचेतन मन। जैविक संघटन में जो कुछ है वह इदम् में ही रहता है।
अहं मूल प्रवृत्तियों को नियन्त्रित करता है। अनूकूल प्रवृत्तियों का समर्थन करता है और प्रतिकूल प्रवृत्तियों को दबा देता है। यह सचेत रूप से क्रियाशील रहता है। अत्यहम् मूलतः चेतन मन है, जो सामाजिक नियम मर्यादाओं से परिचालित होता है।
एडलर अधिकार - भावना को जीवन की केन्द्रीय प्रेरणा शक्ति मानता है। मनुष्य को सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में अपने को समायोजित करना पड़ता है। मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह शिशु रूप में अत्यन्त असहाय होता है। उसे पालन-पोषण के लिये दूसरों पर निर्भर रहना होता है। अपनी असहाय स्थिति का बोध होने पर उसके मन में प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के तीन रूप होते हैं -
(1) व्यक्ति एक प्रकार की क्षति या कमी को दूसरे प्रकार के उत्कर्ष विधायक कार्यों से पूरा करता है।
(2) वह कर्म विमुख हो सकता है अथवा अपनी हीनता से समझौता कर लेता है।
(3) वह अति क्षति पूर्ति करने लगता है।
इस समायोजन के अभाव में मनुष्य मनस्तापी और रुग्ण हो जाता है। इस रुग्णता के भी तीन रूप हैं -
(1) संरचनात्मक,
(2) क्रियात्मक
(3) मानसिक।
संरचनात्मक रूग्णता के अन्तर्गत शारीरिक विकृति आती है। जैसे अंधा होना, लूला होना, लंगड़ा होना, बहरा होना। क्रियात्मक रुग्णता के अन्तर्गत दर्द आदि होने के कारण चलने- फिरने, हाथ उठाने में कठिनाई आदि आती है। मानसिक रुग्णता के अन्तर्गत चिन्ता, भय, उद्वेग, क्षोभ, उदासीनता आदि का समावेश है। फ्रायड की अपेक्षा एडलर का सिद्धान्त अधिक व्यापक है। फ्रायड मनस्ताप को मन की विकृति मानता है और एडलर सम्पूर्ण व्यक्तित्व की विकृति मानता है और एडलर के लिए अधिकार भावना। फ्रायड का उदात्तीकरण और एडलर का क्षतिपूर्ति का सिद्धान्त एक सा ही है।
युंग ने यौन प्रेरणा के स्थान पर जिजीविषा पर अधिक बल दिया। मनुष्य के समस्त संघर्ष जिजीविषा के लिए होते हैं। काम भावना जन्म संघर्ष एकांगी होता है जबकि जिजीविषा जन्म संघर्ष सर्वांगीण होता है।
'कला साहित्य और मनोविश्लेषण सिद्धान्त'
फ्रायड एवं एडलर दोनों ने कला को अचेतन मन की दमित भावनाओं, आकांक्षाओं और हीनता की पूर्ति माना है। उनकी दृष्टि में कलाकार अनिवार्य रूप से मनस्तापी या रूग्ण होता है। फ्रायड मानते हैं कि मनस्तापी कलाकार यौन भावना से ग्रस्त होता है उसी की रम्य कल्पना, स्वप्न या कला द्वारा करता है। कला में उसकी दमित भावना का उदात्तीकरण होता है। एडलर की दृष्टि में कलाकार प्रमुख रूप से अधिकार भावना से युक्त होता है। क्षतिपूर्ति द्वारा उसका मनस्ताप शान्त होता है। फ्रायड कलाकार के संबंध में तो वर्णन करता है पर कला के संबंध में, उसकी रचना-प्रक्रिया के संबंध में उसकी संघटना के संबंध में मौन रहता है। पाठक के सामने कलाकार नहीं होता, कलाकृति होती है। कलाकार के सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी न होने पर भी कलाकृति का सम्पूर्ण आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। अतः मनोवैज्ञानिकों ने और मनोविज्ञान समर्थक, आलोचकों ने कला को मानसिक विकृतियों का परिणाम सिद्ध करने का प्रयास किया। इन्होने प्रायः कृति के आधार पर रचयिता का मनोविज्ञान बताया। रचयिता के जीवन की आशा, निराशा, संघर्ष, तनाव आदि ही उसकी रचनाओं में प्रतिफलित होते हैं। रचनात्मक साहित्य में जो पात्र होते हैं उनमें प्रायः लेखक का अपना व्यक्तित्व झलकता है। मनोविश्लेषण के सहारे उन पात्रों की स्थितियों और कार्यों के जटिल संबंधों को प्रकाशित किया जा सकता है अनेक साहित्यिक कृतियों में मनोवैज्ञानिक कारणों से ग्रस्त पात्रों को 'केस' के रूप में प्रस्तुत किया। ऐसी रचनायें तथ्यात्मक हो जाती हैं। सृजनात्मक कल्पना के अभाव में उन्हें सम्पूर्ण कलाकृति नहीं माना जाता है। वास्तविक कलाकार मनोविज्ञान संबंधी सिद्धान्तों का अध्ययन मनन करके कलात्मक सृजन में रत नहीं होता। कलागत जटिलता और संश्लिष्टता का उद्घाटन मनोविज्ञान द्वारा सम्भव नहीं है।
युंग ने कहा कि "आदिम अनुभूति कलाकार की सर्जनशीलता का स्रोत है। क्योंकि उसका आकलन संभव नहीं है, इसलिए उसे रूप देने के लिए पौराणिक बिम्ब-विधान की आवश्यकता होती है। अपने आप में वह कोई शब्द या बिम्ब नहीं प्रस्तुत करती, क्योकि उसका रूप धूमिल होता है। उसकी स्थिति उस वात्याचक्र के समान है जो पहुँच की सीमा में पड़ने वाली प्रत्येक चीज को पकड़ लेती है, उसे ऊपर उठाकर दृश्य आकार धारण कर लेती है। उस दृश्य में जो दिखाई पड़ता है वह सामूहिक अचेतन है।"
युंग के सिद्धान्त पर प्रो0 अहमद ने टिप्पणी की है -
'सामूहिक अचेतन, सामूहिक मन, जातीय स्मृति, सामाजिक मनुष्य, आदिम बिम्ब ये या इनसे मिलती-जुलती दूसरी प्रकल्पनायें बहुत ही अपर्याप्त साक्ष्य पर खड़ी हैं। इनमें हमें नये तथ्य नहीं प्रस्तुत होते। केवल शब्दावली नयी है और ये प्राचीन प्रेरणा सिद्धान्त को वैज्ञानिक रूप देकर दुहरा भर देते हैं।"
मनोवैज्ञानिक शब्दावली एक सीमा तक रचना प्रक्रिया को समझने में सहायता करती है। कवि के ह्रदय की उस स्थिति को पकड़ा जा सकता है जिसमें वह रचना करता है। साहित्यिक कृतियों में जहाँ-जहाँ कवि या साहित्यकार का आत्मतत्व अभिव्यक्त होता है वहाँ-वहाँ मनोविश्लेषण का सिद्धान्त सत्य तथ्य का निरूपण कर सकता है, परन्तु यह मानना होगा कि रचनायें आत्मतत्व से भिन्न कुछ और भी होती हैं। जो कुछ आत्म स्वरूप में समाहित होता है, वहीं अभिव्यक्त नहीं होता। सहजानुभूति-आत्मव्यंजना कवि के मानस से ही मूर्त होकर अपना कार्य समाप्त कर लेती है। शब्दबद्ध होने पर वह नैतिकता आदि से अनिवार्यतः सम्बद्ध हो जाती है। मानसिक अभिव्यंजना और शब्दबद्ध अभिव्यंजना में अन्तर होता है।
इस प्रकार मनोविश्लेषण का सिद्धान्त व्यापक स्तर पर आलोचना का प्रतिमान नहीं बन पाया। उसका ग्रहण आंशिक रूप में ही हो सका है।
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- प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
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- प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
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- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
- प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।